ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 13 मई 2018

मॉं

सारे दिन खटपट करतीं 
लस्‍त- पस्‍त हो 
जब झुंझला जातीं 
तब 
तुम कहतीं- 
एक दिन
एेसे ही मर जाऊंगी 
कभी कहतीं- 
देखना मर कर भी चैन कहां? 
एक बार तो उठ ही जाऊंगी 
कि चलो
समेटते चलें 
हम इस कान सुनते
तुम्‍हारा झींकना 
और उस कान निकाल देते 
क्‍यों कि
हम अच्‍छी तरह जानते थे 
कि... मां भी कभी मरती है?
कितने सच थे हम 
आज... 
जब अपनी बेटी के पीछे किटकिट करती हूं 
तो कहीं
मन के कोने में छिपी 
आंचल में मुंह दबा 
तुम धीमे-धीमे 
हंसती हो मां!

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