ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (भाग 4)






जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने हमारे घर आना छोड़ कर अभी भी हृदय के किसी जीर्ण कोने में शेष स्वाभिमान की झलक दिखा ही दी थी।
उन दिनों हमारे घर को विपत्ति के काले पंजों ने जकड़ रखा था...यमराज हमारे घर आकर जैसे जाने का रास्ता भूल गए थे...ताई जी की बीच वाली बहू का मुरादों से मांगा इकलौता बेटा,ताऊ जी की बड़ी बेटी का तीन बेटियों के बाद हुआ प्यारा बेटा,खानदान की और दो बेटियों के प्राण और हमारी सबसे दुलारी ,हंसती -खिलखिलाती तरला बुआ की नाजुक गर्दन अपने लौह-पाश में बांध कर न सिर्फ ताई जी के अपितु हम सभी के हृदय पर दो माह की मेहमानी खाकर लात जमा कर झूमते -झामते चल दिए थे ।
दुर्भाग्य से एक शाम ताई जी बेदम सी,आंगन की चारपाई पर बेसुध सी पड़ी थीं ...तभी बिट्टा बुआ शोर करतीं आंगन में आकर ताई जी से खाना मांगने लगीं जब ताई जी नहीं उठीं तो खाली कटोरी लेकर तरला बुआ को ही आवाजें दे -दे कर ढूंढ़ने लगीं...सब भीगी आंखों से इधर-उधर हो गए...जो तरला बुआ , बिट्टा बुआ को खाली पेट और खाली कटोरी लेकर कभी भी नहीं जाने देती थीं आज इतनी दूर छिप गई थीं कि उनके लाख पुकारने पर भी घर के किसी कोने से निकल कर नहीं आ रही थीं ...जो घर तरला बुआ की खिलखिलाहटों और हंसी-मजाक से चहकता रहता था आज भुतहा सा लग रहा था...ताई जी की नकल करता जो मिट्ठू सारे दिन छुटकी-छुटकी की टेर लगाता रहता था उदास पिंजरे के कोने में सिकुड़ा सा चुपचाप इधर -उधर देखता रहता ...बिट्टा बुआ ताई जी का आंचल खींचने लगीं ...छोटी ताई जी आंखें पोंछती उनके लिए खाना ला ही रही थीं कि तभी बड़ी ताई जी विद्युत गति से उठीं और सन्निपात- पीड़ित सी चिल्ला कर ऊंची आवाज में उनको बहुत कुछ कह गईं ...और दरवाजे की ओर उंगली कर `जाओ बाबा जाओ यहां से’ कह कमरे में चली गईं हमेशा ही बड़बड़ा कर शोर मचा कर जाने वाली बिट्टा बुआ अवाक् सिर झुकाए चुपचाप जाने लगीं...छोटी ताई जी ने खाने को कहा...ताऊ जी ने बहुत रोका,मनाया पर वो बिना खाए ही चुपचाप चली गईं...बस वही हमारे आंगन में बिताया उनका आखिरी दिन था ।
आदमी भूले न तो जीना मुश्किल हो जाता है...और वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है ..पर बातों के जख्म कभी -कभी उम्र भर नहीं भरते ।दो साल में ही ईश्वरेच्छा से भाभी और बड़ी दीदी की गोद स्वस्थ,सुंदर बेटों से भर गई तो ताऊ जी ने गांव भर को दावत दी पर ताऊ जी ,ताई जी के लाख मनाने पर भी बिट्टा बुआ ने एक टुकड़ा भी मिठाई का मुंह में नहीं डाला और घर में एक बार झांका तक नहीं ...ताई जी का वह महोत्सव बिट्टा बुआ के लाल महकते गुलाब के अभाव में अधूरा ही रह गया...ताई जी मन मसोस कर रह गईं ...ताई जी का कोई भी उत्सव आज तक बिट्टा बुआ को खिलाए -पिलाए बिना पूर्ण नहीं होता था परन्तु इस बार बिट्टा बुआ ने बड़े ही स्वाभिमान-पूर्वक उनका यह उत्सव फीका कर दिया था ताई जी बहुत दुखी और शर्मिंदा थीं ।
बिट्टा बुआ अक्सर पापा और ताऊ जी से दुखी स्वर में ताई जी की शिकायत करती थीं परन्तु परम आश्चर्य यह था कि तिल को ताड़ बना कर गाने वाली बिट्टा बुआ गांव में किसी के भी सामने ताई जी के खिलाफ मुंह नहीं खोलती थीं सम्भवत: यही ताई जी द्वारा किए गए पूर्व उपकारों का प्रत्युत्तर था...वर्ना इस तरह की घटना पर उनका इस तरह चुप रह जाना कितना आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया थी ....और वे ताई जी को कितना स्नेह करती थीं ये हम सब जानते थे.

क्रमश:-

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