बात तीस साल पुरानी है-
कई बाइयों के आगम व प्रस्थान के बाद आखिर एक अच्छी बाई मिली `बीना ‘ जो काम अच्छा करती थी। एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगी-
`बताओ दो दिन नहीं जा पाई उनके काम पे तो लाला के बजार वाली कै रई थीं कि तुमारा कितना काम पड़ा हैगा कपड़े, झाड़ू, पोंचा, बर्तन और तुम गायब हो गईं, हैं…हम बोले भाबी जी काम तो तुमारा है हमारा थोड़ी न है…तो लगी बहस करने कि नईं तुमारा है …हमने कहा लो बोलो भाबी घर तुमारा, बच्चे तुमारे, पति तुमारा तो उनका सब काम भी तुमारा हुआ न हमारा काए कूँ होता ?’
हम धीरे से ‘हम्म…’ कह कर चुप हो गए।
`नहीं भाबी आप हमेसा सही बात बोलती हो , अब बोलो मेंने गलत कई या सई …?’
मैंने मुस्कुरा कर बात टाली परन्तु वो बार- बार पूछने लगी तो हमने कहा-
` देख बीना सारा काम भले उनका लेकिन जब तू उनसे काम के पैसे लेती है तो फिर वो काम तेरा…सीधी सी बात है !’
हम तो कह कर हट गए परन्तु वो बहुत देर तक छनछनाती रही। अगले दिन से दस दिन को गायब हो गई और मैं काम में चकरघिन्नी बनी बदहवास सी बार - बार अपने गाल पर चाँटा मारती, बड़बड़ाती…सब काम मेरा…सब काम मेरा…पर तीर कमान से निकल चुका था और सुनने वाली तो ग्यारहवें दिन पधारीं।
तो जब भी बोलो परिणाम सोच कर बोलो, वर्ना………😂😆
समझ आ गया कि बाइयों पर तीर न चलायें ..... ग्यारहवें दिन भी आ गयी ये गनीमत समझिये ....
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण ..
खूब समझ आ गई थी 😂
हटाएंबहुत खूब!!कभी कभी ऐसा भी होता है । बहुत खूबसूरत और समझदारी की सीख देता संस्मरण:-)
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी
हटाएंआपकी लिखी रचना सोमवार 5 जुलाई 2021 को साझा की गई है ,
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
आदरणीया
हटाएंमेरी रचना का चयन करने के लिए बहुत शुक्रिया 🙏
ये आदरणीया कहाँ से सीख कर आईं ?😡😡😡😡😡
हटाएंआपके `सादर आमंत्रित ‘ से 😂
हटाएं🙂🙂
जवाब देंहटाएंरोचक संस्मरण प्रिय उषा जी,
वैसे कामवाली कह तो सही रही थी कि हमारे घर का काम हमारा ही हुआ न वो अपनी जरूरतों से मजबूर वेतनभोगी सहायिका मात्र है इसलिए अपनी मनमरजी की मालकिन है।
सस्नेह।
जी श्वेता जी खूब अच्छी तरह समझ में आ गया था तभी😛
हटाएंसुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआलोक जी …धन्यवाद 🙏
हटाएंजब भी बोलो परिणाम सोच कर बोलो, वर्ना………
जवाब देंहटाएंहर घर की बात..
सादर नमन
जी बिलकुल…अब तो सीख गई😂…शुक्रिया
हटाएंवाह!रोचक संस्मरण ।
जवाब देंहटाएंआभार
हटाएंघर वालों से भले ही तू-तड़ाक हो जाए पर इनसे सदा, दिल पर पत्थर रख जुबान में चाशनी घोल, सोच-समझ कर, इनके मूड़ानुसार संवादित होने में ही भलाई है
जवाब देंहटाएंजी बिलकुल 😂
हटाएंवाह!! रोचक शैली
जवाब देंहटाएंसादर
आभार !
हटाएंबहुत खूब गहन सृजन।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सन्दीप जी
हटाएंरोचक संस्मरण आदरणीया
जवाब देंहटाएंअनुराधा जी आभार आपका🙏
हटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिए तहे दिल से शुक्रिया कामिनी जी😊
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक संस्मरण उषा जी। सच है घरवालों के साथ भले ही तू तू मैं हो जाए पर इन व्यक्ति विशेषों से जरा संभल कर कर😀😀🙏
जवाब देंहटाएंजी रेणु जी, घर वाले रूठ भी गए तो कहाँ जाने वाले लेकिन ये रूठ गए तो बस…😂
हटाएंपूरे दस दिन की सजा...
जवाब देंहटाएंओह!!!
सतर्कता का संदेश...
बहुत सुन्दर संदेशपरक हास्य मिश्रित लघुकथा।
जी सुधा जी सजा ही थी क्योंकि वो भारी व्यस्तता व बेहद कामों से भरे दिन थे😂…शुक्रिया
जवाब देंहटाएंकामवालियों से सोच समझ कर ही बात करनी पड़ती है। सुंदर संस्मरण।
जवाब देंहटाएंआपने एक सामान्य घटना की महत्ता को अच्छी तरह उजागर किया है।
जवाब देंहटाएंआभार।
बहुत आभार आपका🙏
हटाएंसुंदर संस्मरण। लेकिन हमारा समर्थन तो काम वाली के पक्ष में ही है। सेवक तो सेवित पर हावी होता ही है😀
जवाब देंहटाएंजी बिलकुल…हमने भी गल्ती मान ली थी तभी ग्याहरवें दिन हमारी निगाहें नीची थीं और उसकी त्योरियाँ ऊँची 😂🙏
हटाएंबहुत सुंदर लघुकथा।
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया अनीता जी😊
हटाएंबोलने से पहले सोचना - नेक नसीहत।
जवाब देंहटाएंजी…धन्यवाद 😃🙏
हटाएंआदरणीया मैम , अत्यंत रोचक व हास्यास्पद संस्मरण पढ़ कर मज़ा आ गया । माँ और नानी को भी सुनाया। हम तीनों हँसते-हँसते लॉट-पोट हैं । हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम ।
जवाब देंहटाएं😍🥰
हटाएंआदरणीया मैम , अत्यंत रोचक व हास्यास्पद संस्मरण पढ़ कर मज़ा आ गया । माँ और नानी को भी सुनाया। हम तीनों हँसते-हँसते लॉट-पोट हैं । हृदय से आभार इस सुंदर रचना के लिए व आपको प्रणाम ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया….आशा है अनन्ता सीख भी जरूर ली होगी😃
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