ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 8 जून 2025

मन के अंधेरे


पिछले दिनों जापान जाना हुआ तो पता चला कि सबसे ज्यादा सुसाइड करने वाले देशों में जापान भी है।डिप्रेशन एक बेहद खतरनाक बीमारी है।

पिछले दिनों इससे हमारा भी सामना हुआ ।हमारे साथ एक फ़ैमिली रहती है, जिन्होंने मेरा उपन्यास 'दर्द का चंदन’ पढ़ा है वो समझ जाएंगे। उनके छोटे बेटे को एक्यूट डिप्रेशन हो गया। सुन्दर, स्मार्ट और ब्रिलियंट बच्चे की हालत देखकर हम शॉक्ड रह गए। 

कई डॉक्टर्स का ट्रीटमेंट करवाया। काउन्सलिंग अलग से करवाई। हजारों रुपये खर्च करके भी ज्यादा फायदा नहीं हो रहा था। बार-बार सुसाइड करने की कोशिश करता, उसे बचाना मुश्किल हो रहा था। मुझे खुद डिप्रेशन होने लगा। हम लोगों ने हिम्मत नहीं हारी। उसकी टीचर से मिलकर डिस्कस किया। और सबने मिलकर उसको चारों तरफ से अपने दुलार के घेरे में ले लिया।

पहले तो वो हमसे कारण छुपाता रहा। मैं उसको लेकर एक- एक घंटे बैठी रहती। उसे मुझे सुनना अच्छा लगता था। धीरे-धीरे वह खुलकर अपनी सारी बातें बताने लगा। मेरी बेटी और बेटा भी समझाते थे। लेकिन बेटा थोड़ी सख्ती से समझाता था , ताज्जुब ये कि उसे उसी की  डाँट से बहुत अच्छा फील होता था, कहता सबसे अच्छा तो भैया और बुआ ही समझाते हैं । 

-मैंने सबसे पहले उसको खूब लाड़ किया और समझाया कि तुम जैसे भी हो हमारे लिए बहुत कीमती हो।दुनिया में कोई भी तुमको तुम्हारे मम्मी पापा भैया और हम लोगों से ज्यादा प्यार नहीं कर सकता।और ये एक बीमारी है इलाज से ठीक हो जाएगी , इसमें तुम्हारा कोई भी दोष नहीं है। उसको खुलकर सब बताया। 

-मैंने उसको धर्म व आध्यात्म के सहारे थामने की कोशिश की जिसमें भगवद्गीता और पौराणिक कहानियों का सहारा लिया। रेकी दी।उसके मम्मी पापा को भी समझाया कि झाड़-फूंक के चक्कर में मत पड़ना । वो हनुमान जी का भक्त है तो कहा उनका ध्यान करो, मन करे तो हनुमान चालीसा पढ़ लिया करो। 

-जिंदगी कितनी कीमती है , बताया।और कहा वक्त तो तेजी से भाग रहा है , ये वक्त भी निकल जाएगा। कुछ समय बाद तुमको खुद लगेगा कि तुम कितने बुद्धू थे। बस तुम हौसला रखो।कई बार मजाक करती, गुदगुदी करके हँसाती। 

-मैंने उसे कहा चाहें मैं कितनी भी बिजी हूँ, चाहें कहीं भी रहूँ बस एक कॉल पर हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी, मुझे बुला लेना, जब भी मन परेशान हो। चाहें आधी रात ही क्यों न हो। और वह मुझे बेझिझक कह देता अम्मा बात करनी है आपसे। मैं अपने सब काम छोड़कर उसे सुनने बैठ जाती। कभी मन परेशान होता तो कहता अम्मा घूमने चलें ? मैं गाड़ी निकलवा कर घुमा लाती, कुछ शॉपिंग करवा देती, खिला- पिला लाती तो उसका मूड चेंज हो जाता। कई बार आधी रात को नींद में उसकी मिस्ड कॉल सुनकर  तीसरी मंजिल तक भाग कर गई और संभाला। मैं जितना वक़्त बात करती सामने बैठाकर उसकी दोनों हथेलियों को थामे रहती। मैं साइकियोलॉजिस्ट तो हूँ नहीं पर अपनी सम्वेदना और समझ से जितना सँभाल सकती थी संभालने की कोशिश करती थी।

-अक्सर स्टारमेकर्स पर उसके साथ गाने गाती, साथ वॉक करती। स्कैच बनाने को प्रेरित करती। लूडो, ताश, बैडमिंटन खेलती। जब वो पढ़ता था तो मैं भी साथ में ही चुपचाप अपनी कोई किताब लेकर बैठ जाती। कभी-कभी उसे कुछ सब्जेक्ट पढ़ा भी देती।

-उसकी क्लास टीचर ने भी उसका बहुत साथ दिया। जब भी वो स्कूल में डिप्रेशन में जाता तो उसको लेकर एकांत में जाकर बात करतीं। क्योंकि जब भी उसको स्कूल में पैनिक अटैक आता तो वो टॉयलेट में जाकर हिचकियों से रोता , काँपता और पसीने से भीग जाता था। बल्कि सबसे पहले उन्होंने ही मुझे इसके बारे में बताया था।

-इस सबको अब ढाई साल बीत गए हैं । दवाइयों की डोज कम हो गई है। आजकल उसे गिटार सिखवा रहे हैं । दवाओं से ओवरवेट हो गया है तो जिम भी भेजते है। और अब लगभग ठीक है। टैन्थ में 80% मार्क्स लाया है । हम सबने बहुत शाबाशी दी तो अब खोया आत्मविश्वास लौट आया है। करियर को लेकर बड़े- बड़े सपने देखने लगा है।

-उसका ट्रीटमेंट दिल्ली के मशहूर , काबिल साइकियाट्रिस्ट से चल रहा है । वे प्राय: उससे फोन पर ही बात करते हैं । वे उससे बात करने के बाद हमसे बात करते थे। और कई बार बहुत खुश होकर थैंक्यू बोलते थे कि आप उसको बहुत अच्छी तरह संभाल रही हैं।

-टीन एज बहुत ही नाजुक उम्र होती है। इस उम्र में हार्मोन्स ऊधम मचाते हैं । जिंदगी यथार्थ, कल्पना व भावनाओं के झंझावात में घिरी महसूस होती है। जरा सी भी दिल पर लगी चोट से मानसिक सन्तुलन बिगड़ सकता है। इस समय एक्स्ट्रा अटेंशन, केयर व साथ की जरूरत होती है बच्चों को।

तो यह कहानी शेयर करने के पीछे यही मकसद था कि आजकल के बच्चों के हाथों में मोबाइल है और सब कुछ एवेलेबिल है आज उनको। आप कितने फिल्टर लगाएंगे ? बच्चों को अब डाँटना फटकारना छोड़कर दोस्त बनने का वक्त है। आपसे बेहतर आपके बच्चे को कोई नहीं समझ सकता तो जो काउन्सलिंग आप कर सकते हैं कोई थेरेपिस्ट, काउन्सलर नहीं कर सकता। उसको ज्यादा प्यार और अटेंशन दीजिए। अपने आस-पड़ोस में, क्लास में, रिश्तेदारों में यदि कोई बच्चा दिखे ऐसा तो उसकी मदद करिए, सुनिए उसको। सबसे ज़रूरी है सुनना।इस तरह आप किसी की ज़िंदगी बचा सकते हैं , क्योंकि डिप्रेशन बहुत जानलेवा बीमारी है।इंसान को लगता है जैसे उसे एक अंधेरी गुफा में बन्द कर दिया है और निकलने का कोई रास्ता सूझता नहीं। तो जागरूक रहिए, सतर्क रहिए बच्चों के लिए और खुद के लिए भी। ऐसा हो तो कोई दोस्त, कोई हमदर्द जरूर होता है हमारे पास जिसके कन्धों पर हम अपना सिर टिका सकें…!!

अपनी एक कविता पहले भी शेयर कर चुकी हूँ आज फिर शेयर कर रही हूँ-

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-इससे पहले-


इससे पहले कि फिर से

तुम्हारा कोई अज़ीज़

तरसता हुआ दो बूँद नमी को

प्यासा दम तोड़ दे

संवेदनाओं की गर्मी को

काँपते हाथों से टटोलता

ठिठुर जाए और

हार जाए  जिंदगी की लड़ाई

कि हौसलों की तलवार

खा चुकी थी जंग...


इससे पहले कि कोई

अपने हाथों चुन ले

फिर से विराम

रोक दे अपनी अधूरी यात्रा

तेज आँधियों में

पता खो गया जिनका

कि काँपते थके कदमों को रोक

हार कर ...कूच कर जाएँ

तुम्हारी महफिलों से

समेट कर

अपने हिस्सों की रौनक़ें...


बढ़ कर थाम लो उनसे वे गठरियाँ

बोझ बन गईं जो

कान दो थके कदमों की

उन ख़ामोश आहटों  पर

तुम्हारी चौखट तक आकर ठिठकीं

और लौट गईं चुपचाप

सुन लो वे सिसकियाँ

जो घुट कर रह गईं गले में ही

सहला दो वे धड़कनें

जो सहम कर लय खो चुकीं सीने में

काँपते होठों पर ही बर्फ़ से जम गए जो

सुन लो वे अस्फुट से शब्द ...


मत रखो समेट कर बाँट लो

अपने बाहों की नर्मी

और आँचल की हमदर्द हवाओं को

रुई निकालो कानों से

सुन लो वे पुकारें

जो अनसुनी रह गईं

कॉल बैक कर लो

जो मिस हो गईं तुमसे...


वो जो चुप हैं

वो जो गुम हैं

पहचानों उनको

इससे पहले कि फिर कोई अज़ीज़

एक दर्दनाक खबर बन जाए

इससे पहले कि फिर कोई

सुशान्त अशान्त हो शान्त हो जाए

इससे पहले कि तुम रोकर कहो -

"मैं था न...”

दौड़ कर पूरी गर्मी और नर्मी से

गले लगा कर कह दो-

" मैं हूँ न दोस्त….मैं हूँ !!”

                          — डॉ० उषा किरण

( संकोच के साथ लिखी ये पोस्ट। अम्मा कहती थीं कि कुछ अच्छा काम करो तो बताना चाहिए जिससे औरों को भी प्रेरणा मिलती है🙏)

चित्र; गूगल से साभार

सोमवार, 2 जून 2025

जापान मेरे चश्मे से

  



एकदम साफ- सुथरा अनुशासित शहर। न सड़कों पर कूड़ा न सड़कों पर चीख- पुकार मचाते लोग।कई अन्य देशों की यात्राओं में देखा लोग यहाँ तक कि बच्चे भी फल के छिलके या ख़ाली रैपर हाथ में पकड़कर रखते हैं और हर दो कदम पर लगे डस्टबिन में ही कूड़ा डालते हैं । लेकिन यहाँ तो सड़कों पर कहीं दूर- दूर तक डस्टबिन नजर ही नहीं आता तब भी सड़कें एकदम साफ- सुथरी नजर आती हैं, ये तो वाकई कमाल है, पता चलता है लोग कितने अनुशासित हैं, अपने शहर को प्यार करते हैं तो अपनी ज़िम्मेदारी भी समझते हैं उसके प्रति।हम दो शहरों क्योटो और टोक्यो में रहे। 

जापान को "सूर्योदय का देश" कहा जाता है क्योंकि यह पूर्वी एशिया में स्थित है और पृथ्वी के चारों ओर घूमते समय सूर्य की पहली किरणें जापान में ही पड़ती हैं. इसे "निप्पॉन" (या निहोन) भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "सूर्य की उत्पत्ति". जापान चार बड़े और अनेक छोटे द्वीपों का एक समूह है।ये द्वीप एशिया के पूर्वी समुद्रतट, यानी उत्तर पश्चिम प्रशांत महासागर में स्थित हैं।

क्योतो जापान के यमाशिरों प्रांत में स्थित नगर है।क्वामू शासन काल में इसे 'हे यान जो' अर्थात् 'शांति का नगर' की संज्ञा दी गई थी। ११वीं शताब्दी तक क्योतो जापान की राजधानी था और आज भी पश्चिमी प्रदेश की राजधानी है। क्योटो छोटा धार्मिक शहर है जबकि टोक्यो पूरी सजधज सहित महानगर। दोनों शहरों की संस्कृति में साफ़ फर्क नजर आया।वैसा ही जैसे हमारी मुम्बई और मथुरा में नजर आता है। क्योटो में ज्यादातर टैक्सी ड्राइवर काफी बुजुर्ग मिले लेकिन टोक्यो में बनिस्बत यंग। लड़की हमें कहीं भी टैक्सी ड्राइवर नहीं मिलीं जैसी कि सिंगापुर, लंदन या यू एस में आम है। यहाँ पर बुजुर्ग काफी उम्र तक काम करते हैं और प्राय: अकेले ही शॉपिंग करते व घूमते मिल जाएंगे। 

जो प्योर वेजीटेरियन हैं उनको अपने साथ कुछ व्यवस्था करके ही जाना चाहिए । जगह- जगह आपको छोटे- बड़े रेस्टोरेंट खूब मिलेंगे लेकिन हर जगह चिकिन, मटन, बीफ़, फिश, प्रॉन, पोर्क के बेक होने की चिरांध हवा में तैरती मिलेगी।जापान में एक चीज़ का बहुत क्रेज दिखा वह है हरे रंग का माचा। माचा आइसक्रीम, माचा ड्रिंक, माचा चाय, माचा कैंडी क्या नहीं मिलेगा जबकि उसका टेस्ट कुछ कड़वा कसैला सा होता है परन्तु एंटीऑक्सीडेंट गुणों से भरपूर होने के कारण बहुत लोकप्रिय है। वैसे तो वीगन फूड के नाम पर आपको राइस विद वेज करी , वेज सुशी, जापानी काँजी, पास्ता, नूडल्स व पित्जा वगैरह मिल ही जाएगा। भूखे तो नहीं ही रहेंगे। मैकडोनल भी सभी जगह हैं पर फ्रैंच फ्रायज के अलावा तो क्या ही मिलेगा। कुछ इंडियन रेस्टोरेंट भी हैं जहाँ बहुत टेस्टी खाना मिला। बेकरी आइटम्स की बहुत वैरायटी होती है और बहुत टेस्टी भी। वैसे भी हम इंडियन विदेशों में थेपले तो ले ही जाते हैं अपने साथ😊

वहाँ के लोगों में एक मासूमियत दिखाई देती है। लोगों का व्यवहार बहुत ही सहयोगात्मक दिखा। किसी से कोई शॉप या रास्ता पूछो तो वह अपने हाथ का काम छोड़कर आपके साथ दूर तक साथ चल देगा।कमर से झुक कर इतनी बार अभिवादन करेंगे कि लगता है इनकी कमर दुख जाती होगी।होटल व रेस्टोरेंट में सभी का व्यवहार बहुत विनम्र व सहयोगी रहा। लेकिन अनुशासन व नियमों के मामले में कुछ ज्यादा ही कड़क ।बस वहाँ ज़्यादातर वोग जापानी लैंग्वेज में ही बात करते हैं , इंग्लिश कम ही लोग जानते हैं ।हमें कई जगह एप का सहारा लेना पड़ा ।प्राय: हर होटल में हरेक के लिए नाइट सूट या कीमोनो रूम में होता था।हमने ठाठ से नाइट गाउन की जगह कीमोनो पहनकर अपना ये शौक पूरा किया। 

वे नियम कायदों को बहुत सख्ती से फॉलो करते हैं, शायद इसी कारण वहां पर क्राइम बहुत कम है। म्यूजियम व आर्ट गैलरी में आप अपने बैग से निकालकर भी पानी नहीं पी सकते, आप रूम से बाहर जाकर ही पी सकते हैं । वर्ना मुस्तैद खड़ा स्टाफ आकर आपको कान में धीरे से मना कर देगा। मार्केट में आप शॉप पर ही आइसक्रीम खाइए चलते- चलते रास्ते में नहीं खा सकते। सड़क पर चलते समय जोर से कोई नहीं बोलता। कोई भी गाड़ी का हॉर्न नहीं बजाता। वे शहर में गाड़ी बहुत इत्मिनान से चलाते हैं , पैदल क्रॉस करने वालों के लिए इंतजार करेंगे, ओवरटेक भी नहीं करते। एक बार हमारे टैक्सी ड्राइवर ने हल्का सा ही हॉर्न बजा दिया तो सब उसको ऐसे घूरकर देखने लगे जैसे जघन्य अपराध कर दिया हो।

जापान की समृद्धि के पीछे जापानियों की अथक मेहनत साफ झलकती है। सुना है कि वहां के युवा अब शादी के बंधन से कतराने लगे हैं। काम व प्रमोशन की होड़ में कौन झंझट में फंसे ? ये भी सुना कि लोग घरों में चूहे पालते हैं और उनको बच्चों की तरह पालते हैं। कई लड़कियों को बेबी कैरियर में खूबसूरत छोटे-छोटे डॉग्स को सीने से लगाकर  दुलारते देखा।क्योटो मे स्टिक लगे फ्रोजन खीरे भी खूब बिकते दिखे।

यह जानकर बेहद दुख हुआ कि जापान में सबसे ज्यादा लोग आत्महत्या करते हैं, निश्चित ही उनमें युवाओं की संख्या अधिक होगी। क्योटो पर तो धर्म का प्रभाव बहुत अधिक है…तब भी ? वह धर्म कैसा जो साहस , आशा व शक्ति का संचार न करे। वह समृद्धि किस काम की जिससे लोग तनाव, अकेलापन व असुरक्षित महसूस करें ? जीवन में बैलेंस होना बहुत जरूरी है आप सिर्फ भौतिकवादी होकर कैसे सुखी रह सकते हैं । इतना प्यारा देश, इतने प्यारे लोग…दुआ है काश इस काली छाया से बाहर निकल सकें…आमीन!!!

किसी देश की नब्ज पर हाथ रखना है तो इतिहास से ज्यादा जरूरी है वहाँ का साहित्य पढ़ा जाए। मन हुआ कुछ जापानी कविता  पढ़ने का तो गूगल बाबा ने बताया 'Matsuo Basho’की लबसे प्रसिद्ध हाइकु है-'द ओल्ड पॉन्ड’-

Furuike ya 

kawazu tobikomu 

mizu no oto


The old pond- 

a frog jumps in,

sound of water.

(पुराना तालाब...

पानी की आवाज़ में 

एक मेंढक कूदता है।)

क्या सिर्फ इतना भर अर्थ है इसका ? 

या यह कि, पुरानी मान्यताओं के तालाब में कुछ नवीन खुशी की तलाश में भटके हुए लोग पुन: छलांग लगा रहे हैं, यही या कुछ और…कभी भी किसी कृति का एक अर्थ नहीं होता …सोच रही हूँ, खंगाल रही हूँ क्या कारण हो सकता है इस हाइकू को इतना पसंद किए जाने के पीछे…आप भी सोचिए हम भी सोचते हैं…अभी काफी कुछ बाकी है…फिलहाल सायोनारा👋!!







बुधवार, 14 मई 2025

 


आप घर का कोना- कोना सँवारते हैं 

रोज झाड़- पोंछ करते हैं 

कपड़े-गहने सहेजते हैं 

कार- स्कूटर की हवा चैक करते हैं ….

लेकिन क्या पारिवारिक संबंधों, पड़ोसी और दोस्ती के रिश्तों को भी…सहेजते हैं, संभालते हैं , चिंतन करते हैं, उनमें ऑक्सीजन भरते हैं …नहीं या हाँ ???🤔


बुधवार, 30 अप्रैल 2025

केसरी फाइल-2

                     

                

         केसरी फाइल-2                       

रक्तरंजित इतिहास का वह काला पन्ना जिस पर जलियांवाला बाग हत्याकांड के कितने ही शहीदों का बलिदान दर्ज है की पृष्ठभूमि पर बनी 'केसरी फाइल-2’ मूवी शहीदों को दी गई एक सच्ची श्रद्धांजलि है।  जरूरी है कि अंग्रेजों के जुल्म और देशभक्ति के ऐसे इतिहास के दस्तावेजों को हम आने वाली पीढ़ी के सामने पुरज़ोर तरीके से रखते रहें ताकि ये विस्मृति के गर्त में दफ़्न न हो जाए, इन पर चढ़े श्रद्धा सुमन कभी भी मुरझा न पाएं। हमारे अन्दर वह जोश व होश हमेशा कायम रहे कि फिर कोई आक्रांता हम पर यूँ अंधाधुंध गोलियाँ बरसाकर न चला जाए।


करण सिंह त्यागी द्वारा निर्देशित और करण जौहर और अदार पूनावाला द्वारा निर्मित, जलियांवाला बाग हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में सी शंकरन नायर द्वारा लड़े गए ऐतिहासिक केस को दिखाया गया  है।


सी. शंकरन नायर के पोते रघु पलात और पुष्पा पलात की लिखी किताब 'द केस दैट शुक द एम्पायर' से प्रेरित इस फिल्‍म की कहानी करण सिंह त्यागी और अमृतपाल बिंद्रा ने लिखी है। करण सिंह त्यागी क्योंकि स्वयं पेशे से वकील रहे हैं तो कानून की भाषा, दाँव पेच, द्वन्द फंद  से खूब परिचित होने के कारण उन्होंने इस फ़िल्म की कहानी  बहुत खूबसूरती व रोचकपूर्ण तरीके से बुनी है। पूरी फिल्म में कथानक में कसावट है।दो घंटे पन्द्रह मिनिट तक फिल्म की कहानी करुणा, क्रोध और रोमांच , देशभक्ति के जज़्बे को बनाए रखने में कामयाब होती है। एक मिनिट को भी बोर नहीं होने देती और शनैः- शनै: अन्याय के ख‍िलाफ दर्शकों का क्रोध बढ़ता जाता है।


सी. शंकरन नायर के किरदार को अक्षय कुमार ने निस्संदेह बखूबी निभाया है। लगातार देशभक्ति के सशक्त रोल निभाने के कारण पूर्व इमेज से  अक्षय कुमार बाहर निकले हैं । दूसरी ओर, आर माधवन ने भी ब्रिटिश वकील नेविल मैककिनले की भूमिका में बहुत दमदार अभिनय किया है।। शंकरन की साथी वकील दिलरीत गिल की भूमिका में अनन्या पांडे भी प्रभावशाली लगी हैं।अनन्या पान्डे की अभिनय प्रतिभा पहली बार इस फिल्म में उभर कर आई है। वे हमेशा की तरह मात्र सजावटी गुड़िया नहीं लगीं अपितु चेहरे व बडी़- बडी़ आँखों से उनके आन्तरिक भावों के उतार-चढ़ाव खूबसूरती से दर्ज हुए हैं ।फिल्म की शुरुआत में जलियांवाला बाग में पर्चे बांटता नजर आने वाला बच्चा परगत सिंह का रोल करने वाले कृष राव का किरदार एवम्  एक्टिंग दिल को छू गई। आप उसको कभी भी भूल नहीं पाएंगे।वह अपने छोटे से किरदार से पूरी फिल्म पर छा गया है।


कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इस  चुस्त-दुरुस्त , खूबसूरत फिल्म के निर्देशक करण सिंह त्यागी काबिले तारीफ हैं कि उन्होंने सभी किरदारों को सही जगह पर फिट ही नहीं किया है  अपितु कब किस किरदार को कहां और कैसे उपयोग में लाना है इसका भी खूब ध्यान रखा है।

कम्‍पोजर शाश्वत सचदेव ने 'ओ शेरा- तीर ते ताज' गाने से फिल्म में रोमांच व देशभक्ति के जज़्बे को बढ़ाने का काम किया है। फिल्म का एक और खूबसूरत गाना 'खुमारी' - (बेक़रारी ही बेक़रारी है…) जिसे  परंपरागत और आधुनिकता को जोड़ने वाले संगीत को बनाने के लिए लोकप्रिय मशहूर गायिका कविता सेठ और उनके बेटे कनिष्क सेठ ने बनाया है।'खुमारी' ट्रैक में आधुनिकता और क्लासिक दोनों के फ्यूजन का अद्भुत जादू रचा है। इस गाने में मसाबा गुप्ता की पहली बार ऑन स्क्रीन म्यूजिकल परफॉर्मेंस चौंका देती है।


तो जाइए  बच्चों के साथ सिनेमा हॉल में जाकर देखने लायक मूवी है , क्योंकि इसकी सिनेमैटोग्राफी बेहद शानदार है और हर दृश्य दिल को छूता है 


अक्षय कुमार ने सही कहा है शुरू के दस मिनिट की मूवी मिस मत करिएगा, टाइम से  जाइएगा और मेरा सुझाव है कि आखिर तक रुकिएगा आखिर तक यानि कि आखिरी शब्द स्क्रीन पर आने तक…।वैसे भी इसका अन्त बहुत दमदार है, जो आपको जोश से भर देगा। 


 यह फिल्म अंदर तक झकझोर देती है और हमें दर्द में डूबी देशभक्ति की भावना से रंग जाती है। कुछ दर्द बहुत पावन होते है। हमें अपने देश, उसके इतिहास, आज की आजादी और शहीदों पर गर्व करने की वजह देती है यह फिल्म। 


करन सिंह त्यागी की स्वतंत्र रूप से बनाई यह पहली फ़िल्म है। उनमें  अपार संभावनाएं नजर आती हैं। यू एस में लगी अच्छी खासी जॉब छोड़कर उनका फिल्म निर्माण का रिस्क लेना जाया नहीं गया। उनसे उम्मीद है कि वे आगे भी इसी तरह की सार्थक फिल्में बना कर स्वस्थ व सार्थक मनोरंजन समाज को देते रहेंगे। उनको बधाई देते हुए मैं उनके उज्वल भविष्य की कामना करती हूँ ।

               — डॉ. उषा किरण 

मंगलवार, 18 मार्च 2025

दुआ की ताकत



एक धन्ना सेठ था। बड़ी मन्नतों से उसका एक बेटा हुआ। भारी जश्न हुआ। हवन के बाद विद्वान पंडितों ने जन्मपत्री बनाई तो स्तब्ध । सेठ जी ने जब पूछा  तो पंडितों ने काफी संकोच से बताया कि इसकी कुल आयु सत्रह वर्ष ही है। सेठ- सिठानी के मन में चिन्ता की लहर व्याप गई।पूछा कोई उपाय कोई पूजापाठ, अनुष्ठान है ? तो उन्होंने कहा नहीं कोई इस अनहोनी को कोई नहीं टाल सकता, यह उसका प्रारब्ध है, अवश्यम्भावी है। 

खैर बहुत लाड़- चाव से बेटे का लालन- पालन हुआ और सेठ ने सोचा इसकी शादी जल्दी कर देनी चाहिए अत: सत्रहवें वर्ष में एक सुयोग्य कन्या से उसकी शादी कर दी। तब तक जो घड़ी मृत्यु की बताई थी वह घड़ी आ पहुँची थी। पंडितों को बैठाकर पूजा- पाठ निरन्तर चल रहा था। सारे घर के सदस्य भी हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे। नववधु का किसी को ध्यान ही नहीं था।


विदा होकर आई नव-वधू इस सब चिन्ताओं से अनभिज्ञ ऊपर की मंजिल पर अपने कमरे में अकेली बैठी खिड़की से बाहर झांक रही थी। सहसा उसकी दृष्टि बाहर खेत में गई तो देखा खेत में घास काट रही एक गरीब स्त्री प्रसव पीड़ा से जमीन पर पड़ी छटपटा रही है, उसका मन विचलित हो गया पर आसपास कोई नहीं, नया घर, किसी को जानती नहीं तो संकोचवश विवश होकर चुपचाप देखती रही। 


किसी तरह प्रसव के बाद उस स्त्री ने बच्चे को गोद में लिया तो वधू ने अपनी ओढ़नी खिड़की से नीचे गिरा दी, जिसमें स्त्री ने बच्चे को लपेट लिया। श्रांत- क्लांत स्त्री को जोर की भूख- प्यास लग रही थी तो उसने इशारे से कुछ खाने पीने के लिए माँगा। नव-वधू ने माँ ने साथ में जो टिफिन में कुछ मिठाइयाँ रखी थीं वह और पानी किसी तरह अपनी साड़ी में बाँध कर नीचे पहुँचा दीं। खा-पीकर स्त्री के तन में ताकत आई तो उसने तृप्त होकर दोनों हाथ उठाकर डबडबाई आँखों से आशीर्वाद दिया  और धीरे-धीरे बच्चे को लेकर गाँव की तरफ चली गई। 


उधर सेठ के बेटे की मौत की घड़ी आ गई, पंडितों की पूजापाठ चालू थी, सहसा पूजा में जहाँ बेटा बैठा था वहीं पर खम्बा टूटकर उसे छूता हुआ गिरा। सब व्याकुल हो हाय- हाय करते खड़े हो गए, परन्तु उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ। मृत्यु छूकर निकल गई। पंडितों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, बेशक वे पूजापाठ कर रहे थे पर जानते थे कि मृत्यु निश्चित है।फिर ये कैसे संभव हुआ?बहुत सोच- विचार कर सबसे वृद्ध पंडित जी ने पूछा, बहू कहाँ है ? उसे बुलाओ। वधू से जब पूछा गया कि वह क्या कर रही थी उस समय, तो उसने सारी बात बताई। पंडित जी ने कहा इसके पुण्य प्रताप ने इसके सुहाग की रक्षा की है। जो काम पूजा अनुष्ठान से नहीं हो सकता था वह सत्कर्म से मिली गरीब, दुखी की आत्मा से निकली दुआ ने कर दिखाया 


हरेक की मृत्यु का पल तय है, परन्तु कई बार अच्छे कर्म, दान- पुण्य, प्रार्थनाएं, आशीर्वाद के फलस्वरूप वह संकट की घड़ी टल सकती है। निःस्वार्थभाव से सेवा करते रहिए , पता नहीं कब किसकी दुआ आपके कौन से अंधेरे कोने को प्रकाशित कर दे…हरि ॐ 🙏

फोटो; गूगल से साभार 


शनिवार, 8 मार्च 2025

यूँ भी….



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं


किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...


दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?


कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो


स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

#अन्तर्राष्ट्रीयमहिलादिवस

पेंटिंग- लक्ष्मण रेखा( उषा किरण , मिक्स मीडियम, 30”x30”

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

सरेराह चलते-चलते

 



राहों से गुजरते कुछ दृश्य आँखों व मन को बाँध लेते हैं । जैसे सजी- धजी , रंग- बिरंगी सब्ज़ियों या फलों की दुकान या ठेला, झुंड में जातीं गाय या बकरियाँ, सरसों के खेत हों या फिर सिर पर घास का गट्ठर ले जाती , एक हाथ में हँसिया पकड़े रंग- बिरंगे परिधान पहने ग्रामीण महिलाएं। कोयल की कूक, सरेराह झगड़ते लोग…। 

कभी - कभी कुछ झगड़े देख कर मन करता है गाड़ी रोक उतर जाऊँ और उनको झगड़ने से रोक दूँ या क्यों न मजा ही लूँ कि झगड़े की क्या वजह थी और आखिर हल क्या निकला ? देर तक फिर मेरे कल्पना के घोड़े दौड़ते रहते हैं ।कई बार तो घर आकर भी वही सब दिमाग में घूमता रहता है।

कुछ दिन पहले गुड़गाँव से लौटते समय टोल पर अपनी बारी का इंतजार करती खड़ी एक नई- नवेली चमचमाती गाड़ी को दूसरी गाड़ी ने लापरवाही से पीछे से ठोंक दिया। गाड़ी अच्छी खासी डैमेज हो गई। गाड़ी इतनी नई थी कि उसकी सजावट भी नहीं उतरी थी। मेरा ही जी धक् से रह गया। लगा अब जम कर झगड़ा, गाली-गलौज व मारपीट तो होनी निश्चित ही है। मैं चूँकि दूसरी लाइन में थी तो दम साधे देख रही थी। 

गाड़ी से दो सज्जन पुरुष ( जो वाकई सज्जन ही थे) उतरे और पीछे वाली से हड़बड़ाता एक ड्राइवर नुमा कोई व्यक्ति उतरा। वे आराम से बात करने लगे। गाड़ी कितनी डैमेज हुई ये भी देखते जा रहे थे। उनके मुंह उतरे हुए थे पर बहुत शान्त भाव से बातें करते रहे। उनकी मुखमुद्रा या भाव भंगिमा में जरा भी ग़ुस्सा नज़र नहीं आ रहा था इसी बीच हमारी गाड़ी चल पड़ी और मेरा मन हुआ यहीं उतर जाऊं बल्कि पास जाकर बात सुनूँ बल्कि पूछ ही लूँ कि भाईसाहब आप कौन सी साधना , योग करते हैं? कैसे उतरा ये बुद्धत्व , ये समभाव ? अमूमन तो ऐसे हादसों का अगला दृश्य सात पुश्तों को कोसते व माँ बहन के लिए बकौती करती गाली- गलौज व मार पीट का ही होता है । ये ऐसे हादसे के बाद इतनी शान्ति से कौन बात करता है भाई…कुछ तो लड़ लो …थोड़ा सा तो शोर मचाओ भई। बच्चे का खिलौना तक टूटने पर लड़ने वाले तो एक दूसरे का खून तक कर देते हैं और एक तुम हो कि…..पर कहाँ…हमारी गाड़ी चल पड़ी, जीवन तो चलने का नाम है तो चल कर आ गए घर।कौन किसी के लिए रुकता है जो हम ही रुक जाते। 

इस बात को एक महिना हो चुका है और मेरे मन ने प्रश्नों की बौछार से परेशान कर रखा है-

- वे लड़े क्यों नहीं?

- क्या वे आधुनिक लिबास में साधु थे ?

- क्या वे पूर्व परिचित थे ?

- क्या मालिक कोअपनी गाड़ी खुद पसन्द नहीं थी कि ठुक गई तो ठुकने दो …!

- तगड़ा इन्श्योरेंस होगा ?

-क्या वो दब्बू व डरपोक आदमी थे जो लड़ने में डर रहे थे ? 

- क्या वे सज्जन किसी दुश्मन की गाड़ी उधार पर लाए थे ?……वगैरह…वगैरह…!


    अच्छा, चलें कुछ काम देखें…बकौल मेरे पति के  …खाली दिमाग शैतान का घर”😊

मन के अंधेरे

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