ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ ( कहानी -भाग 1)

बचपन की न जाने कितनी स्मृतियां और न जाने कितने उन स्मृतियों के पात्र होते हैं, जो हमारे अस्तित्व को साधारण समझते हैं उन्हीं का अस्तित्व कभी-कभी हमारे मानस-पटल पर बहुत स्थान पा लेते हैं ...अनजाने ही।बचपन में छुट्टियों में गांव जाने की एकमात्र आकर्षण डोर होती थीं बिट्टा बुआ..जो अभी भी कभी -कभी,स्वप्नों के क्षितिज पर पत्थर फेंकती,गाली देती वैसी की वैसी ही चित्रित हो जाती हैं ।
हमारे गांव में परम्परानुसार बेटियों को बिट्टा कह कर सम्बोधित करते हैं उसी सम्बोधन में दूसरी पीढ़ी ने आगे दूसरा सम्बोधन बुआ जोड़ दिया और वे पूरे गांव की बिट्टा बुआ हो गईं ।किसी के भी घर जाते समय हमें बिट्टा बुआ के चबूतरे के सामने से ही गुजरना पड़ता था ...पेटीकोट जैसा उनका सफेद लट्ठे का लहंगा जो प्राय: सिलेटी हो चला होता उनकी क्षीण कटि में झूलता रहाता छोटे गले का ब्लाउज और आधे माथे को ढ़ंकता दोनों कानों के पीछे से होता हुआ,सिर के पीछे झूलता मटमैला दुपट्टा...और कानों के बड़े- बड़े छेदों में बेले के फूल खुंसे होते...बचपन से लेकर आखिरी समय तक मैंने उनको इसी रूप में देखा...हां पैरों में अवश्य जूते चप्पल तरह -तरह के होते...किसी का पंजा गवाक्ष बना होता तो कोई एड़ी से साथ छोड़ चुका होता...पूरे गांव में भला कौन था ऐसा जिसके जूते चप्पल ने अपने जीवन के आखिरी पल उनके चरणों में न बिताए हों
कोई भी दावत हो शादी ,दष्टौन या बरसी बिट्टा बुआ पहली ही पंगत मेंअनिमन्त्रित ही पत्तल उठा कर बैठ जातीं और परोसने वालों के कुर्ते, धोती खींच-खींच कर परोसना भारी कर देतीं और यदि कोई अभागा झुंझला पड़ता तो वीभत्स गालियों से उसकी सात पुश्तों को कोसतीं..हाथ नचा कर तब तक अपनी चौपाल पर फटी - फटी आवाज में प्रलाप करती रहतीं जब तक स्वयं ही वापिस जाकर उस अपराधी को बड़ी उदारता से क्षमा कर छक कर न सिर्फ खा आतीं अपितु साथ बांध भी लातीं ।
गांव के बच्चों के लिए तो वे एक दिलचस्प मनोरंजन थीं...नाक पर उंगली फिरा कर चिढ़ाने वाले उद्दंड बच्चों के पीछे पत्थर और गालियों के ऐसे अमोघ अस्त्र फेंकतीं कि उनकी माताएं कान पर हाथ रख बच्चों को कूटती-पीटती बिट्टा बुआ को कोसतीं बच्चों को घर ले जातीं ।
बहुत साल पहले जब मैं दस साल की थी और दीदी बारह की रही होंगी...हम होली की छुट्टियों में गांव गए थे अचानक दीदी बदहवास भागती आईं और कमरे में छिप गईं..जब तक मम्मी कुछ पूंछतीं इतने में कर्कश आवाज में गालियों के पिटारे से ऐसी -ऐसी गालियां निकाल..उनके भूत भविष्य को अंधकारमय होने का श्राप देतीं बिट्टा बुआ आंगन में नमूदार हुईं...मैं बहुत डरपोक थी भाग कर बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे छिप गई...वे मां के पास जाकर दीदी की शिकायत कर कोसने लगीं..." साली नाक काटत है दुई दिना की छोकरी...अरी तेरी छटी खाए रहे राम करे.....”और राम जाने क्या - क्या..तब मम्मी और ताई जी जल्दी- जल्दी उनको मनाने में लग गईं ...साबुन,घी,गुड़,पुरानी धोतियां,बची मिठाई का चूरा सब उनके पल्लू से बांध मम्मी ने उनका हाथ पकड़कर जबरन बैठा लिया और पंखा झलने लगीं ..."तुम फिकर न करो जाड़ों में बियाह कर देंगे हम इसका,पाप कटे...बहुत सिर चढ़ती जा रही है..सास डंडे मार- मार कर दिमाग ठीक कर देगी “
क्रमश:


14 टिप्‍पणियां:

  1. ओह । बहुत ही दिलचस्प चित्रण । आपने तो तस्वीर खींच कर रख दी । अगले पार्ट की उत्सुकता से प्रतीक्षा है । ऐसे चरित्र सच में आज भी विद्यमान हैं ।

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  2. पढने के लिए आभार...साधना जी यहां किश्तों में पूरी कहानी पोस्ट कर दी है मैंने ...पूरी पढ कर बताएं...सुझाव दें 🙏

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  3. बहुत सुन्दर और जीवन्त चित्रण किया है आपने बिट्टा बुआ का । बहुत सुन्दर कहानी ।

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  4. प्रिय उषा जी,
    आपकी लिखी प्रथम कृति का पहला भाग पढ़कर रहा न गया सारी छः किस्ते पढ़कर मन भीग गया।
    बिट्टा बुआ का सुंदर ,सुगढ़,संस्मरणात्मक सजीव चित्रण आपकी लेखनी ने अमिट छाप छोड़ दी है मन पर।

    सस्नेह प्रणाम
    सादर।

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  5. मन को आकृष्ट कर रही है पहली किश्त की पूरा पढ़ लूं,
    रोचक मन को छू गई आपकी कथा।

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  6. अभी तो पहला भाग ही पढ़ा है इतना रोचक है कि जल्द ही पूरी कहानी पढ़ूंगी ।बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी।

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    1. शुक्रिया…पूरी पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें🙏

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  7. आपकी ये कहानी पूरी एक साथ पढ़ छुकी हूँ , इसलिए यहाँ कोई प्रतिक्रिया नहीं ।🤣🤣🤣

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