ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (समापन किश्त)



हमारी प्राचीन मान्यताएं हैं कि जो जैसा करता है वो वैसा भरता है वो इहलोक या परलोक में अवश्य ही उसके फल का भुक्तभोगी होता है...बिट्टा बुआ को गुजरे एक वर्ष भी नहीं बीता था कि जवान बेटे की मृत्यु का दुख बिट्टा बुआ के भाई मंगल सिंह को हिला गया था...कभी बिट्टा बुआ की मृत्यु पर उनकी बहन के रोने पर जो उनकी भाभी बहुत दर्प से कह रही थीं..`जाने लोग कैसे रो लेत हैं हमको तो भाई रुलाई आउत ही नाय है...’नहीं जानती थीं कि नियति तब मुस्कुरा रही थी...और जब जवान बेटे की लाश पर वे अपने बाल नोंच कर पछाड़ें खा कर रो रही थीं तब वही नियति ठठा कर हंस रही होगी...`देखा ऐसे रोना आता है...’ ।
बिट्टा बुआ की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात जब हम लोग गांव गए तो देखा मंगल सिंह खूब बाल्टी भर-भर कर बिट्टा बुआ के कुंए के पानी से नहा रहे थे...घर जाने पर ताऊ जी ने बताया कि मंगल सिंह पागल हो गए हैं बस सर्दी -गर्मी जब देखो नहाने लगते हैं कई -कई बाल्टियों से और आठ-दस बार लोटा मांज कर मानो बुआ की तड़पती-अतृप्त आत्मा को तर्पण देते रहते हैं...उनकी पत्नि किवाड़ के पीछे खड़ी उनकी हालत देख विवश सी रोती रहती हैं...सर्वशक्तिमान से भी पहले कई बार अपनी अन्तर्रात्मा ही हमें सजा दे देती है । गांव के सब लोग कहते हैं कि हर रात मंगल सिंह के लोटे की जलधार के नीचे अंजुलि-बद्ध बिट्टा बुआ की तृषित आत्मा वह जल पीती है...परन्तु मेरा मन यह बात कभी भी स्वीकार नहीं करता जो भाई प्राय: उन पर हाथ तक उठा देता था उसके हाथों दिए तर्पण को स्वीकार करने की अपेक्षा वे प्यासा तड़पना ही स्वीकार करेंगी...भले ही मंगल सिंह का लोटा मांजते घिस जाए या कुंए का जल समाप्त हो जाए ।
मेरा अबोध मन इस विश्वास को भी नहीं झुठला पाता कि रात को वे फरिश्ते का हाथ पकड़ जरूर आती होंगी अपनी क्यारियों के लाल गुलाबों को खिलता देखने के लिए...और भोर से पहले असंख्य झिलमिल तारों के बीच अनन्त गहराइयों के पार स्थित स्वर्ग लोक की ओर उड़ जाती होंगी
—समाप्त 

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