ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 22 दिसंबर 2021

कविता

 






दरिया नहीं कोई

जो तुझमें समा जाऊँगी 

रे सागर, 

तिरे सीने पे अपने 

कदमों के निशाँ

छोड़ जाऊँगी…!!


                   — उषा किरण 




बुधवार, 29 सितंबर 2021

हर घर कुछ कहता है





मुझे बचपन से ही लगता है कि जिस तरह इंसान की व अन्य जीव- जन्तुओं की रूह होती है उसी प्रकार हर मकान की और पेड़ -पौधों की भी अपनी रुह होती है। उसमें रहने वाले प्रणियों के साथ-साथ वो भी साँस लेते हैं और न सिर्फ़ सांस लेते हैं, अपितु उनके सुख-दुख के मौसम उन पर से भी होकर गुजरते हैं।


मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।उनमें भी प्राण- प्रतिष्ठा हो जाती है। सालों हमारे साथ रहते मकानों का वजूद हमारी साँसों पर टिका रहता है।वे हमारी साँसों से ही साँस लेते हैं ,उनकी और हमारी प्राणवायु एक हो जाती है।हमारे सुख-दुख में साथ हंसते रोते हैं। मकान ही नहीं, वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, भी हमारे सगे-संबंधी से हो जाते हैं। हम जब उनको छोड़ कर चले जाते हैं, तो वे श्रीहीन हो जैसे निष्प्राण हो जाते हैं ।


दरअसल ताताजी( अपने पापा को हम ताताजी कहते थे ) का जॉब ट्रान्फरेबल था, तो दो- तीन साल में ट्रान्सफर हो जाता था। नए शहर में नए सिरे से डेरा जमाना होता। हम लोगों ने  इस कारण बहुत से शहर देखे।भाँति-भाँति की संस्कृतियों से परिचय हुआ।अनेक प्रकार की बोलियाँ,खानपान, पहनावा व स्वभाव देखने को मिलते रहे। हर शहर के खाने व पानी का स्वाद तो अलग होता ही है, हर शहर की अपनी रूह ,अपना अलग ही रंग व मिजाज भी होता है।


शहर ही क्यों हर घर का भी अपना अलग मिजाज, अपनी अलग खुशबू  भी मुझे महसूस  होती थी। इतना ही नहीं मुझे लगता है कि हर घर की भी अपनी एक रुह होती है। जब  भी ट्रान्सफर के बाद किसी नए शहर में, किसी नए मकान में डेरा जमाया तो वो उखड़ा सा, उजाड़ और उदास सा मिला। धीरे-धीरे हम उसके और वो हमारा हो जाता। कुछ ही  महिनों में वो मकान घर में तब्दील हो हमारा हमनवाज़ बन चहक उठता। लेकिन एक दो साल बाद अगले ट्रान्सफर पर सारा सामान ट्रक में लद जाने के बाद दुबारा उजाड़, उदास हुए मकान को डबडबाई आँखों से देख उससे   विदा लेते, हम गले मिल मूक रुदन रोते।सालों बाद भी मुझे बचपन से लेकर अब तक रहे हर घर की याद हमेशा को पीछे छूट गए किसी  दोस्त की तरह ही सताती है। हर घर से मेरा एक नए रंग का रिश्ता बना।


किसी घर के बाहर लगे गुलमोहर व अमलतास की सुर्ख- जर्द छाँव, किसी का बड़ा सा आंगन और कोने पर लगे अमरूद, अनार, किसी के आँगन में अमरूद पर छींके में बंधे लटकते कद्दू , किसी आँगन में आम से लदी झुकीं डालियाँ,किसी के पीछे से जाती रेलगाड़ियों की छुक-छुक , बरसों याद आती रहीं। इलाहाबाद व बनारस का गंगा घाट, नैनीताल,अल्मोड़ा की बारिशें,पहाड़िएं व झील, लखनऊ के हज़रतगंज की चाट व कुल्फी, मैनपुरी का कपूरकंद, अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़ा, भी खूब याद आते।


 ताताजी का ट्रान्सफर होने पर फिर नया शहर ,नया मकान ,नया स्कूल।सब कुछ अजनबी सा लगता। लोग तो अजनबी लगते ही, यहाँ तक कि दुकानें, पार्क, सड़कें, पेड़-पौधे भी अपरिचित से लगते।  हर बार शहर ही नहीं सहेलियाँ व स्कूल भी छूट जाते। नई सहेलियाँ बनाने में  वक्त लगता। जब तक नए शहर में कुछ मन लगना शुरु होता कि दुबारा ट्रान्सफर का ऑर्डर आ जाता। इस सबसे मेरा बहुत दिल टूटता। हर समय रोना सा आता रहता।शायद इसी वजह से बचपन से ही मन के किसी कोने में वैराग्य का पौधा स्वयम् ही पनप गया था।


मुझे याद आता है कि कई घरों से कोई भूत या चुड़ैल का किस्सा भी जुड़ा रहता था। जो कि वहाँ पिछले वाले साहब के साथ काम कर चुके कर्मचारी लोग अम्माँ को बहुत धीरे से फुसफुसा कर सुनाते थे, लेकिन सबसे पहले मेरे ही कान सुनते उनको।उनमें से कुछ भूत तो वहीं सोते छूट गए पर कुछ मेरे सपनों में जब- तब घुसपैठ करते सालों तक हमारा खून सुखाते, रात में अमरूद के पेड़ पर तो कभी पीपल के पेड़ पर लटक कर दाढ़ी हिला-हिला कर हंसते हमें डराते रहे।


पीलीभीत की हाजी जी की बहुत विशाल कोठी के आधे भाग को उन्होंने हमें किराए पर दिया हुआ था।बाकी आधे में वे स्वयम् तीन बीबियों और बच्चों के साथ रहते थे। बढ़ी बीबी का काम था घर का मैनेजमेन्ट देखना, दूसरे नम्बर की हर वक्त हाँडी और रोटियाँ पकाती रसोई में ही घुसी रहतीं और तीसरी सबसे छोटी मशीन पर कपड़े सिलती रहती थीं। कभी बहुत सम्पन्न रहे हाजी जी की माली हालात कुछ ठीक नहीं थे अब। दोनों घरों के बीच की दीवार में एक दरवाजा था जिसकी कुंडी दिन में हमेशा खुली रहती थी और हमारी अम्माँ व हाजी जी की बीबियाँ काम के बीच में मौका देख दरवाजे पर ही खड़े-खड़े खूब बतरस का आनन्द लेतीं।


प्राय: पहले दो घरों के आंगन के बीच की दीवार कॉमन होती थी और उसमें एक दरवाजा होता था जिसका खुलना व बन्द होना दोनों घरों के मालिकों के आपसी संबंधों पर निर्भर रहता था। अम्माँ खूब मजे लेकर सुनाती थीं कि`ललितपुर में श्रीवास्तव साहब का और हमारा बीच का दरवाजा खुला ही रहता था तो तुम छोटी सी थीं उनकी रसोई से एक छोटा लोटा लाकर हमेशा अपने घर के बरतनों में रख देती थीं। जब ट्रान्सफर हुआ तो उन्होंने भरे मन से चलते समय वो लोटा तुमको ही दे दिया।’


जहाँ भी ट्रान्सफर होकर हम लोग जाते हफ्ते भर में ही अम्माँ की आस-पड़ोस में आन्टी लोगों से अटूट दोस्ती हो जाती।कभी डोंगों की अदला-बदली होती तो कभी चीनी, नमक, दही का जामन या कोई दवाई के आदान-प्रदान के लिए बच्चे इधर से उधर दौड़ लगाते रहते। कभी साथ में बड़िएं, अचार बन रहे हैं, तो कभी चिप्स-पापड़, कभी जवे बन रहे हैं तो कभी स्वेटर के डिजाइन सीखे जा रहे हैं। दीवाली, होली पर हमारे यहाँ से मिठाइयाँ, गुझियाँ हाजी जी के यहाँ पहुँचते तो ईद पर हाजी जी की तरफ से कोई उनका कारिन्दा सीधे हलवाई के यहाँ से गर्मागर्म कचौड़ी, सब्जी, रबड़ी व मिठाइयों का टोकरा सिर पर रखे लिए चला आता।रामप्यारी मौसी के हाथ की सब्जी और तन्दूर में लगाई रोटियाँ हमें बहुत पसन्द थीं तो वे एक कटोरी सब्जी और दो तन्दूर की रोटियाँ जब- तब हमारे लिए लिए चली आती थीं।


ट्रान्सफर होने पर मोहल्ले के लोगों की भीड़ लग जाती और नम आँखों से, भरे गलों से हम लोगों की मार्मिक विदाई होती इसका श्रेय अम्माँ की व्यवहारकुशलता व अपनत्वपूर्ण व स्नेहसिक्त व्यवहार को ही जाता था।


पीलीभीत में पुराने साहब लोगों के साथ काम कर चुके मोहर ने एक बार बताया-"अब का बताएं बहू जी हम सुने जौन कमरा मा आप लोग सोवत हैं उसी के आले में पीर साहब का वास रहिन। हम पिछली वाली बहूरानी को कहत सुने।” हम आस-पास ही खेल रहे थे, सुनते ही हमारे प्राण कन्ठ तक आ गए लगा बस आज की रात हमारी ही गर्दन पीर साहब नापने वाले हैं ।


अम्माँ ने हाजी जी की बड़ी बेगम से इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि " हा बीबी, जब हम उसमें रहते थे तो हमने उसे पीर साहब का आला बनाया था, डर की कोई बात नहीं, वो आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे बस आप कोई ऐसी- वैसी चीज मत रखिएगा उसमें !” अम्माँ ने बताया कि हम तो बस चाबियों के गुच्छे रखते हैं तो उन्होंने कहा कि" ठीक है कोई बात नहीं।”


ऐसे ही बलिया वाले घर के एक कमरे में चुड़ैल की सूचना मोहन से मिली, तो मथुरा वाले घर के स्टोर में किसी भूत के वास की भी चर्चा हुई। लेकिन हमारी अम्माँ और ताताजी ने कभी भी उन बातों को गम्भीरता से नहीं लिया बस अफवाह मान कर उड़ा दिया, लेकिन हम बच्चों के सपनों में उनका तान्डव जारी रहता और हमारा  खून ही सूखता रहता था।


इसी तरह शादी के बाद हम सालों जिस पुश्तैनी मकान में रहते थे उसकी कई स्मृतियों में बन्दरों की घटनाओं की भी कई स्मृतियाँ हैं। जब बन्दरों का अटैक होता तो कई दिनों तक लगातार झुंड के झुंड आते ही चले जाते थे। जिस साल शादी हुई तब इन्वर्टर, जैनरेटर तो होते नहीं थे तो लाइट जाने पर तिमंजले की छत पर ही जाकर सो जाते थे। एक दिन मैं तो सुबह ही उठ कर नीचे आ गई। थोड़ी देर बाद देखा कि बराबर की छत पर बन्दर बैठा तकिया फाड़ कर कूद- कूद कर सड़क पर रुई उड़ा रहा है और सड़क चलते लोग देख कर हंस रहे हैं। उसकी हरकतों पर हमें भी हंसी आ गई।हमने सोचा कि सिंह साहब अभी ऊपर ही सो रहे हैं कहीं बन्दर काट न ले तो  जाकर जगा दें। ऊपर गए तो देखा उनके सिर के नीचे से तकिया गायब है। हमारी हंसी गायब हो गई ,समझ आया वो हमारे ही तकिए की धज्जिएं बिखेर रहा था।


एक दिन कमरे की खिड़की खुली रह गयी तो जैसे ही मैं कमरे में घुसी तो धक् से रह गई कमरे का एक भी सामान ठिकाने पर नहीं थी। कुशन फटे पड़े थे, एलबम की चिंदियाँ उड़ रही थीं कई कैसेट की रीलों के गुच्छे परस्पर गुँथे पड़े थे कुछ कपिराज के गले में हार सी शोभा पा रहे थे।और दो कपि युगल हमारे नर्म गद्दों पर रजाई सिर से ओढ़ कर कूद रहे थे।हमारी चीख सुन कर दाँत निकाल खौं- खौं करके खिड़की से कूद बाहर भाग गए और जाते- जाते भी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी हमारी रिस्टवॉच भी ले गये।


ऐसे ही कभी बच्चों के मुँह से बोतल छीन के ले गये तो कभी चश्मा या कपड़े, कभी फ्रिज से छिली रखी पाँच किलो मटर के दाने का पैकिट ले जाकर पूरी सड़क पर बिखेर दिए, कभी आम की दावत उड़ाई। तीनों कमरों के बीच में दो बड़ी- बड़ी खुली छतें थीं तो बन्दरों का खूब आतंक रहता था। मेरा भी सारा डर निकल गया। कई बार हम एकदम आमने- सामने टकरा जाते थे, पर मैं दृढ़ता से स्थिर खड़ी रह कर उसकी आँखों में टकटकी लगा कर देखती रहती। पापा का बताया ये फॉर्मूला बहुत काम आता था और उल्टा बन्दर ही डर कर भाग जाते थे।


एयर गन और कई डंडों का इंतजाम हम हमेशा रखते थे।प्राय: एयर गन देखते ही बन्दर तेजी से डर कर भाग जाते थे। लेकिन हमें इस बात की बेहद हैरानी है कि हर मोहल्ले के बन्दरों का  मानसिक बल भी अलग ही होती है। जब हम दूसरे मकान में शिफ़्ट हुए तो वहाँ के बन्दरों पर एयर गन का जरा भी असर नहीं होता था। हम कन्धे से लगा कर एक आँख बन्द कर चाहें कितनी ही नेचुरल पोज़ीशन साधें पर मजाल है जो किसी बन्दर पर जरा भी फर्क पड़ता हो आराम से पूँछ हिलाते सामने से टहलते निकल जाते और हम हैरान दाँत किटकिटा कर रह जाते।


मुझे याद है ताताजी के गुजर जाने के कुछ दिनों बाद,भैया की परेशानी में जब हम चारों भाई-बहन पापा का बनवाया मकान बेचने के लिए मैनपुरी गए और सुनसान घर का ताला खोल कर जब अन्दर प्रवेश किया तो हमारे अन्तस में भी सन्नाटा पसर गया ...कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझे एक ही बात की हैरानी हो रही थी और मैं भरे गले से बार-बार यही बुदबुदा रही थी कि,`ये घर सिकुड़ कर इतना छोटा कैसे हो गया...जो घर इतना विशाल था, इतना रौशन था, हर समय जगमग करता था उसमें अब भरी दोपहर में भी इतना अँधेरा कैसे भर गया ?’ मेरे आँसू थम ही नहीं रहे थे।


 घर वालों के बिना वो हमारा  घर एकदम अनाथ, उजाड़ और बेनूर सा लग रहा था।उजड़े पड़े इसी आँगन में कभी, कैसी चहल-पहल भरी होती थी। अम्माँ के महकते ममतामयी आँचल के साथ  इसी चहकते आँगन का भी मानो इतना विस्तार बढ़ जाता था कि ओर-छोर ही नजर नहीं आता था। हम सब जब जाते तो अपनी थकान और परेशानियों को भूल, सुकून में डूब कर गुम ही हो जाते।


रिटायरमेंट से पहले ही गाँव पास होने के कारण ताताजी ने मैनपुरी में बहुत प्यार से कोठी बनवाई , जिसका नक्शा भी खुद ही बनाया था और रिटायरमेंट के बाद वहीं रहने लगे थे। 


इसी आँगन में जब अम्माँ अपना पोर्टेबल चूल्हा रख कर पीढ़े पर बैठ बड़ी सी कढ़ाई में गाजर का हलुआ घोंटती, साग, मक्का की रोटी, कढ़ी, दही बड़े, बिरियानी, कोरमा वगैरह प्रसन्नता से दमकते मुख से पकाती थीं, तो हम और हमारे बच्चे उनके चारों तरफ चहकते-लहकते चक्कर काटते रहते।


ताताजी भी बीच- बीच में आकर हमारी हा-हा,ठी-ठी और बतकही के बीच शामिल हो जाते।अपने शिकार के और जंगलों के किस्से सुनाते, तो कभी विद्यार्थी जीवन की शैतानियाँ सुनाते। मुझे प्राय: छेड़ते- "देखो ये इतनी तनख़्वाह ले रही है, बच्चों को बेवकूफ बनाने की, अरे पेंटिंग भी कोई पढ़ाने का सब्जेक्ट है ?” 


हम लोगों के आने से पहले ही ताताजी पपीते, शरीफे, आम, चीकू तोड़ कर पेपर में लपेट कर कनस्तर में रख कर पकने रख देते थे और हम लोगों को बहुत प्यार से निकाल कर खिलाते थे।


खाने पीने का न कोई टाइम रहता, न ही सीमा। भरे पेट पर भी पकौड़ी बन जातीं, तो कभी भर गिलास काँजी के बड़े या भर गिलास मट्ठा लेकर हम सब खाने-पीने बैठ जाते। कभी ठंडाई पिसती, तो कभी चाट बन रही होती।अचानक कपूरकन्द की या जलेबी की फरमाइश पर मोहन साइकिल ले बाजार भागता। कितना ही खा-पी लें लेकिन पेट और मन ही नही भरता था हमारा। बाद में झींकते कि "हाय राम कितना वेट बढ़ गया।” 


लौटते समय अम्माँ के हाथ की प्यार भरी सौगातें-अचार,पापड़, मुरब्बे ,बड़िएं, लड्डू ,मठरी ,गुझियाँ, बेसन के सेब वगैरह हमारे साथ बंधे होते।मौसम के अनुसार अम्माँ हम लोगों के हिस्से के अचार, पापड़ वगैरह बना कर रखती थीं। 


इसी उदास, उजाड़ आँगन की तब कैसी शोभा होती थी। बाहर के बरामदे के साइड में सुगन्धित गुलाबी फूलों से लदी बेल व घनी मधुमालती के सघन, सुगन्धित कुंज से आच्छादित बरामदे की सीढ़ियों के पास का कोना हम बहनों की सबसे मनपसन्द जगह थी। तरह- तरह की चिड़ियों की मनमोहक चहचहाहट सुनती मैं वहीं भीनी-भीनी सुगन्धित शीतल छाँव में सीढ़ियों पर बैठी शिवानी या अमृता प्रीतम का कोई उपन्यास और काँजी, चाय या फेट कर बनाई खूब झागदार कॉफी का मग लेकर घंटों बैठी रहती।


 सुबह लॉन की हरी घास के कोने में हरसिंगार के नीचे ओस से भीगे श्वेत-केसरिया फूलों की सुगन्धित, शीतल चादर सी बिछ जाती। मैं रोज सुबह उठ कर वहाँ जाकर लेट जाती। फूल-पत्तों से छन कर आती सुबह की सुनहरी किरणें चेहरे पर अठखेलियाँ करतीं।ओस-भीगे फूल जैसे तन-मन का सारा सन्ताप व थकन हर कर तुष्टि से भर देते और मैं गुनगुनाती हुई बहुत देर तक अलसाई सी वहीं पड़ी रहती। अम्माँ को जोर से चिल्ला कर कहती "अम्माँ हमारी चाय यहीं भिजवा दो !”

ताताजी भी प्राय: पास में कुर्सी डाल कर पेपर लेकर बैठ जाते।


कभी कोई पेन्टिंग बना कर, तो कभी कुम्हार के यहाँ से मिट्टी मंगवा कर मैं कोई मूर्ति गढ़ती, पुआल-उपलों में पका कर, कलर करके घर में सजा आती। ताताजी, अम्माँ बहुत खुश होते। आने-जाने वालों को मगन होकर आर्टिस्ट बिटिया के करतब दिखाते।


वही घर-आँगन था, वही पेड़-लताएं ...पर आज श्रीहीन, स्तब्ध खड़े थे मानो सब।अब न हमें रंग-बिरंगे फल-फूल नजर आ रहे थे और न ही वे पेड़ों पर चहकते ,फुदकते रंग- बिरंगे सुग्गा,पंछी। हम सबकी आँखें बरस रही थीं।उस उजड़े, सूने आँगन में स्तब्ध-अवाक खड़े हमें अपने अनाथ हो जाने का अहसास पहली बार इतनी शिद्दत से मर्माहत कर रहा था।


उसके नए मालिक को चाबियों के साथ उस घर की धड़कनें सौंपते, मन ही मन अपने प्राणप्रिय उस घर से माफी माँगी, जिसकी एक-एक ईंट ताताजी ने बहुत प्यार से रखी थी।मन पर बहुत भारी बोझ लेकर हम लोगों ने अपने घर से अन्तिम विदा ली।गाड़ी में बैठ, घर पर प्यार भरी अन्तिम दृष्टि डाल मैंने आँखें मूँद प्रार्थना की कि नए मालिकों का होकर मेरा घर फिर से हरा-भरा हो खिलखिला उठे और खूब शुभ हो नए मालिकों के लिए ये हमारा सपनों का घर।


 घर की भी आत्मा होती है ये मैंने दो बार महसूस किया है।एक तो मैनपुरी के मकान को बेचने के बाद जब वहाँ आँगन में खड़ी थी तब और दूसरी बार तब, जब हम लोगों ने अपने ससुराल का पुश्तैनी मकान खाली कर ताला लगाया।


अम्माँ व बाबूजी के गुजर जाने के बाद, समय के साथ जब परिवार बढ़ा तो जगह की कमी व सौ साल पुराने मकान की जर्जर हालत देख कर अपनी सुविधानुसार तीनों भाई सालों साथ रहने के बाद अपने-अपने अलग घर बनवा कर  उनमें शिफ्ट हो गए। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ ये देख कर कि हमारा वो पुश्तैनी मकान साल भर में ही ढहने की स्थिति में आ गया। आज भी जब सपना कोई देखती हूँ तो उसकी बैकग्राउंड में वही पुश्तैनी मकान दिखाई देता है जबकि बीस- इक्कीस साल पहले ही उसे छोडकर हम दो और मकानों में शिफ्ट हो चुके है।हम लोगों को अहसास होता है कि उस घर में पितरों के आशीष भी हमारे साथ थे। दो पीढ़ियों की पढाई-लिखाई, कैरियर व कई शादी- ब्याह वहीं से सम्पन्न हुए। खानदान के कई और बच्चे भी हमारे घर में रह कर पढ़ लिख कर ऊँची उड़ानों पर निकले। दूर-दराज के रिश्तेदारों की जाने कितनी लड़कियों को अपनी कोई साड़ी पहना कर तैयार करके दिखाने की ज़िम्मेदारी भी खूब निभाई हमने


रिटायरमेंट से दो साल पहले ही जब हमने बीस सालों से रह रहे मकान को खाली किया तो प्यार से बनाए अपने सपनों के घर में जाने की बेहद ख़ुशी तो थी लेकिन बाहर से दीवार को पार  कर आँगन में लम्बी - लम्बी बाहें फैलाए आमों से लदे ,अपने प्रिय आम के पेड़ से गले लग विदा ली तो आँखें नम हो गईं। मेरे जाने कितने सुख- दुख का साक्षी रहा वो। कॉलेज आते-जाते प्राय: मैं उसके गले लग जाती। जिंदगी में न जाने कितने पेड़- पौधे आए लेकिन उसके साथ किन्हीं कारणों से मैं एक विशेष रिश्ता महसूस करती थी, जैसे सुख-दुख का साथी …अभिन्न मित्र !


#विदा_दोस्त...!!


आज मैंने पीछे, दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न…

पावन-पीत दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी  तुमसे मिलने

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!


                     — उषा किरण

रविवार, 19 सितंबर 2021

स्थगित


     

रेल की पटरियों पर बदहवास रोती चली जा रही दीप्ति के पीछे एक भिखारिन लग गई।

- ए सिठानी तेरे कूँ मरनाईच न तो अपुन को ये शॉल, स्वेटर और चप्पल दे न…ए सिठानी …!

दीप्ति ने शॉल, स्वेटर और चप्पल उसकी तरफ उछाल दिए।  भिखारिन और तेजी से पीछा करने लगी।

- ऐ सिठानी ये चेन और कंगन भी दे न…भगवान भला करेंगे…!

पल भर सोच कर दीप्ति ने चेन और कंगन भी उसके हवाले किए और तेज कदमों से पटरी के बीच चलने लगी। सहसा उसने मुड़ कर देखा, भिखारिन सब कुछ पहन खुशी से मस्त हो नाच रही थी…ताली बजा रही थी, ठहाके लगा रही थी।


दीप्ति के कदम रुक गए…भिखारिन और तनुजा के चेहरे आपस में गडमड हो रहे थे।पति देवेश और तनुजा के रोमान्टिक मैसेज , बूढ़े पापा- मम्मी के विलाप सब आँखों के आगे फिल्म की तरह घूम गए।भिखारिन की जगह ठहाके लगाता  तनुजा का चेहरा आँखों के आगे घूम गया।


आँसू पोंछ कर, दीप्ति दृढ़ कदमों से वापिस लौट पड़ी।गनीमत थी सब गहरी नींद सोए पड़े थे। उसने देवेश की ओर एक उपेक्षित दृष्टि डाली, उसकी तरफ पीठ कर रजाई ऊपर तक खींच कर आँखें मूँद लीं ।

— उषा किरण 

मंगलवार, 14 सितंबर 2021

पुरुष- उत्पीड़न

 



बहुत दुखद है कि मेरे कुछ स्टुडेंट्स का पत्नियों के द्वारा घोर उत्पीड़न हुआ है और मैं चाह कर भी कुछ भी मदद नहीं कर पाई।वे सभी सीधे- सादे भावुक हृदय कलाकार हैं।


दो को तो जेल भी जाना पड़ा। पत्नि उत्पीड़न, वकीलों द्वारा शोषण, आर्थिक हानि, सामाजिक प्रताड़ना सहने के बाद भी वे किस तरह जिन्दगी में आगे बढ़ सके ये मैं ही जानती हूँ ।


वे रोते थे, छटपटाते थे, तो मैं उनको आँसू पोंछने के लिए अपना आँचल व हौसला ही दे सकी ,और कोई भी मदद चाह कर भी नहीं कर सकी।कई वकीलों से बात करने के बावजूद भी।कई बार लगता था कि लॉ की पढ़ाई ही कर लूँ जिससे मदद कर सकूँ। सारे नियम-कानून की सहानुभूति महिला के पक्ष में ही क्यों हैं ?कहाँ जाएं ये ?


ऐसा नहीं कि लगभग चालीस साल की जॉब के बीच मेरी कुछ गर्ल्स स्टुडेंट का उत्पीड़न नहीं हुआ…कई का हुआ। रास्ता आसान उनका भी नहीं था परन्तु उनके साथ समाज, परिवार, कानून, पुलिस, सब थे अत: उनकी मदद के लिए रास्ते अवरुद्ध नहीं थे।


अभी हाल में ही मेरे एक बेहद हंसमुख, जिंदादिल स्टुडेंट ने शादी के साल भर के भीतर ही पत्नि की कलह व बात-बात पर नीचा दिखाए जाने से क्षुब्ध होकर खुद को रेल की पटरियों के हवाले कर दिया।दो साल पहले ही अपनी माँ की कैंसर के कारण मृत्यु से वो पहले ही टूटा हुआ था । सारी क्लास सदमे में थी सब बारी- बारी फोन कर अपना दुख व्यक्त कर रहे थे। क्या समझाती उनको ? मुझे खुद भी कई दिन तक नींद नहीं आई।


एक रिसर्च स्कॉलर को पत्नि ने उसे जहर देने की कोशिश की जबकि लव मैरिज थी। एक और स्टुडेंट की पत्नि शादी के बाद मायके से बिना बताए कुछ ब्वॉयफ्रैंड्स  के साथ नैनीताल घूमने गईं और ढेरों ड्रामा करके तलाक के बाद बेहद घटिया जीवन शैली अपनाए हुए है आज।जब तलाक का केस चल रहा था तो उसके वकील से ही इश्क शुरु कर दिया। रिश्तेदारों ने दूसरी शादी गारन्टी लेकर करवाई तो पता चला उसे सीजोफ्रेनिया है। अब भुगत वो रहा है और रिश्तेदार हाथ झाड़ कर अलग खड़े हैं।


मेरे एक परिचित जो खुद सुप्रीम- कोर्ट में नामी वकील हैं , पत्नि  द्वारा उत्पीड़ित हो कुछ नहीं कर सके…खुद अपनी भी मदद नहीं कर सके और केस में सब कुछ हार बैठे। 


आज मेरे एक और बेहद टैलेन्टेड स्टुडेंट का फोन आया जिसने बी ए की पढ़ाई एक साल करके छोड़ दी और दिल्ली से बी एफ ए की पढ़ाई की, जामिया में कुल पाँच सीट थीं जहाँ एडमिशन मिला तो एम एफ ए करके टीचिंग जॉब में है। वो लगातार मेरे सम्पर्क में रहता है।


पता चला कि एक तो कोरोना के कारण उसकी माँ की डैथ हो गई ,पत्नि ने तलाक का केस पहले ही चला रखा है। जब साथ थी तो कई बार उसको बहुत मारा, बेटी साथ ले गई, जेवर भी ले गई, अब दुबारा कह रही है कि जेवर दो मेरा। मैं तुझे जेल भेजूँगी ।दहशत व दुख से उसको पिछले दिनों बहुत तगड़ा हार्ट- अटैक आ गया । माँ का सदमा भूल नहीं पा रहा, शुगर का पेशेन्ट है। वकील कह रहा है कि जेल जाना पड़ सकता है ।वो यही सोच कर काँप रहा था, रो रहा था और मैं समझा रही थी कि `तो क्या हुआ? हो आना थोड़े दिन को ! मेन्टली मजबूत रहो।’ परन्तु एक कलाकार जो बेहद खूबसूरत चित्र बनाता हो, चित्र-प्रदर्शनी लगाता हो, टीचर हो उसके लिए ये आसान नहीं ये मैं भी जानती हूँ लेकिन साँत्वना देती रही डाँटती रही रोना बन्द करो …दिल मजबूत करो। वो कह रहा था कि मैम मेरी जॉब प्राइवेट कॉलेज में है तो वो छूट जाएगी। उसने CAW (Crime against Women Cell ) Delhi में भी रिपोर्ट कर दी है ? परिवार की आर्थिक स्थिति खराब है। भाई का जॉब भी छूट गया है, बहन पति से प्रताड़ित होकर वापिस घर आ गई है और उसकी पत्नि अनाप- शनाप पैसे माँग रही है। उसका रईस बाप धमका रहा है ।


मैं नहीं जानती कि उसको कैसे बचाया जाय? कोई कानून, कोई एन जी ओ , कोई तरीका हो तो प्लीज़ मुझे बताओ आप लोग।मार्गदर्शन करो।वे सब अपनी मासूमियत खोकर डिप्रेशन के शिकार होते जा रहे हैं।


कभी- कभी लगता है कि मेरे ही स्टुडेंट का भाग्य खराब है या ये समाज की आम सच्चाई है ? महिलाओं के उत्पीड़न के तो हम सभी विरोध में खड़े हो जाते हैं, लेकिन लड़कियों के जुल्म के शिकार हुए  से सीधे- सादे लड़के बेचारे कहाँ जाएं ?


कौन हैं ये लड़कियाँ, कहां से आती हैं ? जिनमें इंसानियत, ममता, सच्चरित्रता नाम को नहीं है। बस मौज-मस्ती और पैसे की हवस रहती है।

ये कैसे संस्कारों में पली- बढ़ी हैं….हैरान हूं बहुत।


मैं नहीं जानती कि उसको कैसे बचाया जाय? कोई कानून, कोई एन जी ओ , कोई तरीका हो तो प्लीज़ मुझे बताओ …मार्गदर्शन करो।

                                                   — उषा किरण 

शुक्रवार, 10 सितंबर 2021

लम्पट


ठसाठस भरी बस के आते ही भीड़ उसकी तरफ लपकी। दीपक ने दोनों हाथों  के घेरे में सुलक्षणा को लेकर किसी तरह बस में चढ़ाया और जैसे ही एक सीट खाली हुई सीट घेर कर निश्चिंत हो बहन को बैठा लम्बी साँस ली और खुद रॉड पकड़ कर बीच में खड़ा हो गया।

दोनों भाई-बहन ममेरे भाई की शादी से लौट रहे थे।शादी में सारी रात जागने के कारण सुलक्षणा को कुछ ही देर में झपकी आ गई।सहसा उसकी झपकी टूटी तो सामने दृष्टि पड़ते ही हतप्रभ रह गई। दीपक के ठीक सामने एक लड़की खड़ी थी जो काफ़ी असहज महसूस कर रही थी।बार- बार गुस्से में मुड़ कर दीपक को देख रही थी ।

-आप थोड़ा पीछे हटिए प्लीज !

सुलक्षणा ने हैरानी से देखा कि भैया पीछे हटने की जगह और सट कर खड़े हो गए। उनके चेहरे  के लम्पट-भाव देख वह हैरान थी।ये भैया का कौन सा नया रूप देख रही थी आज ?

उसका मन जुगुप्सा से भर उठा ।

सहसा वो झटके खड़ी हुई और दीपक के सामने खड़ी लड़की से बोली।

- आप यहाँ मेरी सीट पर बैठ जाइए !

- थैंक्यू…कह कर लड़की ने आराम से सीट पर बैठ कर चैन की साँस ली। सुलक्षणा उस लड़की की जगह भाई के सामने रॉड पकड़ कर खड़ी हो गई। दीपक अचकचा कर एक कदम पीछे हट गया। सभी की निगाहें दीपक पर जमी थीं और दीपक की निगाह बस के फर्श पर।

— उषा किरण 

गुरुवार, 9 सितंबर 2021

शरीफजादा



बस में खिड़की से बाहर देखती चित्रांगदा के चेहरे और लटों से ठंडी हवाएं सरगोशियाँ कर रही थीं । हैडफोन कान से लगा कर वो गुलाम अली की गजलेों में गुम अपनी ही दुनिया में मस्त आँखें मूँद खिड़की से सिर टिकाए थी कि सहसा उसे अपनी कमर पर कुछ स्पर्श महसूस हुआ। पास बैठे लड़के को संदिग्ध दृष्टि से देखा तो निहायत संजीदा सा लड़का चुपचाप बहुत ध्यान से अख़बार पढ़ रहा था।बायाँ हाथ जो उसकी तरफ था उससे अख़बार पकड़ रखा था तो उसके द्वारा टच नहीं किया जा सकता था। लगा उसका वहम है पर जागरूक होकर स्थिर बैठ गई।

थोड़ी देर बाद फिर लगा किसी ने बाँह को छुआ तो उसने झटके से देखा अखबार की ओट से दूसरे दाएँ हाथ की उँगलियाँ साँप सी सरसराती दिखाई दीं। चित्रा के दाँत गुस्से से भिंच गए कुत्ते छेड़खानी के कितने तरीके निकाल कर लाते हैं। 

चित्रा ने एक झन्नाटेदार झापड़ चटाक् से उसके गाल पर रसीद कर दिया।चारों उँगलियाँ गाल पर छप गईं।आसपास बैठे लोगों में हलचल सी हुई।

- अरे मैंने क्या किया ? 

- कुछ नहीं…मच्छर बैठा था, बस मार दिया !

चित्रा का स्टॉपेज आ गया था पर्स उठा कर मुस्कुराते हुए बस से नीचे उतर गई। आसपास के लोगों  के चेहरों पर भी मुस्कान थी। 

शरीफजादा यथावत अख़बार में चेहरा छुपाए पेपर पढ़ता रहा।

Usha Kiran

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

देवदूत




बदहवासियों के आलम में

ई सी जी, इंजैक्शन, ऑक्सीजन…

नीम बेहोशियों, हवासों की गुमशुदगी में

उल्टियाँ, घुटन, बेचैनी, दहशत, लाचारी

हाड़ कंपाती ठिठुरन भरी सुरंग से गुजरती रूह

डॉक्टर की कड़क  नसीहतों के बीच

अचानक आना तुम्हारा और 

किसी फरिश्ते की तरह दो बार सिर सहला जाना…

कोई बात नहीं आप टेंशन न लो…रिलैक्स!

वक्त के साथ बीत चुका है सब

भूल चुकी हूँ दो दिन में ही

दर्द, दहशत, बेदिली, शोर, बदहवासी 

याद रह गई सिर्फ़ वो सम्वेदना

दिल में घुमड़ता

बादल का एक नन्हा सा टुकडा़ और उसकी नमी

जो बार बार मेरी आँखें आज सुबह से नम किए है

डॉक्टर के भेष में कुछ देवदूत चुन कर

भेजते हैं भगवान इंसानों के तन का ताप हरने 

और उनमें से कुछ होते हैं जो 

फरिश्ते बन हाथ के साथ मन को भी थाम लेते हैं 

उस दिन मुझे भी थाम लिया था उसने 

एक देवदूत बन कर…!!


Usha Kiran

रविवार, 5 सितंबर 2021

लाफिंग क्लब (लघुकथा )






शादी के बारह साल बाद भी मोहन के कोई बच्चा नहीं था। घरवाले सब दूसरी शादी के लिए दबाव बना रहे थे।जब वो छुट्टी में पहाड़ जा रहा था तो मैंने कहा मीना को यहाँ ले आओ इलाज करवाते हैं।तो गाँव जाने पर मेरे कहने से अपनी बीबी मीना को भी ले आया साथ। 

सालों बाद दोनों साथ-साथ रहते बहुत खुश थे।किचिन में काम करते समय धीरे- धीरे पहाड़ी गीत गाते रहते।मैं किसी काम से किचिन में जाती तो उनका  मीठा सा पहाड़ी गान सुन कर दबे पाँव मुस्कुरा कर वापिस लौट आती।

एक दिन सुबह- सुबह सिम्बा को घुमाने ले जाते समय मोहन, मीना को भी साथ ले गया। दिसम्बर की सर्द कोहरे से भरे मैदान से मीना ने देखा पास के पार्क में कुछ धुँधली सी आकृतियाँ जोर-जोर से हँस रही हैं।

-हैं ये कौन हैं ?

- ये भूत हैं जैसे हमारे पहाड़ों में होते हैं वैसे ही। 

मोहन को मजाक सूझा।मीना ताबड़तोड़ भागी, सीधे घर आकर साँस ली।आकर मुझसे जिक्र कर रही थी तो मुझे बहुत जोर से हंसी आ गई।

- अरे यहाँ शहरों में भूत नहीं होते तू डर मत। वो तो लाफिंग- क्लब के लोग थे हंसने की प्रैक्टिस कर रहे थे।

- हैं… वो क्या होता ?

- अरे कैसे बताऊं ? समझ ले एक क्लास होती है जहाँ सब बैठ कर हँसते हैं साथ-साथ।

- हैंऽऽऽऽ सहर में पढ़ाई की तरह हंसना भी सीखना होता ? हमारे पहाड़ में तो मुफ्त में ही हम सारे दिन हंसते।लकड़ियाँ बीनते, जिनावर चराते, खेत जोतते..हरदम हंसते रहते। बताओ यहाँ तो हंसना भी सीखते….! 

वो ताली बजा कर जोर-जोर से पहाड़ी झरने सी उन्मुक्त हंसी हंस रही थी और मैं चुपचाप किचिन से बाहर आ गई।

Usha Kiran

रेखाँकन: उषा


गुरुवार, 2 सितंबर 2021

पहचान ( लघुकथा)



राखी बाँधने के बाद  देवेश, अनुभा के भाई-साहब और बच्चों की महफिल जमी थी। बाहर जम कर बारिश हो रही थी। अनुभा गरम करारी पकौड़ी और चाय लेकर जैसे ही कमरे में दाखिल हुई सब उसे देखते ही किसी बात पर खिलखिला कर हंसने लगे।

`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’

`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’

`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?

'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’ 

अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-

`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए,  क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’

अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।

— उषा किरण 

मंगलवार, 31 अगस्त 2021

विदा दोस्त...!






आज मैंने पीछे दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न 

पीली-पीली दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी मिलने तुमसे

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!

                     — उषा किरण 


रविवार, 22 अगस्त 2021

अपनी- अपनी लड़ाई

 





दो बच्चे मेरे और दोनों जैसे उत्तरी घ्रुव और दक्षिणी ध्रुव।


बेटी नर्सरी में थी तो प्राय: आनन्दिता की सताई हुई बिसूरती हुई घर आती।

-आज आनन्दिता ने थप्पड़ मारा।

-आज  आनन्दिता ने नोचा।

-आज  आनन्दिता ने पेंसिल छीन ली।

-आज  आनन्दिता ने टिफिन खा लिया ।


मेरा दिल डूब-डूब जाता अपनी मासूम राजकुमारी के आँसुओं में। मैं कहती कि उसकी शिकायत मैम से कर दिया करो। पर वो कहती कि-

-मम्मी उसे कोई कुछ नहीं कह सकता मैम भी नहीं, क्योंकि उसकी दादी का ही तो स्कूल है और दादी ही तो प्रिंसिपल हैं। वो सभी बच्चों को मारती है।


वो बेहद मासूमियत से हाथ नचा कर कहती।

मुझे बहुत ही गुस्सा आता कि ये क्या बात है ? बच्ची की शिक्षा की शुरुआत ही एक गलत व्यवस्था और अन्याय सहने से हो रही है।


मैं बेहद टेंशन में आ गई। कई बार स्कूल में जाकर टीचर को शिकायत भी की, परन्तु वो आँखें फैला बेचारगी से एक ही बात दोहरातीं कि,

-क्या करें वो तो प्रिंसिपल की पोती है…!


खैर फिर नर्सरी के बाद एल के जी में दोनों का दूसरे  स्कूल में एडमिशन हुआ।दोनों एक ही रिक्शे से जाती थीं।परन्तु उसकी हाथ चलाने की इतनी आदत थी कि वो रिक्शे में भी दादागिरी करती। सब बच्चों को चाँटे मारती रहती थी। 


एक दिन फिर  बेटी रोते हुए घर आई, क्योंकि गेम्स पीरियड के बाद उसका नया ब्लेजर छीन कर आनन्दिता ने अपना पुराना ब्लेजर उसे दे दिया था। उसने काफी कहा पर वो कहती रही ये ही मेरा है।


यूँ तो मैं रोज रात को सोने से पहले उसे कहानियों में लपेट कर दया, अहिंसा,करुणा, क्षमा, सहनशीलता, देशभक्ति, भगवान पर आस्था, जैसे मानवीय मूल्यों की घुट्टी पिलाती थी, लेकिन मैंने उस दिन उसको बैठा कर वो समझाया जो मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी।मैंने सख्ती से कहा -

-तुम पिटती क्यों रहती हो, तुम्हारे हाथ नहीं हैं क्या? तुम भी मारो उसको पलट कर। और एक हाथ पकड़ कर दूसरे गाल पर लगाना थप्पड़ जोर से। यदि कोई कुछ कहे तो कह देना ये रोज मारती है इसीलिए मारा।डरना मत कोई कुछ कहेगा तो मैं देख लूँगी।


खूब सिखा- पढ़ा कर भेजा। चाह तो यही रही थी कि मैं ही जाकर मसला निबटाऊँ, लेकिन मुझे खुद अपनी जॉब पर जाना होता था। फिर लगा कि मैं कहाँ तक इसको सपोर्ट करूँगी, कब तक दुनिया से बचाऊँगी आखिर में तो इसे अपनी लड़ाई अपने शस्त्रों से खुद ही लड़नी होगी।


दूसरे दिन वो बहुत खुश कूदती- फाँदती आई,

-मम्मा ले आई अपना कोट।पता है आज जब उसने मारा तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर जोर से चाँटा मारा और कहा मेरे हाथ नहीं हैं क्या ? तुम मारोगी तो मैं भी मारूँगी।मम्मी वो एकदम से डर गई। फिर मैंने उसके पापा से भी कहा कि अंकल ये मुझे रोज मारती है और मेरा कोट नहीं दे रही जबकि अन्दर मेरा नाम लिखा है आप देख लीजिए। पता है मम्मी फिर उसके पापा ने उसको डाँटा और एक चाँटा भी मारा और कहा सॉरी बोलो उसे और कोट वापिस करो ...मम्मी बड़ा मजा आया आज!”


मन कुछ कुड़बुड़ाया -गलत शिक्षा नही दे रही हो तुम बच्ची को ? हिंसक होना सिखा रही हो ...तुमको तो ये कहना था न कि, कोई एक चाँटा मारे तो बेटा दूसरा गाल भी आगे कर दो। दुर् कह कर मैंने घुड़की दी और राहत की साँस ली।


वैसे बाद में वे दोनों बहुत अच्छी दोस्त बनीं, आज भी हैं।


उस दिन मेरी बेटी ने मुझसे बेदर्द , असभ्य , अधिकारों का हनन करने वाले समाज के बीच सर्वाइव करने का पहला पाठ पढ़ा। और जाना कि  आप कितनी भी मजबूत या कमजोर जमीन पर क्यों न  खड़े हों लेकिन अपनी लड़ाई आपको  अपने हौसलों से खुद तो लड़नी ही पड़ेगी। बिना लड़े जीत  कोई दूसरा आपको तश्तरी में रख कर भेंट नहीं कर सकता ।


फिर उसके बाद जिंदगी में वो कभी भी, किसी से भी नहीं पिटी।

                                                —उषा किरण 

गुरुवार, 5 अगस्त 2021

रहमतें



हफ्ते भर पहले आँखों की कैटरेक्ट की लेजर-सर्जरी करवाई। कुल पन्द्रह मिनिट में हो गई। न कट, न इंजेक्शन , न दर्द, न हरी पट्टी, न काला चश्मा । बस आधा घन्टा बैठा कर चैक किया और जाओ घर…भई वाह ! दुनिया कुछ और  ज़्यादा रंगीन व रौशन सी नजर आई।अपनी ही बनाई पेन्टिंग के रंग कितने खुशनुमा लगे।

कई तरह की दवाइयाँ डालने को दीं और कुछ एहतियात रखने को कहा जिसमें डॉक्टर ने ये भी कहा कि पानी से आँखों को बचाने के लिए अभी सिर मत धोना।

आठ नौ दिन हो गए तो बहुत बेचैनी थी। सोचा पार्लर पर जाकर आँख को कवर कर धुलवा ही लेते हैं।खैर खूब सावधानी से तैयारी की - पार्लर का एपॉइंटमेंट, साफ फेस टॉवल, सेनेटाइजर, डबल मास्क से लैस होकर  पहुँचे और जायजा लिया …साफ- सुथराई से सन्तुष्ट होकर हमने आरिफ को समझाया

-देखो भाई हमारी आँख की सर्जरी हुई है, तो पानी न जाए…।खूब- खूब हिदायत देकर सीट पर जम गए। 

आरिफ़ ने कहा मैम बेफिक्र रहें। हम हो गए बेफिक्र और बाईं आँख को फेस टॉवल से कवर करके बैठ गए।आरिफ ने सिर पीछे करके टॉवल लगाया,

अचानक आरिफ़ ने कहा -मैम आपकी लैफ्ट आँख की सर्जरी हुई है न? 

- नहीं राइट की और कहते ही झटका लगा, अरे मगर हम तो लैफ्ट को ढाँप कर बैठे हैं। हमने आरिफ़ को घूर कर देखा झट लैफ्ट को मुक्त किया और राइट को कवर किया और पूछा।

- अरे आरिफ़ तुमने ये क्यों पूछा अचानक ? तुमको कैसे पता चला कि…तो वो हंसने लगा बोला -पता नहीं मैम, बस ऐसे ही पूछ लिया ! 

हमने शीशे में देखा तो आँख को देख कर कुछ भी नहीं लग रहा था कि सर्जरी हुई है।लेकिन हमें आरिफ़ की शक्ल में `उसका’ नूर नजर आया।

खैर, हम हैड वॉश करवा कर आ गए सुरक्षित वापिस। बात छोटी सी है परन्तु ये बात निकल नहीं रही दिल-दिमाग से। आरिफ़ को कैसे इन्ट्यूशन हुआ ? 

ये उसकी छोटी-बड़ी रहमतें ही तो हैं जो हमारे  साथ चलती हैं भेष बदल- बदल कर …गौर करो तो साफ़ दिखाई देती हैं, वर्ना हमारी औकात  बूँद बराबर भी नहीं…फिर मेरे दिल से वही आवाज आती है-


" मैं जिसका जिक्र करती हूँ

   वो मेरी फिक्र करता है …!!🙏🙏

मंगलवार, 3 अगस्त 2021

दोस्त




ऐ दोस्त

अबके जब आना न

तो ले आना हाथों में

थोड़ा सा बचपन

घर के पीछे बग़ीचे में खोद के

बो देंगे मिल कर

फिर निकल पड़ेंगे हम

हाथों में हाथ लिए

खट्टे मीठे गोले की

चुस्की की चुस्की लेते

करते बारिशों में छपाछप

मैं भाग कर ले आउंगी

समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़

तुम बना लेना चाय तब तक

अदरक  इलायची वाली

अपनी फीकी पर मेरी

थोड़ी ज़्यादा मीठी

और तीखी सी चटनी

कच्ची आमी की

फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा

सीधा कर देना और

रस्सी डाल उस पर मैं

बना दूंगी मस्त झूला

बढ़ाएँगे ऊँची पींगें

छू लेंगे भीगे आकाश को

साबुन के बुलबुले बनाएँ

तितली के पीछे भागें

जंगलों में फिर से भटक जाएँ

नदियों में नहाएँ

चलो न ऐ दोस्त

हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!

                        — उषा किरण 

चित्र ; Pinterest से साभार

शुक्रवार, 30 जुलाई 2021

कहानी - अनकही

                                               —अनकही—

शेष आगे…..

नताशा 

 " कहाँ हो यार ? “एयरपोर्ट से बाहर निकल गाड़ी में बैठते ही मनीष का फ़ोन आ गया।

" गाड़ी में हूँ, आ रही हूँ !” मैंने थकी सी आवाज़ में कहा ।
“ अरे यार जल्दी आओ तुम ...सब गड़बड़ हो रही है ...एक तो किचिन का नल टपक रहा है ...रमाबाई आई नहीं कल से ...ओमपाल के दाँत में दर्द है कुछ काम हो नहीं रहा उससे और तुम्हारे साहबजादे के कल से एग्ज़ाम हैं, एक हंगामा उन्होंने मचाया हुआ है !” मनीष बुरी तरह बौखलाए हुए थे।
मुझे हँसी आ गई " ओफ् बताया न रास्ते में हूँ... बन्द करो अपना ये तब्सरा, कुछ नहीं होता तुमसे। कभी कोई भी डॉक्टर से शादी न करे ...आ रही हूँ कोई परी तो नहीं जो उड़ कर आ जाऊँ !”
" अरे यार परी ही हो तुम मेरी ...कैसे मैनेज करती हो ये सब जादू की छड़ी से ? नहीं यार आई मीन इट।” मनीष की आवाज़ स्नेहसिक्त हो उठी।
गाड़ी की सीट पर पीछे सिर टिका कर, आँखें बन्द कर लीं। वैसे तो मेरे मन में कहीं सुकून था, कि मैं शेखर को बता सकी अपनी मजबूरी...पर सच तो ये था कि बहुत कुछ छुपा ले गई थी। कैसे बताया जा सकता था पूरा सच ?
घर पहुँचते ही मनीष क्लीनिक से उठ कर आए बाँहों में कस कर, माथे पर प्यार किया।अलमारियों की चाबियाँ देते चेहरा ध्यान से देखते बोले " अरे ठीक तो हो न बीबी, चेहरा बहुत उतर रहा है तुम्हारा ....कहीं बी.पी.लो तो नहीं हो गया फिर ?”
" अरे, सब ठीक है, सफ़र की थकान है, आराम करूँगी ,कॉफ़ी पिऊँगी तो ठीक हो जाऊँगी।” 
" अच्छा सुनो रात को आठ बजे की मेरी सिंगापुर की फ़्लाइट है, कॉन्फ़्रेंस में जाना है दो दिन के लिए ,तो पैकिंग कर देना प्लीज़!” कह कर मनीष क्लीनिक में चले गए।
बालों को जूड़े में कस, किचिन की तरफ़ गई। वाक़ई पाँच दिन में ही घर की वो हालत हो गई थी, जैसे तूफ़ान गुज़रा हो कोई।फ़्रैश होकर कॉफी पीकर मोर्चा संभाला।
रमाबाई की ख़बर ली, हड़काया कि" कह कर गई थी कि नहीं, मेरे पीछे नागा मत करना!” ओमपाल के लिए मनीष से कह डेंटिस्ट से अपॉइन्टमेन्ट लिया, पेन किलर दी उसे। फिर वेदान्त की समस्याएँ सुनीं, थोड़ी सी ललुआ-पुतुआ की ।प्लम्बर को फ़ोन किया। शेफाली को कॉल कर उसकी सुनी, कि जॉब का पहला दिन कैसा रहा ? जल्दी से डिनर तैयार करवाया और मनीष के लिए भी डिनर पैक किया। वो फ़्लाइट में भी घर का ही खाना प्रिफर करते हैं। फिर उनका सूटकेस पैक किया।
सब काम करते ,निबटाते बुरी तरह थक गई। मनीष ने साथ एयरपोर्ट तक चलने को कहा, तो थके होने पर भी मना नहीं कर पाई। जानती थी मिस कर रहे होंगे, तो चली गई ।
लौट कर, चेंज कर, कॉफ़ी ले बैड पर पीछे कुशन लगा पसर गई। कोई-कोई दिन कितना अजीब होता है न...जैसे ज़िंदगी को ज़िद आ गई हो कि आज की तारीख के कैनवास पर सारे रंग लगाने ही हैं मुझे। पर्स खोल कर बुक निकाली ही थी कि अचानक सरसराती एक स्लिप गिर गई उठा कर पढ़ा-
"मुसाफिर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी 
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी !!”
ज़रूर ये शेखर ने रखी होगी जब मैं टॉयलेट गई थी ,'हे भगवान कितने फ़िल्मी है अब भी ‘ सोच कर मुस्कुरा पड़ी।
जब भी मैं तनु के घर जाती और यदि शेखर घर होते, तो रेडियो पर कोई ग़ज़ल तेज़ आवाज़ में लगा देते।इधर-उधर कर किसी ओट से देखते। बैडमिंटन खेलती तनु के साथ, तो खिड़की पर परछाइयाँ मँडराती देखती।
किताब बन्द कर आँखें मूँद लेट गई ।मन फिर यादों की परछाइयों के पीछे भागने लगा ...पता नहीं क्यों कुछ परछाइयाँ उम्र भर पीछा नहीं छोड़तीं ?
उस दिन कॉलेज से ही तनु उसे अपने घर ले गई, दोनों को साथ मिल कर प्रॉजेक्ट बनाना था ।आँगन पार करते देखा बरामदे में तनु की भाभी रो रही थीं तनु की मम्मी और उनके पिताजी बातें कर रहे थे ।हम दोनों तनु के रूम में आ गए ।
" मैं आती हूँ “तनु चेंज करने अंदर चली गई ।
" अरे पाँचवाँ महिना चल रहा है कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करेंगे आप और हम ? हाजीपुर में तो कोई अच्छा डॉक्टर भी तो नहीं होगा निरा क़स्बा है वो ।” तल्ख़ी से तनु की मम्मी बोलीं ,उन लोगों की बातों की आवाज़ें मेरे कानों तक आ रही थीं।
“ मैं गाड़ी लेकर आया हूँ बहन जी, आप परेशान न हों आराम से जाएगी, हम पूरा ध्यान रखेंगे। इसकी माँ का आख़िरी वक़्त है, इसी में प्राण अटके हैं। मैं इसको मिलवा कर जल्दी ही छोड़ जाऊँगा। सबसे छोटी है, तो अपनी माँ की ज़्यादा लाड़ली है !“ वे रुआँसे से गिड़गिड़ा रहे थे। 
" मम्मी जी मैं ध्यान रखूँगी अपना, प्लीज़ जाने दीजिए !”भाभी भी गिड़गिड़ा रही थीं।
" अरे कैसे फ़िक्र न करें बताओ...पहलौटी में कुछ गड़बड़ हो गई तो सारी उम्र तरसते रहेंगे बच्चे का मुँह देखने को ,कई बार देखा है, पहले बच्चे में गड़बड़ हुई, ख़राबी आ गई तो फिर हुए ही नहीं। चलो ज़िद छोड़ो बहू, खाना खिलाओ अपने पिताजी को और रवाना करो टाइम से पहुँच जाएँगे!” कई बार कहने पर भी आँटी टस से मस नहीं हुईं।
हार कर वे बोले " अच्छा दामाद जी से पूछ लीजिए एक बार।” 
" अरे उससे क्या पूछना ? बच्चा है वो अभी और भाई हमारे यहाँ बच्चे बड़ों के बीच नहीं बोलते !” थोड़ी देर बाद मैंने खिड़की से भाभी के पापा को बिना भाभी को लिए ही जाते देखा।भाभी उनको गाड़ी तक छोड़ कर आँखें पल्लू से पोंछती अंदर आ गईं और कोई भी उनको विदा करने दरवाज़े तक भी नहीं गया। मुझे ये देख बहुत हैरानी हुई, मन करुणा से भीग गया ।
तनु ने बताया कि तीसरे ही दिन भाभी की माँ चल बसीं। मैंने पूछा "अरे, भाभी तो मिल लीं न उनसे ?”
" अरे नहीं वो निरा क़स्बा है, मम्मी बहुत केयर करती हैं भाभी की...मम्मी ने तो बाद में भी नहीं भेजा रोने -पीटने में कहीं तबियत ख़राब हो जाती!”
फिर ख़ूब चहक कर कहने लगी "पता है हमारे घर में पहला बेबी होगा! यू नो, आयम वैरी इक्साइटेड....मैं तो चाहती हूँ बेटी ही हो…मैं न ख़ूब सजाऊँगी फिर उसे !”
वो बोल रही थी और मेरा मन कहीं और भटक रहा था ।शालू दीदी की सास का चंडी रूप ,लाचार से पापा-मम्मी और विवश रोती हुई दीदी का चेहरा मेरी आँखों में घूम रहा था ।
कुछ दिन बाद तनु के पापा का ट्राँस्फर कानपुर हो गया, तो वो लोग कानपुर शिफ़्ट हो गए ।इधर दीदी ने आखिर एक दिन ज़लालत से तंग आकर ख़ुद को और अपने साथ हम सबको भी लपटों के हवाले कर दिया। पापा- मम्मी तो जैसे जीते जी मर ही गए। दोनों बिस्तर से लग गए। पापा एक्यूट डिप्रेशन में चले गए।मैं मन ही मन बहुत नाराज़ थी दीदी से ... पढ़ी लिखी थीं तलाक़ ले लेतीं...इतना बड़ा क़दम उठाते ज़रा नहीं सोचा पापा-मम्मी के बारे में ?
जब वो जा रही थीं तब मैंने कई बार रोका "दीदी मत जाओ कोई जॉब कर लेना या और आगे पढ़ लेना “ पर हमेशा की तरह यही कहती गईं कि"एक बार और चांस देकर देखती हूँ शायद…! काश रुक जातीं वो ।
हम ठीक से केस भी नहीं लड़ पाए। भैया अकेला क्या-क्या करता? उन लोगों ने पुलिस को पैसा भर कर और अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर एक्सीडेंट सिद्ध कर दिया और हम सब तड़प कर रह गए। पूरा परिवार गहरे सदमे में डूब गया।
इसी बीच मनीष की मम्मी को जब पता चला तो भागी-भागी आईं ।वो अपने बड़े बेटे के पास लंदन में थीं।मैं आँटी से लिपट कर बहुत रोई ।उन्होंने सब संभाल लिया। वो सुबह से रात तक हमारे ही घर रहतीं।अंकल भी प्राय: शतरंज बग़ल में दबाए आ जाते और पापा को भी ज़बर्दस्ती बैठा लेते खेलने के लिए। अंकल ने समझा बुझा कर हौसला बँधा कर भैया को भी हॉस्टल भेजा।
साल भर बाद एक दिन आँटी ने बहुत प्यार और सम्मान से मेरा हाथ माँगा ।मम्मी ने अकेले में मुझसे पूछा " बेटा बीना ने मनीष के लिए तुम्हारा रिश्ता माँगा है ,मैंने हाँ नहीं की है।”
" माँ हाँ कर दो “ मैंने खूब सोच -समझ कर एक दिन मम्मी से कहा ।
" देख ले बेटा तू कहे तो मैं शेखर की मम्मी से बात करूँ ? मैं जानती हूँ कि तुम और शेखर....” मैंने बीच में ही टोक कर कहा।
" नहीं ऐसा कुछ नहीं है, जैसा आप सोच रही हैं ...आप हाँ कर दो मम्मी ...मैं यहीं रहूँगी इलाहाबाद में, आपके और पापा के पास...मैं आपसे दूर नहीं रह सकती !” मैं मम्मी से लिपट कर रोती रही।
पर दिमाग से लिए फ़ैसलों को यदि दिल इतनी आसानी से मान लेता तो बात ही क्या थी? दिल पूरी तरह से बग़ावत पर उतर आया था। दूसरे ही दिन मैं तेज़ बुखार में तप रही थी। मन का ताप, तन पर पूरी तरह से तारी था। पन्द्रह दिन तक मनीष रोज़ मुझे दो बार देखने आते । मेरे माथे पर पट्टियाँ रखते,पापा-मम्मी के साथ चाय पीते, स्वास्थ्य पर,राजनीति पर चर्चा करते ,हँसी -मज़ाक़ करते ,चुटकुले सुनाते।
पापा के ब्लड-प्रेशर और मम्मी की बिगड़ी शुगर की बागडोर उन्होंने संभाल ली थी तो मेरी बागडोर साधनी क्या मुश्किल थी फिर ? पापा-मम्मी के चेहरे की रंगत बदलने लगी और घर फिर से चहकने लगा।पन्द्रह दिन तप कर,जल कर मैं भी ठीक हो गई, उठ गई कमर कस 
कर ।
अपने फ़ैसले पर कभी भी अफ़सोस नहीं हुआ मुझे ज़िंदगी में ...पर कभी-कभी मन कचोटता था। तनु कहती "भैया कितने डिप्रेशन में हैं नताशा , कितने दुखी हैं, तू सोच नहीं सकती ...वो अंदर ही अंदर घुटते हैं, तूने ऐसा क्यों किया…थोड़ा सा तो इंतज़ार किया होता।” 
मैं क्या कहती बस चुप रह जाती। पूरी सच्चाई कभी नहीं कह सकी ।कैसे बताती, कि तुम्हारी मम्मी का वो रूप, तुम्हारी भाभी व उनके पिता की विवशता, गिड़गिड़ाना देख कर मैं जब उनकी जगह ख़ुद को और पापा को रख कर देखती तो मेरी रुह काँप जाती। बड़ी मुश्किल से पापा-मम्मी ने फिर से जीना सीखा था, मैं अपने हाथों फिर से उन्हें उसी आग में झोंकने का रिस्क नहीं ले सकती थी..."बस कुछ सच्चाइयाँ यूँ ही दफ़्न हो जाती हैं “ मैं बुदबुदाई।
उस दिन ,उस वक्त मेरा शेखर के घर पर होना, तनु की भाभी और आँटी के बीच की सब बातें सुनना, सब कुछ अपनी आँखों से देखना ,जैसे इत्तेफाक नहीं था ...ये ईश्वर का इशारा था, जैसे सोच समझ कर रची कोई साज़िश।
शादी के बाद शेखर कहाँ हैं ,कैसे हैं कभी नहीं पूछ सकी तनु से, और ना ही कभी तनु उनका कोई ज़िक्र करती थी, जबकि हम आज तक भी दोस्त हैं, दुनियाँ- जहान की बातें करते हैं।
लॉन की तरफ़ से दरवाज़े पर कुछ आहट सी हुई जैसे किसी ने दस्तक दी हो ।
"कौन ?”  मैंने कहा, पर कोई जवाब न पाकर खिड़की से बाहर झाँका ,कोई नहीं था। सोचा, शायद बिल्ली रही होगी। पूर्णिमा की चाँदनी छिटकी देख शॉल लेकर बाहर लॉन में निकल आई ।
अपनी ही ख़ामोशियों में लिपटी सर्द रात कोहरे की चादर ओढ़े बेसुध पड़ी थी। कोहरे की बूँदें, पत्तों से सरक कर काँपते सूखे पत्तों पर टप-टप गिर, रह-रह कर सन्नाटा तोड़ रही थीं ।
मदालस सा पूर्ण चाँद, पूर्णिमा की मादक चाँदनी,हल्के से कोहरे की धुँध ,मधुकामनी और रात की रानी की भीनी-भीनी सी महक, सब मिल कर जैसे कोई जादू सा रच रहे थे। उन सर्द ख़ामोशियों में अपनी ख़ामोशियाँ घोलती मैं न जाने कब तक सुन्न खड़ी रही, जैसे किसी ने मेरे पैर जकड़ लिए थे। चाह कर भी अंदर नहीं जा पा रही थी। जाने क्या हो गया था मुझे ...स्तब्ध खड़ी थी।
कुछ था जो मुझे छूकर हौले से गुज़र रहा था जैसे कोई ख़ुशबू हौले से  मेरे गालों को छूकर निकल गई ...अवश ,सम्मोहित सी मैं वहीं कुर्सी पर बैठ गई। पता नहीं कब तक बेसुध सी बैठी रही।
अचानक होश आया, तो सारा बदन सर्दी से काँप रहा था। शॉल से ख़ुद को कस कर लपेटती, अंदर आकर रज़ाई में दुबक गई।
याद आया कल कितने सारे काम हैं। चैस्टर को वैक्सीनेशन के लिए डॉक्टर के पास भेजना है, आर.ओ .की सर्विस करानी है, कुछ नई सीजनल पौध माली से मंगानी हैं ...सोचते-सोचते पता नहीं कब नींद ने आ घेरा।
दूसरा दिन भी बेहद व्यस्त था। सब निबटा कर, दोपहर बैडरूम में गई।मोबाइल चार्ज होने के लिए लगाया हुआ था, निकाल कर मैसेज चैक किए। तनु का मैसेज फ़्लैश किया ..."भैया नहीं रहे, कल रात दस बजे ....हार्ट अटैक।”
"कल रात .....” मैं बेसुध सी बुदबुदाई ..हाथ से मोबाइल छिटक कर गिर गया...स्क्रीन चटक कर सुन्न हो गई !!
          
                                                             - इति-
                                                   


कहानी


कहानी — अनकही 

  
                            ————

शेखर

चूँ कि मुझे  हर काम इत्मिनान से करना पसंद है तो हमेशा फ़्लाइट के लिए काफ़ी मार्जिन लेकर ही  घर से निकलता हूँ ।वैसे भी एयर पोर्ट पर ड्यूटी-फ़्री शॉप्स से छोटी-मोटी शॉपिंग करना मुझे पसंद है । सोनल के लिए परफ्यूम और ईशान के लिए शर्ट ले ली थी और अपने लिए अपनी मनपसंद स्टारबक्स की लार्ज कॉफ़ी लाते लेकर आराम से बैठ कर सिप लेने लगा था कि देखा बोर्डिंग स्टार्ट हो गई तो कॉफ़ी ख़त्म कर उठ गया ।

अपनी सीट ढूँढ कर मैंने केबिन में सूटकेस जमाया और इत्मिनान से बैठ  आस-पास का जायज़ा लेने लगा ।विंडो सीट पर एक स्टूडेंट्स टाइप लड़का कानों में ईयरफ़ोन लगा कर चिप्स खाने में मस्त था लेफ़्ट वाली सीट ख़ाली थी अभी ।
फ़्लाइट से पहले मुझे हमेशा ये टेंशन रहता है कि पता नहीं आजू-बाज़ू के सहयात्री कौन होंगे ,कई बार कोई महिला यदि छोटे बच्चे के साथ हो तो परेशानी हो जाती है ।सहसा याद आया तो सोनल को फ़ोन लगा कर बात की और इत्मिनान से मैगज़ीन के पन्ने पलटने लगा ।
बराबर वाली सीट के पास आकर एक महिला सीट नं॰ चैक करने लगी उसकी शक्ल देखते ही लगा जैसे धड़कन रुक जाएगी 'नताशा ...हाँ वही ...वही तो है...तीस साल बाद !’मैंने देखा वो केबिन में बैग रखने की कोशिश कर रही है उसे परेशान देख मैं उठा ।
"मे आई “ कह कर उसका बैग सैट कर दिया ।
"थैंक्स” कह कर जैसे ही उसकी दृष्टि मेरे चेहरे पर पड़ी वो भी चौंक पड़ी फिर तुरंत ही सँभली और बैठ कर सीट-बैल्ट बाँधने लगी ।मैंने नोटिस किया उसके चेहरे पर कुछ बादल से घुमड़ आए थे पर वो तटस्थ सी बैठी रही ।मैं मैगज़ीन में आँखें गढ़ा पढ़ने का बहाना करने लगा और वो भी सैटिल होकर पर्स से कोई बुक निकाल कर पढ़ने लगी ।
यूँ तो वक़्त की धारा बहा ले जाती है आदमी को बहुत आगे पर कुछ ज़िद्दी पत्तों जैसे पल इंकार कर देते हैं धारा में बहने से और वहीं कहीं तटों के सीने में मुँह छिपाए बरसों दुबके पड़े रहते हैं ।
कितनी बदल गई है नताशा पर पहले से ज़्यादा सुंदर और स्मार्ट लग रही है । क्रीम कलर का रॉ सिल्क का सूट ,खोल कर लिया ब्लैक एन्ड क्रीम कलर का सिल्क का दुपट्टा ,पर्ल एन्ड डायमंड के टॉप्स ,काली बिंदी,कॉपर कलर की सैंडिल,कलाई में चौड़ा सा डायमंड का बैंगल, पीठ पर कमर तक लहराते खुले रेशमी बाल।कनपटियों से इक्के-दुक्के चाँदी के तार झलक रहे थे,सिर पर गॉगल्स टिकाए वो पहले से कहीं ज़्यादा स्मार्ट और कॉन्फ़िडेंट लग रही थी ।लम्बी तो थी ही रंग भी पहले से साफ़ हो गया था ।बदन भर गया था पर एकदम सुडौल ।बड़ी- बड़ी पनीली सपनीली सी आँखें अब भी वैसी ही थीं नीर भरी बदरी सी, लगता बस अब बरसीं कि तब बरसीं।उसमें से पता नहीं किस इत्र या परफ़्यूम की भीनी- भीनी आती किसी फूल जैसी ख़ुशबू से मुझे तन्द्रा घेर रही थी ।
जिस तरह वो मुझे देख कर चौंकी थी उससे शक की कोई गुंजाइश ही नहीं रही थी, फिर तनु ने फ़ेसबुक एकाउन्ट मुझसे ही तो बनवाया था तो पासवर्ड मुझे पता था ।प्राय: तनु के एकाउन्ट की गलियों से सेंध लगा फ़ेसबुक की खिड़की से नताशा की वॉल पर उसके सुन्दर संसार में ताक-झाँक कर लेता था ,इसी से पल भर में ही पहचान गया मैं ।बच्चों के साथ, पति के साथ बिताए ख़ुशनुमा पलों , पर्व-त्योहारों पर रंगोली बनाते,दिए सजाते,रंग खेलते ,बच्चों और पति के साथ नाचते -गाते फ़ोटो को देख प्रतीत होता था वो बहुत ख़ुश और संतुष्ट है अपने जीवन में ।
पहचान तो लिया मैंने वर्ना वो इतनी बदल गई थी कि बिना परिचय पहचानना असंभव होता।तब की छुई- मुई लतिका सी नताशा अब पुष्पित छितराए तरु में परिवर्तित हो बेहद आकर्षक हो चुकी थी ।सोचा नाम पूछूँ या हलो कहूँ ? फिर रुक गया ,मन ही मन कहा 'छोड़ो शेखर बेटा अब क्या कहना ,क्या सुनना जब वक़्त रहते ही नहीं कह पाए तुम कुछ, तो अब तो रहने ही दो !’ मेरे मन में भयंकर उथल -पुथल मची थी l मन में उठा बवंडर जाने कहाँ -कहाँ उड़ाए लिए जा रहा था मुझे ।खिड़की के बाहर बादल साथ-साथ दौड़ रहे थे और मन मेरा अतीत के पीछे -पीछे।
उस दिन एग्ज़ाम बाद थका-हारा छुट्टियों में घर आकर लम्बी चादर तान कर सो रहा था कि सुबह ही तनु ने चादर खींच कर झिंझोड़ दिया "भैया...ओ भैया उठो जल्दी !”
"अरे क्या है सोने दे न” मैंने झुंझला कर चादर फिर सिर तक तान ली ।
"अरे आख़िरी डेट है आज एडमिशन की ,मेरा फ़ॉर्म कॉलेज में जमा कर आओ ...उट्ठो जल्दी तुम!”
" क्या है ख़ुद जा न, मुझे सोने दे !”
"अभी कहती हूँ मम्मी को ,मम्मी....मम्मी” फिर मम्मी आईं , तो उठना ही पड़ा ।
"चुडै़ल ...पिछले जन्म की दुश्मन है तू मेरी” एक धौल उसकी पीठ पर जमा बाथरूम में घुस गया।
इतना ग़ुस्सा आ रहा था ...टेलर के यहाँ से कपड़े ला दो,मार्केट तक छोड़ आओ,मेरी फ्रैंड के यहाँ छोड़ दो,मूवी दिखाने ले चलो... मेरे आने से पहले ही हमेशा एक लम्बी लिस्ट तैयार रहती तनु की ।
एक कप चाय पी जींस चढ़ा कर स्कूटर स्टार्ट करते ही तनु पीछे से चिल्लाई "अरे नहा तो लेते भैया”।
" कौन तेरे लिए दूल्हा देखने जा रहा हूँ आकर नहाऊँगा “ मैंने कहा। 
कॉलेज में एडमिशन का आख़िरी दिन होने से बहुत भीड़ थी ।लड़किएं तरह-तरह के सवाल पूछ रही थीं और काउंटर पर बैठा क्लर्क चिड़चिड़ा कर ,झुँझला कर जवाब दे रहा था।
मैं साइड में पड़ी कुर्सी पर बैठ गया ,सोचा जब भीड़ छँट जाएगी तब इत्मिनान से जमा करूँगा।तभी मैंने देखा कि एक दुबली-पतली लम्बी ,मासूम सी सूरत वाली , आसमानी सूट पहने लड़की से क्लर्क बत्तमीजी से बात कर रहा था ।
"देखती पढ़ती हैं नहीं कुछ ,बस मुँह उठा कर चली आईं ,अरे भरने से पहले फ़ॉर्म पढ़ तो लेतीं मैडम प्रॉस्पेक्टस में कहीं लिखा है कि म्यूज़िक है हमारे कालेज में ...हैं ? “
" पर...पर हमने तो पेपर में पढ़ा था ...”वो हकला कर बोली ,उसके माथे पर पसीना आ गया,चेहरा अपमान और शर्म से लाल पड़ गया।वो बेहद नर्वस हो गई।
" अरे ये लो न पॉलीटिकल साइंस ,कितने अच्छे नं॰ हैं इसमें तुम्हारे “ उसने दाँत फाड़ते हुए कहा।उस लड़की का चेहरा रुँआसा हो रहा था ।अब मुझसे नहीं रहा गया वहीं बैठे- बैठे मैंने ग़ुस्से से आँखें निकालीं ।
"यहाँ बैठने से पहले आप ज़रा होमवर्क कर लेते तो अच्छा नहीं रहता वैसे ? पेपर में छपा है इस साल से म्यूज़िक शुरु हो रहा है आपके कॉलेज में और आपको ही पता नहीं ? आप इसी कॉलेज से हैं या कहीं से उधारी पर लाए गए हैं ? अपनी मर्ज़ी के सब्जेक्ट बाँट रहे हैं ...हाऊ कैन यू डू दिस ?”मैंने सख्ती से हड़काया।
उसने जल्दी से मेज़ की दराज़ से एक फ़ाइल निकाली और उलट-पलट कर देखी फिर दाँत निपोर कर बोला "अरे जी अकेली जान क्या-क्या देखूँ ? जे कालेज वाले भी रोज़ ही कोई नया नियम बना देवैं हैं बताओ हम भी क्या करें और जे लड़कियों ने भी मार दिमाग का फ़ालूदा कर रखा है जी, हमारी भी मुसीबत है ।लाओ जी मुन्नी फ़ार्म दो हम ओ. के.कर देते हैं बाद में देखेंगे ।”सभी लड़कियों के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई ।
"चलो किसी ने तो अक़्ल ठिकाने लगाई खड़ूस की” कोई लड़की फुसफुसाई ।
उस आसमानी सी लड़की के चेहरे पर कुछ सुकून और आँखों में कृतज्ञता छलक उठी । उसने बैग से झट पैसे निकाले और फ़ॉर्म के साथ जमा कर सर्र से निकल गई "थैंक्यू” जाते-जाते नीची निगाह कर धीरे से कह गई ।मैं मुस्कुरा दिया।
" अरे पता है वहाँ वो तेरी भायली ...क्या नाम है उसका... हाँ नताशा शर्मा भी आई थी ।बस तू ही लाट साहब है वहाँ लड़कियों में भेज दिया मुझे “मैं घर आकर तनु से बोला।
" अरे पर तुमको कैसे पता भैया कि वो नताशा ही थी ? तनु ने हाथ नचा कर उत्साह से पूछा।
“अरे फ़ॉर्म पर पढ़ा मैंने और तू भूल गई तूने शिमला ट्रिप की फ़ोटो दिखाई थीं न मुझे इसी से पहचान गया ।पर इस ज़माने में इतनी छुई- मुई रह कर काम चलता है क्या ? मिनमिन कर रही थी ये नहीं कि डाँट लगा देती उस बत्तमीज क्लर्क की “।तनु को मैंने सारी बात बताई फिर ।
"अरे भैया वो बहुत सीधी और पढ़ाकू टाइप है ।लड़ना- भिड़ना उसके बस का नहीं ।”
पहले दिन तनु जब कॉलेज गई तो लौट कर मुझ पर फट पड़ी “भैया तुमने मेरी इज़्ज़त का कचड़ा कर दिया हाँ नहीं तो ।”
“अरे मैंने क्या किया भई,क्या हुआ?”
" होना क्या था पता है आज कॉलेज में जब मैंने नताशा को बताया कि " पता है उस दिन भैया ने तुमको देखा था और मिनमिनाने वाली बात बताई तो पता है क्या बोली वो ?” तनु ने अपनी आँखें गोल करके कहा ।
" क्या कहा ये तो बताओ “ मैंने हँस कर कहा ।
" बोली ' ओहो ! तो वो लम्बू थे तुम्हारे भैया ? छि: नहाते नहीं ,शेव नहीं करते क्या और शर्ट तो लग रहा था जैसे घड़े से निकाल कर पहनी थी,बैड से सीधे उठ कर आ गए थे क्या जनाब ?’ कहा था कि नहीं तुमसे नहा कर जाओ मुझे यही डर था कि मेरी कोई फ्रैंड न देख ले तुमको ?” तनु की आँखें और गोल हो गईं ।वो वाक़ई शर्मिंदा लग रही थी सिर पकड़ कर बैठ गई।
" हा हा शेरों के मुँह किसने धोए...वैसे बोल भी लेती हैं मैडम, मैं तो समझा था कि बस मिनमिन ही करती हैं ,उसे तो मेरा शुक्रगुज़ार होना चाहिए था...इतना कचकच जो मेरे लिए बोल रही थी तो वहाँ तो बोला नहीं गया, तब तो रूआँसी सी ,गूँगी गुड़िया बनी खड़ी थीं... और मुझे सर्टिफ़िकेट नहीं लेना उससे ,कह देना ...हुँह !“ मैंने लापरवाही से कहा जैसे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता हो।
" मिनमिन ? पता भी है बेस्ट डिबेटर थी स्कूल में “ ।
" हाँ तो यहाँ कौन कम हैं गोल्ड मैडलिस्ट हैं बता देना ज़रा उसे, कहीं ऐसा- वैसा समझ रही हो ।वो तो हम ज़रा सादगी पसंद हैं “ जाते-जाते मैंने नाटकीय अंदाज में कॉलर खड़े किए ।
सच तो ये है कि उसकी मासूम सूरत और भोली सी आँखों ने मुझे बाँध लिया था ।सारे दिन उसकी बातें और सूरत मेरे मन-मस्तिष्क में घूमती रहीं और उसकी बात पर हँसी आती रही।
जब भी हॉस्टल से छुट्टियों में घर आता वो तनु के साथ पढ़ती ,बैडमिंटन खेलती, मेंहदी लगाती तो कभी झूले की पींगें बढ़ाती दिख जाती ।मुझे देखते ही लजा कर किताब में झट मुँह झुका लेती या बिना बात सैंडिल या चुन्नी ठीक करने लगती ।गालों पर अबीर सा बिखर जाता।
उसके जाते ही तनु मुझे छेड़ने लगती " भैया तुम शादी कर लेना नताशा से सच इत्ती अच्छी लड़की नहीं मिलेगी तुमको ,वैसे भैया सच बोलना तुम्हारा भी दिल आ गया है न ... वो तुम उसको देखते हो न तो साफ़ दिखता है तुम्हारी आँखों में ,है न ...बोलो है न?” वो खिलखिल कर छेड़ती तो मैं एक चपत लगा मुस्कुरा देता।
सच तो ये था कि मुझे हर पल छुट्टियों का इंतज़ार रहता ।एक जोड़ी शर्मीली आँखें मुझे घर की ओर खींचतीं हरदम ।हरदीप बहुत बढ़िया ग़ज़ल गाता था मैं अक्सर उससे सुनाने को कहता 'प्यार भरे दो शर्मीले नैन...’और खो जाता कहीं, वो मुझे छेड़ता " ओए कौन है शर्मीले नैनों वाली बता- बता...कौन है हमारी भाभी ?”
मैं मुस्कुरा देता पर सच तो ये है कि जब भी तनु और हरदीप मुझे नताशा के लिए भाभी कह कर छेड़ते तो हज़ार दीप मन में जल जाते... साधना,मुमताज़, शर्मिला ,वहीदा,मधुबाला सब उस छुई-मुई में ही मुझे नज़र आतीं ।बगिया के फूल हों या चाँद,बस हर जगह उसी का चेहरा नज़र आता।चाँदनी में संगीत सुनाई देता तो झींगुरों की आवाज़ में पायल की रुनझुन सुनाई देती ।एक नशा सा तारी रहता मुझ पर उन दिनों ।
मैं इतना ख़ुश रहता कि अब मुझे ना तो ग़ुस्सा आता था और ना ही किसी की बात ही बुरी लगती थी और सबसे मज़े की बात तो ये कि अब मेरा पढ़ने में बहुत मन लगता ।एक मक़सद मिल गया हो जैसे जीवन को।यार-दोस्त भी मेरे इस परिवर्तन पर हैरान थे प्राय: छेड़ते "क्या बात है यार कोई प्यार -मोहब्बत का चक्कर है क्या ? मैं हँस कर टाल जाता ।
एक दिन मम्मी बोलीं " शेखर जाकर बेटा ज़रा तनु को नताशा के यहाँ से ले आ “।
" मम्मी मुझे पढ़ना है उसको फोन कर कह दो रिक्शे से आ जाए” ।
”अरे अँधेरा घिर रहा है अकेले आना ठीक नहीं चला जा बेटा।”
मैं ना नुकुर कर ज़रूर रहा था पर मेरे मन में लड्डू फूट रहे थे ।दोनों घरों के संस्कार ऐसे थे जहाँ पर लड़के और लड़की की फ्रैंडशिप को लेकर बहुत सहज नहीं थे सब अत: कभी बात करने की या ख़त लिखने की हिम्मत ही नहीं हुई । मन ही मन ख़ुश था कि आज शायद सामने बैठ कर ठीक से देखने का या शायद बात करने का मौक़ा मिल जाए।
मैंने बैल बजाई तो दोनों बाहर ही निकल आईं ।मैं सड़क पर स्टुपिड की तरह स्कूटर लिए खड़ा ही रह गया मेरे अरमानों पर पानी फिर गया ।नताशा ने बरामदे के खम्भे से मेरी ओट ले ली।
"अच्छा बाय “ कहती तनु स्कूटर पर आकर बैठ गई और मैंने स्कूटर स्टार्ट कर चलते-चलते नताशा पर उड़ती सी दृष्टि डाली वो खम्भे की ओट से एक आँख से मुझे ही देख रही थी ।
" भाई ये तेरी भायली ज़रा सा भी एटीकेट्स नहीं जानती क्या?”स्कूटर खड़ा कर अंदर आते ही मैं भुनभुनाया।
" क्यों भई क्या हो गया...अब क्या कर दिया मासूम ने ?”
" हुँह ! मासूम ...मैं कोई ड्राईवर या नौकर हूँ क्या ? ये भी नहीं कि कोई भला मानुस आया है भाई ,तो चाय-पानी ही पूछ लें ,बस !अब कभी मत कहना लाने को... हाँ नहीं तो “ मैं भुनभुनाया ।मेरे मन की हताशा ग़ुस्से में बदल गई।
"अरे भैया वो बहुत शर्माती है तुमसे ,मैं छेड़ती रहती हूँ न उसको कि मेरी भाभी बन जा तो कतराती है तुम्हारे सामने आने से “ तनु ने हँस कर कहा ।
" अजी हाँ शक्ल देखी है गँवार की “ मैंने मन की पुलक दबाते हुए कहा ।
"हाँ हाँ देखी है न तुम्हारी आँखों में...उसे देखते ही तुम्हारी आँखों में जो सौ-सौ वॉट के बल्ब जलने लगते हैं न उसी में देखी है “ तनु खिलखिला पड़ी और मैं झेंप कर हट गया वहाँ से ।
अचानक एयर हॉस्टेस ड्रिंक्स पूँछने लगी "विच ड्रिंक वुड् यू लाइक टू हैव सर ?”
"ऑरेंज जूस” कह कर मैंने साइड वाली सीट पर कनखियों से देखा वो बिना हिले-डुले किताब में आँखें गढ़ाए बैठी थी पर एक घंटे से पेज नं० एट्टी नाइन पर ही अटकी थी ।मुझे मन ही मन हँसी आ गई मतलब नताशा भी कहीं और ही विचरण कर रही हैं ।शरीर से यहाँ होकर भी मन कहीं और ही है।
बस एक घंटे में फ़्लाइट लैंड कर जाएगी फिर पछताते रहना जीवन भर लल्लू की तरह |मैंने मन ही मन ख़ुद को लानत मलामत भेजी ।
" हाय !माय सेल्फ़ शेखर...शेखर मिश्रा “ मैंने हिम्मत करके कहा ।
" हाय ! नताशा शर्मा “ मैंने देखा उसके होंठ और उँगलियाँ कँपकँपा गईं।
" जी,मैंने पहचान लिया था आपको ...दरअसल तनु ने दिखाई थीं एकाध बार आपकी फ़ोटो “ मैं झूठ बोल रहा था।
"मैंने भी...” नताशा कहते-कहते रुक गई उसने भी तनु की वॉल पर कई बार शेखर को तनु से राखी बँधाते तो कभी शादी की फ़ोटो में हंसते -नाचते देखा था । उसने अपनी उँगलियाँ बीच में फँसा कर गोद में किताब रख ली।
" आप बैंगलोर में रहती हैं ?” मैंने यूँ ही बात आगे बढ़ाते हुए कहा जबकि मैं जानता था कि वो दिल्ली में रहती है ।
"नहीं वहाँ मेरी बेटी की जॉब लगी है उसी को सैटिल करने गई थी मैं दिल्ली में रहती हूँ और आप ?
" मैं बैंगलोर में ...बेटा गुड़गाँव में है उसी के पास जा रहा हूँ , वाइफ़ तो महीने भर से वहीं हैं ।
" क्या करता है बेटा आपका ?”
" कार्डियोलॉजिस्ट है...दरअसल कल मेरी एन्जियोग्राफी होनी है इसी से....”।
" ओह ! सब ख़ैरियत... ?”
" अरे बिल्कुल ,परफ़ेक्ट ...दरअसल बीबी,बेटा कुछ ज़्यादा ही फ़िक्र करते हैं...बच्चे और वो भी डॉक्टर हों तो एक्स्ट्रा प्रिकॉशन्स लेते हैं ...दिल मेरा अभी भी फ़िट है, ख़ूब धड़कता है “कह कर उसकी तरफ़ शरारत भरी आँखों से देख मैं ज़ोर से हँस पड़ा ।
"ओह ! ब्लेस यू “उसने मेरी तरफ़ पहली बार ध्यान से देखा फिर नज़र हटा ली।उसका चेहरा गुलाबी हो गया।अब हम फिर चुप थे।
उसने धीरे से गोद में रखी किताब उठा ली और पढ़ने लगी, मैं भी मैगज़ीन के रास्ते तीस साल पीछे इलाहाबाद की एक सड़क कर निकल लिया, जहाँ चिलचिलाती धूप में कॉलोनी के सामने तनु नताशा को साइकिल सिखा रही थी ।
बाल और होश बिखरे हुए, मुँह खुला ,चेहरे पर पसीने की बूँदें ।साइकिल पर नताशा डरी हुई ,डगर-मगर और उसके पीछे पूरे जोश से भागती ,चिल्लाती ,लाल मुँह ,कैरियर पकड़े तनु " हाँ-हाँ शाबाश आ गई बस बैलेंस कर ...हैंडिल संभाल हैंडिल...”।
इतने में सामने से स्कूटर पर मुझे आता देख नताशा हड़बड़ा कर बैलेंस खो बैठी और बाउंड्री पर साइकिल सहित धड़ाम से ज़ोर से गिर पड़ी । 
"पगलैट कहीं की अच्छा ख़ासा चला रही थी... अरे ये कोई भूत हैं क्या जो देखते ही गश आ गया तुझे ।” तनु चीख़ रही थी और नताशा दर्द और शर्म से हाथों में मुँह छिपाए स्तब्ध बैठी थी ।वहाँ कँटीले तार भी थे जिसमें उसके कपड़े फँस गए थे , कोहनी और घुटने छिल गए थे ।
मैंने जल्दी से जाकर उसको साइकिल से मुक्त किया ।और तनु को डाँटा ।
" अरे उनको चोट लगी है तनु ये कोई टाइम है चिल्लाने का ...बिहेव योर सेल्फ़ ..उठाओ उन्हें ।”
तनु ने तारों से उसके कपड़े निकाले ।कई जगह से कपड़े फट गए थे ।वो चुपचाप रो रही थी ।तनु उसको सहारा देकर अंदर लाई ,कपड़े चेंज करवाए और मरहम पट्टी की ।
मैं भी टैबलेट और पानी लेकर आया ।" ज़्यादा तो नहीं लगी न ,टिटनेस का इंजेक्शन लगवा
लीजिएगा ।ये खा लीजिए दर्द हो रहा होगा...वैसे साइकिल तो चलानी आ ही गई आपको “ मैं शरारत से मुस्कुराया ।
मेरे हाथ से पानी और टैबलेट लेते वो भी झेंप कर मुस्कुरा दी "थैंक्स”।
"हीरोइन है पूरी...”कह तनु भी खिलखिला पड़ी ।
बरसों पुरानी बात याद कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गई ।उस रात बड़ी कविता सी उमड़ -उमड़ कर आ रही थी...मोरपंखी नीले सूट में मुँह छिपाए बैठी नताशा को याद करके नीलकमल...नीलकमल सा कुछ लिख कर जाने कितने पन्ने फाड़ दिए पर कविता को न तो बनना था न बनी ।अपने कवि न होने पर बड़ा अफ़सोस हो रहा था उस रात ...फिर डायरी उठा कर लिखा -
" धूल में पड़ा
नीलकमल 
कुछ धूमिल 
कुछ घायल !”
ये मेरी ज़िंदगी की पहली और आख़िरी कविता थी ।
यादों की जैसे रील खुल गई थी।एक प्रश्न जो तीस सालों से मेरा पीछा करता रहा है ...अब भी बार-बार अंदर ही अंदर टक- टक कर रहा था 'क्यूँ आख़िर क्यूँ....’?
कई बार उसकी आँखों में भी अपने लिए कुछ ख़ास देखा था ...दोनों परिवार भी तैयार थे फिर क्यूँ वो आज नहीं है मेरे संग ....आख़िर क्या बात थी ?
मूर्ख फ़्लाइट लैंड कर जाएगी कुछ ही देर में ....और बस फिर पछताते रहना सारी उम्र ...अन्तस ने डाँट लगाई।
"बाई दि वे हस्बैंड क्या करते हैं आपके ...कैसे हैं?”मैंने पूछा।
"डॉक्टर हैं” उसने धीरे से पलकें उठा कर मेरी तरफ़ देखा और धीमे से मुस्कुराई।
" बहुत अच्छे हैं ...सबसे अच्छी बात है चैरिटी की धुन रहती है बहुत काम करते हैं इसके लिए।”उसके चेहरे पर प्रेम और गर्व की अनुभूति झलक रही थी।
" अच्छे तो होंगे ही आख़िर आपने जो चुना है उनको “ शायद कुछ तल्ख़ी ,जलन या व्यंग्य सा उतर आया होगा मेरे लहजे में उसने मेरे चेहरे को ध्यान से देखा और दृष्टि नीची कर ली ।
कुछ देर में वो उठी और टॉयलेट की तरफ़ चली गई ।मैंने उसकी सीट पर रखी किताब उठाई नाम पढ़ा ‘डॉ. ब्रायन वीज- मैनी लाईव्स मैनी मास्टर्स’।
दोनों परिवारों की तरफ़ से सब मन बना ही चुके थे हमारे रिश्ते के लिए ,कहीं कोई परेशानी नहीं थी ।हमारी पढ़ाई पूरी होने का इंतज़ार था ।मैं बी.ई. के फ़ाइनल ईयर में था उसके बाद जॉब लगते ही सोच रहा था कि मम्मी से कहूँगा कि नताशा की मम्मी से बात करें ।
इसी बीच पापा का ट्रांस्फ़र हो गया और हम लोग कानपुर चले गए।मेरे मन में गहरी उदासियों का मौसम था ।कभी-कभी दूर से ही सही वो छुट्टियों में घर आने पर देखने को तो मिल जाती थी अब वो भी नहीं ।तनु उससे फ़ोन पर लम्बी-लम्बी बातें करती रहती ,भाभी कह कर उसे छेड़ती ।मेरे कान उसी तरफ़ लगे रहते तनु की बातों से ही उसकी बातों का अनुमान लगाता रहता।
मेरा मन सौ -सौ बहाने ढूँढ़ता इलाहाबाद जाने के पर कुछ सूझता ही नहीं था।हिम्मत नहीं होती थी क्योंकि दोनों ही परिवार पुराने विचारों के थे अत: लगता था कहीं बात न बिगड़ जाए तो मन मार कर रह जाता।बस इसी उलझन और तड़प के साथ पढ़ाई पूरी कर जॉब के लिए इंटरव्यू की तैयारियों में जुट गया ।
उस दिन बहुत ख़ुशी-खुशी घर लौटा ।इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ था ।अंदाज हो गया था कि जॉब मुझे ही मिलने वाली है ।सैलरी भी बहुत अच्छी होगी..ख़ुशी के मारे ट्रेन में रात भर नींद ही नहीं आई जागी आँखों से सपने देखता रहा ।
पर शाम को कमरे में जब चाय देने आई तो उदास सी तनु चुपचाप चेयर पर बैठ गई ।
“और व्हाट्स-अप ...क्या चल रहा है ज़िंदगी में “?मैंने उसे ख़ामोश देख पूछा।
"भैया वो...दरअसल एक बात बतानी थी” वो ठिठक गई।
“हाँ-हाँ तो बोल न क्या बात है ?”
“भैया वो नताशा का रिश्ता तय हो गया कहीं “ वो रुआँसी होकर बोली और सहम कर मेरा मुँह ताकने लगी ।
" रिश्ता तय हो गया मतलब ?....अरे ऐसे कैसे ?” मुझ पर जैसे वज्रपात हुआ ।"ऐसे कैसे बात ख़त्म कर दी उन्होंने ?”
"क्यों भैया कब बात पक्की हुई ? कोई सेरेमनी भी हुई नहीं थी ...एक दिन जाने से पहले उसकी मम्मी ने पहल की भी थी पर मम्मी ने कह दिया कि "पढ़ाई पूरी हो जाए, जॉब लगने दीजिए फिर करेंगे।अाँटी ने कहा रिंग सेरेमनी कर देते हैं शादी बाद में हो जाएगी पर मम्मी ने कहा जल्दी क्या है ...हम तनु के लिए भी लड़का देख रहे हैं यदि ठीक मिल जाय तो हम पहले तनु की शादी करेंगे मैंने कहा भी मुझे नहीं करनी अभी , पर बस फिर आँटी चुप रह गईं “।
" और तू मुझे ये बात अब बता रही है ....तब क्यों नहीं कहा ?“ मुझे बहुत ज़ोर से ग़ुस्सा आया।
" मुझे लगा ठीक है मम्मी ने मना तो किया नहीं है ,ठीक ही सोच रही होंगी “ मुझे क्या पता था कि नताशा इस बीच कहीं और के लिए हाँ कह देगी ।“तनु सहम गई।
मैं चुपचाप कुर्सी पर दोनों हाथों से सिर पकड़े बैठा रहा ।मन में ज़ोर की मरोड़ उठ रही थी ।
" तू जा अभी”। कह कर मैं कमरे में अँधेरा कर लेटा रहा रात तक ।मम्मी और तनु खाने के लिए बुलाने आईं मैं " सिर में दर्द है ...भूख नहीं “कह कर मुँह ढ़ांपे पड़ा रहा ।
थोड़ी देर में भाभी आईं " खाना खा लो यहीं ले आई हूँ...बुखार तो नहीं? लाओ बाम लगा दूँ “ उन्होंने माथे पर हाथ लगाया ।
"नहीं भाभी भूख नहीं है रहने दीजिए सोने से ठीक हो जाएगा ,बस आप प्लीज़ एक कप कॉफ़ी बना दीजिए,“।
"खाना टेबिल पर रखा है खा ज़रूर लीजिएगा, नहीं तो और दर्द होगा ...” कॉफी देकर भाभी दरवाजा उढ़का कर चली गईं ।
रह-रह कर मेरे आँसू तकिया भिगोते रहे ।मुझे मम्मी के ऊपर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था ।मम्मी ने क्यों नहीं बात मान ली आँटी की ।एक बार मुझसे ही पूछ लिया होता कम से कम ।
मैं इंटरव्यू के बाद कितने ख़्वाब बुनता आया था कि एपॉइन्टमेन्ट लैटर आते ही मम्मी को कहूँगा कि नताशा की मम्मी से बात करें परन्तु यहाँ तो सब उलट- पलट गया था । ख़ुद को दिलासा दिया कि अभी कौन सी शादी हो गई है ...चढ़ी बरातें लौट जाती हैं ।कल ही बात करता हूँ ।
दूसरी सुबह मैं तनु के कमरे में गया " तनु तू बात कर न नताशा से ,ज़रूर उसकी मम्मी ने ज़बर्दस्ती की होगी ।बताना मेरी जॉब बस लग ही गई है ...या मेरी बात करवा दे उससे “।
तनु ने मेरी तरफ कातर आँखों से देख कर ग़ुस्से से जो कहा उसने मुझे तोड़ कर रख दिया ।
"कोई ज़बर्दस्ती नहीं की गई उसके साथ ...तुम क्या सोचते हो भैया मैं चुप रही हूँगी ? जब नताशा ने बताया कि उसका रिश्ता तय हो गया है किसी डॉक्टर से तो मैंने तुरंत आँटी से बात की पर पता है उन्होंने क्या कहा ? वो बोलीं कि -बेटा जब मनीष का रिश्ता आया तो मैंने कहा नताशा से कि मैं शेखर की मम्मी से बात करूँ ? तो उसने कहा कि नहीं आप यहीं हाँ कह दो ! भैया मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि मैंने फिर फ़ोन करके नताशा को ख़ूब सुनाईं ,पर वो रोती रही बस यही कहती रही 'मुझे माफ़ कर दो तनु !’बहुत पूछा पर कुछ नहीं बताती बस रोती रहती है ...मैं जानती हूँ भैया मन ही मन तुम्हें बहुत प्यार करती है पर न जाने उसने ऐसा क्यूँ किया ....आप बात करोगे भैया ? मुझे तो कुछ नहीं बताती शायद आपको बता दे !”
" न रहने दे अब कोई फ़ायदा नहीं....शायद देर कर दी मैंने “ कह कमरे से बाहर निकल गया ।
मेरा अहम् बुरी तरह आहत हो गया था।

मैंने देखा नताशा टॉयलेट से वापिस आ रही थी मैंने उसकी किताब उसकी सीट पर रख दी ।उसकी आँखें धुली-धुली सी थीं चेहरा कुछ उतरा सा था । उसकी पर्सनैलिटी में हमेशा से एक रॉयल-टच था उसकी चाल-ढ़ाल ,दृष्टि,भाव-भंगिमा में आभिजात्य झलकता था जो उसे ग्रेस देता था, यही था जो उसे औरों से अलग करता था....मुझे मोहित करता था और यह उम्र के साथ और बढ़ा ही था।
मैं चुपचाप सोचता सा खिड़की से बादलों के खेल देख रहा था और सोच रहा था कि ठीक हमारे सपनों की तरह ही पीछे-पीछे भागते हैं ये भी, पकड़ने को हाथ बढ़ाओ तो मुट्ठी ख़ाली।
"आप पुनर्जन्म में विश्वास करती हैं ? “ मैंने उसके हाथ में पकड़ी पुस्तक की ओर इशारा कर पूछा "दरअसल मैंने पढ़ी है ये बल्कि इसके बाद वाली भी पढ़ी हैं ।”
" जी हाँ विश्वास तो करती थी पर अब इसको जैसे-जैसे पढ़ रही हूँ विश्वास दृढ़ होता जा रहा है ।”
कुछ देर चुप रह कर वह कुछ सोचती रही उसके मन की बेचैनी उसके चेहरे पर साफ़ नजर आ रही थी किताब का पेज उसकी उँगलियों के बीच लगभग फट चुका था।
" मुझे आपसे माफ़ी माँगनी है “ उसने बहुत हिम्मत जुटा मुँह नीचा करके कहा ।
"पर किस बात की “मैंने जान कर भी अनजान बन कर पूछा।
" आप जानते हैं मैं क्या कह रही हूँ “मैंने देखा उसके होंठ काँप रहे थे।
”पर हमारे बीच तो कोई वादा नहीं था तो...आप कुसूरवार नहीं हैं ।”
" मैं जानती हूँ मैंने आपका दिल बहुत दुखाया है”उसकी पलकें भीग गईं ।
सीट बैल्ट बाँधने का एनाउन्समेन्ट हो चुका था ।कुछ ही देर में हम फिर से दुनिया की भीड़ में खो जाने वाले थे।
"हाँ दुखाया तो है... चलिए तो ये भी बता दीजिए आख़िर क्यों ...?” कह कर मैं सीधे उसकी आँखों में देखने लगा।
" ज़िंदगी हमारे हिसाब से कहाँ चलती है शेखर जी ...अगले पल क्या होगा कौन जानता है ? किसी परिवार के एक सदस्य के साथ हुआ हादसा कई बार सभी की ज़िंदगियों को अपनी गिरफ़्त में ले लेता है ।मनीष की मम्मी और मेरी मम्मी बचपन की सहेलियाँ थीं। साथ-साथ पढ़ी थीं ,शादी भी एक ही शहर में हुई तो दोस्ती का रंग प्रगाढ़ होता गया।दोनों के पापाओं की भी ख़ूब जमती थी ।घंटों शतरंज खेलते रहते ,मैं और दीदी उनको 'शतरंजी यार ‘कह कर छेड़ते थे ।
दीदी शादी के बाद से ही नर्क भोग रही थीं और एक दिन आख़िर में तंग आकर उन्होंने अपना जीवन ख़त्म कर लिया ।पापा- मम्मी तो जैसे जीते जी मर गए हों ।पापा को एक ही अफ़सोस खाए जाता था कि मैंने उसे वहाँ भेजा ही क्यों ?”
" मुझे बताया था तनु ने ...सुन कर बेहद अफ़सोस हुआ “मैंने कहा ।
" दीदी के ससुराल वालों ने पापा की बहुत बार बेइज़्ज़ती की ,हर बार कोई न कोई डिमान्ड रख देते थे ।पापा चुपचाप पूरी करते सोचते कि शायद एक दिन सब ठीक हो जाएगा ।ऊपर से वो लोग दीदी को बच्चे न होने का ताना देते ...जीजाजी की दूसरी शादी करने की धमकी देते ।दीदी के स्वाभिमान को ठेस लगती पापा का अपमान उनसे सहा नहीं जाता था... बस एक दिन ख़त्म कर लिया ख़ुद को ।
पापा-मम्मी पर जैसे वज्रपात हुआ, बुरी तरह टूट गए ।भैया लखनऊ में रह कर पढ़ाई कर रहा था सुन कर भागा-भागा आया पर वो और मैं संभाल नहीं पा रहे थे उनको। भैया की पढ़ाई छूटने की नौबत आ गई ।
मनीष की मम्मी और पापा ने सब संभाला ।भैया को हिम्मत-हौसला देकर हॉस्टल भेजा।
एक साल बाद मनीष ने भी पढ़ाई पूरी कर इलाहाबाद में ही हॉस्पीटल जॉइन कर लिया ।वे रोज शाम पापा-मम्मी को देखने आते ।सबके साथ चाय पीते हँसते -हँसाते ,ख़ूब डिस्कशन्स करते धीरे-धीरे हमें हिम्मत मिली,पापा जो गुमसुम हो गए थे कुछ बाहर आए अपने खोल से ।ज़िंदगी की गाड़ी कुछ पटरी पर आने लगी ।
एक दिन मनीष की मम्मी ने मेरा हाथ मनीष के लिए माँगा तो पापा बहुत इमोशनल हो गए ,बहुत दिनों बाद मैंने उनको ख़ुश देखा था।वो मनीष को बहुत चाहने लगे थे बहुत भरोसा करने लगे थे ।
मैं गुमसुम थी शादी के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी।

फिर एक दिन मनीष की मम्मी मेरे कमरे में आईं ,बोलीं "बेटा मैं जानती हूँ तुम्हारे मन में बहुत दु:ख है इस समय शादी का नहीं सोच पा रही हो पर बेटा पापा मम्मी को देखो...उनको इस सदमे से तुम ही बाहर निकाल सकती हो ।फिर यहीं रहोगी पास ही ,जब चाहो आ सकती हो।“ 
मैं सिर झुकाए रो रही थी मेरे सिर को अपने सीने से लगा लिया बोलीं " न बेटा रोना नहीं ...दु:ख तो हमारा रास्ता ढूँढते अनायास आ ही जाते हैं ,दरवाजा खटखटा देते हैं ...पर हमको ही उठ कर ख़ुशियों की खिड़किएं खोलनी होती हैं न। घर में शादी की ख़ुशियाँ आएँगी ,बच्चों की रौनक़ होगी तो वो भी सँभल जाएँगे ...ज़िंदगी से प्यार करने की वजह दो उनको...और बेटा हम सब तुम्हारे साथ हैं ...तुम जैसी बहू मिल कर हम भी धन्य हो जाएँगे ये मत समझना कि हम कोई तरस खाकर रिश्ता माँग रहे हैं ये सपना तो मैंने बरसों पहले ही देख लिया था ...ख़ूब सोच-समझ कर जवाब देना।”
बस फिर मैंने हाँ कर दी क्योंकि मैं जानती थी कि यहाँ मम्मी-पापा.....” उसका गला रुँध गया ।
फ्लाइट लैंड कर चुकी थी ।उसने हाथ की किताब पर्स में रख दी ।
" मुझ पर विश्वास तो किया होता ...एक मौक़ा तो दिया होता “मैंने धीरे से उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया।
" किस आधार पर करती ...आपसे तो कभी बात ही नहीं हुई थी ... जानती ही कितना थी आपको और आपकी विचार-धारा को ? मेरे लिए पापा- मम्मी को ज़िंदा रखना मुश्किल होता जा रहा था ।मनीष ने जीवन संग दुबारा जोड़ा उनको...बस ईश्वर ने और ज़िंदगी ने जैसा चाहा मान लिया ।”
" पता नहीं ज़िंदगी फिर ये मौक़ा दे न दे एक बात पूछनी थी आपसे ,कई सालों से ख़ुद से पूछते थक गया हूँ “ मैंने इमोशनल होकर कहा ,वो ध्यान से एकटक मेरी शक्ल देख रही थी ।
" क्या आपने कभी भी मुझसे...” उसने मुझे बीच में ही रोक दिया ।
" कुछ सवालों के जवाब नहीं होते शेखर जी...”वो जैसे नींद में बोल रही थी।
" मुझे लगता है प्यार से ज़्यादा अविश्वसनीय और कुछ होता है नहीं ,आज है कल नहीं है ...हमारे साहबज़ादे वेदान्त का तीसरा अफ़ेयर चल रहा है और वो हर बार उतने ही सीरियस होते हैं ।”वो हँसी में मेरे सवाल को ख़ूबसूरती से टाल गई।
बस ! इसके बाद बचता ही क्या था कहने को ?मुझे शायद अपना जवाब मिल गया था।
"शुक्रगुज़ार हूँ ज़िंदगी का आपसे आख़िर मिलवा दिया “कह कर मैंने आगे बढ़ कर केबिन से उसका और अपना बैग निकाला।
" जी ! ये मेरे लिए भी अच्छा हुआ ... चलती हूँ...अपना ध्यान रखिएगा...बाय !” उसने मेरे चेहरे को भर नज़र देखा...वो मेरे बहुत क़रीब खड़ी थी मेरी साँसें थम सी गईं।मैंने एक हाथ बढ़ा कर हौले से उसे पल भर को सीने के पास किया "बाय !”
फिर वो सधे क़दमों से आगे चल दी ।मैं भी थोड़ा डिस्टेंस मेन्टेन करता हुआ चल दिया ।नताशा ने फिर पलट कर नहीं देखा । उदासियों के कुहासे मेरा दम घोंट रहे थे ।सीने को पार कर उसकी ख़ुशबू धड़कनों से घुल- मिल रही थीं...एक सुकून सा था... तो कुछ चटक भी गया था भीतर ही भीतर... 'उसने मेरा भरोसा नहीं किया’।
सोनल जैसी समझदार प्यार करने वाली बीबी और ईशान जैसे कुशाग्र बेटे ने यूँ तो जीवन में ख़ुशियों के सब रंग बिखेर दिए थे पर कुछ था जो तन्हाइयों में अक्सर टीसता था। 
नताशा का मुझे नकार दिया जाना मैं ज़िंदगी में कभी स्वीकार ही नहीं कर पाया था ।एक आग सी सुलगती रही जीवन भर भीतर ही भीतर कि आख़िर क्या कमी थी मुझमें ? ख़ुद को हारा हुआ महसूस करता । ख़ुशियों की फुहारों में एक निर्जन सन्नाटे से भरा कोना था जो कभी भी नहीं भीगा ...यूँ ज़िंदगी से कोई शिकायत भी नहीं रही कोई।
चलते-चलते सहसा ध्यान आया अरे मोबाइल नं॰ तो लिया ही नहीं फिर मन ही मन हँस पड़ा मैं ख़ुद से पूछा "ज़िंदगी से अभी भी कोई सवाल बाक़ी है क्या ? “ 
अनदेखे नताशा के पति मनीष के प्रति ईर्ष्या से भर उठा मन ।मैंने सिर झटका ।नताशा की पीठ से अलविदा कह मैं जैसे नीम बेहोशी में आगे बढ़ गया गुलज़ार साहब की कभी पढ़ी नज़्म मेरे दिल में धड़क रही थी ...
" दिखाई देते हैं इन लकीरों में साए कोई
मगर बुलाने से वक़्त लौट न आए कोई
वो जर्द पत्ते जो पेड़ से टूट कर गिरे थे
कहाँ गए बहते पानी में बुलाए कोई...
मज़ार पर खोल कर गरेबाँ दुआएँ मांगे
वो आये तो लौट कर तो न जाये कोई...”

                                             —क्रमश:

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...