खिड़की से उडते मेघों को देख मेघदूत के कई श्लोकों को याद कर वह 'यक्षप्रिया' की भांति विह्वल हो जाने के लिए सिर्फ एक बार ही मचली, फिर कागज की चिन्दी-चिन्दी कर उड़ा दी थीं। कुछ सोचकर फिर मीनू को लिखने बैठी-आज मन छटपटाता है मीनू काश मैं पुरूष होती ! बचपन में कभी-कभी कल्पना करती कि यदि भगवान ने कहीं हमें लडका बनाया होता तो ? फिर हम सोचते नहीं-नहीं लडकियों के मजे हैं। मजे में घर रहती हैं, खाती हैं, पीती हैं। न कमाना, न धमाना । सजी-धजी बढिया इन्द्रधनुषी साडियां पहनों, सपने देखो, सितारों -से जेवर पहनों और कोमलता-कोमलता में मजे से रही। लडकों को तो न जेवर मिलते हैं, न बढिया शोख रंग । वे ही उबाऊ सिलेटी ,बादामी रंग। सारे दिन जी-तोड कर कमाओ और धूल फांकते फिरो। न बाबा, लडका होना बडा बुरा है।
परन्तु आज लगता है, लडकी होना बहुत बडा अभिशाप है। पीडाएं झेलना, झेल-झेल कर कर्कश-कठोर हो जाना, यही भाग्य में है उसके। लडकी के बड़े सुन्दर पंख होते हैं, पर उड़ने के लिए नहीं, छटपटाने के लिए।
कभी सोचती हूं , क्या एक दिन मैं भी और औरतों की तरह महिला-मण्डली में बैठकर दूसरों के छिद्रान्वेषण में दिन बिताया करूंगी ? दाेनों समय जानवरों की तरह पेट ठूंसकर क्रोशिया या सिलाइयां चलाती, झुंझलाती जीवन बिता सकूंगी ?जाने कितना अनमोल समय मुझे बेमोल-सा करता छूकर गुजर जाता है।
रंग -ब्रश सब उसने मीनू को दे दिये थे और 'ऊपर वाली आंटी' के पास गयी थी।
'क्यों संयोगिता कैसी हो भई ? तुम्हारे कैनवास तो मैं मंगवा नहीं पायी, कोई गया ही नहीं आगरा । अबकी बार मंगवा दूंगी। अभी तो तुम ससुराल नहीं जा रही हो न ?
'जाने का तो कुछ पता नहीं अभी आंटी, पर आप कैनवास मत मंगवाइएगा अभी।'
'कोई नई पेटिंग बना रही हो आजकल?
'नहीं, कोई भी नहीं बना सकी ।' उसने आंख चुरा लीं ।
'अच्छा आंटी चलूं, देर हो रही है।'
'अच्छा, जाओ तो मिलकर जाना। इतनी कमजोर क्यों होती जा रही हो तुम?
उसे बड़ी उलझन हुई नजरों ही में खोद-खोद कर सब जानें क्या जानना चाहते हैं?
टी ०वी ० से देख कर, तो कभी और ढेरों कुकरी-बुक्स तथा मेगजीन से पढकर चौके में ठेठ गृहस्थिन के अन्दाज में कमर में आंचल खोंस रोज ही कुछ न कुछ बनाती हुई उसे देख मां बहुत ही खुश हुई थीं क्यों कि उनके अनुसार 'मरद-जात' बढिया भाेजन से ही खुश की जा सकती है। इस दृष्टि से विनय की जाति मां के अनुसार खरी उतरती थी। सोचकवह मुस्कुरा पड़ी थी।
परन्तु ससुराल में जाकर वे पनीर के कोफ्ते, बिरयानी, रोगन -जोश, शामी कबाब, स्पेनिश-राइस,चाइनीज़ ,इटैलियन रेसिपीज सब डायरी तक ही सीमित रह गयी थीं, पन्द्रह-बीस लोगों का खाना-नाश्ता तैयार करते-करते ही वह इतनी अधमरी हो जाती कि सूखी सब्जी, दाल, रसेदार सब्जी, कढी, रायता, बडियों से आगे कुछ और की सीमा वह असम्भव मान बैठी थी। चाइनीज बनाने की एक बार इच्छा हाेने पर जब तामझाम जुड़ाने लगी तो सबके सवालोँ और उत्सुकता भरे सवालों से ही पस्त हो गई ऊपर से किसी को खास पसंद भी नहीं आया। छोटी-छाेटी कलात्मक, कागजी, हल्की, मुलायम अपनी बनायी रोटियों पर उसे कितना नाज था। पर इतनी 'भारी-रसोई में यदि तीन-तीन बार परथन लगाकर वह फूल-सा बेलन नजाकत से घुमाती तो क्या इतने सारे लोगों को एक समय की भी रोटी शाम तक दे पाती।
एक बार सब्जी के लिए भिंडी काटते समय मम्मी बोली थीं, 'ऐसे काटी जाती है सब्जी? कोई छोटा टुकडा तो कोई बडा?ऐसी कला से क्या फायदा कि दो चार पेन्टिंग बनाकर दीवार पर लीं, और चीजों में भी कलात्मक-रूचि होनी चाहिए '!
लेकिन कहां रह पायी है अब कलात्मक अभिरूचि ? कमरे की सजावट में चाहे वह कितनी ही कलात्मकता उडेलती, कभी जेठानी का बिन्नी पर्दे को नन्ही घण्टियां नोच बिल्ली की पूंछ में बांध देता, तो कभी देवरानी की टुन्नी फूलदान से फूल निकाल अपनी मैडम को पेश कर आती ।
खुद विनय ही कौन कम थे ? सारे कमरे में सामान छितरा देते, कभी शेविंग का, तो कभी कपडों का । ताम -झाम समेटती वह थकान से पस्त, गुजली -मुजली चादर पर ही निढाल होकर सो जाती ।
कई बार उसने जीवन को जीना चाहा पूरी आस्था और पकड़ से । कई बार चाहा, वह अपने हाथों अपने आप, अपने चारों ओर का बिखरापन, अस्त-व्यस्तता कुछ सुव्यस्थित करे, तब बडे जोर-शोर से कपडों की अलमारी या किताबों से शुरुआत करती और अन्त होता जूते-चप्पलों की कतार पर और बस इसके आगे सब ठंडा ।
अपने से थक कर, पस्त होकर जब वह बाहर देखती है तो कई बार आश्चर्य- चकित हो उठती है। सब ओर, सब कुछ कितना क्षणिक है । कोई एक दिन मरा, दूसरे दिन, तीसरे दिन तक मातम रहा और फिर सब सामान्य, वे ही संवरे- संभले, व्यस्त लोग !
फिर कैसे उसके जीवन में ही सब बदसूरती, ऊब शाश्वत सत्य होकर कुण्डली मार बैठ गयी है? शुरू - शुरू में उसे अपना आप और भी बेढंगा, अनचाहा, अनचीह्ना लगता था। अब तो फिर भी काफी अभ्यस्त हो गयी थी।
वो भी प्लेटें अब साफ तौलिये से साफ करने की अपेक्षा कूल्हे पर साड़ी से रगड कर या पल्ले से चम्मच पोंछ लेने में सहूलियत महसूस करने लगी थी ।
अब उसे पड़ोस की औरतें इतनी फूहड नहीं लगती थीं ।दो-दो दिन तक चोटी न होने पर भी समय से सबको खाना खिला देने पर सन्तोष हो जाता है। उसे पता होता था जेठानियों की शातिर चालों का, अक्सर सास के कानों में मंत्र फूंके जाते थे यह और बात है कि उसका असर नहीं होता था।
फिर भी वह ऊपर से शांत, सहज थी। उसे लगता था जरूरत के हिसाब से उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमताएं रबड़ की भांति खिंच जाती हैं । वह आश्वस्त थी महान कलाकारों, दार्शनिकों कवियों का आदर्श, उनके पद-चिह्नों पर चलने का स्वप्न सब कुछ उसके लिए अतीत की झक हो गये थे।
उसकी कोमल, सूक्ष्म अनुभूतियां मर गयी थीं। व्यक्तित्व की पर्तों से कविताओं का जादू उतर गया था, स्वप्नों के पंख नुच गये थे पर मां सन्तुष्ट थीं। सुबह-शाम पूजा घर में महाशान्ति से माला जपतीं चन्दन घिसतीं मुक्ति की साधना में लीन थीं। पापा जिम्मेदारियों से मुक्त थे। सास को आदर्श बहु मिली थी और विनय को दो स्वस्थ बच्चों वाली सुघड, सहनशील पत्नी । सब ही तो सुखी थे।
लम्बी सांस लेकर वह बच्चों के कमरे में गयी। मनीषा पढते-पढते छाती पर किताब रखे-रखे ही सो गयी थी। लैम्प जल रहा था। उसने किताब उठाकर देखी । सिंड्रेला का पाठ खुला हुआ था। सोती हुई नन्हीं -सुकुमार बिटिया को देख वह करूणा विगलित हो उठी, जिसकी नन्हीं-नन्हीं पलकों पर सिंड्रेला बनने का सपना महक रहा था। होंठ नाजुक-स्पन्दन से मुस्कुराते थोडे से खुल गये थे। रूआंसे होकर उसने सोचा, वह उसे जगा दे ताकि वह यह सपना भूल कर कोई दूसरा सपना देखने लगे। कोई वास्तविक या ठोस सपना । पर फिर उसे लगा वह सपनों के साथ दौड़ नहीं सकती। वे सपने जो पहले आगे दौडते हैं और फिर सहसा बहुत पीछे छूट जाते हैं ।
हाथ में थामी किताब का पन्ना न जाने कब उसके हाथों-मसल कर अधफटा हो गया था। किताब रखकर उसने बहुत करूणा से बेटी का माथा चूम लैंप बुझा दिया और सपनों को उसकी पलकों पर छोड़ कमरे से बाहर निकल आयी।
उसे लगा आज शायद वह बहुत दिनों बाद सोती राजकुमारी, संयोगिता या सिंड्रेला का प्यारा सा सपना देखेगी। कुछ भयभीत सी कुछ उत्तेजित सी वह जाकर अपने बैड पर लेट गयी। बगल से विनय के खर्राटों को सुनती संयोगिता न जाने कब सो गयी।
समाप्त
यह मेरी कहानी 1979 में सर्वप्रथम सारिका में छपी थी |
उसे लगा आज शायद वह बहुत दिनों बाद सोती राजकुमारी, संयोगिता या सिंड्रेला का प्यारा सा सपना देखेगी। कुछ भयभीत सी कुछ उत्तेजित सी वह जाकर अपने बैड पर लेट गयी। बगल से विनय के खर्राटों को सुनती संयोगिता न जाने कब सो गयी।
समाप्त
यह मेरी कहानी 1979 में सर्वप्रथम सारिका में छपी थी |
उफ़्फ़्फ़...... क्या लिखती हो तुम!! मैं तो एक के बाद एक धड़ाधड़ पढ़ती गयी. बहुत सधी हुई भाषा है तुम्हारी, और कमाल की शैली. सारे दृश्य जीवंत हो उठे. हर उस हिन्दुस्तानी लड़की की कहानी है ये, जिसने अपने सपनों को दम तोड़ते देखा है....! बहुत प्यारी कहानी.
जवाब देंहटाएंआभार वन्दना ...पढने और सराहने के लिए...शादी से पहले लिखी थी एक तरह से खुद को डरा कर वादा किया था खुद से इस कहानी को लिख कर ...तुम्हारी सराहना बहुत बहुमुूल्य है मेरे लिए ।
जवाब देंहटाएंस्त्री के अपने सपने धरे रह जाते हैं जब वह दूसरों के सपनों की धुरी बन जाती है.रोचक कथांश ने उत्सुकता बढ़ा दी है. आगे कैसे बदलेगा जीवन या यूँ ही चलता रहेगा!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वाणी ! फिलहाल तो सुंदर सपनों की आशा में सो गई है संयोगिता....!
हटाएंकमाल की अभिव्यक्ति है ऊषा जी . परिवेश का चित्रण भावनाओं का शब्दांकन बहुत सूक्ष्ममता से किया गया है .यही विशेषता मुझे वन्दना की कहानियों में मिली . अभी मुझे सीखना है . आपका यह नया रूप देख मैं और भी अभिभूत हूँ .
जवाब देंहटाएंअरे नहीं गिरिजा जी सीखना तो मुझे है आप लोगों से ...मेरी बहुत पुरानी कहानी है ये...आप ,वन्दना, शिखा बहुत सशक्त लेखिकाएं हैं ।
हटाएंBhut hi accha likha hai. Aise hi likhte rahiye. Hindi me aise hi kuch rochak khabre padne ke liye aap Top Fibe par visit kar sakte hai.
जवाब देंहटाएंअधिकांश भारतीय गृहणियों के मन को जैसे शब्दों में उकेर दिया है । भाषा और शैली का उत्कृष्ट नमूना पढ़ने को मिला । कुछ क्षेत्रीय शब्द जिन्हें पढ़ बरबस मुस्कान आ गयी जैसे पूरना , लद्दू घोड़ा । कहानी के तीनों भाग एक साथ पढ़ने में आनंद आया । लेखन शैली उत्सुकता को निरंतर बनाये रहती है । आपसे परिचय कराने के लिए शिखा का शुक्रिया और ढेर से प्यार ।
जवाब देंहटाएंसंगीता जी आपसे शाबाशी मिल गई ये बड़ी बात है मेरे लिए...बहुत धन्यवाद आपका और शिखा काभी जिसने आपसे परिचय करवाया ����
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