ताताजी कैप्सटन की तम्बाकू और कागज पार्सल से मंगवाते थे और बहुत सलीके से अपनी गोरी सुघड़ उंगलियों से बनाकर सिगरेट केस में जमा कर सहेज लेते थे और सारे दिन बीच- बीच में बहुत सुकून से कश लगाते रहते थे.
हमें सिगरेट की खुशबू बचपन से ही बहुत पसन्द थी. शायद उस खुशबू के साथ उनका अहसास लिपटा रहता था इसीलिए, इसीलिए शायद आज भी हमें वो खुशबू प्रिय है.कई बार जब वो टॉयलेट में या बगीचे में होते तो हम और भैया चुपके से एक निकाल लेते और छिप कर सुट्टे लगाते.हमें लगता था कि उनको पता नहीं चलता होगा.
शादी होने के कई साल बाद हम सब बैठे गप्पें मार रहे थे तो पति ने ताताजी को बताया कि " एक बार उषा हमसे कह रही थीं कि आप सिगरेट पिया करो!” सुनकर वो हँस पड़े और हम झेंप गए. हमने कहा कि हमें सिगरेट की खुशबू बहुत अच्छी लगती है तो ताताजी बोले " हाँ तभी बचपन में हमारे सिगरेट केस से निकाल कर तुम और डब्बू पी लेते थे कभी-कभी!” हम और भैया हैरान हो गए कि उनको पता था पर कभी भी टोका नहीं । हमने पूछा "आपको कैसे पता चलता था?” तो हंसकर बोले "मैं गिन कर रखता था।” आज भी सोचती हूँ कि कुछ कहा क्यों नहीं? मेरे बच्चे ऐसा करते तो डाँट तो जरूर ही खाते.
अम्माँ कहती थीं कि बचपन में हम बहुत जिद्दी थे और शाम होते ही जाने कौन सा, किस जन्म का दु:ख याद आ जाता था कि रोज रोने लगते और किसी तरह नहीं चुपते थे. आज भी शाम होने पर कभी-कभी वो अंदर छिपी बच्ची उदास हो जाती है बेवजह. अम्माँ नौकर को कहतीं " जा मुल्लू इन्हें साहब के पास क्लब लेकर जा!” एक दो घन्टे बाद ताताजी के कान्धे पर बैठे हम खूब हंसते- खिलखिलाते लौटते.
ताताजी, आपके कान्धे पर बैठकर हमें जरूर लगता होगा जैसे हम दुनियाँ में सबसे ऊँचे हो गए, हाथ बढ़ा कर चाँद छू सकते हैं . ताताजी आप क्यूँ अचानक याद आ रहे हैं आज इतना. आज तो फादर्स डे भी नहीं…आपकी बर्थडे भी नहीं. लेकिन याद आने की कोई वजह हो ये जरूरी तो नहीं…पर कई यादें उदास कर जाती हैं ….बस यूँ ही….😔
-उषा किरण
फोटो: गूगल से साभार
(अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज 11 अक्टूबर को भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।)