ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (भाग 5)






शनै:-शनै: अनियमित आहार एवं उम्र के तकाजों से उनकी कमर बहुत झुक गई थी...झुर्रियां तो मैंने बचपन से लेकर आखिर तक उतनी ही देखीं...मृत्यु सेछै: -सात माह पूर्व तक उनका स्वास्थय बहुत गिर गया था ठीक से उपचार भी नहीं हो रहा था...उनके जीने की आकांक्षा ही किसे थी ?
अपने बड़े कमरे और आधे आंगन में वे भाई और भाभी को पैर भी नहीं रखने देती थीं...अत: पूरे घर पर कब्जे का स्वप्न पूरा होता देख वे दोनों बहुत पुलकित थे ...और इधर जीवन के अस्त होते सूर्य की किरणें उन्हें निस्तेज करती जा रही थीं...बस तीन चीजों का मोह उन्हें अभी भी जकड़े हुए था कभी घिसट -घिसट कर क्यारी से ढ़ेरों लाल गुलाब तोड़ कर तकिए के पास सजा लेतीं और कभी गिरती-पड़तीं चौपाल पर जाकर कुंए को तृप्त आंखों से देखती रहतीं ...तो कभी जूते चप्पल के ढ़ेर को कृपण की संपत्ति की भांति कांपते हाथों से सहलाती रहतीं ।
एक दिन उनकी तबियत बहुत खराब थी अंत निकट था...बोल नहीं पा रही थीं...गांव वालों ने मिल कर उनकी खाट चौपाल पर निकाली...सब नम आंखों से चारों तरफ घेर कर बैठ गए ...ताई जी तुलसी,गंगाजल उनके मुंह में डाल रही थीं..राम-राम का जाप चल रहा था...सभी का मन भारी था भले ही उनकी तीखी जुबान से कोई न बचा हो पर उनका कोई बैरी भी तो नहीं था...एक पल यदि किसी से झगड़ आतीं तो दूसरे ही पल फिर मेल कर लेतीं..गांव की बेटियों ने भले ही उनकी गाली खाई हो पर विवाह मंडप में कौन ऐसी बेटी थी जिसके दूल्हे को और उसको लाल गुलाब का आशीष न मिला हो जब तक उनके शरीर में ताकत थी भला कौन नवजात -शिशु या कौन नवेली बहू होगी जिसे लाल -गुलाब का तोहफा और ढ़ेरों आशीष न मिले हों...उनके पास और था ही क्या बस यही एक सम्पदा थी और था प्यार और आशीषों से भरा हृदय...सारा गांव ही उनका अपना था और वे सबकी...अन्तिम समय पूरा गांव ही उनकी खाट के चारों तरफ सिमट आया था ।
जब उनकी सांसें अटक-अटक कर गिनती पूरी कर रही थीं तभी अचानक उनके भाई ने बिट्टा बुआ के कमरे से जूते चप्पल निकाल कर बाहर गली में फेंकने शुरू कर दिए...गांव वालों ने रोकने की कोशिश भी की पर उसने किसी की भी नहीं सुनी...बिट्टा बुआ सब देख रही थीं उनकी दोनों आंखों की कोरों से आंसू टपक रहे थे...मानो कह रहे हों कुछ देर और रुक जाओ हमारे प्राण पखेरू उड़ने ही वाले हैं ...जिस घोंसले पर इतने दिन हमारा बसेरा रहा उसे और थोड़ी देर मत उजाड़ो ...पर दुष्टों की आत्माएं भी बहरी ही होती हैं...अंतिम समय जान सबने मिल कर बिट्टा बुआ को धरती पर उतारा...पूरी ताकत से उन्होंने बड़े दर्द से आंख खोल बाहर पड़े जूते -चप्पलों के ढ़ेर को देखा और एक हिचकी के साथ सारे बंधन तोड़ कर प्राण- पखेरू उड़ चले जहां न उन्हें कोई माया थी न मोह का बंधन ।
क्रमश:

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