दरिया नहीं कोई
जो तुझमें समा जाऊँगी
रे सागर,
तिरे सीने पे अपने
कदमों के निशाँ
छोड़ जाऊँगी…!!
— उषा किरण
मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले
तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं
और जब शब्दों से भी मन भटका
तो रेखाएं उभरीं और
रेखांकन में ढल गईं...
इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये
ताना- बाना
यहां मैं और मेरा समय
साथ-साथ बहते हैं
दरिया नहीं कोई
जो तुझमें समा जाऊँगी
रे सागर,
तिरे सीने पे अपने
कदमों के निशाँ
छोड़ जाऊँगी…!!
— उषा किरण
मुझे बचपन से ही लगता है कि जिस तरह इंसान की व अन्य जीव- जन्तुओं की रूह होती है उसी प्रकार हर मकान की और पेड़ -पौधों की भी अपनी रुह होती है। उसमें रहने वाले प्रणियों के साथ-साथ वो भी साँस लेते हैं और न सिर्फ़ सांस लेते हैं, अपितु उनके सुख-दुख के मौसम उन पर से भी होकर गुजरते हैं।
मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।उनमें भी प्राण- प्रतिष्ठा हो जाती है। सालों हमारे साथ रहते मकानों का वजूद हमारी साँसों पर टिका रहता है।वे हमारी साँसों से ही साँस लेते हैं ,उनकी और हमारी प्राणवायु एक हो जाती है।हमारे सुख-दुख में साथ हंसते रोते हैं। मकान ही नहीं, वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, भी हमारे सगे-संबंधी से हो जाते हैं। हम जब उनको छोड़ कर चले जाते हैं, तो वे श्रीहीन हो जैसे निष्प्राण हो जाते हैं ।
दरअसल ताताजी( अपने पापा को हम ताताजी कहते थे ) का जॉब ट्रान्फरेबल था, तो दो- तीन साल में ट्रान्सफर हो जाता था। नए शहर में नए सिरे से डेरा जमाना होता। हम लोगों ने इस कारण बहुत से शहर देखे।भाँति-भाँति की संस्कृतियों से परिचय हुआ।अनेक प्रकार की बोलियाँ,खानपान, पहनावा व स्वभाव देखने को मिलते रहे। हर शहर के खाने व पानी का स्वाद तो अलग होता ही है, हर शहर की अपनी रूह ,अपना अलग ही रंग व मिजाज भी होता है।
शहर ही क्यों हर घर का भी अपना अलग मिजाज, अपनी अलग खुशबू भी मुझे महसूस होती थी। इतना ही नहीं मुझे लगता है कि हर घर की भी अपनी एक रुह होती है। जब भी ट्रान्सफर के बाद किसी नए शहर में, किसी नए मकान में डेरा जमाया तो वो उखड़ा सा, उजाड़ और उदास सा मिला। धीरे-धीरे हम उसके और वो हमारा हो जाता। कुछ ही महिनों में वो मकान घर में तब्दील हो हमारा हमनवाज़ बन चहक उठता। लेकिन एक दो साल बाद अगले ट्रान्सफर पर सारा सामान ट्रक में लद जाने के बाद दुबारा उजाड़, उदास हुए मकान को डबडबाई आँखों से देख उससे विदा लेते, हम गले मिल मूक रुदन रोते।सालों बाद भी मुझे बचपन से लेकर अब तक रहे हर घर की याद हमेशा को पीछे छूट गए किसी दोस्त की तरह ही सताती है। हर घर से मेरा एक नए रंग का रिश्ता बना।
किसी घर के बाहर लगे गुलमोहर व अमलतास की सुर्ख- जर्द छाँव, किसी का बड़ा सा आंगन और कोने पर लगे अमरूद, अनार, किसी के आँगन में अमरूद पर छींके में बंधे लटकते कद्दू , किसी आँगन में आम से लदी झुकीं डालियाँ,किसी के पीछे से जाती रेलगाड़ियों की छुक-छुक , बरसों याद आती रहीं। इलाहाबाद व बनारस का गंगा घाट, नैनीताल,अल्मोड़ा की बारिशें,पहाड़िएं व झील, लखनऊ के हज़रतगंज की चाट व कुल्फी, मैनपुरी का कपूरकंद, अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़ा, भी खूब याद आते।
ताताजी का ट्रान्सफर होने पर फिर नया शहर ,नया मकान ,नया स्कूल।सब कुछ अजनबी सा लगता। लोग तो अजनबी लगते ही, यहाँ तक कि दुकानें, पार्क, सड़कें, पेड़-पौधे भी अपरिचित से लगते। हर बार शहर ही नहीं सहेलियाँ व स्कूल भी छूट जाते। नई सहेलियाँ बनाने में वक्त लगता। जब तक नए शहर में कुछ मन लगना शुरु होता कि दुबारा ट्रान्सफर का ऑर्डर आ जाता। इस सबसे मेरा बहुत दिल टूटता। हर समय रोना सा आता रहता।शायद इसी वजह से बचपन से ही मन के किसी कोने में वैराग्य का पौधा स्वयम् ही पनप गया था।
मुझे याद आता है कि कई घरों से कोई भूत या चुड़ैल का किस्सा भी जुड़ा रहता था। जो कि वहाँ पिछले वाले साहब के साथ काम कर चुके कर्मचारी लोग अम्माँ को बहुत धीरे से फुसफुसा कर सुनाते थे, लेकिन सबसे पहले मेरे ही कान सुनते उनको।उनमें से कुछ भूत तो वहीं सोते छूट गए पर कुछ मेरे सपनों में जब- तब घुसपैठ करते सालों तक हमारा खून सुखाते, रात में अमरूद के पेड़ पर तो कभी पीपल के पेड़ पर लटक कर दाढ़ी हिला-हिला कर हंसते हमें डराते रहे।
पीलीभीत की हाजी जी की बहुत विशाल कोठी के आधे भाग को उन्होंने हमें किराए पर दिया हुआ था।बाकी आधे में वे स्वयम् तीन बीबियों और बच्चों के साथ रहते थे। बढ़ी बीबी का काम था घर का मैनेजमेन्ट देखना, दूसरे नम्बर की हर वक्त हाँडी और रोटियाँ पकाती रसोई में ही घुसी रहतीं और तीसरी सबसे छोटी मशीन पर कपड़े सिलती रहती थीं। कभी बहुत सम्पन्न रहे हाजी जी की माली हालात कुछ ठीक नहीं थे अब। दोनों घरों के बीच की दीवार में एक दरवाजा था जिसकी कुंडी दिन में हमेशा खुली रहती थी और हमारी अम्माँ व हाजी जी की बीबियाँ काम के बीच में मौका देख दरवाजे पर ही खड़े-खड़े खूब बतरस का आनन्द लेतीं।
प्राय: पहले दो घरों के आंगन के बीच की दीवार कॉमन होती थी और उसमें एक दरवाजा होता था जिसका खुलना व बन्द होना दोनों घरों के मालिकों के आपसी संबंधों पर निर्भर रहता था। अम्माँ खूब मजे लेकर सुनाती थीं कि`ललितपुर में श्रीवास्तव साहब का और हमारा बीच का दरवाजा खुला ही रहता था तो तुम छोटी सी थीं उनकी रसोई से एक छोटा लोटा लाकर हमेशा अपने घर के बरतनों में रख देती थीं। जब ट्रान्सफर हुआ तो उन्होंने भरे मन से चलते समय वो लोटा तुमको ही दे दिया।’
जहाँ भी ट्रान्सफर होकर हम लोग जाते हफ्ते भर में ही अम्माँ की आस-पड़ोस में आन्टी लोगों से अटूट दोस्ती हो जाती।कभी डोंगों की अदला-बदली होती तो कभी चीनी, नमक, दही का जामन या कोई दवाई के आदान-प्रदान के लिए बच्चे इधर से उधर दौड़ लगाते रहते। कभी साथ में बड़िएं, अचार बन रहे हैं, तो कभी चिप्स-पापड़, कभी जवे बन रहे हैं तो कभी स्वेटर के डिजाइन सीखे जा रहे हैं। दीवाली, होली पर हमारे यहाँ से मिठाइयाँ, गुझियाँ हाजी जी के यहाँ पहुँचते तो ईद पर हाजी जी की तरफ से कोई उनका कारिन्दा सीधे हलवाई के यहाँ से गर्मागर्म कचौड़ी, सब्जी, रबड़ी व मिठाइयों का टोकरा सिर पर रखे लिए चला आता।रामप्यारी मौसी के हाथ की सब्जी और तन्दूर में लगाई रोटियाँ हमें बहुत पसन्द थीं तो वे एक कटोरी सब्जी और दो तन्दूर की रोटियाँ जब- तब हमारे लिए लिए चली आती थीं।
ट्रान्सफर होने पर मोहल्ले के लोगों की भीड़ लग जाती और नम आँखों से, भरे गलों से हम लोगों की मार्मिक विदाई होती इसका श्रेय अम्माँ की व्यवहारकुशलता व अपनत्वपूर्ण व स्नेहसिक्त व्यवहार को ही जाता था।
पीलीभीत में पुराने साहब लोगों के साथ काम कर चुके मोहर ने एक बार बताया-"अब का बताएं बहू जी हम सुने जौन कमरा मा आप लोग सोवत हैं उसी के आले में पीर साहब का वास रहिन। हम पिछली वाली बहूरानी को कहत सुने।” हम आस-पास ही खेल रहे थे, सुनते ही हमारे प्राण कन्ठ तक आ गए लगा बस आज की रात हमारी ही गर्दन पीर साहब नापने वाले हैं ।
अम्माँ ने हाजी जी की बड़ी बेगम से इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि " हा बीबी, जब हम उसमें रहते थे तो हमने उसे पीर साहब का आला बनाया था, डर की कोई बात नहीं, वो आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे बस आप कोई ऐसी- वैसी चीज मत रखिएगा उसमें !” अम्माँ ने बताया कि हम तो बस चाबियों के गुच्छे रखते हैं तो उन्होंने कहा कि" ठीक है कोई बात नहीं।”
ऐसे ही बलिया वाले घर के एक कमरे में चुड़ैल की सूचना मोहन से मिली, तो मथुरा वाले घर के स्टोर में किसी भूत के वास की भी चर्चा हुई। लेकिन हमारी अम्माँ और ताताजी ने कभी भी उन बातों को गम्भीरता से नहीं लिया बस अफवाह मान कर उड़ा दिया, लेकिन हम बच्चों के सपनों में उनका तान्डव जारी रहता और हमारा खून ही सूखता रहता था।
इसी तरह शादी के बाद हम सालों जिस पुश्तैनी मकान में रहते थे उसकी कई स्मृतियों में बन्दरों की घटनाओं की भी कई स्मृतियाँ हैं। जब बन्दरों का अटैक होता तो कई दिनों तक लगातार झुंड के झुंड आते ही चले जाते थे। जिस साल शादी हुई तब इन्वर्टर, जैनरेटर तो होते नहीं थे तो लाइट जाने पर तिमंजले की छत पर ही जाकर सो जाते थे। एक दिन मैं तो सुबह ही उठ कर नीचे आ गई। थोड़ी देर बाद देखा कि बराबर की छत पर बन्दर बैठा तकिया फाड़ कर कूद- कूद कर सड़क पर रुई उड़ा रहा है और सड़क चलते लोग देख कर हंस रहे हैं। उसकी हरकतों पर हमें भी हंसी आ गई।हमने सोचा कि सिंह साहब अभी ऊपर ही सो रहे हैं कहीं बन्दर काट न ले तो जाकर जगा दें। ऊपर गए तो देखा उनके सिर के नीचे से तकिया गायब है। हमारी हंसी गायब हो गई ,समझ आया वो हमारे ही तकिए की धज्जिएं बिखेर रहा था।
एक दिन कमरे की खिड़की खुली रह गयी तो जैसे ही मैं कमरे में घुसी तो धक् से रह गई कमरे का एक भी सामान ठिकाने पर नहीं थी। कुशन फटे पड़े थे, एलबम की चिंदियाँ उड़ रही थीं कई कैसेट की रीलों के गुच्छे परस्पर गुँथे पड़े थे कुछ कपिराज के गले में हार सी शोभा पा रहे थे।और दो कपि युगल हमारे नर्म गद्दों पर रजाई सिर से ओढ़ कर कूद रहे थे।हमारी चीख सुन कर दाँत निकाल खौं- खौं करके खिड़की से कूद बाहर भाग गए और जाते- जाते भी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी हमारी रिस्टवॉच भी ले गये।
ऐसे ही कभी बच्चों के मुँह से बोतल छीन के ले गये तो कभी चश्मा या कपड़े, कभी फ्रिज से छिली रखी पाँच किलो मटर के दाने का पैकिट ले जाकर पूरी सड़क पर बिखेर दिए, कभी आम की दावत उड़ाई। तीनों कमरों के बीच में दो बड़ी- बड़ी खुली छतें थीं तो बन्दरों का खूब आतंक रहता था। मेरा भी सारा डर निकल गया। कई बार हम एकदम आमने- सामने टकरा जाते थे, पर मैं दृढ़ता से स्थिर खड़ी रह कर उसकी आँखों में टकटकी लगा कर देखती रहती। पापा का बताया ये फॉर्मूला बहुत काम आता था और उल्टा बन्दर ही डर कर भाग जाते थे।
एयर गन और कई डंडों का इंतजाम हम हमेशा रखते थे।प्राय: एयर गन देखते ही बन्दर तेजी से डर कर भाग जाते थे। लेकिन हमें इस बात की बेहद हैरानी है कि हर मोहल्ले के बन्दरों का मानसिक बल भी अलग ही होती है। जब हम दूसरे मकान में शिफ़्ट हुए तो वहाँ के बन्दरों पर एयर गन का जरा भी असर नहीं होता था। हम कन्धे से लगा कर एक आँख बन्द कर चाहें कितनी ही नेचुरल पोज़ीशन साधें पर मजाल है जो किसी बन्दर पर जरा भी फर्क पड़ता हो आराम से पूँछ हिलाते सामने से टहलते निकल जाते और हम हैरान दाँत किटकिटा कर रह जाते।
मुझे याद है ताताजी के गुजर जाने के कुछ दिनों बाद,भैया की परेशानी में जब हम चारों भाई-बहन पापा का बनवाया मकान बेचने के लिए मैनपुरी गए और सुनसान घर का ताला खोल कर जब अन्दर प्रवेश किया तो हमारे अन्तस में भी सन्नाटा पसर गया ...कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझे एक ही बात की हैरानी हो रही थी और मैं भरे गले से बार-बार यही बुदबुदा रही थी कि,`ये घर सिकुड़ कर इतना छोटा कैसे हो गया...जो घर इतना विशाल था, इतना रौशन था, हर समय जगमग करता था उसमें अब भरी दोपहर में भी इतना अँधेरा कैसे भर गया ?’ मेरे आँसू थम ही नहीं रहे थे।
घर वालों के बिना वो हमारा घर एकदम अनाथ, उजाड़ और बेनूर सा लग रहा था।उजड़े पड़े इसी आँगन में कभी, कैसी चहल-पहल भरी होती थी। अम्माँ के महकते ममतामयी आँचल के साथ इसी चहकते आँगन का भी मानो इतना विस्तार बढ़ जाता था कि ओर-छोर ही नजर नहीं आता था। हम सब जब जाते तो अपनी थकान और परेशानियों को भूल, सुकून में डूब कर गुम ही हो जाते।
रिटायरमेंट से पहले ही गाँव पास होने के कारण ताताजी ने मैनपुरी में बहुत प्यार से कोठी बनवाई , जिसका नक्शा भी खुद ही बनाया था और रिटायरमेंट के बाद वहीं रहने लगे थे।
इसी आँगन में जब अम्माँ अपना पोर्टेबल चूल्हा रख कर पीढ़े पर बैठ बड़ी सी कढ़ाई में गाजर का हलुआ घोंटती, साग, मक्का की रोटी, कढ़ी, दही बड़े, बिरियानी, कोरमा वगैरह प्रसन्नता से दमकते मुख से पकाती थीं, तो हम और हमारे बच्चे उनके चारों तरफ चहकते-लहकते चक्कर काटते रहते।
ताताजी भी बीच- बीच में आकर हमारी हा-हा,ठी-ठी और बतकही के बीच शामिल हो जाते।अपने शिकार के और जंगलों के किस्से सुनाते, तो कभी विद्यार्थी जीवन की शैतानियाँ सुनाते। मुझे प्राय: छेड़ते- "देखो ये इतनी तनख़्वाह ले रही है, बच्चों को बेवकूफ बनाने की, अरे पेंटिंग भी कोई पढ़ाने का सब्जेक्ट है ?”
हम लोगों के आने से पहले ही ताताजी पपीते, शरीफे, आम, चीकू तोड़ कर पेपर में लपेट कर कनस्तर में रख कर पकने रख देते थे और हम लोगों को बहुत प्यार से निकाल कर खिलाते थे।
खाने पीने का न कोई टाइम रहता, न ही सीमा। भरे पेट पर भी पकौड़ी बन जातीं, तो कभी भर गिलास काँजी के बड़े या भर गिलास मट्ठा लेकर हम सब खाने-पीने बैठ जाते। कभी ठंडाई पिसती, तो कभी चाट बन रही होती।अचानक कपूरकन्द की या जलेबी की फरमाइश पर मोहन साइकिल ले बाजार भागता। कितना ही खा-पी लें लेकिन पेट और मन ही नही भरता था हमारा। बाद में झींकते कि "हाय राम कितना वेट बढ़ गया।”
लौटते समय अम्माँ के हाथ की प्यार भरी सौगातें-अचार,पापड़, मुरब्बे ,बड़िएं, लड्डू ,मठरी ,गुझियाँ, बेसन के सेब वगैरह हमारे साथ बंधे होते।मौसम के अनुसार अम्माँ हम लोगों के हिस्से के अचार, पापड़ वगैरह बना कर रखती थीं।
इसी उदास, उजाड़ आँगन की तब कैसी शोभा होती थी। बाहर के बरामदे के साइड में सुगन्धित गुलाबी फूलों से लदी बेल व घनी मधुमालती के सघन, सुगन्धित कुंज से आच्छादित बरामदे की सीढ़ियों के पास का कोना हम बहनों की सबसे मनपसन्द जगह थी। तरह- तरह की चिड़ियों की मनमोहक चहचहाहट सुनती मैं वहीं भीनी-भीनी सुगन्धित शीतल छाँव में सीढ़ियों पर बैठी शिवानी या अमृता प्रीतम का कोई उपन्यास और काँजी, चाय या फेट कर बनाई खूब झागदार कॉफी का मग लेकर घंटों बैठी रहती।
सुबह लॉन की हरी घास के कोने में हरसिंगार के नीचे ओस से भीगे श्वेत-केसरिया फूलों की सुगन्धित, शीतल चादर सी बिछ जाती। मैं रोज सुबह उठ कर वहाँ जाकर लेट जाती। फूल-पत्तों से छन कर आती सुबह की सुनहरी किरणें चेहरे पर अठखेलियाँ करतीं।ओस-भीगे फूल जैसे तन-मन का सारा सन्ताप व थकन हर कर तुष्टि से भर देते और मैं गुनगुनाती हुई बहुत देर तक अलसाई सी वहीं पड़ी रहती। अम्माँ को जोर से चिल्ला कर कहती "अम्माँ हमारी चाय यहीं भिजवा दो !”
ताताजी भी प्राय: पास में कुर्सी डाल कर पेपर लेकर बैठ जाते।
कभी कोई पेन्टिंग बना कर, तो कभी कुम्हार के यहाँ से मिट्टी मंगवा कर मैं कोई मूर्ति गढ़ती, पुआल-उपलों में पका कर, कलर करके घर में सजा आती। ताताजी, अम्माँ बहुत खुश होते। आने-जाने वालों को मगन होकर आर्टिस्ट बिटिया के करतब दिखाते।
वही घर-आँगन था, वही पेड़-लताएं ...पर आज श्रीहीन, स्तब्ध खड़े थे मानो सब।अब न हमें रंग-बिरंगे फल-फूल नजर आ रहे थे और न ही वे पेड़ों पर चहकते ,फुदकते रंग- बिरंगे सुग्गा,पंछी। हम सबकी आँखें बरस रही थीं।उस उजड़े, सूने आँगन में स्तब्ध-अवाक खड़े हमें अपने अनाथ हो जाने का अहसास पहली बार इतनी शिद्दत से मर्माहत कर रहा था।
उसके नए मालिक को चाबियों के साथ उस घर की धड़कनें सौंपते, मन ही मन अपने प्राणप्रिय उस घर से माफी माँगी, जिसकी एक-एक ईंट ताताजी ने बहुत प्यार से रखी थी।मन पर बहुत भारी बोझ लेकर हम लोगों ने अपने घर से अन्तिम विदा ली।गाड़ी में बैठ, घर पर प्यार भरी अन्तिम दृष्टि डाल मैंने आँखें मूँद प्रार्थना की कि नए मालिकों का होकर मेरा घर फिर से हरा-भरा हो खिलखिला उठे और खूब शुभ हो नए मालिकों के लिए ये हमारा सपनों का घर।
घर की भी आत्मा होती है ये मैंने दो बार महसूस किया है।एक तो मैनपुरी के मकान को बेचने के बाद जब वहाँ आँगन में खड़ी थी तब और दूसरी बार तब, जब हम लोगों ने अपने ससुराल का पुश्तैनी मकान खाली कर ताला लगाया।
अम्माँ व बाबूजी के गुजर जाने के बाद, समय के साथ जब परिवार बढ़ा तो जगह की कमी व सौ साल पुराने मकान की जर्जर हालत देख कर अपनी सुविधानुसार तीनों भाई सालों साथ रहने के बाद अपने-अपने अलग घर बनवा कर उनमें शिफ्ट हो गए। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ ये देख कर कि हमारा वो पुश्तैनी मकान साल भर में ही ढहने की स्थिति में आ गया। आज भी जब सपना कोई देखती हूँ तो उसकी बैकग्राउंड में वही पुश्तैनी मकान दिखाई देता है जबकि बीस- इक्कीस साल पहले ही उसे छोडकर हम दो और मकानों में शिफ्ट हो चुके है।हम लोगों को अहसास होता है कि उस घर में पितरों के आशीष भी हमारे साथ थे। दो पीढ़ियों की पढाई-लिखाई, कैरियर व कई शादी- ब्याह वहीं से सम्पन्न हुए। खानदान के कई और बच्चे भी हमारे घर में रह कर पढ़ लिख कर ऊँची उड़ानों पर निकले। दूर-दराज के रिश्तेदारों की जाने कितनी लड़कियों को अपनी कोई साड़ी पहना कर तैयार करके दिखाने की ज़िम्मेदारी भी खूब निभाई हमने
रिटायरमेंट से दो साल पहले ही जब हमने बीस सालों से रह रहे मकान को खाली किया तो प्यार से बनाए अपने सपनों के घर में जाने की बेहद ख़ुशी तो थी लेकिन बाहर से दीवार को पार कर आँगन में लम्बी - लम्बी बाहें फैलाए आमों से लदे ,अपने प्रिय आम के पेड़ से गले लग विदा ली तो आँखें नम हो गईं। मेरे जाने कितने सुख- दुख का साक्षी रहा वो। कॉलेज आते-जाते प्राय: मैं उसके गले लग जाती। जिंदगी में न जाने कितने पेड़- पौधे आए लेकिन उसके साथ किन्हीं कारणों से मैं एक विशेष रिश्ता महसूस करती थी, जैसे सुख-दुख का साथी …अभिन्न मित्र !
#विदा_दोस्त...!!
आज मैंने पीछे, दरवाजे के पास लॉन में
त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से
लता की तरह लिपट कर विदा ली
उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर
कान में फुसफुसा कर कहा
अब तो जाना ही होगा
विदा दोस्त...!
तुम सदा शामिल रहे
मेरी जगमगाती दीवाली में
होली की रंगबिरंगी फुहारों में
मेरे हर पर्व और त्योहारों में
और साक्षी रहे
उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी
डूबते दिल को सहेजती
जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर
तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते
पापा की कमजोर कलाई और
डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब
डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती
तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते
तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के
तो मन की उमंगों के भी
तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब
मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी
ढोलक की थापों पर तुम भी
बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे
कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे
पापा के जाने के बाद तुम थे न…
पावन-पीत दुआओं सी बौरों से
आँगन भर देते और
अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!
मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी तुमसे मिलने
एक पेड़ मात्र तो नहीं हो तुम मेरे लिए
कोई जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न
कि क्या हो तुम मेरे लिए…!
अपनी दुआओं में याद रखना मुझे
आज विदा लेती हूँ दोस्त
फ़िलहाल…अलविदा...!!!
— उषा किरण
रेल की पटरियों पर बदहवास रोती चली जा रही दीप्ति के पीछे एक भिखारिन लग गई।
- ए सिठानी तेरे कूँ मरनाईच न तो अपुन को ये शॉल, स्वेटर और चप्पल दे न…ए सिठानी …!
दीप्ति ने शॉल, स्वेटर और चप्पल उसकी तरफ उछाल दिए। भिखारिन और तेजी से पीछा करने लगी।
- ऐ सिठानी ये चेन और कंगन भी दे न…भगवान भला करेंगे…!
पल भर सोच कर दीप्ति ने चेन और कंगन भी उसके हवाले किए और तेज कदमों से पटरी के बीच चलने लगी। सहसा उसने मुड़ कर देखा, भिखारिन सब कुछ पहन खुशी से मस्त हो नाच रही थी…ताली बजा रही थी, ठहाके लगा रही थी।
दीप्ति के कदम रुक गए…भिखारिन और तनुजा के चेहरे आपस में गडमड हो रहे थे।पति देवेश और तनुजा के रोमान्टिक मैसेज , बूढ़े पापा- मम्मी के विलाप सब आँखों के आगे फिल्म की तरह घूम गए।भिखारिन की जगह ठहाके लगाता तनुजा का चेहरा आँखों के आगे घूम गया।
आँसू पोंछ कर, दीप्ति दृढ़ कदमों से वापिस लौट पड़ी।गनीमत थी सब गहरी नींद सोए पड़े थे। उसने देवेश की ओर एक उपेक्षित दृष्टि डाली, उसकी तरफ पीठ कर रजाई ऊपर तक खींच कर आँखें मूँद लीं ।
— उषा किरण
बहुत दुखद है कि मेरे कुछ स्टुडेंट्स का पत्नियों के द्वारा घोर उत्पीड़न हुआ है और मैं चाह कर भी कुछ भी मदद नहीं कर पाई।वे सभी सीधे- सादे भावुक हृदय कलाकार हैं।
दो को तो जेल भी जाना पड़ा। पत्नि उत्पीड़न, वकीलों द्वारा शोषण, आर्थिक हानि, सामाजिक प्रताड़ना सहने के बाद भी वे किस तरह जिन्दगी में आगे बढ़ सके ये मैं ही जानती हूँ ।
वे रोते थे, छटपटाते थे, तो मैं उनको आँसू पोंछने के लिए अपना आँचल व हौसला ही दे सकी ,और कोई भी मदद चाह कर भी नहीं कर सकी।कई वकीलों से बात करने के बावजूद भी।कई बार लगता था कि लॉ की पढ़ाई ही कर लूँ जिससे मदद कर सकूँ। सारे नियम-कानून की सहानुभूति महिला के पक्ष में ही क्यों हैं ?कहाँ जाएं ये ?
ऐसा नहीं कि लगभग चालीस साल की जॉब के बीच मेरी कुछ गर्ल्स स्टुडेंट का उत्पीड़न नहीं हुआ…कई का हुआ। रास्ता आसान उनका भी नहीं था परन्तु उनके साथ समाज, परिवार, कानून, पुलिस, सब थे अत: उनकी मदद के लिए रास्ते अवरुद्ध नहीं थे।
अभी हाल में ही मेरे एक बेहद हंसमुख, जिंदादिल स्टुडेंट ने शादी के साल भर के भीतर ही पत्नि की कलह व बात-बात पर नीचा दिखाए जाने से क्षुब्ध होकर खुद को रेल की पटरियों के हवाले कर दिया।दो साल पहले ही अपनी माँ की कैंसर के कारण मृत्यु से वो पहले ही टूटा हुआ था । सारी क्लास सदमे में थी सब बारी- बारी फोन कर अपना दुख व्यक्त कर रहे थे। क्या समझाती उनको ? मुझे खुद भी कई दिन तक नींद नहीं आई।
एक रिसर्च स्कॉलर को पत्नि ने उसे जहर देने की कोशिश की जबकि लव मैरिज थी। एक और स्टुडेंट की पत्नि शादी के बाद मायके से बिना बताए कुछ ब्वॉयफ्रैंड्स के साथ नैनीताल घूमने गईं और ढेरों ड्रामा करके तलाक के बाद बेहद घटिया जीवन शैली अपनाए हुए है आज।जब तलाक का केस चल रहा था तो उसके वकील से ही इश्क शुरु कर दिया। रिश्तेदारों ने दूसरी शादी गारन्टी लेकर करवाई तो पता चला उसे सीजोफ्रेनिया है। अब भुगत वो रहा है और रिश्तेदार हाथ झाड़ कर अलग खड़े हैं।
मेरे एक परिचित जो खुद सुप्रीम- कोर्ट में नामी वकील हैं , पत्नि द्वारा उत्पीड़ित हो कुछ नहीं कर सके…खुद अपनी भी मदद नहीं कर सके और केस में सब कुछ हार बैठे।
आज मेरे एक और बेहद टैलेन्टेड स्टुडेंट का फोन आया जिसने बी ए की पढ़ाई एक साल करके छोड़ दी और दिल्ली से बी एफ ए की पढ़ाई की, जामिया में कुल पाँच सीट थीं जहाँ एडमिशन मिला तो एम एफ ए करके टीचिंग जॉब में है। वो लगातार मेरे सम्पर्क में रहता है।
पता चला कि एक तो कोरोना के कारण उसकी माँ की डैथ हो गई ,पत्नि ने तलाक का केस पहले ही चला रखा है। जब साथ थी तो कई बार उसको बहुत मारा, बेटी साथ ले गई, जेवर भी ले गई, अब दुबारा कह रही है कि जेवर दो मेरा। मैं तुझे जेल भेजूँगी ।दहशत व दुख से उसको पिछले दिनों बहुत तगड़ा हार्ट- अटैक आ गया । माँ का सदमा भूल नहीं पा रहा, शुगर का पेशेन्ट है। वकील कह रहा है कि जेल जाना पड़ सकता है ।वो यही सोच कर काँप रहा था, रो रहा था और मैं समझा रही थी कि `तो क्या हुआ? हो आना थोड़े दिन को ! मेन्टली मजबूत रहो।’ परन्तु एक कलाकार जो बेहद खूबसूरत चित्र बनाता हो, चित्र-प्रदर्शनी लगाता हो, टीचर हो उसके लिए ये आसान नहीं ये मैं भी जानती हूँ लेकिन साँत्वना देती रही डाँटती रही रोना बन्द करो …दिल मजबूत करो। वो कह रहा था कि मैम मेरी जॉब प्राइवेट कॉलेज में है तो वो छूट जाएगी। उसने CAW (Crime against Women Cell ) Delhi में भी रिपोर्ट कर दी है ? परिवार की आर्थिक स्थिति खराब है। भाई का जॉब भी छूट गया है, बहन पति से प्रताड़ित होकर वापिस घर आ गई है और उसकी पत्नि अनाप- शनाप पैसे माँग रही है। उसका रईस बाप धमका रहा है ।
मैं नहीं जानती कि उसको कैसे बचाया जाय? कोई कानून, कोई एन जी ओ , कोई तरीका हो तो प्लीज़ मुझे बताओ आप लोग।मार्गदर्शन करो।वे सब अपनी मासूमियत खोकर डिप्रेशन के शिकार होते जा रहे हैं।
कभी- कभी लगता है कि मेरे ही स्टुडेंट का भाग्य खराब है या ये समाज की आम सच्चाई है ? महिलाओं के उत्पीड़न के तो हम सभी विरोध में खड़े हो जाते हैं, लेकिन लड़कियों के जुल्म के शिकार हुए से सीधे- सादे लड़के बेचारे कहाँ जाएं ?
कौन हैं ये लड़कियाँ, कहां से आती हैं ? जिनमें इंसानियत, ममता, सच्चरित्रता नाम को नहीं है। बस मौज-मस्ती और पैसे की हवस रहती है।
ये कैसे संस्कारों में पली- बढ़ी हैं….हैरान हूं बहुत।
मैं नहीं जानती कि उसको कैसे बचाया जाय? कोई कानून, कोई एन जी ओ , कोई तरीका हो तो प्लीज़ मुझे बताओ …मार्गदर्शन करो।
— उषा किरण
ठसाठस भरी बस के आते ही भीड़ उसकी तरफ लपकी। दीपक ने दोनों हाथों के घेरे में सुलक्षणा को लेकर किसी तरह बस में चढ़ाया और जैसे ही एक सीट खाली हुई सीट घेर कर निश्चिंत हो बहन को बैठा लम्बी साँस ली और खुद रॉड पकड़ कर बीच में खड़ा हो गया।
दोनों भाई-बहन ममेरे भाई की शादी से लौट रहे थे।शादी में सारी रात जागने के कारण सुलक्षणा को कुछ ही देर में झपकी आ गई।सहसा उसकी झपकी टूटी तो सामने दृष्टि पड़ते ही हतप्रभ रह गई। दीपक के ठीक सामने एक लड़की खड़ी थी जो काफ़ी असहज महसूस कर रही थी।बार- बार गुस्से में मुड़ कर दीपक को देख रही थी ।
-आप थोड़ा पीछे हटिए प्लीज !
सुलक्षणा ने हैरानी से देखा कि भैया पीछे हटने की जगह और सट कर खड़े हो गए। उनके चेहरे के लम्पट-भाव देख वह हैरान थी।ये भैया का कौन सा नया रूप देख रही थी आज ?
उसका मन जुगुप्सा से भर उठा ।
सहसा वो झटके खड़ी हुई और दीपक के सामने खड़ी लड़की से बोली।
- आप यहाँ मेरी सीट पर बैठ जाइए !
- थैंक्यू…कह कर लड़की ने आराम से सीट पर बैठ कर चैन की साँस ली। सुलक्षणा उस लड़की की जगह भाई के सामने रॉड पकड़ कर खड़ी हो गई। दीपक अचकचा कर एक कदम पीछे हट गया। सभी की निगाहें दीपक पर जमी थीं और दीपक की निगाह बस के फर्श पर।
— उषा किरण
बस में खिड़की से बाहर देखती चित्रांगदा के चेहरे और लटों से ठंडी हवाएं सरगोशियाँ कर रही थीं । हैडफोन कान से लगा कर वो गुलाम अली की गजलेों में गुम अपनी ही दुनिया में मस्त आँखें मूँद खिड़की से सिर टिकाए थी कि सहसा उसे अपनी कमर पर कुछ स्पर्श महसूस हुआ। पास बैठे लड़के को संदिग्ध दृष्टि से देखा तो निहायत संजीदा सा लड़का चुपचाप बहुत ध्यान से अख़बार पढ़ रहा था।बायाँ हाथ जो उसकी तरफ था उससे अख़बार पकड़ रखा था तो उसके द्वारा टच नहीं किया जा सकता था। लगा उसका वहम है पर जागरूक होकर स्थिर बैठ गई।
थोड़ी देर बाद फिर लगा किसी ने बाँह को छुआ तो उसने झटके से देखा अखबार की ओट से दूसरे दाएँ हाथ की उँगलियाँ साँप सी सरसराती दिखाई दीं। चित्रा के दाँत गुस्से से भिंच गए कुत्ते छेड़खानी के कितने तरीके निकाल कर लाते हैं।
चित्रा ने एक झन्नाटेदार झापड़ चटाक् से उसके गाल पर रसीद कर दिया।चारों उँगलियाँ गाल पर छप गईं।आसपास बैठे लोगों में हलचल सी हुई।
- अरे मैंने क्या किया ?
- कुछ नहीं…मच्छर बैठा था, बस मार दिया !
चित्रा का स्टॉपेज आ गया था पर्स उठा कर मुस्कुराते हुए बस से नीचे उतर गई। आसपास के लोगों के चेहरों पर भी मुस्कान थी।
शरीफजादा यथावत अख़बार में चेहरा छुपाए पेपर पढ़ता रहा।
Usha Kiran
बदहवासियों के आलम में
ई सी जी, इंजैक्शन, ऑक्सीजन…
नीम बेहोशियों, हवासों की गुमशुदगी में
उल्टियाँ, घुटन, बेचैनी, दहशत, लाचारी
हाड़ कंपाती ठिठुरन भरी सुरंग से गुजरती रूह
डॉक्टर की कड़क नसीहतों के बीच
अचानक आना तुम्हारा और
किसी फरिश्ते की तरह दो बार सिर सहला जाना…
कोई बात नहीं आप टेंशन न लो…रिलैक्स!
वक्त के साथ बीत चुका है सब
भूल चुकी हूँ दो दिन में ही
दर्द, दहशत, बेदिली, शोर, बदहवासी
याद रह गई सिर्फ़ वो सम्वेदना
दिल में घुमड़ता
बादल का एक नन्हा सा टुकडा़ और उसकी नमी
जो बार बार मेरी आँखें आज सुबह से नम किए है
डॉक्टर के भेष में कुछ देवदूत चुन कर
भेजते हैं भगवान इंसानों के तन का ताप हरने
और उनमें से कुछ होते हैं जो
फरिश्ते बन हाथ के साथ मन को भी थाम लेते हैं
उस दिन मुझे भी थाम लिया था उसने
एक देवदूत बन कर…!!
Usha Kiran
शादी के बारह साल बाद भी मोहन के कोई बच्चा नहीं था। घरवाले सब दूसरी शादी के लिए दबाव बना रहे थे।जब वो छुट्टी में पहाड़ जा रहा था तो मैंने कहा मीना को यहाँ ले आओ इलाज करवाते हैं।तो गाँव जाने पर मेरे कहने से अपनी बीबी मीना को भी ले आया साथ।
सालों बाद दोनों साथ-साथ रहते बहुत खुश थे।किचिन में काम करते समय धीरे- धीरे पहाड़ी गीत गाते रहते।मैं किसी काम से किचिन में जाती तो उनका मीठा सा पहाड़ी गान सुन कर दबे पाँव मुस्कुरा कर वापिस लौट आती।
एक दिन सुबह- सुबह सिम्बा को घुमाने ले जाते समय मोहन, मीना को भी साथ ले गया। दिसम्बर की सर्द कोहरे से भरे मैदान से मीना ने देखा पास के पार्क में कुछ धुँधली सी आकृतियाँ जोर-जोर से हँस रही हैं।
-हैं ये कौन हैं ?
- ये भूत हैं जैसे हमारे पहाड़ों में होते हैं वैसे ही।
मोहन को मजाक सूझा।मीना ताबड़तोड़ भागी, सीधे घर आकर साँस ली।आकर मुझसे जिक्र कर रही थी तो मुझे बहुत जोर से हंसी आ गई।
- अरे यहाँ शहरों में भूत नहीं होते तू डर मत। वो तो लाफिंग- क्लब के लोग थे हंसने की प्रैक्टिस कर रहे थे।
- हैं… वो क्या होता ?
- अरे कैसे बताऊं ? समझ ले एक क्लास होती है जहाँ सब बैठ कर हँसते हैं साथ-साथ।
- हैंऽऽऽऽ सहर में पढ़ाई की तरह हंसना भी सीखना होता ? हमारे पहाड़ में तो मुफ्त में ही हम सारे दिन हंसते।लकड़ियाँ बीनते, जिनावर चराते, खेत जोतते..हरदम हंसते रहते। बताओ यहाँ तो हंसना भी सीखते….!
वो ताली बजा कर जोर-जोर से पहाड़ी झरने सी उन्मुक्त हंसी हंस रही थी और मैं चुपचाप किचिन से बाहर आ गई।
Usha Kiran
रेखाँकन: उषा
`अरे वाह पकौड़ी! वाह मजा आ गया !’
`आओ अनुभा, देखो ये देवेश और बच्चे तुम्हारे ही किस्से सुना- सुना कर हंसा रहे थे अभी ।’
`अरे भाई- साहब एक नहीं जाने कितने किस्से हैं …मेरे कपड़े नहीं पहचानतीं, दो साल हो गए नई गाड़ी आए लेकिन अब तक अपनी गाड़ी नहीं पहचानतीं…और तो और इनको तो अपनी गाड़ी का रंग भी नहीं याद रहता…नहीं मैं शिकायत नहीं कर रहा लेकिन हैरानी की बात नहीं है ये …?
'अरे ….ये तो कमाल हो गया, तुमको अपनी गाड़ी का रंग भी याद नहीं रहता ? अनुभा तुम अभी तक भी उतनी ही फिलॉस्फर हो ?…हा हा हा…!’
अनुभा ने मुस्कुरा कर इत्मिनान से प्लेट से एक पकौड़ी उठा कर कुतरते हुए कहा-
`हाँ नहीं याद रहता…तो इसमें हैरानी की क्या बात है ? अपनी- अपनी प्रायर्टीज हैं भई…कपड़े, गाड़ी, कोठी, जेवर पहचानने में ग़लती कर सकती हूँ भाई - साहब क्योंकि उन पर मैं अपना ध्यान जाया नहीं करती…पर पूछिए, क्या मैंने रिश्ते और अपने फर्ज पहचानने और निभाने में कोई चूक की कभी…? ये सब कैसे याद रहे क्योंकि मेरा सारा ध्यान तो उनको निभाने में ही जाया हो जाता है…खैर…और पकौड़ी लाती हूँ!’
अनुभा तो मुस्कुरा कर खाली प्लेट लेकर चली गई लेकिन कमरे में सम्मानजनक मौन पसरा हुआ छोड़ गई ! भाई- साहब ने देखा देवेश की झुकी पलकों में नेह व कृतज्ञता की छाया तैर रही थी।
— उषा किरण
आज मैंने पीछे दरवाजे के पास लॉन में
त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से
लता की तरह लिपट कर विदा ली
उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर
कान में फुसफुसा कर कहा
अब तो जाना ही होगा
विदा दोस्त...!
तुम सदा शामिल रहे
मेरी जगमगाती दीवाली में
होली की रंगबिरंगी फुहारों में
मेरे हर पर्व और त्योहारों में
और साक्षी रहे
उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी
डूबते दिल को सहेजती
जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर
तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते
पापा की कमजोर कलाई और
डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब
डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती
तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते
तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के
तो मन की उमंगों के भी
तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब
मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी
ढोलक की थापों पर तुम भी
बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे
कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे
पापा के जाने के बाद तुम थे न
पीली-पीली दुआओं सी बौरों से
आँगन भर देते और
अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!
मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी मिलने तुमसे
एक पेड़ मात्र तो नहीं हो तुम मेरे लिए
कोई जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न
कि क्या हो तुम मेरे लिए…!
अपनी दुआओं में याद रखना मुझे
आज विदा लेती हूँ दोस्त
फ़िलहाल…अलविदा...!!!
— उषा किरण
दो बच्चे मेरे और दोनों जैसे उत्तरी घ्रुव और दक्षिणी ध्रुव।
बेटी नर्सरी में थी तो प्राय: आनन्दिता की सताई हुई बिसूरती हुई घर आती।
-आज आनन्दिता ने थप्पड़ मारा।
-आज आनन्दिता ने नोचा।
-आज आनन्दिता ने पेंसिल छीन ली।
-आज आनन्दिता ने टिफिन खा लिया ।
मेरा दिल डूब-डूब जाता अपनी मासूम राजकुमारी के आँसुओं में। मैं कहती कि उसकी शिकायत मैम से कर दिया करो। पर वो कहती कि-
-मम्मी उसे कोई कुछ नहीं कह सकता मैम भी नहीं, क्योंकि उसकी दादी का ही तो स्कूल है और दादी ही तो प्रिंसिपल हैं। वो सभी बच्चों को मारती है।
वो बेहद मासूमियत से हाथ नचा कर कहती।
मुझे बहुत ही गुस्सा आता कि ये क्या बात है ? बच्ची की शिक्षा की शुरुआत ही एक गलत व्यवस्था और अन्याय सहने से हो रही है।
मैं बेहद टेंशन में आ गई। कई बार स्कूल में जाकर टीचर को शिकायत भी की, परन्तु वो आँखें फैला बेचारगी से एक ही बात दोहरातीं कि,
-क्या करें वो तो प्रिंसिपल की पोती है…!
खैर फिर नर्सरी के बाद एल के जी में दोनों का दूसरे स्कूल में एडमिशन हुआ।दोनों एक ही रिक्शे से जाती थीं।परन्तु उसकी हाथ चलाने की इतनी आदत थी कि वो रिक्शे में भी दादागिरी करती। सब बच्चों को चाँटे मारती रहती थी।
एक दिन फिर बेटी रोते हुए घर आई, क्योंकि गेम्स पीरियड के बाद उसका नया ब्लेजर छीन कर आनन्दिता ने अपना पुराना ब्लेजर उसे दे दिया था। उसने काफी कहा पर वो कहती रही ये ही मेरा है।
यूँ तो मैं रोज रात को सोने से पहले उसे कहानियों में लपेट कर दया, अहिंसा,करुणा, क्षमा, सहनशीलता, देशभक्ति, भगवान पर आस्था, जैसे मानवीय मूल्यों की घुट्टी पिलाती थी, लेकिन मैंने उस दिन उसको बैठा कर वो समझाया जो मैं बिल्कुल नहीं चाहती थी।मैंने सख्ती से कहा -
-तुम पिटती क्यों रहती हो, तुम्हारे हाथ नहीं हैं क्या? तुम भी मारो उसको पलट कर। और एक हाथ पकड़ कर दूसरे गाल पर लगाना थप्पड़ जोर से। यदि कोई कुछ कहे तो कह देना ये रोज मारती है इसीलिए मारा।डरना मत कोई कुछ कहेगा तो मैं देख लूँगी।
खूब सिखा- पढ़ा कर भेजा। चाह तो यही रही थी कि मैं ही जाकर मसला निबटाऊँ, लेकिन मुझे खुद अपनी जॉब पर जाना होता था। फिर लगा कि मैं कहाँ तक इसको सपोर्ट करूँगी, कब तक दुनिया से बचाऊँगी आखिर में तो इसे अपनी लड़ाई अपने शस्त्रों से खुद ही लड़नी होगी।
दूसरे दिन वो बहुत खुश कूदती- फाँदती आई,
-मम्मा ले आई अपना कोट।पता है आज जब उसने मारा तो मैंने उसका हाथ पकड़ कर जोर से चाँटा मारा और कहा मेरे हाथ नहीं हैं क्या ? तुम मारोगी तो मैं भी मारूँगी।मम्मी वो एकदम से डर गई। फिर मैंने उसके पापा से भी कहा कि अंकल ये मुझे रोज मारती है और मेरा कोट नहीं दे रही जबकि अन्दर मेरा नाम लिखा है आप देख लीजिए। पता है मम्मी फिर उसके पापा ने उसको डाँटा और एक चाँटा भी मारा और कहा सॉरी बोलो उसे और कोट वापिस करो ...मम्मी बड़ा मजा आया आज!”
मन कुछ कुड़बुड़ाया -गलत शिक्षा नही दे रही हो तुम बच्ची को ? हिंसक होना सिखा रही हो ...तुमको तो ये कहना था न कि, कोई एक चाँटा मारे तो बेटा दूसरा गाल भी आगे कर दो। दुर् कह कर मैंने घुड़की दी और राहत की साँस ली।
वैसे बाद में वे दोनों बहुत अच्छी दोस्त बनीं, आज भी हैं।
उस दिन मेरी बेटी ने मुझसे बेदर्द , असभ्य , अधिकारों का हनन करने वाले समाज के बीच सर्वाइव करने का पहला पाठ पढ़ा। और जाना कि आप कितनी भी मजबूत या कमजोर जमीन पर क्यों न खड़े हों लेकिन अपनी लड़ाई आपको अपने हौसलों से खुद तो लड़नी ही पड़ेगी। बिना लड़े जीत कोई दूसरा आपको तश्तरी में रख कर भेंट नहीं कर सकता ।
फिर उसके बाद जिंदगी में वो कभी भी, किसी से भी नहीं पिटी।
—उषा किरण
हफ्ते भर पहले आँखों की कैटरेक्ट की लेजर-सर्जरी करवाई। कुल पन्द्रह मिनिट में हो गई। न कट, न इंजेक्शन , न दर्द, न हरी पट्टी, न काला चश्मा । बस आधा घन्टा बैठा कर चैक किया और जाओ घर…भई वाह ! दुनिया कुछ और ज़्यादा रंगीन व रौशन सी नजर आई।अपनी ही बनाई पेन्टिंग के रंग कितने खुशनुमा लगे।
कई तरह की दवाइयाँ डालने को दीं और कुछ एहतियात रखने को कहा जिसमें डॉक्टर ने ये भी कहा कि पानी से आँखों को बचाने के लिए अभी सिर मत धोना।
आठ नौ दिन हो गए तो बहुत बेचैनी थी। सोचा पार्लर पर जाकर आँख को कवर कर धुलवा ही लेते हैं।खैर खूब सावधानी से तैयारी की - पार्लर का एपॉइंटमेंट, साफ फेस टॉवल, सेनेटाइजर, डबल मास्क से लैस होकर पहुँचे और जायजा लिया …साफ- सुथराई से सन्तुष्ट होकर हमने आरिफ को समझाया
-देखो भाई हमारी आँख की सर्जरी हुई है, तो पानी न जाए…।खूब- खूब हिदायत देकर सीट पर जम गए।
आरिफ़ ने कहा मैम बेफिक्र रहें। हम हो गए बेफिक्र और बाईं आँख को फेस टॉवल से कवर करके बैठ गए।आरिफ ने सिर पीछे करके टॉवल लगाया,
अचानक आरिफ़ ने कहा -मैम आपकी लैफ्ट आँख की सर्जरी हुई है न?
- नहीं राइट की और कहते ही झटका लगा, अरे मगर हम तो लैफ्ट को ढाँप कर बैठे हैं। हमने आरिफ़ को घूर कर देखा झट लैफ्ट को मुक्त किया और राइट को कवर किया और पूछा।
- अरे आरिफ़ तुमने ये क्यों पूछा अचानक ? तुमको कैसे पता चला कि…तो वो हंसने लगा बोला -पता नहीं मैम, बस ऐसे ही पूछ लिया !
हमने शीशे में देखा तो आँख को देख कर कुछ भी नहीं लग रहा था कि सर्जरी हुई है।लेकिन हमें आरिफ़ की शक्ल में `उसका’ नूर नजर आया।
खैर, हम हैड वॉश करवा कर आ गए सुरक्षित वापिस। बात छोटी सी है परन्तु ये बात निकल नहीं रही दिल-दिमाग से। आरिफ़ को कैसे इन्ट्यूशन हुआ ?
ये उसकी छोटी-बड़ी रहमतें ही तो हैं जो हमारे साथ चलती हैं भेष बदल- बदल कर …गौर करो तो साफ़ दिखाई देती हैं, वर्ना हमारी औकात बूँद बराबर भी नहीं…फिर मेरे दिल से वही आवाज आती है-
" मैं जिसका जिक्र करती हूँ
वो मेरी फिक्र करता है …!!🙏🙏
ऐ दोस्त
अबके जब आना न
तो ले आना हाथों में
थोड़ा सा बचपन
घर के पीछे बग़ीचे में खोद के
बो देंगे मिल कर
फिर निकल पड़ेंगे हम
हाथों में हाथ लिए
खट्टे मीठे गोले की
चुस्की की चुस्की लेते
करते बारिशों में छपाछप
मैं भाग कर ले आउंगी
समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़
तुम बना लेना चाय तब तक
अदरक इलायची वाली
अपनी फीकी पर मेरी
थोड़ी ज़्यादा मीठी
और तीखी सी चटनी
कच्ची आमी की
फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा
सीधा कर देना और
रस्सी डाल उस पर मैं
बना दूंगी मस्त झूला
बढ़ाएँगे ऊँची पींगें
छू लेंगे भीगे आकाश को
साबुन के बुलबुले बनाएँ
तितली के पीछे भागें
जंगलों में फिर से भटक जाएँ
नदियों में नहाएँ
चलो न ऐ दोस्त
हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!
— उषा किरण
चित्र ; Pinterest से साभार
शेष आगे…..
" कहाँ हो यार ? “एयरपोर्ट से बाहर निकल गाड़ी में बैठते ही मनीष का फ़ोन आ गया।
ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...