सोच लेने भर से ही सहमकर उसने खाट की तरफ देखा, पर विनय मजे में छाती पर हाथ बांधे टांगें फैलाये सो रहे थे । गले से मोटे पेट तक और पेट से पैर तक फैली चादर का आरोह-अवरोह देखती रही। तनी हुर्इ चादर पंखे की हवा से लगातार कांप रही थी।
जाने क्यों उसे बडी जोर की इच्छा हुई कि वह शीशा देखे। डरती-डरती सी वह शीशे के सामने जाकर आंखें बंद कर खडी हो गयी । आंखें खोली तो उसे लगा, वह किसी अजनबी जिस्म को देख रही है। किसी दूसरी औरत के शरीर को।
शीशे की तरफ हाथ बढाकर उसने अपने अक्स को छूना चाहा तो उसकी तर्जनी शीशे के पथरीलेपन से टकराकर अटक गयी। उसे एक क्षण के लिए यह अपनी देह का ही सत्य लगा कि हृदय में कोई स्पन्दन न था। न जाने क्यों जब उसने वापस हाथ अपने सीने पर रख धुकधुकी महसूस की तो वह एक अचरज से भर उठी।
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? बार-बार उठ रहे इस अचरज को कहां छुपा दे ? चकले-बेलन के बीच पीस डालेअचार का इमर्तबान खोल उसमें झोंक दे या फिर दूध में जामन की जगह डाल आराम से सो जाये।
उसने कितना चाहा, वह सो जाये, परन्तु पैरों में न जाने कैसी हठीली पायजेब पड गयी थी। न चाहने पर भी अवश होकर दृष्टि उठाकर उसने शीशे में खड़ी औरत को देखा।छोटे से हेयरपिन की सहायता से ठोंका गया गुठली सा जूडा। गले की अवश दो उभरी हड्डियां और असहाय सा गले की दोनाें हड्डियों के बीच का अबोध गड्ढा । अचानक उसे ख्याल आया, क्या आज भी मधु उसे देखकर कह सकती है- 'तेरा यह नन्हा सा गड्ढा ही बस इतना प्यारा है कि..... ' शरारत से आंख झपकाती मीनू जैसे कल्पना से भी आंख चुरा कर उड गयी। सहसा उसका ध्यान आंखों पर गया तो वह चौंक पडी। अरे, कब वे लम्बी-घनी बरौनियां झड गयीं ? उसके चेहरे पर इतनी झांइयां कब पडी ? वह कब इतनी निचुड गयी ?
कॉलेज में भी वह कभी मेकअप करके नहीं जाती थी। उसे पता था, उसके रूप में वह कुछ है जो उसे औरों से अलग खड़ा कर हर क्षण नवीनता से भर देता है । मनु उसके कान पर झुक कर किस कदर गुनगुनी आवाज में मदालस भ्रमर-सा गुनगुनाता था तो वह नखशिखान्त लाल पड जाती थी। उसे लगा अब तक की आधी उम्र उसने लाल पड़ कर लाज की गुडिया बनने में काटी और अब बाकी उम्र वह हल्दी घोलती पीली ही पडती रहेगी।
उस दिन वह पढने के लिए अपनी मेज पर गयी भी, तो लिफाफा उत्सुकता से खोल एक फोटो देख अचकचा गयी थी। फिर सहसा कुछ कौंध गया। पलटकर देखा, फोटो पर 'इलाहबाद' के फोटो स्टूडियो की छाप थी। उसे समझते देर न लगी, कई दिनों से घर में 'इलाहाबाद वाले लडके' के बारे में उसके कानों में पडता रहा था।
मम्मी ने उसकी राय जाननी चाही होगी। क्रोध व झुंझलाहट में उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं। क्या दोनों बहनें या मम्मी कोई भी उसके उसके हाथ में यह फोटो देकर साफ बात नहीं कर सकती थीं ?
धुंधली दृष्टि में भी परख ली गयी कपडों की कीमती सिलाई से उधार मांगी स्मार्टनेस उसे तिलमिला गयी थी। छोटी आंखें, भरे पुष्ट गाल, मंझोला-कद और मांसल होठों का वह सांवला सा नजर आने वाला व्यक्तित्व निश्चय ही व्यापारी होगा।
उसने मुक्के मार-मारकर तकिये को धुन डाला। उसका जी चाहा वह तानपूरे से सिर फोड़ ले। तबलों को टन्न से सडकपर दे मारे। ऑयल-कलर्स के सारे ट्यूब निचोडकर उन्हें खा जाये। आर्ट पेपर्स के टुकडे-टुकडे कर दे। कैनवास जला दे, पर वह ऐसा नहीं कर पायी।
दूसरे दिन मम्मी उसे सुना-सुनाकर चड्ढा आंटी से कह रही थीं। 'लाखों रूपया है, पढे-लिखे सभ्य लोग हैं। लडका भी ठीक और फिर लडके की खूबसूरती देखता ही कौन है, गुण देखते हैं।'
'मतलब संयोगिता को पसन्द है लडका ?' उन्होंने थूक सुडक कर बडी बुजुर्गी से मजा लेकर पूंछा।
'अरे हमने पसन्द किया था क्या ? हमारे मां-बाप ने पसन्द किया था। मां-बाप भला ही करते हैं।' दीदी जल्दी-जल्दी धूप में चटाई पर पसरी चैन से सलाइयां चलाये जा रही थीं।
'सो तो है ही ? पर आजकल की लडकियाें को तो आप जानती ही हैं, दिखा लेना ठीक रहता है बहन जी ।'
हमारी संयोगिता ऐसी नहीं है, बहुत ही सीधी है। बेचारी को यह तक तो पता नहीं ठीक से कि उसकी उम्र कितनी है, वह क्या जांचेगी?'
एक तो उसे मम्मी, दीदी पर गुस्सा आ रहा था जिन्हें चड्ढा आंटी ही मिली थीं बताने काे, जो मोहल्ले भर में अभी पूर आएंगी दूसरे जबरदस्ती लादी गयी 'समझदारी' के बोझ के नीचे लद्दू घोडे-सी वह पिस कर रह गयी।
चड्ढा आंटी को तो वह जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी कभी। थूक सुडक-सुडक कर हर बात के बीच में फूहड तरीके से मतलब-मतलब कहती बातें करतीं तो लगता 'दो-एकम -दो' का पहाडा रट रही हैं ।
बहुत बार दीदी ने घुमा-फिरा कर उससे फोटो के बारे में राय जाननी चाही, परन्तु वह मौन ही रही । न समझने का ढोंग कर तटस्थ बनी रही।
उसे लगा काश वह अभी, इसी क्षण से कई सालों को सो जाये और चाराें तरफ घनी कंटीली झाडियां उग आयें , रास्ते पथरीले हो जायें और वह कई सालों तक न जागे। तब उसकी कल्पना का राजकुमार झाडियां काटता आये और उसे जगा ले। अगले रोज कॉलेज में मीनू के सामने बहुत देर चुप रहने के बाद वह फिर खोयी-खोयी सी बोली थी, 'कभी-कभी' मैं भी सोचती हूं मेरी इतनी उम्र, इतनी शिक्षा सब व्यर्थ है, यदि मैं खुद की अनाथ मांगों को पूरा नहीं कर सकती। मुझे तो हर तरफ घोर अंधेरा ही दिखाई देता है.....' कैसी विवशता थी वह, भोगते जाना अनाम पीडाओं को और फिर तडपना।
उसने किसी से कोई शिकायत नहीं की, परन्तु बहनों को, पडोसियों और नातेदारनियों, यहां तक कि धोबिन, महरी तक को यह देखकर कि वह विदा में जरा भी नहीं रोयी, उसने घूंघट नहीं किया, बडा ही सदमा लगा। पर दरवाजे पर आरता करने से पहले ही सास ने जब हाथ बढाकर कठोर चेहरा बना आंचल खींच कर मुख ढांप दिया था, तो वह कुछ भी नहीं कर पायी थी। फिर, कुछ दिन बाद तो उसे यह बडा ही मजेदार लगा था कि लम्बा घूंघट काढ कर सारी दुनिया से अलग एक पर्दे में अपनी आंखों के सारे रंग छुपा लो।
जब वह पहली बार विनय के पत्र का उत्तर लिखने बैठी थी, तो घंटों कोशिश करने पर भी एक शब्द तक नहीं लिख सकी थी। सस्ती, रोमांटिक, उपाधियों से भरी उन पढ-पढकर चुरायी गयी पंक्तियों का क्या उत्तर दे, वह समझ नहीं पायी।
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