बचपन की न जाने कितनी स्मृतियां और न जाने कितने उन स्मृतियों के पात्र होते हैं, जो हमारे अस्तित्व को साधारण समझते हैं उन्हीं का अस्तित्व कभी-कभी हमारे मानस-पटल पर बहुत स्थान पा लेते हैं ...अनजाने ही।बचपन में छुट्टियों में गांव जाने की एकमात्र आकर्षण डोर होती थीं बिट्टा बुआ..जो अभी भी कभी -कभी,स्वप्नों के क्षितिज पर पत्थर फेंकती,गाली देती वैसी की वैसी ही चित्रित हो जाती हैं ।
हमारे गांव में परम्परानुसार बेटियों को बिट्टा कह कर सम्बोधित करते हैं उसी सम्बोधन में दूसरी पीढ़ी ने आगे दूसरा सम्बोधन बुआ जोड़ दिया और वे पूरे गांव की बिट्टा बुआ हो गईं ।किसी के भी घर जाते समय हमें बिट्टा बुआ के चबूतरे के सामने से ही गुजरना पड़ता था ...पेटीकोट जैसा उनका सफेद लट्ठे का लहंगा जो प्राय: सिलेटी हो चला होता उनकी क्षीण कटि में झूलता रहाता छोटे गले का ब्लाउज और आधे माथे को ढ़ंकता दोनों कानों के पीछे से होता हुआ,सिर के पीछे झूलता मटमैला दुपट्टा...और कानों के बड़े- बड़े छेदों में बेले के फूल खुंसे होते...बचपन से लेकर आखिरी समय तक मैंने उनको इसी रूप में देखा...हां पैरों में अवश्य जूते चप्पल तरह -तरह के होते...किसी का पंजा गवाक्ष बना होता तो कोई एड़ी से साथ छोड़ चुका होता...पूरे गांव में भला कौन था ऐसा जिसके जूते चप्पल ने अपने जीवन के आखिरी पल उनके चरणों में न बिताए हों
कोई भी दावत हो शादी ,दष्टौन या बरसी बिट्टा बुआ पहली ही पंगत मेंअनिमन्त्रित ही पत्तल उठा कर बैठ जातीं और परोसने वालों के कुर्ते, धोती खींच-खींच कर परोसना भारी कर देतीं और यदि कोई अभागा झुंझला पड़ता तो वीभत्स गालियों से उसकी सात पुश्तों को कोसतीं..हाथ नचा कर तब तक अपनी चौपाल पर फटी - फटी आवाज में प्रलाप करती रहतीं जब तक स्वयं ही वापिस जाकर उस अपराधी को बड़ी उदारता से क्षमा कर छक कर न सिर्फ खा आतीं अपितु साथ बांध भी लातीं ।
गांव के बच्चों के लिए तो वे एक दिलचस्प मनोरंजन थीं...नाक पर उंगली फिरा कर चिढ़ाने वाले उद्दंड बच्चों के पीछे पत्थर और गालियों के ऐसे अमोघ अस्त्र फेंकतीं कि उनकी माताएं कान पर हाथ रख बच्चों को कूटती-पीटती बिट्टा बुआ को कोसतीं बच्चों को घर ले जातीं ।
बहुत साल पहले जब मैं दस साल की थी और दीदी बारह की रही होंगी...हम होली की छुट्टियों में गांव गए थे अचानक दीदी बदहवास भागती आईं और कमरे में छिप गईं..जब तक मम्मी कुछ पूंछतीं इतने में कर्कश आवाज में गालियों के पिटारे से ऐसी -ऐसी गालियां निकाल..उनके भूत भविष्य को अंधकारमय होने का श्राप देतीं बिट्टा बुआ आंगन में नमूदार हुईं...मैं बहुत डरपोक थी भाग कर बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे छिप गई...वे मां के पास जाकर दीदी की शिकायत कर कोसने लगीं..." साली नाक काटत है दुई दिना की छोकरी...अरी तेरी छटी खाए रहे राम करे.....”और राम जाने क्या - क्या..तब मम्मी और ताई जी जल्दी- जल्दी उनको मनाने में लग गईं ...साबुन,घी,गुड़,पुरानी धोतियां,बची मिठाई का चूरा सब उनके पल्लू से बांध मम्मी ने उनका हाथ पकड़कर जबरन बैठा लिया और पंखा झलने लगीं ..."तुम फिकर न करो जाड़ों में बियाह कर देंगे हम इसका,पाप कटे...बहुत सिर चढ़ती जा रही है..सास डंडे मार- मार कर दिमाग ठीक कर देगी “
हमारे गांव में परम्परानुसार बेटियों को बिट्टा कह कर सम्बोधित करते हैं उसी सम्बोधन में दूसरी पीढ़ी ने आगे दूसरा सम्बोधन बुआ जोड़ दिया और वे पूरे गांव की बिट्टा बुआ हो गईं ।किसी के भी घर जाते समय हमें बिट्टा बुआ के चबूतरे के सामने से ही गुजरना पड़ता था ...पेटीकोट जैसा उनका सफेद लट्ठे का लहंगा जो प्राय: सिलेटी हो चला होता उनकी क्षीण कटि में झूलता रहाता छोटे गले का ब्लाउज और आधे माथे को ढ़ंकता दोनों कानों के पीछे से होता हुआ,सिर के पीछे झूलता मटमैला दुपट्टा...और कानों के बड़े- बड़े छेदों में बेले के फूल खुंसे होते...बचपन से लेकर आखिरी समय तक मैंने उनको इसी रूप में देखा...हां पैरों में अवश्य जूते चप्पल तरह -तरह के होते...किसी का पंजा गवाक्ष बना होता तो कोई एड़ी से साथ छोड़ चुका होता...पूरे गांव में भला कौन था ऐसा जिसके जूते चप्पल ने अपने जीवन के आखिरी पल उनके चरणों में न बिताए हों
कोई भी दावत हो शादी ,दष्टौन या बरसी बिट्टा बुआ पहली ही पंगत मेंअनिमन्त्रित ही पत्तल उठा कर बैठ जातीं और परोसने वालों के कुर्ते, धोती खींच-खींच कर परोसना भारी कर देतीं और यदि कोई अभागा झुंझला पड़ता तो वीभत्स गालियों से उसकी सात पुश्तों को कोसतीं..हाथ नचा कर तब तक अपनी चौपाल पर फटी - फटी आवाज में प्रलाप करती रहतीं जब तक स्वयं ही वापिस जाकर उस अपराधी को बड़ी उदारता से क्षमा कर छक कर न सिर्फ खा आतीं अपितु साथ बांध भी लातीं ।
गांव के बच्चों के लिए तो वे एक दिलचस्प मनोरंजन थीं...नाक पर उंगली फिरा कर चिढ़ाने वाले उद्दंड बच्चों के पीछे पत्थर और गालियों के ऐसे अमोघ अस्त्र फेंकतीं कि उनकी माताएं कान पर हाथ रख बच्चों को कूटती-पीटती बिट्टा बुआ को कोसतीं बच्चों को घर ले जातीं ।
बहुत साल पहले जब मैं दस साल की थी और दीदी बारह की रही होंगी...हम होली की छुट्टियों में गांव गए थे अचानक दीदी बदहवास भागती आईं और कमरे में छिप गईं..जब तक मम्मी कुछ पूंछतीं इतने में कर्कश आवाज में गालियों के पिटारे से ऐसी -ऐसी गालियां निकाल..उनके भूत भविष्य को अंधकारमय होने का श्राप देतीं बिट्टा बुआ आंगन में नमूदार हुईं...मैं बहुत डरपोक थी भाग कर बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे छिप गई...वे मां के पास जाकर दीदी की शिकायत कर कोसने लगीं..." साली नाक काटत है दुई दिना की छोकरी...अरी तेरी छटी खाए रहे राम करे.....”और राम जाने क्या - क्या..तब मम्मी और ताई जी जल्दी- जल्दी उनको मनाने में लग गईं ...साबुन,घी,गुड़,पुरानी धोतियां,बची मिठाई का चूरा सब उनके पल्लू से बांध मम्मी ने उनका हाथ पकड़कर जबरन बैठा लिया और पंखा झलने लगीं ..."तुम फिकर न करो जाड़ों में बियाह कर देंगे हम इसका,पाप कटे...बहुत सिर चढ़ती जा रही है..सास डंडे मार- मार कर दिमाग ठीक कर देगी “
मिष्ठान्न को ललचाती आंखों से तौलती , संभल कर गिरगिट सा रंग बदलतीं बिट्टा बुआ क्रमश: मिष्ठान्न का चूर्ण फांकतीं..खींसें निपोर बड़े ही दुलार में होंठ आगे निकाल धीमे-धीमे मम्मी को ही समझाने लगीं ...' अबहिं नाय बहू..लरकिनी है ..बड़ी सुलक्छिनी बिटिया है...हम तो बिज बिहारी की लरकिनी को कै रहे हते..तुम्हारी तो साक्षात् लक्षमिनी है...कहां है बिटिया तनिक आसीस दे दें’ ...पर दीदी ‘रिस्क’ लेने वाली कहां थीं ? जब बिट्टा बुआ गद्गद् कंठस्वर के आरोह -अवरोह में आशीषों के फूल बर्सातीं अपनी चौपाल पर जाकर जूते और चुन्नी साबुन से धोने लगीं तब दीदीहाथ झाड़ कर निकलीं...बहुत हंस कर मटक कर बोलीं..’ चलो टली चुड़ैल बुआ....’ मम्मी त्यौरियां माथे तक चढ़ा कर कुछ कहतीं तब तक तो वे बाहर भाग गईं और चटापट ताऊ जी से एकदम भोली-भाली बन मुंह लटका कर ,आंखें झपका कर सफाई देने लगीं...`सच्ची मुच्ची में ताऊ जी बाई गॉड हम तो नाक का पसीना पोंछ रहे थे..चिढ़ा थोड़े ही रहे थे...बिल्कुल भी नहीं...’और दो दिन बाद वो ही लपड़-झपड़ भागती दीदी और पीछे- पीछे रणचण्डी सी बिट्टा बुआ ।मैं बहुत डरती थी उनसे अत: सामने पड़ने से भी कतराती थी कभी हमारे घर आतीं तो मैं बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे से छिप कर झांकती रहती ।
एक दिन तरला बुआ के साथ उनके घर के सामने से सहमी सी गुजर रही थी कि तभी धम्म से चौपाल से हमारे सामने कूद कर जबर्दस्ती हाथ पकड़ कर बड़ी मनुहार और इज्जत से हमें अंदर ले गईं बुआ अरेरेरे कहती रह गईं मेरा तो डर के मारे बुरा हाल था ..टांगें कांप रही थीं और हलक सूख रहा था ।आंगन में पड़ी झंगोले सी चारपाई में बैठा कर अंदर से लाकर दो फटे मैले तकिए हमारे पीछे लगा जल्दी से आंगन की क्यारी की तरफ चली गईं ।मैं तो पहली बार उनके विचित्र राजमहल में आई थी या कहूं लाई गई थी...दीवारों पर कोलाज का सा दृश्य उपस्थित था दीवारों को लीप-पोत कर सीता -राम,राधे-श्याम के आलंकारिक आलेखन के साथ-साथ ऐसी-ऐसी उपमाओं से सुसज्जित गालियां बेशर्मी से हंस रही थीं ..पढ़ते-पढ़ते बुआ को तीखी नजरों से अपनी तरफ घूरता देख कट कर रह गई । ब्लेड के खाली रैपर,बीड़ी-सिगरेट की खाली डिब्बियों की ,कपड़ों व पन्नियों की कटिंग सब दीवार पर झिलमिला रही थीं ...कमरों के कोनों में गांव भर के फटे पुराने जूते चप्पलों का ढ़ेर अलग अपनी शान से मुस्कुरा कहा था ।
उनके घर का निरीक्षण करते एक तो उस हिंडोले में बैठते घुटने पेट में घुसे जा रहे थे दूसरी तरफ डर के मारे होश उड़ रहे थे ...बुआ मेरी हालत समझ कर भी शांत भाव से बैठी थीं...जानती थीं कि पूरी आवभगत करवाए बिना त्राण मिलने वाला नहीं ।
तभी वे दोनों हाथों में दो ताजे लाल गुलाब लिए आईं और हम दोनों को देकर फुसफुसा कर बताने लगीं कि कैसे आधी रात एक फरिश्ता आकर उन फूलों को छड़ी घुमा - घुमा कर खिलाता है...वे चुपचाप देखती हैं पर बोलती नहीं वर्ना फरिश्ता उड़ जाएगा और कभी नहीं आएगा...फिर फूल कभी भी नहीं खिल पाएंगे ।
एक दिन तरला बुआ के साथ उनके घर के सामने से सहमी सी गुजर रही थी कि तभी धम्म से चौपाल से हमारे सामने कूद कर जबर्दस्ती हाथ पकड़ कर बड़ी मनुहार और इज्जत से हमें अंदर ले गईं बुआ अरेरेरे कहती रह गईं मेरा तो डर के मारे बुरा हाल था ..टांगें कांप रही थीं और हलक सूख रहा था ।आंगन में पड़ी झंगोले सी चारपाई में बैठा कर अंदर से लाकर दो फटे मैले तकिए हमारे पीछे लगा जल्दी से आंगन की क्यारी की तरफ चली गईं ।मैं तो पहली बार उनके विचित्र राजमहल में आई थी या कहूं लाई गई थी...दीवारों पर कोलाज का सा दृश्य उपस्थित था दीवारों को लीप-पोत कर सीता -राम,राधे-श्याम के आलंकारिक आलेखन के साथ-साथ ऐसी-ऐसी उपमाओं से सुसज्जित गालियां बेशर्मी से हंस रही थीं ..पढ़ते-पढ़ते बुआ को तीखी नजरों से अपनी तरफ घूरता देख कट कर रह गई । ब्लेड के खाली रैपर,बीड़ी-सिगरेट की खाली डिब्बियों की ,कपड़ों व पन्नियों की कटिंग सब दीवार पर झिलमिला रही थीं ...कमरों के कोनों में गांव भर के फटे पुराने जूते चप्पलों का ढ़ेर अलग अपनी शान से मुस्कुरा कहा था ।
उनके घर का निरीक्षण करते एक तो उस हिंडोले में बैठते घुटने पेट में घुसे जा रहे थे दूसरी तरफ डर के मारे होश उड़ रहे थे ...बुआ मेरी हालत समझ कर भी शांत भाव से बैठी थीं...जानती थीं कि पूरी आवभगत करवाए बिना त्राण मिलने वाला नहीं ।
तभी वे दोनों हाथों में दो ताजे लाल गुलाब लिए आईं और हम दोनों को देकर फुसफुसा कर बताने लगीं कि कैसे आधी रात एक फरिश्ता आकर उन फूलों को छड़ी घुमा - घुमा कर खिलाता है...वे चुपचाप देखती हैं पर बोलती नहीं वर्ना फरिश्ता उड़ जाएगा और कभी नहीं आएगा...फिर फूल कभी भी नहीं खिल पाएंगे ।
उस दिन उनकी उस स्नेहमयी भंगिमा ने मेरा सारा डर भगा दिया उनके कर्कश रूप की पर्तों में छिपे उस स्नेह-पूरित नवीन रूप तले तो मैं अचम्भित रह गई थी..अभिभूत होकर उनकी ऊल -जलूल बातें सुनते फिर कितना वक्त निकल गया पता ही नहीं चला । हम लोग जब लौटने लगे तो फिर रास्ता रोक कर खड़ी हो गईं और अपनी एकमात्र संपत्ति कुंए की महिमा बखानने लगीं कि सब जानते हैं कि उनके कुंए का जल कितना मीठा है..दाल तो मिनटों में घुट जाती है । कभी-कभी वे पापा और ताऊ जी का भी रास्ता रोक कर खड़ी हो जातीं और जब तक अपने कुंए के गुणगान न सुन लेतीं एक कदम भी न हिलने देतीं ...ताऊ जी अक्सर उनको खुश करने के लिए बड़ी गंभीरता से समझाते `बिट्टा तुम अपने कुंए पर अपना नाम लिखवा लो ...’तो वो पुलकित हो जातीं और पुरस्कार में अमृत -स्वरूप कुंए का लोटा भर पानी ताई जी को दे आतीं और बदले में बड़े अधिकार से उसी लोटे में लबालब दूध या छाछ भर कर छलकती बूंदों को जीभ से चाटतीं ले आतीं।
अब तक का उनका वर्तमान देख कर मुझे ऐसा लगता था कि झुकी कमर,झुर्रियों से भरे कठोर चेहरे और बेतहाशा गालियों के पीछे कोई इतिहास नहीं ..कोई अतीत की छाया नहीं...जो कुछ है बस यही भावहीन उनका वर्तमान है परन्तु उस दिन घर वापिस लौट कर बुआ से उनकी कहानी सुन कातर हो उठी ।
बिट्टा बुआ का विवाह कभी बहुत ही अच्छे घर खानदान में हुआ था ,पति भी फौज में थे परन्तु विवाह के साल भर भीतर ही सोलह वर्षीया बिट्टा बुआ विधि-विडम्बना से आहत,स्तब्ध अपार रूप राशि ,सूनी मांग पेंशन की डोर थामे पुन: पीहर की देहरी पर आ खड़ी हुईं तो भाई-भाभी के ताने और अपमान भरे स्वागत से हतप्रभ हो अधर में झूल कर रह गईं ...ससुराल वालों ने तो पहले ही डायन,
कुलक्षिणी,मनहूस जैसी उपाधियां देकर सदा को धक्का दे दिया था और अब पीहर की देहरी भी उनके घायल हृदय पर कस कर लात जमा रही थी..बगल में पोटली दबाए वे चुपचाप सारा मान-अपमान पीती हुई कोने में मुंह छिपा सिसक उठीं।
धीरे-धीरे हिम्मत कर संभाला खुद को गहने बेच कर और पेंशन के पैसों को जोड़ उन्होंने भाई के कच्चे सीलन भरे मकान को पक्का बनवाया साथ ही बड़ी लगन से चौपाल पर बनवाया प्यासे राहगीरों के लिए एक पक्का कुंआ।
धीरे-धीरे भाई -भाभियों के तानों ,गांव वालों की उपेक्षा -तिरस्कार और उससे भी बढ़ कर विधि-विडम्बना से आहत होकर बिट्टा बुआ अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं...निर्दयी भाई ने पेंशन हड़पनी शुरु कर दी और वे दाने-दाने को मोहताज हो पेट की ज्वाला से आहत होकर घर-घर के चूल्हे झांकने लगीं...सारा स्वाभिमान तो मानसिक विकार ने धो ही दिया था ।गांव वालों ने भी कुछ स्वेच्छा से और कुछ अनिच्छा से उनके इस हक को अपना लिया था...दो वक्त की रोटी का जुगाड़ वे मान-अपमान को परे कर जुड़ा ही लेतीं...कभी न भी मिलती तो रास्ते में पड़ा कोई फटा जूता चप्पल ही उठा लातीं और पहन कर पुलकित हो अपने कमरे में पड़े जूते चप्पल के ढ़ेर पर उसी संतोष से सो जातीं जैसे कोई नन्हा बालक अपने खिलौने से खेलता हुआ थक कर उसी को सीने से लगाए सो जाता है...होठों पर मीठी मुस्कान लिए...उसी के सपने देखता हुआ ...परन्तु सारे दिन के ताने उलाहने,मान-अपमान को जागने पर ऐसे भूल जातीं जैसे रूठ के सोया बालक उठने पर सब भूल कर पुन: खेल में मस्त हो जाता है ।
मुझे याद है एक बार बुआ और बुआ की चुलबुली सहेलियों की चहकती टोली छत पर खूब चहक रही थीं ...बिट्टा बुआ ने उन्हें देखते ही अपनी चौपाल से उसी `पावन-ग्रन्थ’ का पाठ अभिनय सहित ऊंचे स्वर में करना प्रारम्भ कर दिया ...बुआ का मुंह क्रोध से तमतमा उठा परन्तु इस सबसे बेखबर बिट्टा बुआ तो बस बुआ की काल्पनिक बेचारी सास के कर्मों को ठोंकती लगातार मातमी स्वर में पृथ्वी मैया के रसातल में चले जाने की दुआ माग रही थी क्यों कि भले घर की लरिकिनी होकर भी तरला बुआ छत्ता लगाए सुहानी शाम का आनन्द ले रही थीं और वो भी बिट्टा बुआ के होते ?
...झटकती-पटकती धमधम करतीं तरला बुआ बड़बड़ाती नीचे उतर आईं ...ताई जी ने पूंछा `...`क्या हुआ’ बुआ रुंआसी होकर चिनचिनाईं...`और क्या ? वो खड़ी हैं न चौपाल पर जगत सास..जब तक हैं सारी लड़किएं हमारे गांव की आवारा ही रहेंगी...मेरा नाम लेकर पता है हमारे कुल का नाम रौशन कर रही हैं...’।
उसी दिन शाम को जब बिट्टा बुआ अचार मांगनें आईं तो अनसुना कर तरला बुआ आंगन में बैठी सब्जी काटती रहीं...हवाओं का रुख भांपते ही बिट्टा बुआ ने उनके हाथ से चाकू छीन सब्जी काटते- काटते न जाने किस जादुई छड़ी से मंत्र मार कर बुआ की नाक पर बैठी मक्खी क्षण भर में उड़ा दी थी...आधे घंटे बाद ही वही बिट्टा बुआ हमारी `बुआ महान ‘का यशगान करतीं कागज में छै: सात आम के अचार की फांकें हाथ में दबाए चली जा रही थीं.
बिट्टा बुआ का विवाह कभी बहुत ही अच्छे घर खानदान में हुआ था ,पति भी फौज में थे परन्तु विवाह के साल भर भीतर ही सोलह वर्षीया बिट्टा बुआ विधि-विडम्बना से आहत,स्तब्ध अपार रूप राशि ,सूनी मांग पेंशन की डोर थामे पुन: पीहर की देहरी पर आ खड़ी हुईं तो भाई-भाभी के ताने और अपमान भरे स्वागत से हतप्रभ हो अधर में झूल कर रह गईं ...ससुराल वालों ने तो पहले ही डायन,
कुलक्षिणी,मनहूस जैसी उपाधियां देकर सदा को धक्का दे दिया था और अब पीहर की देहरी भी उनके घायल हृदय पर कस कर लात जमा रही थी..बगल में पोटली दबाए वे चुपचाप सारा मान-अपमान पीती हुई कोने में मुंह छिपा सिसक उठीं।
धीरे-धीरे हिम्मत कर संभाला खुद को गहने बेच कर और पेंशन के पैसों को जोड़ उन्होंने भाई के कच्चे सीलन भरे मकान को पक्का बनवाया साथ ही बड़ी लगन से चौपाल पर बनवाया प्यासे राहगीरों के लिए एक पक्का कुंआ।
धीरे-धीरे भाई -भाभियों के तानों ,गांव वालों की उपेक्षा -तिरस्कार और उससे भी बढ़ कर विधि-विडम्बना से आहत होकर बिट्टा बुआ अपना मानसिक संतुलन खो बैठीं...निर्दयी भाई ने पेंशन हड़पनी शुरु कर दी और वे दाने-दाने को मोहताज हो पेट की ज्वाला से आहत होकर घर-घर के चूल्हे झांकने लगीं...सारा स्वाभिमान तो मानसिक विकार ने धो ही दिया था ।गांव वालों ने भी कुछ स्वेच्छा से और कुछ अनिच्छा से उनके इस हक को अपना लिया था...दो वक्त की रोटी का जुगाड़ वे मान-अपमान को परे कर जुड़ा ही लेतीं...कभी न भी मिलती तो रास्ते में पड़ा कोई फटा जूता चप्पल ही उठा लातीं और पहन कर पुलकित हो अपने कमरे में पड़े जूते चप्पल के ढ़ेर पर उसी संतोष से सो जातीं जैसे कोई नन्हा बालक अपने खिलौने से खेलता हुआ थक कर उसी को सीने से लगाए सो जाता है...होठों पर मीठी मुस्कान लिए...उसी के सपने देखता हुआ ...परन्तु सारे दिन के ताने उलाहने,मान-अपमान को जागने पर ऐसे भूल जातीं जैसे रूठ के सोया बालक उठने पर सब भूल कर पुन: खेल में मस्त हो जाता है ।
मुझे याद है एक बार बुआ और बुआ की चुलबुली सहेलियों की चहकती टोली छत पर खूब चहक रही थीं ...बिट्टा बुआ ने उन्हें देखते ही अपनी चौपाल से उसी `पावन-ग्रन्थ’ का पाठ अभिनय सहित ऊंचे स्वर में करना प्रारम्भ कर दिया ...बुआ का मुंह क्रोध से तमतमा उठा परन्तु इस सबसे बेखबर बिट्टा बुआ तो बस बुआ की काल्पनिक बेचारी सास के कर्मों को ठोंकती लगातार मातमी स्वर में पृथ्वी मैया के रसातल में चले जाने की दुआ माग रही थी क्यों कि भले घर की लरिकिनी होकर भी तरला बुआ छत्ता लगाए सुहानी शाम का आनन्द ले रही थीं और वो भी बिट्टा बुआ के होते ?
...झटकती-पटकती धमधम करतीं तरला बुआ बड़बड़ाती नीचे उतर आईं ...ताई जी ने पूंछा `...`क्या हुआ’ बुआ रुंआसी होकर चिनचिनाईं...`और क्या ? वो खड़ी हैं न चौपाल पर जगत सास..जब तक हैं सारी लड़किएं हमारे गांव की आवारा ही रहेंगी...मेरा नाम लेकर पता है हमारे कुल का नाम रौशन कर रही हैं...’।
उसी दिन शाम को जब बिट्टा बुआ अचार मांगनें आईं तो अनसुना कर तरला बुआ आंगन में बैठी सब्जी काटती रहीं...हवाओं का रुख भांपते ही बिट्टा बुआ ने उनके हाथ से चाकू छीन सब्जी काटते- काटते न जाने किस जादुई छड़ी से मंत्र मार कर बुआ की नाक पर बैठी मक्खी क्षण भर में उड़ा दी थी...आधे घंटे बाद ही वही बिट्टा बुआ हमारी `बुआ महान ‘का यशगान करतीं कागज में छै: सात आम के अचार की फांकें हाथ में दबाए चली जा रही थीं.
जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने हमारे घर आना छोड़ कर अभी भी हृदय के किसी जीर्ण कोने में शेष स्वाभिमान की झलक दिखा ही दी थी।
उन दिनों हमारे घर को विपत्ति के काले पंजों ने जकड़ रखा था...यमराज हमारे घर आकर जैसे जाने का रास्ता भूल गए थे...ताई जी की बीच वाली बहू का मुरादों से मांगा इकलौता बेटा,ताऊ जी की बड़ी बेटी का तीन बेटियों के बाद हुआ प्यारा बेटा,खानदान की और दो बेटियों के प्राण और हमारी सबसे दुलारी ,हंसती -खिलखिलाती तरला बुआ की नाजुक गर्दन अपने लौह-पाश में बांध कर न सिर्फ ताई जी के अपितु हम सभी के हृदय पर दो माह की मेहमानी खाकर लात जमा कर झूमते -झामते चल दिए थे ।
दुर्भाग्य से एक शाम ताई जी बेदम सी,आंगन की चारपाई पर बेसुध सी पड़ी थीं ...तभी बिट्टा बुआ शोर करतीं आंगन में आकर ताई जी से खाना मांगने लगीं जब ताई जी नहीं उठीं तो खाली कटोरी लेकर तरला बुआ को ही आवाजें दे -दे कर ढूंढ़ने लगीं...सब भीगी आंखों से इधर-उधर हो गए...जो तरला बुआ , बिट्टा बुआ को खाली पेट और खाली कटोरी लेकर कभी भी नहीं जाने देती थीं आज इतनी दूर छिप गई थीं कि उनके लाख पुकारने पर भी घर के किसी कोने से निकल कर नहीं आ रही थीं ...जो घर तरला बुआ की खिलखिलाहटों और हंसी-मजाक से चहकता रहता था आज भुतहा सा लग रहा था...ताई जी की नकल करता जो मिट्ठू सारे दिन छुटकी-छुटकी की टेर लगाता रहता था उदास पिंजरे के कोने में सिकुड़ा सा चुपचाप इधर -उधर देखता रहता ...बिट्टा बुआ ताई जी का आंचल खींचने लगीं ...छोटी ताई जी आंखें पोंछती उनके लिए खाना ला ही रही थीं कि तभी बड़ी ताई जी विद्युत गति से उठीं और सन्निपात- पीड़ित सी चिल्ला कर ऊंची आवाज में उनको बहुत कुछ कह गईं ...और दरवाजे की ओर उंगली कर `जाओ बाबा जाओ यहां से’ कह कमरे में चली गईं हमेशा ही बड़बड़ा कर शोर मचा कर जाने वाली बिट्टा बुआ अवाक् सिर झुकाए चुपचाप जाने लगीं...छोटी ताई जी ने खाने को कहा...ताऊ जी ने बहुत रोका,मनाया पर वो बिना खाए ही चुपचाप चली गईं...बस वही हमारे आंगन में बिताया उनका आखिरी दिन था ।
आदमी भूले न तो जीना मुश्किल हो जाता है...और वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है ..पर बातों के जख्म कभी -कभी उम्र भर नहीं भरते ।दो साल में ही ईश्वरेच्छा से भाभी और बड़ी दीदी की गोद स्वस्थ,सुंदर बेटों से भर गई तो ताऊ जी ने गांव भर को दावत दी पर ताऊ जी ,ताई जी के लाख मनाने पर भी बिट्टा बुआ ने एक टुकड़ा भी मिठाई का मुंह में नहीं डाला और घर में एक बार झांका तक नहीं ...ताई जी का वह महोत्सव बिट्टा बुआ के लाल महकते गुलाब के अभाव में अधूरा ही रह गया...ताई जी मन मसोस कर रह गईं ...ताई जी का कोई भी उत्सव आज तक बिट्टा बुआ को खिलाए -पिलाए बिना पूर्ण नहीं होता था परन्तु इस बार बिट्टा बुआ ने बड़े ही स्वाभिमान-पूर्वक उनका यह उत्सव फीका कर दिया था ताई जी बहुत दुखी और शर्मिंदा थीं ।
बिट्टा बुआ अक्सर पापा और ताऊ जी से दुखी स्वर में ताई जी की शिकायत करती थीं परन्तु परम आश्चर्य यह था कि तिल को ताड़ बना कर गाने वाली बिट्टा बुआ गांव में किसी के भी सामने ताई जी के खिलाफ मुंह नहीं खोलती थीं सम्भवत: यही ताई जी द्वारा किए गए पूर्व उपकारों का प्रत्युत्तर था...वर्ना इस तरह की घटना पर उनका इस तरह चुप रह जाना कितना आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया थी ....और वे ताई जी को कितना स्नेह करती थीं ये हम सब जानते थे.
उन दिनों हमारे घर को विपत्ति के काले पंजों ने जकड़ रखा था...यमराज हमारे घर आकर जैसे जाने का रास्ता भूल गए थे...ताई जी की बीच वाली बहू का मुरादों से मांगा इकलौता बेटा,ताऊ जी की बड़ी बेटी का तीन बेटियों के बाद हुआ प्यारा बेटा,खानदान की और दो बेटियों के प्राण और हमारी सबसे दुलारी ,हंसती -खिलखिलाती तरला बुआ की नाजुक गर्दन अपने लौह-पाश में बांध कर न सिर्फ ताई जी के अपितु हम सभी के हृदय पर दो माह की मेहमानी खाकर लात जमा कर झूमते -झामते चल दिए थे ।
दुर्भाग्य से एक शाम ताई जी बेदम सी,आंगन की चारपाई पर बेसुध सी पड़ी थीं ...तभी बिट्टा बुआ शोर करतीं आंगन में आकर ताई जी से खाना मांगने लगीं जब ताई जी नहीं उठीं तो खाली कटोरी लेकर तरला बुआ को ही आवाजें दे -दे कर ढूंढ़ने लगीं...सब भीगी आंखों से इधर-उधर हो गए...जो तरला बुआ , बिट्टा बुआ को खाली पेट और खाली कटोरी लेकर कभी भी नहीं जाने देती थीं आज इतनी दूर छिप गई थीं कि उनके लाख पुकारने पर भी घर के किसी कोने से निकल कर नहीं आ रही थीं ...जो घर तरला बुआ की खिलखिलाहटों और हंसी-मजाक से चहकता रहता था आज भुतहा सा लग रहा था...ताई जी की नकल करता जो मिट्ठू सारे दिन छुटकी-छुटकी की टेर लगाता रहता था उदास पिंजरे के कोने में सिकुड़ा सा चुपचाप इधर -उधर देखता रहता ...बिट्टा बुआ ताई जी का आंचल खींचने लगीं ...छोटी ताई जी आंखें पोंछती उनके लिए खाना ला ही रही थीं कि तभी बड़ी ताई जी विद्युत गति से उठीं और सन्निपात- पीड़ित सी चिल्ला कर ऊंची आवाज में उनको बहुत कुछ कह गईं ...और दरवाजे की ओर उंगली कर `जाओ बाबा जाओ यहां से’ कह कमरे में चली गईं हमेशा ही बड़बड़ा कर शोर मचा कर जाने वाली बिट्टा बुआ अवाक् सिर झुकाए चुपचाप जाने लगीं...छोटी ताई जी ने खाने को कहा...ताऊ जी ने बहुत रोका,मनाया पर वो बिना खाए ही चुपचाप चली गईं...बस वही हमारे आंगन में बिताया उनका आखिरी दिन था ।
आदमी भूले न तो जीना मुश्किल हो जाता है...और वक्त बड़े से बड़ा जख्म भर देता है ..पर बातों के जख्म कभी -कभी उम्र भर नहीं भरते ।दो साल में ही ईश्वरेच्छा से भाभी और बड़ी दीदी की गोद स्वस्थ,सुंदर बेटों से भर गई तो ताऊ जी ने गांव भर को दावत दी पर ताऊ जी ,ताई जी के लाख मनाने पर भी बिट्टा बुआ ने एक टुकड़ा भी मिठाई का मुंह में नहीं डाला और घर में एक बार झांका तक नहीं ...ताई जी का वह महोत्सव बिट्टा बुआ के लाल महकते गुलाब के अभाव में अधूरा ही रह गया...ताई जी मन मसोस कर रह गईं ...ताई जी का कोई भी उत्सव आज तक बिट्टा बुआ को खिलाए -पिलाए बिना पूर्ण नहीं होता था परन्तु इस बार बिट्टा बुआ ने बड़े ही स्वाभिमान-पूर्वक उनका यह उत्सव फीका कर दिया था ताई जी बहुत दुखी और शर्मिंदा थीं ।
बिट्टा बुआ अक्सर पापा और ताऊ जी से दुखी स्वर में ताई जी की शिकायत करती थीं परन्तु परम आश्चर्य यह था कि तिल को ताड़ बना कर गाने वाली बिट्टा बुआ गांव में किसी के भी सामने ताई जी के खिलाफ मुंह नहीं खोलती थीं सम्भवत: यही ताई जी द्वारा किए गए पूर्व उपकारों का प्रत्युत्तर था...वर्ना इस तरह की घटना पर उनका इस तरह चुप रह जाना कितना आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया थी ....और वे ताई जी को कितना स्नेह करती थीं ये हम सब जानते थे.
शनै:-शनै: अनियमित आहार एवं उम्र के तकाजों से उनकी कमर बहुत झुक गई थी...झुर्रियां तो मैंने बचपन से लेकर आखिर तक उतनी ही देखीं...मृत्यु सेछै: -सात माह पूर्व तक उनका स्वास्थय बहुत गिर गया था ठीक से उपचार भी नहीं हो रहा था...उनके जीने की आकांक्षा ही किसे थी ?
अपने बड़े कमरे और आधे आंगन में वे भाई और भाभी को पैर भी नहीं रखने देती थीं...अत: पूरे घर पर कब्जे का स्वप्न पूरा होता देख वे दोनों बहुत पुलकित थे ...और इधर जीवन के अस्त होते सूर्य की किरणें उन्हें निस्तेज करती जा रही थीं...बस तीन चीजों का मोह उन्हें अभी भी जकड़े हुए था कभी घिसट -घिसट कर क्यारी से ढ़ेरों लाल गुलाब तोड़ कर तकिए के पास सजा लेतीं और कभी गिरती-पड़तीं चौपाल पर जाकर कुंए को तृप्त आंखों से देखती रहतीं ...तो कभी जूते चप्पल के ढ़ेर को कृपण की संपत्ति की भांति कांपते हाथों से सहलाती रहतीं ।
एक दिन उनकी तबियत बहुत खराब थी अंत निकट था...बोल नहीं पा रही थीं...गांव वालों ने मिल कर उनकी खाट चौपाल पर निकाली...सब नम आंखों से चारों तरफ घेर कर बैठ गए ...ताई जी तुलसी,गंगाजल उनके मुंह में डाल रही थीं..राम-राम का जाप चल रहा था...सभी का मन भारी था भले ही उनकी तीखी जुबान से कोई न बचा हो पर उनका कोई बैरी भी तो नहीं था...एक पल यदि किसी से झगड़ आतीं तो दूसरे ही पल फिर मेल कर लेतीं..गांव की बेटियों ने भले ही उनकी गाली खाई हो पर विवाह मंडप में कौन ऐसी बेटी थी जिसके दूल्हे को और उसको लाल गुलाब का आशीष न मिला हो जब तक उनके शरीर में ताकत थी भला कौन नवजात -शिशु या कौन नवेली बहू होगी जिसे लाल -गुलाब का तोहफा और ढ़ेरों आशीष न मिले हों...उनके पास और था ही क्या बस यही एक सम्पदा थी और था प्यार और आशीषों से भरा हृदय...सारा गांव ही उनका अपना था और वे सबकी...अन्तिम समय पूरा गांव ही उनकी खाट के चारों तरफ सिमट आया था ।
जब उनकी सांसें अटक-अटक कर गिनती पूरी कर रही थीं तभी अचानक उनके भाई ने बिट्टा बुआ के कमरे से जूते चप्पल निकाल कर बाहर गली में फेंकने शुरू कर दिए...गांव वालों ने रोकने की कोशिश भी की पर उसने किसी की भी नहीं सुनी...बिट्टा बुआ सब देख रही थीं उनकी दोनों आंखों की कोरों से आंसू टपक रहे थे...मानो कह रहे हों कुछ देर और रुक जाओ हमारे प्राण पखेरू उड़ने ही वाले हैं ...जिस घोंसले पर इतने दिन हमारा बसेरा रहा उसे और थोड़ी देर मत उजाड़ो ...पर दुष्टों की आत्माएं भी बहरी ही होती हैं...अंतिम समय जान सबने मिल कर बिट्टा बुआ को धरती पर उतारा...पूरी ताकत से उन्होंने बड़े दर्द से आंख खोल बाहर पड़े जूते -चप्पलों के ढ़ेर को देखा और एक हिचकी के साथ सारे बंधन तोड़ कर प्राण- पखेरू उड़ चले जहां न उन्हें कोई माया थी न मोह का बंधन ।
अपने बड़े कमरे और आधे आंगन में वे भाई और भाभी को पैर भी नहीं रखने देती थीं...अत: पूरे घर पर कब्जे का स्वप्न पूरा होता देख वे दोनों बहुत पुलकित थे ...और इधर जीवन के अस्त होते सूर्य की किरणें उन्हें निस्तेज करती जा रही थीं...बस तीन चीजों का मोह उन्हें अभी भी जकड़े हुए था कभी घिसट -घिसट कर क्यारी से ढ़ेरों लाल गुलाब तोड़ कर तकिए के पास सजा लेतीं और कभी गिरती-पड़तीं चौपाल पर जाकर कुंए को तृप्त आंखों से देखती रहतीं ...तो कभी जूते चप्पल के ढ़ेर को कृपण की संपत्ति की भांति कांपते हाथों से सहलाती रहतीं ।
एक दिन उनकी तबियत बहुत खराब थी अंत निकट था...बोल नहीं पा रही थीं...गांव वालों ने मिल कर उनकी खाट चौपाल पर निकाली...सब नम आंखों से चारों तरफ घेर कर बैठ गए ...ताई जी तुलसी,गंगाजल उनके मुंह में डाल रही थीं..राम-राम का जाप चल रहा था...सभी का मन भारी था भले ही उनकी तीखी जुबान से कोई न बचा हो पर उनका कोई बैरी भी तो नहीं था...एक पल यदि किसी से झगड़ आतीं तो दूसरे ही पल फिर मेल कर लेतीं..गांव की बेटियों ने भले ही उनकी गाली खाई हो पर विवाह मंडप में कौन ऐसी बेटी थी जिसके दूल्हे को और उसको लाल गुलाब का आशीष न मिला हो जब तक उनके शरीर में ताकत थी भला कौन नवजात -शिशु या कौन नवेली बहू होगी जिसे लाल -गुलाब का तोहफा और ढ़ेरों आशीष न मिले हों...उनके पास और था ही क्या बस यही एक सम्पदा थी और था प्यार और आशीषों से भरा हृदय...सारा गांव ही उनका अपना था और वे सबकी...अन्तिम समय पूरा गांव ही उनकी खाट के चारों तरफ सिमट आया था ।
जब उनकी सांसें अटक-अटक कर गिनती पूरी कर रही थीं तभी अचानक उनके भाई ने बिट्टा बुआ के कमरे से जूते चप्पल निकाल कर बाहर गली में फेंकने शुरू कर दिए...गांव वालों ने रोकने की कोशिश भी की पर उसने किसी की भी नहीं सुनी...बिट्टा बुआ सब देख रही थीं उनकी दोनों आंखों की कोरों से आंसू टपक रहे थे...मानो कह रहे हों कुछ देर और रुक जाओ हमारे प्राण पखेरू उड़ने ही वाले हैं ...जिस घोंसले पर इतने दिन हमारा बसेरा रहा उसे और थोड़ी देर मत उजाड़ो ...पर दुष्टों की आत्माएं भी बहरी ही होती हैं...अंतिम समय जान सबने मिल कर बिट्टा बुआ को धरती पर उतारा...पूरी ताकत से उन्होंने बड़े दर्द से आंख खोल बाहर पड़े जूते -चप्पलों के ढ़ेर को देखा और एक हिचकी के साथ सारे बंधन तोड़ कर प्राण- पखेरू उड़ चले जहां न उन्हें कोई माया थी न मोह का बंधन ।
हमारी प्राचीन मान्यताएं हैं कि जो जैसा करता है वो वैसा भरता है वो इहलोक या परलोक में अवश्य ही उसके फल का भुक्तभोगी होता है...बिट्टा बुआ को गुजरे एक वर्ष भी नहीं बीता था कि जवान बेटे की मृत्यु का दुख बिट्टा बुआ के भाई मंगल सिंह को हिला गया था...कभी बिट्टा बुआ की मृत्यु पर उनकी बहन के रोने पर जो उनकी भाभी बहुत दर्प से कह रही थीं..`जाने लोग कैसे रो लेत हैं हमको तो भाई रुलाई आउत ही नाय है...’नहीं जानती थीं कि नियति तब मुस्कुरा रही थी...और जब जवान बेटे की लाश पर वे अपने बाल नोंच कर पछाड़ें खा कर रो रही थीं तब वही नियति ठठा कर हंस रही होगी...`देखा ऐसे रोना आता है...’ ।
बिट्टा बुआ की मृत्यु के दो वर्ष पश्चात जब हम लोग गांव गए तो देखा मंगल सिंह खूब बाल्टी भर-भर कर बिट्टा बुआ के कुंए के पानी से नहा रहे थे...घर जाने पर ताऊ जी ने बताया कि मंगल सिंह पागल हो गए हैं बस सर्दी -गर्मी जब देखो नहाने लगते हैं कई -कई बाल्टियों से और आठ-दस बार लोटा मांज कर मानो बुआ की तड़पती-अतृप्त आत्मा को तर्पण देते रहते हैं...उनकी पत्नि किवाड़ के पीछे खड़ी उनकी हालत देख विवश सी रोती रहती हैं...सर्वशक्तिमान से भी पहले कई बार अपनी अन्तर्रात्मा ही हमें सजा दे देती है । गांव के सब लोग कहते हैं कि हर रात मंगल सिंह के लोटे की जलधार के नीचे अंजुलि-बद्ध बिट्टा बुआ की तृषित आत्मा वह जल पीती है...परन्तु मेरा मन यह बात कभी भी स्वीकार नहीं करता जो भाई प्राय: उन पर हाथ तक उठा देता था उसके हाथों दिए तर्पण को स्वीकार करने की अपेक्षा वे प्यासा तड़पना ही स्वीकार करेंगी...भले ही मंगल सिंह का लोटा मांजते घिस जाए या कुंए का जल समाप्त हो जाए ।
मेरा अबोध मन इस विश्वास को भी नहीं झुठला पाता कि रात को वे फरिश्ते का हाथ पकड़ जरूर आती होंगी अपनी क्यारियों के लाल गुलाबों को खिलता देखने के लिए...और भोर से पहले असंख्य झिलमिल तारों के बीच अनन्त गहराइयों के पार स्थित स्वर्ग लोक की ओर उड़ जाती होंगी
—समाप्त
मेरा अबोध मन इस विश्वास को भी नहीं झुठला पाता कि रात को वे फरिश्ते का हाथ पकड़ जरूर आती होंगी अपनी क्यारियों के लाल गुलाबों को खिलता देखने के लिए...और भोर से पहले असंख्य झिलमिल तारों के बीच अनन्त गहराइयों के पार स्थित स्वर्ग लोक की ओर उड़ जाती होंगी
—समाप्त
ओह । बहुत ही दिलचस्प चित्रण । आपने तो तस्वीर खींच कर रख दी । अगले पार्ट की उत्सुकता से प्रतीक्षा है । ऐसे चरित्र सच में आज भी विद्यमान हैं ।
जवाब देंहटाएंपढने के लिए आभार...साधना जी यहां किश्तों में पूरी कहानी पोस्ट कर दी है मैंने ...पूरी पढ कर बताएं...सुझाव दें 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और जीवन्त चित्रण किया है आपने बिट्टा बुआ का । बहुत सुन्दर कहानी ।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार 🙏
हटाएंबेहद दिलचस्प कहानी 👌
जवाब देंहटाएंशुक्रिया…कृपया पूरी पढ़ें🙏
हटाएंप्रिय उषा जी,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी प्रथम कृति का पहला भाग पढ़कर रहा न गया सारी छः किस्ते पढ़कर मन भीग गया।
बिट्टा बुआ का सुंदर ,सुगढ़,संस्मरणात्मक सजीव चित्रण आपकी लेखनी ने अमिट छाप छोड़ दी है मन पर।
सस्नेह प्रणाम
सादर।
बहुत आभार आपका🙏
हटाएंमन को आकृष्ट कर रही है पहली किश्त की पूरा पढ़ लूं,
जवाब देंहटाएंरोचक मन को छू गई आपकी कथा।
अभी तो पहला भाग ही पढ़ा है इतना रोचक है कि जल्द ही पूरी कहानी पढ़ूंगी ।बहुत ही हृदयस्पर्शी कहानी।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया…पूरी पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें🙏
हटाएंआपकी ये कहानी पूरी एक साथ पढ़ छुकी हूँ , इसलिए यहाँ कोई प्रतिक्रिया नहीं ।🤣🤣🤣
जवाब देंहटाएंचुकी *
जवाब देंहटाएंठीक है😂🙏
जवाब देंहटाएंकहानी में रोचकता है, भाषा और शिल्प बहुत बेहतरीन
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