ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शनिवार, 5 जुलाई 2025

गरीब ( लघुकथा)



कोरोना के कारण दो साल तक आर्यन की बर्थडे पर कोई नहीं जा सका था तो मानसी ने इस बार सबको फोन पर जोर देकर कहा कि इस बर्थडे पर सबको  जरूर आना है|

दिन में  आर्यन ने अपने दोस्तों के साथ बर्थडे सेलिब्रेट की और शाम को पारिवारिक पार्टी होटल में थी, तो सब टाइम से तैयार होकर वहीं पहुँच गए। 

केक काट कर हंसी मजाक के बीच खाना- पीना चल रहा था। मेरी दृष्टि सामने की टेबिल पर बार-बार जा रही थी, जहाँ बहुत सुन्दर परिवार के दस-बारह सदस्य और तीन बच्चे बैठे थे ।खूब मंहगे डायमंड के जेवरों में झिलमिलाती व ब्रांडेड कपडों में सजी औरतों से आती इम्पोर्टेड परफ़्यूम की खुशबुओं के झोंकों  से पूरा माहौल गमक रहा था। 

सहसा मेरा ध्यान उनमें से एक बुजुर्ग महिला पर गया।

" अरे ये तो मिसेज चड्ढा  हैं…!” मेरे मुंह से अनायास ही निकला ।

" आप पहचानती हैं इन लोगों को ? “ मानसी ने पूछा। 

" हाँ, कई साल पहले ये हमारे पड़ोसी थे। इनकी तब बहुत  छोटी सी दुकान हुआ करती थी। परन्तु आज सुना है कि दिल्ली के किसी मॉल में खूब बड़ी दुकान है और बड़े बेटे ने रेडीमेट गारमेन्ट्स की फैक्ट्री डाली है …किस्मत से खूब लक्ष्मी जी की कृपा है अब !” 

 उनके साथ प्रैम में छोटे बच्चे को लेकर आई  बारह तेरह साल की एक लड़की भी थी। वेष-भूषा से वो बच्चे की सेविका लग रही थी। बच्चा प्रैम में सो रहा था और वो लड़की दूसरी छोटी मेज पर बैठी उन सबको खाते टुकुर-टुकुर देख रही थी। उसके सूखे होंठ, मुरझाया चेहरा और कातर बड़ी-बड़ी आँखें देख कर मन बहुत बेचैन हो उठा। मेरा मन कर रहा था उसे अपनी टेबिल पर लाकर पेट भरके खिला- पिला दूँ, परन्तु यह संभव नहीं था।उन सबकी प्लेटें मंहगे, लजीज बुफे के पकवानों से भरी थीं, जिसे वे भर-भर कर लाते  और आधा खाते, आधा छोड़ते और फिर दूसरी और  तीसरी प्लेट भर लाते। 

मुझे बड़ा गुस्सा आ रहा था कि उस लड़की को कम से कम पूरा बुफे न भी खिलाते पर डोसा , बर्गर टाइप  कुछ न कुछ तो खिला सकते थे।सब बच्चे-बड़े खा रहे हैं और बच्ची बेचारी  भूखी बैठी उन्हें देख रही है।

सहसा किसी ने मेरे कन्धे को स्पर्श किया तो मैंने पलट कर देखा। मिसेज चड्ढा बड़ी आत्मीयता से मुस्कुराती हुई खड़ी थीं। 

" अरे आप ? बहुत सालों बाद देखा, आप तो जरा भी  नहीं बदलीं…कैसी हैं?” मैं हैरान थी , वाकई बीस सालों बाद भी उम्र की एक भी लकीर उनको छू तक नहीं गई थी। बल्कि स्वास्थ्य व सुकून की लालिमा ने चेहरे का सौन्दर्य द्विगुणित कर दिया था।

" तो आप ही कहाँ बदलीं? पहले से ज़्यादा निखर गई हैं।माफ़ कीजिए, आपको देखा तो रुका नहीं गया, मिलने चली आई।” कहते हुए हंस कर गले लग गईं । 

हमने एक- दूसरे की खैर- खबर और फोन नं० लिए। उन्होंने बताया कि उनके छोटे बेटे-बहू की मैरिज एनिवर्सरी है आज, वही सेलिब्रेट करने आई थीं पूरे परिवार के साथ। आगे मिलने का वादा लेकर वे अपनी टेबिल पर परिवार के पास लौटने लगीं, तभी शरद फुसफुसा कर मानसी से बोला-

" मम्मी तो कह रही थीं कि बहुत अमीर हो गए हैं अब ये लोग, पर हैं तो अभी भी गरीब ही। देखो न, एक छोटी बच्ची को खिलाने के लिए बेचारों के पास पैसे कम पड़ गए …!” 

उसके लहजे में तीखा  व्यंग्य था। उसकी फुसफुसाहट काफी स्पष्ट सुनाई दे रही थी। मैं समझ गई उसकी मंशा। मैंने आँखें तरेर कर  उसे चुप रहने का इशारा किया…घबड़ा कर मिसेज चड्ढा की तरफ देखा …जाते- जाते उनके कदम कुछ पल  ठिठके …फिर आँखें  झुकाए वे तेजी से अपनी टेबिल पर वापिस लौट गईं।

                        — उषा किरण

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