सारे दिन खटपट करतीं
लस्त- पस्त हो
जब झुंझला जातीं
तब
तुम कहतीं-
एक दिन
एेसे ही मर जाऊंगी
कभी कहतीं-
देखना मर कर भी चैन कहां?
एक बार तो उठ ही जाऊंगी
कि चलो
समेटते चलें
हम इस कान सुनते
तुम्हारा झींकना
और उस कान निकाल देते
क्यों कि
हम अच्छी तरह जानते थे
कि... मां भी कभी मरती है?
कितने सच थे हम
आज...
जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती हूं
तो कहीं
मन के कोने में छिपी
आंचल में मुंह दबा
तुम धीमे-धीमे
हंसती हो मां!
लस्त- पस्त हो
जब झुंझला जातीं
तब
तुम कहतीं-
एक दिन
एेसे ही मर जाऊंगी
कभी कहतीं-
देखना मर कर भी चैन कहां?
एक बार तो उठ ही जाऊंगी
कि चलो
समेटते चलें
हम इस कान सुनते
तुम्हारा झींकना
और उस कान निकाल देते
क्यों कि
हम अच्छी तरह जानते थे
कि... मां भी कभी मरती है?
कितने सच थे हम
आज...
जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती हूं
तो कहीं
मन के कोने में छिपी
आंचल में मुंह दबा
तुम धीमे-धीमे
हंसती हो मां!
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