ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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शनिवार, 4 अक्टूबर 2025

मेरे चश्मे से- अभिमान

            


                               * अभिमान *                                             

ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 1973 में बनी बहुत प्यारी, संगीतमय एवम् मनोवैज्ञानिक  फिल्म है अभिमान। पाँच दशक के बाद भी यह फिल्म आज भी इसलिए समसामयिक व प्रासंगिक प्रतीत होती है; क्योंकि तब इस फ़िल्म में  मध्यम वर्ग से संबंधित जिन मुद्दों को उठाया गया था, आज तक उन मुद्दों के  चलते कितने ही विवाह संबंधों की परिणति तलाक तक पहुँच चुकी है। अभिमान एक ऐसी फिल्म है जो प्रेम, परिवार और पति- पत्नि के आपसी अहम् के मुद्दों को एक संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। ऋषिकेश मुखर्जी की यह अनमोल कृति भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई है; इसीलिए आज भी इसकी लोकप्रियता बरकरार है।

अभिमान’ की कहानी की प्रेरणा ऋषिकेश मुखर्जी को कहां से मिली, इसे लेकर भी तमाम अलग-अलग तरह के क़यास लगाए जाते रहे हैं। कुछ समीक्षकों का मत है कि ये फिल्म मशहूर सितार वादक रवि शंकर और उनकी पत्नी अन्नपूर्णा देवी की जिंदगी पर आधारित है, जबकि लेखक राजू भारतान  गायक किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता  के रिश्तों पर आधारित बताते हैं।  एक इंटरव्यू में ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा भी था, " यह फिल्म गायिका उमा गुहा ठाकुरता की शादी पर आधारित थी।”

 सुबीर कुमार ( अमिताभ बच्चन) एक सुप्रसिद्ध व सफल गायक है। चंदू (असरानी) सुबीर का मैनेजर होने के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी है। सुबीर की एक और दोस्त है चित्रा (बिंदू), जो उसे प्रेम करती है। गाँव जाने पर उसकी मुलाकात उमा (जया भादुड़ी)से होती है। उमा के संगीत व मासूमियत पर  सुबीर मुग्ध हो जाता है और उमा से विवाह कर लेता है। अपनी शादी की पार्टी में  सुबीर और उमा साथ-साथ गाते हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक ब्रजेशवर लाल (डेविड) उमा की प्रतिभा से काफ़ी प्रसन्न होते हैं और वे उसे बधाई देते हैं। परन्तु जब वे सुनते हैं कि उन्होंने फैसला किया है कि सुबीर और उमा दोनों साथ में गाना गाया करेंगें। तो वे आशंकित हो जाते हैं। उनकी पारखी नजर देख लेती है कि उमा का शास्त्रीय बेस होने के कारण उसका गायन सुबीर से उत्तम है।

दोनों का गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे उमा द्वारा लगातार सुबीर से  ज़्यादा सफलता पाने के कारण सुबीर  मन ही मन कुंठा से भर जाता है। उमा का  सम्वेदनशील कलाकार मन  सुबीर के मनोभावों को समझ लेता है। वह  सुबीर के अंदर चल रही कशमकश को  भाँप कर न गाने का फ़ैसला करती है; परंतु उसका ऐसा करना भी सुबीर को अपनी हार लगती है।उमा बेबस मन से गाती है, लेकिन वह समझती है कि उसके पति का नजरिया उसके प्रति बदल गया है।

उधर कुंठाग्रस्त हो सुबीर बहुत शराब पीने लगता है। समय से रिकॉर्डिंग में नहीं जाता।अचानक अपना पारिश्रमिक बहुत बढ़ा देता है। जिससे उसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी फ़्रस्ट्रेशन में वह उमा को उल्टा- सीधा कहता है। उमा दुःखी होकर अपने गाँव वापिस चली जाती है।

उमा उस समय गर्भवती होती है। तनाव, ग्लानि व मृत बच्चे के जन्म के कारण उमा दुख व सदमे में डूब कर पथरा कर ख़ामोश हो जाती है।तब जाकर सुबीर को अपनी गल्ती का अहसास होता है। उमा पर कोई भी इलाज का असर नहीं होता तब ब्रजेशवर लाल सुबीर को समझाते हैं  कि जिस संगीत की वजह से तुम अलग हुए हो, अब वही संगीत उमा को वापिस ज़िंदगी से जोड़ेगा। वे एक गीत का प्रोग्राम रखते हैं जिसमें सुबीर के साथ उमा भी आँसुओं में डूबकर दोनों का मिलकर देखा गया स्वप्न-गीत आखिर गाती है-"तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”

मुख्य नायक व नायिका सुबीर व उमा के रोल में अमिताभ बच्चन व जया भादुड़ी ( बच्चन)  दोनों ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।उनके लाजवाब अभिनय ने फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन ने अपने रोल में कामयाब कलाकार, अच्छा दोस्त, रोमान्टिक प्रेमी, ईर्ष्या व कुंठाग्रस्त पति की बेचैनी, पश्चाताप आदि  विभिन्न शेड्स व दुख के भावों की अभिव्यक्ति बहुत सजीवता से व्यक्त की है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है, जिसमें प्रशंसक सुबीर के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीनकर उमा की तरफ भागते हैं।

जया ने गाँव की सीधी-सरल युवती , शर्मीली प्रेमिल नवविवाहिता, एक सफल कलाकार, पति के प्रति समर्पित, समझदार अर्द्धांगिनी और अन्त में पति की ईर्ष्या, उपेक्षा तथा हादसे के कारण सदमे से पथराई पत्नी  के विविध रूपों में लाजवाब अभिनय किया है। जया का शुद्ध भारतीयता में रचा-बसा सादगीपूर्ण व सौम्य शीतल रूप इस फ़िल्म में बहुत मोहक लगता है। जिस तरह वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रेम, दर्द, ममता, प्यार आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं; वह अद्भुत है। उनके सम्वेदनशील अभिनय ने इस फ़िल्म में  चार चाँद लगा दिए हैं; ख़ासकर बच्चे के खोने के बाद की पीड़ा, तड़प व जीवन के प्रति अनासक्त-भाव को इतनी सजीवता से निभाया है कि दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं ।इस फ़िल्म के श्रेष्ठ अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। 

बिन्दू का रोल इस फ़िल्म में और फ़िल्मों से अलग हट कर एक उदार व सम्वेदनशील दोस्त का है। जिसे उन्होंने बाखूबी निभाया है।अन्य रोल में असरानी, डेविड, ए.के. हंगल, दुर्गा खोटे सभी ने अच्छा अभिनय किया है। कहानी ,संवाद, निर्देशन, संगीत और अभिनय सभी पहलुओं से अभिमान एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 

इस  फिल्म की स्क्रिप्ट मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखी है। अभिमान फिल्म के गाने, जो कि इसका मुख्य आकर्षण हैं, कहानी के प्राण की तरह पिरोए गए हैं; मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर,किशोर कुमार , मनोहर उधास द्वारा गाए गए हैं।पिया बिना-पिया बिना, अब तो है तुमसे, नदिया किनारे, लूटे कोई मन का डगर, तेरे मेरे मिलन की ये रैना और तेरी बिंदिया रे; हर गाना एक अनमोल  रत्न है और फ़िल्म की ही तरह इस फ़िल्म के मधुर गाने भी आजतक उतने ही लोकप्रिय हैं।कहते हैं लता जी ने इन गानों के लिए एक पैसा भी नहीं लिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ने जो शिव स्तुति गाई है वह वस्तुतः अनुराधा पौडवाल की आवाज में है और इन गानों को संगीतबद्ध किया है सचिनदेव बर्मन ने। इस फिल्म के लिए एस.डी. बर्मन को भी बैस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

ऋषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से गढ़ा है।पूरी फिल्म में एक भी दृश्य या संवाद फालतू नज़र नहीं आता; इसी कारण पूरी फ़िल्म में कसावट बनी हुई है।फिल्म में छोटे-छोटे घटनाक्रम भी ऐसी ख़ूबसूरती  से फ़िल्माये गए हैं, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क में छाप छोड़ जाते हैं। शादी के बाद के रोमान्टिक पलों को भी उन्होंने बहुत शालीनता व प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया है। पर्दे पर पति पत्नी के रूप में अमिताभ और जया की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में जान डाल दी है।।

पहले पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते थे और महिलाएँ घर संभालती थीं।धीरे-धीरे महिलाओं ने भी शिक्षा की डोर थामकर दहलीज के दायरों  से बाहर निकल पंख पसारे, सपनों में रंग भरने शुरू किए। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर बनीं बल्कि उन्होंने विज्ञान, संगीत, कला, साहित्य, व्यवसाय व फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया। अब वे पति की परछाईं मात्र नहीं रहीं; अपितु कदम से कदम मिलाकर सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी  बनीं। इसी के चलते कई बार वह अपनी लगन, मेहनत या प्रतिभा के कारण पति से भी कुछ कदम आगे निकल गईं; बस समस्या यहीं से शुरु हुई। कई बार पुरुष का अहम्  प्रेम, परिवार, भावनाओं से भी ऊपर हो जाता है।पत्नी-पति से किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर रही हो, यह बात पुरुष का अहम् कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पाता। जीवन की इसी वास्तविक गुलझन  को केंद्र में रखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने इस संवेदनशील फ़िल्म का निर्देशन किया है।

 उसी वर्ष जया व अमिताभ बच्चन  3 जून को परिणय सूत्र में बंध गए थे। शादी के ठीक बाद रिलीज हुई फिल्म अभिमान में अमिताभ की आभा, उनका रूप दर्शनीय था तो जया का लावण्य और मोहक चेहरा फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण बना।जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों को लगा कि कहीं उनकी असल ज़िंदगी में भी यह अभिमान सच होकर फलीभूत न हो जाए ; क्योंकि जया उस समय सुपरस्टार बन चुकी थीं और अमिताभ बच्चन अभी पहले पायदान पर ही थे। 

साहित्य हो, कला हो या फ़िल्म; वही श्रेष्ठ है, जो समाज के उत्थान के लिए कोई सकारात्मक मैसेज छोड़े। ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द व अभिमान दोनों फ़िल्में इसी कारण आज भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं । अभिमान  फ़िल्म युवा पीढ़ी के वैवाहिक जीवन के लिए एक नजीर की तरह है और दर्शकों के मानस में एक प्रश्न छोड़ जाती है कि, जब पत्नि, पति को अपने से ज़्यादा कामयाब होते देखकर ईर्ष्या या कुँठा नहीं पालती तो पत्नि के कदमों को खुद से आगे बढते देख पति के मन में क्षुद्रता का अहसास क्यों …? पति का आहत अभिमान पत्नि को तोड़ देता है।उसकी तरक़्क़ी में बाधक बनता है। प्राय: यह अभिमान छोटी छोटी बातों का ही होता है, परन्तु वैवाहिक जीवन में जहर घोल जाता है और उसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। 

 वैसे आजकल प्रायः यह भी देखने को मिला है, जहाँ पत्नी की तरक़्क़ी के लिए पतियों ने खुद थमकर परिवार व बच्चों को संभाला है। चाहें ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु यह बदलाव आशान्वित करता है और सुखद है।

युवा पीढ़ी को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म चुपके से कान में कहती है- जहाँ प्रेम है वहाँ कैसा अभिमान…?

                                          —उषा किरण 

अभिमान

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ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 1973 में बनी बहुत प्यारी, संगीतमय एवम् मनोवैज्ञानिक  फिल्म है अभिमान। पाँच दशक के बाद भी यह फिल्म आज भी इसलिए समसामयिक व प्रासंगिक प्रतीत होती है; क्योंकि तब इस फ़िल्म में  मध्यम वर्ग से संबंधित जिन मुद्दों को उठाया गया था, आज तक उन मुद्दों के  चलते कितने ही विवाह संबंधों की परिणति तलाक तक पहुँच चुकी है। अभिमान एक ऐसी फिल्म है जो प्रेम, परिवार और पति- पत्नि के आपसी अहम् के मुद्दों को एक संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से प्रस्तुत करती है। ऋषिकेश मुखर्जी की यह अनमोल कृति भारतीय सिनेमा के लिए मील का पत्थर साबित हुई है; इसीलिए आज भी इसकी लोकप्रियता बरकरार है।

अभिमान’ की कहानी की प्रेरणा ऋषिकेश मुखर्जी को कहां से मिली, इसे लेकर भी तमाम अलग-अलग तरह के क़यास लगाए जाते रहे हैं। कुछ समीक्षकों का मत है कि ये फिल्म मशहूर सितार वादक रवि शंकर और उनकी पत्नी अन्नपूर्णा देवी की जिंदगी पर आधारित है, जबकि लेखक राजू भारतान  गायक किशोर कुमार और उनकी पहली पत्नी रूमा गुहा ठाकुरता  के रिश्तों पर आधारित बताते हैं।  एक इंटरव्यू में ऋषिकेश मुखर्जी ने कहा भी था, " यह फिल्म गायिका उमा गुहा ठाकुरता की शादी पर आधारित थी।”

 सुबीर कुमार ( अमिताभ बच्चन) एक सुप्रसिद्ध व सफल गायक है। चंदू (असरानी) सुबीर का मैनेजर होने के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी है। सुबीर की एक और दोस्त है चित्रा (बिंदू), जो उसे प्रेम करती है। गाँव जाने पर उसकी मुलाकात उमा (जया भादुड़ी)से होती है। उमा के संगीत व मासूमियत पर  सुबीर मुग्ध हो जाता है और उमा से विवाह कर लेता है। अपनी शादी की पार्टी में  सुबीर और उमा साथ-साथ गाते हैं। प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक ब्रजेशवर लाल (डेविड) उमा की प्रतिभा से काफ़ी प्रसन्न होते हैं और वे उसे बधाई देते हैं। परन्तु जब वे सुनते हैं कि उन्होंने फैसला किया है कि सुबीर और उमा दोनों साथ में गाना गाया करेंगें। तो वे आशंकित हो जाते हैं। उनकी पारखी नजर देख लेती है कि उमा का शास्त्रीय बेस होने के कारण उसका गायन सुबीर से उत्तम है।

दोनों का गाना गाने का सिलसिला शुरू हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे उमा द्वारा लगातार सुबीर से  ज़्यादा सफलता पाने के कारण सुबीर  मन ही मन कुंठा से भर जाता है। उमा का  सम्वेदनशील कलाकार मन  सुबीर के मनोभावों को समझ लेता है। वह  सुबीर के अंदर चल रही कशमकश को  भाँप कर न गाने का फ़ैसला करती है; परंतु उसका ऐसा करना भी सुबीर को अपनी हार लगती है।उमा बेबस मन से गाती है, लेकिन वह समझती है कि उसके पति का नजरिया उसके प्रति बदल गया है।

उधर कुंठाग्रस्त हो सुबीर बहुत शराब पीने लगता है। समय से रिकॉर्डिंग में नहीं जाता।अचानक अपना पारिश्रमिक बहुत बढ़ा देता है। जिससे उसके कैरियर पर भी प्रभाव पड़ता है। इसी फ़्रस्ट्रेशन में वह उमा को उल्टा- सीधा कहता है। उमा दुःखी होकर अपने गाँव वापिस चली जाती है।

उमा उस समय गर्भवती होती है। तनाव, ग्लानि व मृत बच्चे के जन्म के कारण उमा दुख व सदमे में डूब कर पथरा कर ख़ामोश हो जाती है।तब जाकर सुबीर को अपनी गल्ती का अहसास होता है। उमा पर कोई भी इलाज का असर नहीं होता तब ब्रजेशवर लाल सुबीर को समझाते हैं  कि जिस संगीत की वजह से तुम अलग हुए हो, अब वही संगीत उमा को वापिस ज़िंदगी से जोड़ेगा। वे एक गीत का प्रोग्राम रखते हैं जिसमें सुबीर के साथ उमा भी आँसुओं में डूबकर दोनों का मिलकर देखा गया स्वप्न-गीत आखिर गाती है-"तेरे मेरे मिलन की ये रैना…”

मुख्य नायक व नायिका सुबीर व उमा के रोल में अमिताभ बच्चन व जया भादुड़ी ( बच्चन)  दोनों ने बहुत उम्दा अभिनय किया है।उनके लाजवाब अभिनय ने फिल्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। अमिताभ बच्चन ने अपने रोल में कामयाब कलाकार, अच्छा दोस्त, रोमान्टिक प्रेमी, ईर्ष्या व कुंठाग्रस्त पति की बेचैनी, पश्चाताप आदि  विभिन्न शेड्स व दुख के भावों की अभिव्यक्ति बहुत सजीवता से व्यक्त की है। वह दृश्य बहुत मार्मिक है, जिसमें प्रशंसक सुबीर के हाथ से ऑटोग्राफ बुक छीनकर उमा की तरफ भागते हैं।

जया ने गाँव की सीधी-सरल युवती , शर्मीली प्रेमिल नवविवाहिता, एक सफल कलाकार, पति के प्रति समर्पित, समझदार अर्द्धांगिनी और अन्त में पति की ईर्ष्या, उपेक्षा तथा हादसे के कारण सदमे से पथराई पत्नी  के विविध रूपों में लाजवाब अभिनय किया है। जया का शुद्ध भारतीयता में रचा-बसा सादगीपूर्ण व सौम्य शीतल रूप इस फ़िल्म में बहुत मोहक लगता है। जिस तरह वे अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से प्रेम, दर्द, ममता, प्यार आदि भावनाओं को अभिव्यक्त करती हैं; वह अद्भुत है। उनके सम्वेदनशील अभिनय ने इस फ़िल्म में  चार चाँद लगा दिए हैं; ख़ासकर बच्चे के खोने के बाद की पीड़ा, तड़प व जीवन के प्रति अनासक्त-भाव को इतनी सजीवता से निभाया है कि दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं ।इस फ़िल्म के श्रेष्ठ अभिनय के लिए उनको सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड मिला था। 

बिन्दू का रोल इस फ़िल्म में और फ़िल्मों से अलग हट कर एक उदार व सम्वेदनशील दोस्त का है। जिसे उन्होंने बाखूबी निभाया है।अन्य रोल में असरानी, डेविड, ए.के. हंगल, दुर्गा खोटे सभी ने अच्छा अभिनय किया है। कहानी ,संवाद, निर्देशन, संगीत और अभिनय सभी पहलुओं से अभिमान एक उत्कृष्ट फ़िल्म है। 

इस  फिल्म की स्क्रिप्ट मजरूह सुल्तानपुरी ने लिखी है। अभिमान फिल्म के गाने, जो कि इसका मुख्य आकर्षण हैं, कहानी के प्राण की तरह पिरोए गए हैं; मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर,किशोर कुमार , मनोहर उधास द्वारा गाए गए हैं।पिया बिना-पिया बिना, अब तो है तुमसे, नदिया किनारे, लूटे कोई मन का डगर, तेरे मेरे मिलन की ये रैना और तेरी बिंदिया रे; हर गाना एक अनमोल  रत्न है और फ़िल्म की ही तरह इस फ़िल्म के मधुर गाने भी आजतक उतने ही लोकप्रिय हैं।कहते हैं लता जी ने इन गानों के लिए एक पैसा भी नहीं लिया था। फिल्म में जया भादुड़ी ने जो शिव स्तुति गाई है वह वस्तुतः अनुराधा पौडवाल की आवाज में है और इन गानों को संगीतबद्ध किया है सचिनदेव बर्मन ने। इस फिल्म के लिए एस.डी. बर्मन को भी बैस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का फिल्मफेयर अवार्ड मिला था।

ऋषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म को बेहद संवेदनशील और भावनात्मक तरीके से गढ़ा है।पूरी फिल्म में एक भी दृश्य या संवाद फालतू नज़र नहीं आता; इसी कारण पूरी फ़िल्म में कसावट बनी हुई है।फिल्म में छोटे-छोटे घटनाक्रम भी ऐसी ख़ूबसूरती  से फ़िल्माये गए हैं, जो दर्शकों के मन-मस्तिष्क में छाप छोड़ जाते हैं। शादी के बाद के रोमान्टिक पलों को भी उन्होंने बहुत शालीनता व प्रतीकात्मक रूप से दर्शाया है। पर्दे पर पति पत्नी के रूप में अमिताभ और जया की केमिस्ट्री ने उन दृश्यों में जान डाल दी है।।

पहले पुरुष कमाने के लिए बाहर जाते थे और महिलाएँ घर संभालती थीं।धीरे-धीरे महिलाओं ने भी शिक्षा की डोर थामकर दहलीज के दायरों  से बाहर निकल पंख पसारे, सपनों में रंग भरने शुरू किए। वे न सिर्फ़ आर्थिक रूप से ही आत्मनिर्भर बनीं बल्कि उन्होंने विज्ञान, संगीत, कला, साहित्य, व्यवसाय व फिल्म के विभिन्न क्षेत्रों में भी अपना वर्चस्व स्थापित किया। अब वे पति की परछाईं मात्र नहीं रहीं; अपितु कदम से कदम मिलाकर सच्चे अर्थों में सहधर्मिणी  बनीं। इसी के चलते कई बार वह अपनी लगन, मेहनत या प्रतिभा के कारण पति से भी कुछ कदम आगे निकल गईं; बस समस्या यहीं से शुरु हुई। कई बार पुरुष का अहम्  प्रेम, परिवार, भावनाओं से भी ऊपर हो जाता है।पत्नी-पति से किसी भी क्षेत्र में प्रगति कर रही हो, यह बात पुरुष का अहम् कभी-कभी स्वीकार नहीं कर पाता। जीवन की इसी वास्तविक गुलझन  को केंद्र में रखकर ऋषिकेश मुखर्जी ने इस संवेदनशील फ़िल्म का निर्देशन किया है।

 उसी वर्ष जया व अमिताभ बच्चन  3 जून को परिणय सूत्र में बंध गए थे। शादी के ठीक बाद रिलीज हुई फिल्म अभिमान में अमिताभ की आभा, उनका रूप दर्शनीय था तो जया का लावण्य और मोहक चेहरा फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण बना।जब फ़िल्म रिलीज़ हुई तो लोगों को लगा कि कहीं उनकी असल ज़िंदगी में भी यह अभिमान सच होकर फलीभूत न हो जाए ; क्योंकि जया उस समय सुपरस्टार बन चुकी थीं और अमिताभ बच्चन अभी पहले पायदान पर ही थे। 

साहित्य हो, कला हो या फ़िल्म; वही श्रेष्ठ है, जो समाज के उत्थान के लिए कोई सकारात्मक मैसेज छोड़े। ऋषिकेश मुखर्जी की आनन्द व अभिमान दोनों फ़िल्में इसी कारण आज भी दर्शकों के दिलों में अमिट छाप छोड़ती हैं । अभिमान  फ़िल्म युवा पीढ़ी के वैवाहिक जीवन के लिए एक नजीर की तरह है और दर्शकों के मानस में एक प्रश्न छोड़ जाती है कि, जब पत्नि, पति को अपने से ज़्यादा कामयाब होते देखकर ईर्ष्या या कुँठा नहीं पालती तो पत्नि के कदमों को खुद से आगे बढते देख पति के मन में क्षुद्रता का अहसास क्यों …? पति का आहत अभिमान पत्नि को तोड़ देता है।उसकी तरक़्क़ी में बाधक बनता है। प्राय: यह अभिमान छोटी छोटी बातों का ही होता है, परन्तु वैवाहिक जीवन में जहर घोल जाता है और उसका प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर भी पड़ता है। 

 वैसे आजकल प्रायः यह भी देखने को मिला है, जहाँ पत्नी की तरक़्क़ी के लिए पतियों ने खुद थमकर परिवार व बच्चों को संभाला है। चाहें ऐसे उदाहरण बहुत कम देखने को मिलते हैं, परन्तु यह बदलाव आशान्वित करता है और सुखद है।

युवा पीढ़ी को यह फ़िल्म ज़रूर देखनी चाहिए। यह फिल्म चुपके से कान में कहती है- जहाँ प्रेम है वहाँ कैसा अभिमान…?

                                          —उषा किरण 

अन्तरदेश पत्रिका में प्रकाशित, मार्च 2023




बुधवार, 30 अप्रैल 2025

केसरी फाइल-2

                     

                

         केसरी फाइल-2                       

रक्तरंजित इतिहास का वह काला पन्ना जिस पर जलियांवाला बाग हत्याकांड के कितने ही शहीदों का बलिदान दर्ज है की पृष्ठभूमि पर बनी 'केसरी फाइल-2’ मूवी शहीदों को दी गई एक सच्ची श्रद्धांजलि है।  जरूरी है कि अंग्रेजों के जुल्म और देशभक्ति के ऐसे इतिहास के दस्तावेजों को हम आने वाली पीढ़ी के सामने पुरज़ोर तरीके से रखते रहें ताकि ये विस्मृति के गर्त में दफ़्न न हो जाए, इन पर चढ़े श्रद्धा सुमन कभी भी मुरझा न पाएं। हमारे अन्दर वह जोश व होश हमेशा कायम रहे कि फिर कोई आक्रांता हम पर यूँ अंधाधुंध गोलियाँ बरसाकर न चला जाए।


करण सिंह त्यागी द्वारा निर्देशित और करण जौहर और अदार पूनावाला द्वारा निर्मित, जलियांवाला बाग हत्याकांड की पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म में सी शंकरन नायर द्वारा लड़े गए ऐतिहासिक केस को दिखाया गया  है।


सी. शंकरन नायर के पोते रघु पलात और पुष्पा पलात की लिखी किताब 'द केस दैट शुक द एम्पायर' से प्रेरित इस फिल्‍म की कहानी करण सिंह त्यागी और अमृतपाल बिंद्रा ने लिखी है। करण सिंह त्यागी क्योंकि स्वयं पेशे से वकील रहे हैं तो कानून की भाषा, दाँव पेच, द्वन्द फंद  से खूब परिचित होने के कारण उन्होंने इस फ़िल्म की कहानी  बहुत खूबसूरती व रोचकपूर्ण तरीके से बुनी है। पूरी फिल्म में कथानक में कसावट है।दो घंटे पन्द्रह मिनिट तक फिल्म की कहानी करुणा, क्रोध और रोमांच , देशभक्ति के जज़्बे को बनाए रखने में कामयाब होती है। एक मिनिट को भी बोर नहीं होने देती और शनैः- शनै: अन्याय के ख‍िलाफ दर्शकों का क्रोध बढ़ता जाता है।


सी. शंकरन नायर के किरदार को अक्षय कुमार ने निस्संदेह बखूबी निभाया है। लगातार देशभक्ति के सशक्त रोल निभाने के कारण पूर्व इमेज से  अक्षय कुमार बाहर निकले हैं । दूसरी ओर, आर माधवन ने भी ब्रिटिश वकील नेविल मैककिनले की भूमिका में बहुत दमदार अभिनय किया है।। शंकरन की साथी वकील दिलरीत गिल की भूमिका में अनन्या पांडे भी प्रभावशाली लगी हैं।अनन्या पान्डे की अभिनय प्रतिभा पहली बार इस फिल्म में उभर कर आई है। वे हमेशा की तरह मात्र सजावटी गुड़िया नहीं लगीं अपितु चेहरे व बडी़- बडी़ आँखों से उनके आन्तरिक भावों के उतार-चढ़ाव खूबसूरती से दर्ज हुए हैं ।फिल्म की शुरुआत में जलियांवाला बाग में पर्चे बांटता नजर आने वाला बच्चा परगत सिंह का रोल करने वाले कृष राव का किरदार एवम्  एक्टिंग दिल को छू गई। आप उसको कभी भी भूल नहीं पाएंगे।वह अपने छोटे से किरदार से पूरी फिल्म पर छा गया है।


कुल मिलाकर कह सकते हैं कि इस  चुस्त-दुरुस्त , खूबसूरत फिल्म के निर्देशक करण सिंह त्यागी काबिले तारीफ हैं कि उन्होंने सभी किरदारों को सही जगह पर फिट ही नहीं किया है  अपितु कब किस किरदार को कहां और कैसे उपयोग में लाना है इसका भी खूब ध्यान रखा है।

कम्‍पोजर शाश्वत सचदेव ने 'ओ शेरा- तीर ते ताज' गाने से फिल्म में रोमांच व देशभक्ति के जज़्बे को बढ़ाने का काम किया है। फिल्म का एक और खूबसूरत गाना 'खुमारी' - (बेक़रारी ही बेक़रारी है…) जिसे  परंपरागत और आधुनिकता को जोड़ने वाले संगीत को बनाने के लिए लोकप्रिय मशहूर गायिका कविता सेठ और उनके बेटे कनिष्क सेठ ने बनाया है।'खुमारी' ट्रैक में आधुनिकता और क्लासिक दोनों के फ्यूजन का अद्भुत जादू रचा है। इस गाने में मसाबा गुप्ता की पहली बार ऑन स्क्रीन म्यूजिकल परफॉर्मेंस चौंका देती है।


तो जाइए  बच्चों के साथ सिनेमा हॉल में जाकर देखने लायक मूवी है , क्योंकि इसकी सिनेमैटोग्राफी बेहद शानदार है और हर दृश्य दिल को छूता है 


अक्षय कुमार ने सही कहा है शुरू के दस मिनिट की मूवी मिस मत करिएगा, टाइम से  जाइएगा और मेरा सुझाव है कि आखिर तक रुकिएगा आखिर तक यानि कि आखिरी शब्द स्क्रीन पर आने तक…।वैसे भी इसका अन्त बहुत दमदार है, जो आपको जोश से भर देगा। 


 यह फिल्म अंदर तक झकझोर देती है और हमें दर्द में डूबी देशभक्ति की भावना से रंग जाती है। कुछ दर्द बहुत पावन होते है। हमें अपने देश, उसके इतिहास, आज की आजादी और शहीदों पर गर्व करने की वजह देती है यह फिल्म। 


करन सिंह त्यागी की स्वतंत्र रूप से बनाई यह पहली फ़िल्म है। उनमें  अपार संभावनाएं नजर आती हैं। यू एस में लगी अच्छी खासी जॉब छोड़कर उनका फिल्म निर्माण का रिस्क लेना जाया नहीं गया। उनसे उम्मीद है कि वे आगे भी इसी तरह की सार्थक फिल्में बना कर स्वस्थ व सार्थक मनोरंजन समाज को देते रहेंगे। उनको बधाई देते हुए मैं उनके उज्वल भविष्य की कामना करती हूँ ।

               — डॉ. उषा किरण 

सोमवार, 14 अगस्त 2023

रॉकी और रानी…. मेरे चश्मे से


हाँ जी, देख ली आखिर…! 

न-न करते भी बेटी ने टिकिट थमा कर गाड़ी से हॉल तक छोड़ दिया तो जाना ही पड़ा।सोचा चलो कोई नहीं करन जौहर की मूवी स्पाइसी तो होती ही हैं तो मनोरंजन तो होगा ही।मैं तो कहती हूँ कि आप भी देख आइए…पूछिए क्यों ?

तो भई एक तो मुझे ये मूवी लुभावनी लगी, जैसा कि डर था कि बोर हो जाऊंगी वो बिलकुल नहीं हुई, कहानी ने बाँधे रखा और भरपूर मनोरंजन किया।आलिया बहुत प्यारी लगी है उसकी साड़ियाँ देखने लायक हैं शबाना की भी। रणवीर भी क्यूट लगा है।सबकी एक्टिंग भी बढ़िया है। पुराने गानों को एक ताजगी से पिरोया गया है, खास कर "अभी न जाओ छोड़कर….” गाने का पूरी मूवी में बहुत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है…वगैरह- वगैरह ।

खैर, ये सब तो जो है सो तो है ही। परन्तु सबसे बड़ी वजह है कि  ये कहानी जो एक संदेश छोड़ती है वो बहुत जरूरी बात है।घर- परिवार किसी एक की जागीर नहीं होती उस पर सभी सदस्यों का बराबर हक है। सबके कर्तव्य हैं तो अधिकार व सम्मान भी सबके हैं ।

ठीक है भई माना कि, घर में बुजुर्गों का सम्मान जरूरी है परन्तु इतना भी नहीं कि बाकी सबकी साँसें घुट जाएं, उनकी अस्मिता को कुचल दिया जाय। परम्परा जरूरी हैं बेशक, पर उनका आधुनिकीकरण होना भी उतना ही  जरूरी है। नए जमाने में नई पीढ़ी को सुनना ज़रूरी है। उनके विचार व सुझावों का भी सम्मान होना चाहिए, वे नए युग को पुरानी आँखों से बेहतर तरीके से देख व समझ पाएंगे।

घर की बेटी के मोटापे के आगे उसकी प्रतिभा को कोई स्थान नहीं। जैसे- तैसे किसी से भी ब्याहने को आकुल हैं सब। घर का बेटा कड़क, रौबदार माँ का  फरमाबदार बेटा तो है पर वो ये भूल गया कि  वो किसी का पति, बाप का बेटा, बच्चों का बाप भी है। उनके प्रति भी उसके कुछ फ़र्ज़ हैं । बरगद की सशक्त छाँव में जैसे बाकी पौधे ग्रो नहीं करते वैसे ही कड़क दादी की छाँव में बाकी सब सदस्य बोदे हो गए। बहू और पोती रात में चुपके से रसोई में छिप कर गाती हैं, अपने अरमान पूरे करती हैं और डिप्रेशन में  अनाप शनाप केक वगैरह खा-खाकर वजन बढ़ाती हैं, जो बेहद मनोवैज्ञानिक है। ऐसे में होने वाली बहू की बेबाक राय पहले तो किसी को हज़म नहीं होतीं । उसके क्रांतिकारी प्रोग्रेसिव विचार घर में तूफ़ान ला देते हैं । घर की नींव हिला देते हैं और भूचाल ला देते हैं , परन्तु बाद में सबको शीशा दिखाती हैं।सही है, बेटे के ही नहीं बहू या होने वाली बहू के भी अच्छे सुझावों का स्वागत होना चाहिए ।

क्या हुआ यदि जीवन साथी के संस्कार अलग हैं, तो क्या हुआ यदि होने वाला पति लड़की से शिक्षा, योग्यता वगैरह हर बात में कमतर है लेकिन वो लड़की से प्यार बेपनाह करता है और लड़की के पेरेन्ट्स के सम्मान को अपने पेरेन्ट्स के सम्मान से कम नहीं होने देता। खुद को बदलने के लिए बिना किसी ईगो को बीच में लाए प्रस्तुत है। लड़की की कही हर बात का सम्मान करता है। ये छोटी- छोटी बातें दिल चुरा लेती हैं । रानी के पिता को सम्मान दिलाने के लिए उनके साथ देवी पंडाल में रॉकी का डाँस करने का सीन भी दिल जीत  लेता है। सिर्फ़ लड़की का ही फ़र्ज़ नहीं होता कि वो खुद को बदले, एडजस्ट करे ये फर्ज लड़के का भी उतना ही होता है। दोनों के पेरेन्ट्स का सम्मान बराबरी का होना चाहिए, ये बहुत जरूरी बात सुनाई देती है।

धर्मेंद्र और शबाना की लव स्टोरी भी बहुत ख़ूबसूरती से दिखाई है। कभी-कभी बिना प्यार और सद्भावना के पूरी ज़िंदगी का साथ इंसान को कम पड़ जाता है और कभी मात्र चार दिन का प्यार भरा साथ पूरा पड़ जाता है…जीवन में एक ऐसी सुगन्ध भर जाता है कि उसकी आहट होश- हवास गुम होने पर भी सुनाई देती है।

 हमने रॉकी और रानी की प्रेम कहानी बिल्कुल नहीं बताई है। अब भई यदि हमारे चश्मे पे भरोसा हो तो देख लें जाकर उनकी प्रेम कहानी और न हो तो भी कोई बात नहीं….हमें क्या😎

                                                     — उषा किरण 

मेरे चश्मे से- अभिमान

                                            *  अभिमान *                                               ऋषिकेश मुखर्जी के निर्देशन में सन् 197...