ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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शनिवार, 1 जून 2024

पंचायत वेब सीरीज, सीजन 3

 





लेखक ; चंदन कुमार

निर्देशक ; दीपक कुमार मिश्रा

अभिनय ; जितेंद्र कुमार, रघुवीर यादव, 

नीना गुप्ता ; चंदन राय ; फैजल मलिक 


वेब सीरीज पंचायत का तीसरा सीज़न भी धमाल है और नवीनता बरकरार है। हम तो आठों भाग डेढ़ दिन में देख गए।यदि आपका वास्ता गाँव से पड़ा है तो यकीनन आपको बहुत मजा आने वाला है। हम सपरिवार बचपन में छुट्टियों में गाँव जाते रहे हैं और गाँव को खूब देखा परखा है । कमाल की कहानी लिखी है और कमाल का डायरेक्शन भी है। देख कर लगता है कि कथाकार व डायरेक्टर के जीवन का जरूर काफी हिस्सा गाँव में बीता है। 


इस बार फुलेरा गाँव और विधायक की नाक की लड़ाई पर सारा पंचायत सीजन तीन केन्द्रित है ।जब भी बार- बार गाँव के लोगों का नफरत व मजाक उड़ाते हुए कहना "विधायक कुत्ता मार के खा गया” सुनती तो मुझे जोरों की हंसी आ जाती थी। सोचो ज़रा विधायक जी कुत्ता खा रहे हैं , सोच कर ही हंसी आती है।विधायक जी की बौखलाहट देखने लायक है और तिस पर कयामत ये कि फुलेरा गाँव वाले विधायक को दो कौड़ी का कुछ नहीं समझते, सिवाय कुछ फितरती लोगों के।


नया कैरेक्टर मुझे सबसे प्यारा लगा अम्माँ जी का। जगमोहन की अम्माँ का मकान लेने के लिए छल- कपट करना, कहानी बनाना और कभी दीन- हीन तो कभी चतुर चालाक वाले एक्सप्रेशन ग़ज़ब के दिए हैं । कई करैक्टर तो ऐसे हैं जैसे गाँव से ही पकड़ कर आम आदमी से एक्टिंग करवाई गई हो।


जो बहुत बारीकी से बात पकड़ी है वो है गाँव के लोगों की मानसिकता। प्राय: वे चौपाल पर, पेड़ के नीचे बैठे टूटी सड़क की बनवाने जैसी समस्याओं पर विचार विमर्श करते रहते हैं। गाँवों के आदमियों को किसी विषय पर चाहें जानकारी न हो पर प्राय: कॉन्फ़िडेंस ग़ज़ब होता है।दाँवपेंच, दूसरे को पटकी देने की साजिश, चालाकियाँ, दुश्मनी निकालने के तरीके, आपसी सौहार्द, परस्पर सुख- दुख में भागीदारी सब कुछ जो एक गाँव की मिट्टी में समाया होता है पंचायत में मिलेगा। बाकी तो सचिन जी के रिंकी से इश्क के पेंच  इशारों-इशारों में हौले - हौले चल ही रहे हैं । गाँव के मेहमान ( दामाद जी )की ठसक और शेखी भी खूब दिखाई है।एक के दामाद सारे गाँव के मेहमान हैं । 


पहले गाँवों में गोरे दिखने के लिए अफगान स्नो क्रीम की चेहरे पर रगड़ाई चलती थी और उस पर टैल्कम पाउडर  हथेली में लेकर चुपड़ लिया जाता था तो चेहरे पर सफेदी सी नजर आती थी। प्रधान बनी नीना गुप्ता का मेकअप उसी तर्ज पर किया गया है, देखकर हमें अपने गाँव की कई बहुओं , चाचियों के मेकअप की याद ताजा हो गई।


प्राय: गाँव में जब चार  लोग जमा होकर हंसी ठट्ठा करते हैं तो छोटी सी बात पर भी ताली बजाकर खूब मजे लेते हैं । विधायक जी के कबूतर उड़ाने को ख्वाहिश पर वैसे ही ठट्ठे प्रधान जी की टीम लगाती है।प्रह्लाद का बेटे के गम में दारू पीकर पड़े रहना और विकास, प्रधान जी व सबका उनका ध्यान रखना बहुत दिल को छू जाता है।


बम बहादुर की दबंगई व चतुराई देखते बनता है। गाँव का उसके साथ खड़ा रहना, गाँव में दो ग्रुपों पूरब वाले व पश्चिम वालों के बीच की खींचातानी सब रोचक है। बम बहादुर ने छोटे से रोल में जान फूंक दी है।कुल मिलाकर देख डालिए। 


आप कहेंगे भई क्यूँ देखें ? तो ग्रामीण भारतीय जीवन का चित्रण,जीवन की चुनौतियाँ आपको भी पसंद आएगी। कलाकारों का अभिनय और गाँव की राजनीति, स्थानों, वेशभूषा और भावनाओं का सजीव व विस्तृत चित्रण हुआ है। यकीन मानिए ये तय है कि आखिरी सीन देखते ही आप भी मेरी तरह अगले सीजन का इंतजार शुरु कर देंगे। 

                      —उषा किरण

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से

"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े  दुश्मन थे हम ही अपने. औरो...