ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 30 जून 2024

युरोप डायरी ,खगोलीय घड़ी, प्राग(चैक रिपब्लिक)

 


खगोलीय घड़ी, प्राग
(Astronomical Clock, Prague)

जून, 2024 में यूरोप के ट्रिप में हमें प्राग के सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक ओल्ड टाउन स्क्वायर में स्थित खगोलीय घड़ी देखने का सुअवसर मिला। प्राग के सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक ओल्ड टाउन स्क्वायर में स्थित खगोलीय घड़ी है। यह 600 साल से भी ज़्यादा पुरानी है और दुनिया की सबसे पुरानी खगोलीय घड़ियों में से एक है। प्राग खगोल घड़ी पहली बार 1410 में स्थापित की गई थी। यह दुनिया की तीसरी सबसे पुरानी खगोल घड़ी है और आज भी चालू स्थिति में है।

जिसे ओर्लोज के नाम से भी जाना जाता है, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी और राशि चक्र नक्षत्रों की सापेक्ष स्थिति दिखाती है। यह समय भी बताती है, तारीख भी बताती है और सबसे अच्छी बात यह है कि यह अपने दर्शकों को हर घंटे कुछ न कुछ नाटकीय करतब दिखाती है। प्राग खगोलीय घड़ी , जिसे आमतौर पर ओर्लोज के नाम से जाना जाता है, चेक राजधानी में सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक है। सुबह 9 बजे से रात 9 बजे के बीच पूरे समय, आप दो खिड़कियों में दिखाई देने वाली 12 लकड़ी की प्रेरित मूर्तियों की परेड देखने वाले पर्यटकों की भीड़ देखेंगे। पौने बारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो भारी भीड़ देखकर रुक गए। सब बारह बजे का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, हम भी भीड़ में शामिल हो गए।बारह बजते ही टनटनाटन करके घंटियाँ बजने लगी और एक ब्रास के नरकंकाल ने घंटा बजाना शुरु कर दिया। सब तरफ़ हर्ष छा गया।

इसकी सबसे खास बात है इसका प्रभावशाली और खूबसूरती से अलंकृत खगोलीय डायल। यह आकाश में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति और अन्य विभिन्न खगोलीय विवरणों को दर्शाता है।निचले कैलेंडर डायल को लगभग 1490 में जोड़ा गया था। लगभग उसी समय,अविश्वसनीय गॉथिक मूर्तियां भी जोड़ी गईं। 

1600 के दशक के अंत में, संभवतः 1629 और 1659 के बीच, लकड़ी की मूर्तियाँ स्थापित की गईं। प्रेरितों की मूर्तियाँ 1787 और 1791 के बीच एक बड़े जीर्णोद्धार के दौरान जोड़ी गईं। घंटाघर पर प्रतिष्ठित स्वर्ण बांग देने वाले मुर्गे का निर्माण लगभग 1865 में किया गया था। 

कई सालों तक यह माना जाता रहा कि इस घड़ी को घड़ी-मास्टर जान रूज़े ने डिज़ाइन किया और बनाया था, जिन्हें हनुश के नाम से भी जाना जाता है। बाद में यह साबित हो गया कि यह एक ऐतिहासिक गलती थी।हालांकि, इस गलती की वजह से एक स्थानीय रोचक किंवदंती बन गई जिसे आज भी पर्यटकों को सुनाया जाता है। कहानी के अनुसार- इस घड़ी के बनने के बाद, हनुस के पास कई विदेशी राष्ट्र आए, जिनमें से हर कोई अपने शहर के चौराहे पर एक अद्भुत खगोलीय घड़ी लगवाना चाहता था। हनुस ने अपनी उत्कृष्ट कृति की योजना किसी को भी दिखाने से इनकार कर दिया, लेकिन यह बात प्राग के पार्षदों तक पहुंच गई। इस डर से कि हनुस किसी दूसरे देश के लिए इससे बड़ी, बेहतर और ज़्यादा सुंदर घड़ी बना सकता है, पार्षदों ने उस शानदार घड़ी बनाने वाले को अंधा करवा दिया, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनकी घड़ी कभी भी खराब न हो। पागल हो चुके घड़ी बनाने वाले ने सबसे बड़ा बदला लिया, खुद को कला के अपने असाधारण काम में झोंक दिया, घड़ी के गियर को गुम कर दिया और उसी समय आत्महत्या कर ली। ऐसा करते हुए, उसने घड़ी को श्राप दे दिया। जो कोई भी इसे ठीक करने की कोशिश करेगा, वह या तो पागल हो जाएगा या मर जाएगा।वास्तव में, यह घटना कभी नहीं हुई और ऐसा प्रतीत होता है कि हनुश मूल शिल्पकार नहीं थे। 1961 में खोजे गए एक पेपर के अनुसार, जिसमें घड़ी के खगोलीय डायल के काम करने के तरीके का एक व्यावहारिक विवरण है, निर्माता कदान के शाही घड़ी-निर्माता मिकुलास थे।

इस कहानी को सुनकर मुझे भी ताजमहल की कहानी याद आ गई कि उसको बनाने वाले कारीगरों के हाथ भी बादशाह ने कटवा दिए थे। 

2018 में, जब इस घड़ी का नवीनीकरण किया जा रहा था, तो इसकी एक मूर्ति के अंदर एक गुप्त संदेश छिपा हुआ मिला।जब इसकी कुछ मूर्तियों पर जीर्णोद्धार का काम चल रहा था, तो उन्होंने देखा कि सेंट थॉमस के प्रेषित की मूर्ति बाकी सभी मूर्तियों से हल्की थी। जब उन्होंने मूर्ति पर दस्तक दी, तो उन्होंने पाया कि यह खोखली थी। फिर मूर्ति को हटाया गया और एक्स-रे किया गया और अंदर एक अजीब धातु का डिब्बा मिला।धातु के बक्से में वोजटेक सुचार्डा नामक एक मूर्तिकार द्वारा लिखा गया 18 पृष्ठ का पत्र था।संदेश में मूर्तिकार की खगोलीय घड़ी के लिए अधिक व्यापक योजनाओं का खुलासा किया गया है, जो कभी पूरी नहीं हुईं।

जीर्णोद्धार कार्य से घड़ी टॉवर की कुछ अन्य छिपी हुई विशेषताएं भी सामने आईं जो 15वीं शताब्दी के आसपास की हैं। कुछ लकड़ियों के पीछे कैलेंडर डायल के नीचे कोनों में कई पत्थर की मूर्तियाँ प्रकट हुईं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये 1400 के दशक के अंत में डायल की स्थापना से पहले घड़ी के कुछ मूल विवरण थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के प्राग विद्रोह के दौरान घंटाघर को भारी नुकसान पहुंचने के बाद उन्हें कुछ मूर्तियों को फिर से बनाने का काम सौंपा गया था। 

15वीं सदी में इस तरह की वस्तु को "हाई-टेक" माना जाता रहा होगा। आज के परिप्रेक्ष्य से देखें तो यह मध्ययुगीन वैज्ञानिक ज्ञान, तकनीकी कौशल और सुंदर डिजाइन का एक आकर्षक संयोजन है।

मुझे उक्त घड़ी से संबंधित खोजबीन करने पर उक्त रोचक जानकारी मिली। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन जो भी है, है बहुत रोचक 😊

- उषा किरण 

 

सोमवार, 24 जून 2024

युरोप डायरी( मन्नतों के ताले)

 



मन्नत मांगने के सबके अपने तरीके हैं। हम प्रसाद बोलते हैं, हे भोलेनाथ मनोकामना पूरी कर दो सवा रूपये ( अब तो रेट बढ़ गए हैं महंगाई के साथ) का प्रसाद चढ़ायेंगे। मजार, मन्दिर व पेड़ों पर भी मन्नतों के धागे बाँधे जाते हैं। विदेशों में देखा पुलों पर मन्नतों के ताले बाँधते हैं लोग। उन तालों पर कई बार प्रेमी युगल के दिल और नाम अंकित होते हैं । कई बार बच्चों की सूदर या कोई वस्तु साथ में लॉक कर चाबी नीचे नदी में फेंक देते हैं। कैसा विश्वास है कि नदी अपने हृदय में सब संजो लेगी और पुल के साथ प्रार्थना करेगी।

नदी के दो किनारे जो कभी नहीं मिलते, परन्तु उनको जोड़ देता है एक पुल।ये कैसा अजीब सा रिश्ता है प्यार का कि एक दूसरे से अनजान, कई बार तो अलग-अलग देशों व संस्कृतियों के लोग एक हो जाते हैं, जन्म- जन्मान्तरों तक साथ निभाने की कसमें खाते हैं ।ज़्यादातर ये ताले दो प्रेमी ही लगाते हैं। कई बार इन लव- लॉक्स का वजन इतना ज़्यादा हो जाता है कि इनमें से कई तालों को तोड़कर हटाना पड़ता है। 

दो इंसानों की परिस्थितियाँ चाहें कितनी ही विकट या विपरीत हों, प्यार दो दिलों पर पुल बना कर उनको एक कर देता है और भावनाओं की लहरें बहती रहती है निरन्तर। आशाओं के सहारे ही जी लेता है कई बार इंसान…शायद इसीलिए मन्नत मांगने के लिए ये विदेशी प्रेमी युगल पुलों को चुनते हैं कि शायद…!!!

मेरी मनोकामना है कि इन तालों में बंधी सबकी कामनाएं पूर्ण हों…आमीन🤲

युरोप डायरी

Photo ;Makartsteg  Bridge, Salzburg( Austria)


शनिवार, 1 जून 2024

पंचायत वेब सीरीज, सीजन 3

 





लेखक ; चंदन कुमार

निर्देशक ; दीपक कुमार मिश्रा

अभिनय ; जितेंद्र कुमार, रघुवीर यादव, 

नीना गुप्ता ; चंदन राय ; फैजल मलिक 


वेब सीरीज पंचायत का तीसरा सीज़न भी धमाल है और नवीनता बरकरार है। हम तो आठों भाग डेढ़ दिन में देख गए।यदि आपका वास्ता गाँव से पड़ा है तो यकीनन आपको बहुत मजा आने वाला है। हम सपरिवार बचपन में छुट्टियों में गाँव जाते रहे हैं और गाँव को खूब देखा परखा है । कमाल की कहानी लिखी है और कमाल का डायरेक्शन भी है। देख कर लगता है कि कथाकार व डायरेक्टर के जीवन का जरूर काफी हिस्सा गाँव में बीता है। 


इस बार फुलेरा गाँव और विधायक की नाक की लड़ाई पर सारा पंचायत सीजन तीन केन्द्रित है ।जब भी बार- बार गाँव के लोगों का नफरत व मजाक उड़ाते हुए कहना "विधायक कुत्ता मार के खा गया” सुनती तो मुझे जोरों की हंसी आ जाती थी। सोचो ज़रा विधायक जी कुत्ता खा रहे हैं , सोच कर ही हंसी आती है।विधायक जी की बौखलाहट देखने लायक है और तिस पर कयामत ये कि फुलेरा गाँव वाले विधायक को दो कौड़ी का कुछ नहीं समझते, सिवाय कुछ फितरती लोगों के।


नया कैरेक्टर मुझे सबसे प्यारा लगा अम्माँ जी का। जगमोहन की अम्माँ का मकान लेने के लिए छल- कपट करना, कहानी बनाना और कभी दीन- हीन तो कभी चतुर चालाक वाले एक्सप्रेशन ग़ज़ब के दिए हैं । कई करैक्टर तो ऐसे हैं जैसे गाँव से ही पकड़ कर आम आदमी से एक्टिंग करवाई गई हो।


जो बहुत बारीकी से बात पकड़ी है वो है गाँव के लोगों की मानसिकता। प्राय: वे चौपाल पर, पेड़ के नीचे बैठे टूटी सड़क की बनवाने जैसी समस्याओं पर विचार विमर्श करते रहते हैं। गाँवों के आदमियों को किसी विषय पर चाहें जानकारी न हो पर प्राय: कॉन्फ़िडेंस ग़ज़ब होता है।दाँवपेंच, दूसरे को पटकी देने की साजिश, चालाकियाँ, दुश्मनी निकालने के तरीके, आपसी सौहार्द, परस्पर सुख- दुख में भागीदारी सब कुछ जो एक गाँव की मिट्टी में समाया होता है पंचायत में मिलेगा। बाकी तो सचिन जी के रिंकी से इश्क के पेंच  इशारों-इशारों में हौले - हौले चल ही रहे हैं । गाँव के मेहमान ( दामाद जी )की ठसक और शेखी भी खूब दिखाई है।एक के दामाद सारे गाँव के मेहमान हैं । 


पहले गाँवों में गोरे दिखने के लिए अफगान स्नो क्रीम की चेहरे पर रगड़ाई चलती थी और उस पर टैल्कम पाउडर  हथेली में लेकर चुपड़ लिया जाता था तो चेहरे पर सफेदी सी नजर आती थी। प्रधान बनी नीना गुप्ता का मेकअप उसी तर्ज पर किया गया है, देखकर हमें अपने गाँव की कई बहुओं , चाचियों के मेकअप की याद ताजा हो गई।


प्राय: गाँव में जब चार  लोग जमा होकर हंसी ठट्ठा करते हैं तो छोटी सी बात पर भी ताली बजाकर खूब मजे लेते हैं । विधायक जी के कबूतर उड़ाने को ख्वाहिश पर वैसे ही ठट्ठे प्रधान जी की टीम लगाती है।प्रह्लाद का बेटे के गम में दारू पीकर पड़े रहना और विकास, प्रधान जी व सबका उनका ध्यान रखना बहुत दिल को छू जाता है।


बम बहादुर की दबंगई व चतुराई देखते बनता है। गाँव का उसके साथ खड़ा रहना, गाँव में दो ग्रुपों पूरब वाले व पश्चिम वालों के बीच की खींचातानी सब रोचक है। बम बहादुर ने छोटे से रोल में जान फूंक दी है।कुल मिलाकर देख डालिए। 


आप कहेंगे भई क्यूँ देखें ? तो ग्रामीण भारतीय जीवन का चित्रण,जीवन की चुनौतियाँ आपको भी पसंद आएगी। कलाकारों का अभिनय और गाँव की राजनीति, स्थानों, वेशभूषा और भावनाओं का सजीव व विस्तृत चित्रण हुआ है। यकीन मानिए ये तय है कि आखिरी सीन देखते ही आप भी मेरी तरह अगले सीजन का इंतजार शुरु कर देंगे। 

                      —उषा किरण

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से

"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े  दुश्मन थे हम ही अपने. औरो...