शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’ की समीक्षा प्रकाशित-
ताना बाना
मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले
तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं
और जब शब्दों से भी मन भटका
तो रेखाएं उभरीं और
रेखांकन में ढल गईं...
इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये
ताना- बाना
यहां मैं और मेरा समय
साथ-साथ बहते हैं
शुक्रवार, 11 अगस्त 2023
पुस्तक समीक्षा- पाँव के पंख
शिवना साहित्यिकी में शिखा वार्ष्णेय लिखित पुस्तक `पाँव के पंख’ की समीक्षा प्रकाशित-
रविवार, 26 फ़रवरी 2023
पुस्तक- समीक्षा:- दर्द का चंदन
समीक्षा : "दर्द का चंदन "
लेखिका : डॉ० उषा किरण
जब आशियाने का शहतीर साथ छोड़ देने वाली स्थिति में हो और उसी समय टेक बने नए लट्ठों में भी घुन लग जाए तब विश्वास की नींव की ईटों को दरकने से कौन रोक सकता है ? आशियाना संभलेगा या बिखरेगा ,बिखरेगा तो कितना कुछ काल के हाथों में होगा और कितना वहां रहने वालों के हाथों में ? इन्हीं सवालों को लिये इस उपन्यास की कहानी चलती है।
उपन्यास ," दर्द का चंदन " जिसे लिखा है चित्रकार व साहित्यकार डॉ ० उषा किरण जी ने । यह उनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक है इससे पूर्व इनका "ताना - बाना" नामक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है जिसमें कविताओं के साथ लेखिका के स्वयं के द्वारा बनाए गए रेखाचित्र भी हैं।
इस उपन्यास का आकर्षक आवरण- चित्र भी लेखिका द्वारा ही चित्रित है। चित्रकार व साहित्यकार दोनों के भावों को लिए यह उपन्यास लेखिका के जीवन -संघर्ष , अपने भाई के प्रति असीम प्रेम, ईश्वर के प्रति आस्था ,जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण लिए आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करते हुए, झेले गए कष्टों व पीड़ाओं की कहानी है। जहाँ एक ओर हर रोज मृत्यु की ओर बढ़ते अपने से दूर होते जाते अपने पिता को देखना वहीं फिर दूसरी ओर बहन-भाई का एक-एक करके कैंसर जैसी मौत का पर्याय मानी जाने वाली घातक बीमारी की चपेट में आ जाना पाठक को उस स्थिति से अवगत कराता है जब हम परिस्थितियों के जाल में फंसे कठपुतली से नाचते हैं। पीड़ाओं की स्मृतियों को आकार देने में मन बिलख पड़ता होगा तभी दर्द कविता बनकर दिल से बह उठी है, इसलिए लेखिका ने हर अध्याय के आरंभ में कविता की पंक्तियाँ भी संजोई हैं जिनमें से एक अंश-
जीवन की इस चादर में
सुख-दुःख के ताने-बाने हैं
कुछ कांटे कुछ फूल गूंथे
कुछ धूप-छांव और बारिश है
थिरकती हम सब कठपुतलियाँ
और धागे बाजीगर ने थामे है !!
यह उपन्यास लेखिका व उनके प्रिय छोटे भाई दोनों को हुई कैंसर जैसी प्राणघाती बीमारी से जूझने और दर्द को सहते चंदन मानकर जीवन तपस्या में रत रहकर एक दूसरे को हौंसला देते, माथे पर दर्द को चंदन सा धारण कर हार या जीत तक लड़ते रहने की एक प्रेरणा ज्योति है।
कैंसर के साथ इस युद्ध में हार या जीत होनी तय थी । दोनों में से कौन किस-किस तरह कैंसर के जाल से खुद को निकाल कर जीत गया और यदि जो हारा भी तो औरों को जीने का नया दार्शनिक दृष्टिकोण देकर गया। जीतने वाले ने जीतकर भी क्या - क्या खोया जिसकी भरपाई कभी न हो सकी । ऐसे अनेक सवालों के साथ उनका जवाब पाते पाठक उपन्यास को नम आंखो से पढ़ता जाता है।
यह उपन्यास अनेक लोगों को जो कैंसर या अन्य किसी भी प्राणघातक बीमारी या दुश्वार परिस्थितियों से पीड़ित हैं या घिरे हैं या उनका कोई अपना इससे दो-दो हाथ कर रहा हो उनमें जीवन के प्रति एक नई उम्मीद जगाता है और नाउम्मीदी में भी जीवन के मर्म को समझने के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है ।
लेखिका ने बेहद सरल, सहज, दैनिक जीवन की आम बोलचाल की भाषा में कैंसर के लक्षण , कारण और उपचार के विभिन्न चरणों और उस दौरान आने वाली कठिनाइयों और उनसे उबरने के लिए वैज्ञानिक ( चिकित्सीय उपचार ) व भावनात्मक दोनों तरह के उपचार का वर्णन उपन्यास में किया है ।
उपन्यास न केवल कैंसर जैसी घातक बीमारी व उससे लड़ने वालों की मनोदशा व हालातों को बयाँ ही नहीं करता बल्कि इस बीमारी में कैसे सकारात्मक रह कर व स्वयं में होने वाले परिवर्तनों के प्रति जागरूक रहकर इससे बचा जा सकता है यह भी बताता है ।
पुस्तक के बारे में लिखने को काफी कुछ लिखा जा सकता है और कहने को बहुत कुछ कहा भी जा सकता है, यह निर्भर है पाठक किस गहराई तक पहुंच पाया…जहाँ तक मैं पहुंच सका वही इस संक्षिप्त समीक्षा में पिरोने की कोशिश की है।
पुस्तक मंगाने हेतु लिंक नीचे कमेंट बॉक्स में दिया गया है...….. धन्यवाद...!!
प्रकाशक : हिंदी बुक सेंटर 4/5 - बी आसफ अली रोड़ नई दिल्ली ।मूल्य : 255/-
पुनीत राठी
मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020
पुस्तक- समीक्षा ( सात समंदर पार)
पुस्तक— सात समंदर पार
"दोस्त प्रतिध्वनि की....”
"न जाने कौन रोया है
कि अब तक
गगन का आँगन
क्षितिज का कोर भीगा है
न जाने कौन रोया है....!”
इस छोटे से गीत की एक प्रतिलिपि पितृतुल्य,श्रद्धेय पन्त जी के पास इस पुस्तक की लेखिका ,उनकी मानस पुत्री श्रद्धेय सरस्वती प्रसाद जी ने लिख कर भेजी थी ।उनका जवाब आया-".....तुम्हारा गीत पढ़ा ।एक बार नहीं कई बार ,किस मनस्थिति में इस गीत को तुमने लिखा था बेटी।धरती ,आकाश को भिगोती आँसू की बूँदें ,कि मेरी भी आँखें भर आईं ।”
हर किसी में ये सामर्थ्य नहीं होती कि वो अपनी पीड़ा व रुदन से कायनात को भिगो दे ...सुमित्रानन्दन पन्त जैसे महान कवि की आँखें नम कर दें !
" सरस्वती प्रसाद घर की इकलौती बेटी ,बड़े से घर के कई खाली कमरों से आवाज देती बन गईं दोस्त प्रतिध्वनि की...!”
" सात समंदर पार” पावन त्रिवेणी है ...इसमें तीन पीढ़ियों का संगम है ,गंगा-यमुना सी बेटियों व नातिन के प्रयासों का और लुप्त-प्राय माँ सरस्वती की ममतामयी स्मृतियों के लहराते आँचल की धारा व उनकी कल्पना से सृजित हुई परतन्त्र राष्ट्र के प्रति भाव भरी कहानी का !
ये पुस्तक नहीं बल्कि बेटियों व नातिन के द्वारा दिया गया भावभीना तर्पण है ...भावभीनी श्रद्धांजलि है ,जिसमें शीतल माहेश्वरी ने भी अपनी अंजुलि जोड़ कर इसे सतरंगी रंगों से सजा धनक सा मोहक बना अपनी भी भावान्जलि समर्पित की है ।
दो पीढ़ियों के संस्कार व कृतज्ञता जो उन्हें पुण्यात्मा माँ सरस्वती से विरासत में मिले
और स्व० माँ ने कमाए जो पुण्य, दिव्य भावों व कर्मों से उनको महसूस किया अगली पीढ़ियों ने ...उसी का सुपरिणाम है यह पुस्तक जो बहुत सुन्दर बन पड़ी है ।
मुझे नहीं लगता कि अपनी कविहृदया माँ व नानी को कोई इससे बेहतर श्रद्धांजलि दे सकता है ।माँ जहाँ भी होंगी उनकी आत्मा सुकून पा रही होगी और गौरव मिश्रित संतुष्टि की अनुभूति उनको अवश्य हो रही होगी ।
नातिन `अपराजिता कल्याणी ‘के मानस की परिकल्पना ने `सात समन्दर पार’ की कथा को इसके आवरण- चित्र में उकेरा है तथा बहुमुखी प्रतिभा की धनी `शीतल माहेश्वरी ‘ ने खूबसूरत चित्रों से पुस्तक की रोचकता-ग्राह्यता में वृद्धि की है ।खूब ब्राइट कलर से बने चित्र बहुत कलात्मक हैं और हमारी कल्पना को पंख देते हैं ।
लाल सुहाग के जोड़े में सिमटी सी बैठी नव- वधु के सामने की जमीन को भी लाल सिंदूरी रंग से चित्रित कर शीतल ने अपनी अनोखी कल्पना की कूची से कायनात पर भी सिंदूरी अनुराग छिड़क मानो प्रकृति को भी उसी रंग से रंग दिया है !
इसी तरह बच्चों के खेलते हुए रंग- बिरंगे चित्र
बेहद बोल्ड रेखाओं से सुंदर बनाए है । सात समंदर पार जाता बादलों से बात करता हवाई जहाज और समन्दर में डूबी- डूबी सपने देखती आँखें चित्रित करते शीतल के चित्र से उनकी कल्पना शक्ति का परिचय मिलता है। शीतल की सकारात्मकता व क्रिएटिविटी प्रशंसनीय है ।वे विभिन्न क्षेत्रों में नित नूतन प्रयोग व सृजन करती रहती हैं ।
भूमिका लिखी है सरस्वती प्रसाद जी की बड़ी बेटी `नीलम प्रभा’ ने। वे लिखती हैं -
" दो की एक होकर अपनी दुनिया को बसाना,
फिर उस दुनिया को और सजाने और संवारने का ख्वाब अपनी पलकों पर पालना...वो प्रवासी सपना वापिस नहीं आता...ऐसी लाखों जोड़ी आँखों में देखे गए अन्तहीन कराह का, आँसुओं से तर बयान है `सात समन्दर पार ‘की कथा ।”
पुस्तक हाथ में लेकर उलटते - पलटते रेशम सा हाथ से फिसलता है ...रंगीन चिकने उम्दा पन्नों पर टंकण-कार्य बहुत उत्तम हुआ है ।तीन पीढ़ियों के भाव- सागर में से गुजरता पाठक का मन भी जैसे अगर- कपूर सा सुवासित हो उठता है ।अक्षर- अक्षर भावान्जलि हो जैसे ! निश्चित ही लिविंग- रूम की बुक- शेल्फ में संजो कर सहेजने लायक है ये कॉफी टेबिल बुक !
लेखिका माँ सरस्वती प्रसाद की दोनों बेटियों को भी विरासत में माँ की अद्भुत, प्रभावशाली काव्यमयी चिन्तनधारा का प्रसाद मिला है ।सिर्फ लेखनी पर ही नहीं स्वरों पर भी अद्भुत पकड़ रखने वाली विलक्षण गायिका व प्रतिभाशाली कवयित्री उनकी छोटी बेटी रश्मिप्रभा भावुक हो कह उठती हैं -
"यह सब कुछ मेरे लिए त्रिवेणी का जल रहा है
जिसे छूकर कहती हूँ तर्पण, अर्पण
निरंतर, हर दिन, हर पल !”
माँ का जीवन, उनका हर पल, हर दिन पावन है बेटी के लिए ...कह उठती हैं -
" तुम्हारा जन्मदिन
तुम्हारी शादी का दिन...
तुम्हारे जाने का दिन
सब पुण्य है...!”
इस पुस्तक में उकेरी गई कहानी गुलाम भारत की एक तस्वीर प्रस्तुत करती है जब हर भारतवासी का सपना देश की आजादी के सपने के बिना अधूरा था।
अंग्रेजियत और देश- भक्ति की दो धाराएं बहती हैं शुरु में दो बच्चों के संस्कारों में ,जो हमें गुलाम भारत में ले जाती है परन्तु धीरे- धीरे किशोर से युवा हुए युगल के हर राग- अनुराग में देश-भक्ति शामिल है ...उनके हर सपने में देश की आजादी का सपना भी शामिल है।
दूसरी पीढ़ी के फिर अपने सपने हैं ...क्या हैं वे,ये तो आप किताब पढ़ कर ही जानेंगे ।
मैं इतनी सुंदर किताब के लिए जो इसमें शामिल हैं उन सभी को बधाई देती हूँ ...और श्रद्धेय माँ को सादर एक भावान्जलि समर्पित मेरी तरफ से-🙏🌺🌿☘️
— उषा किरण
पुस्तक- सात समन्दर पार ( लघु उपन्यास)
लेखिका-सरस्वती प्रसाद
प्रकाशन-रुझान
मूल्य -Rs.195
मंगलवार, 17 मार्च 2020
पुस्तक- समीक्षा
दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’
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कभी-किसी की एक रचना ऐसी आती है कि मन करता है उसका लिखा अगला-पिछला सब कुछ एक साँस में पढ़ जाएं।
रूपा पहली बात तो ये कि आपको ख़ूब लिखना चाहिए हम और पढ़ना चाहते ऐसी सुंदर जादू रचने वाली ,सम्मोहित करने वाली कहानियाँ ।
रुपा सिंह की हंस कथा मासिक में छपी कहानी 'दुखां दी कटोरी: सुखां दा छल्ला’ का चारों तरफ इतना शोर सुना तो रूपा से माँग कर पढ़ी और न सिर्फ़ पढ़ी लगातार दो बार एक ही बार में पढ़ गई कारण था पंजाबी मिश्रित मज़ेदार भाषा की वजह से मज़ा भी आया और कुछ पहली बार पढ़ने में समझने में परेशानी भी हुई और दूसरा सबसे बड़ा कारण था अंत में छल्ले के साथ आखिरी वक्त में उजागर होता बेबे का वो प्रेम जिसको नानाजी बेबे को सात तालों में बन्द करके भी नहीं बाँध पाए ।
कभी मंगेतर रही सुग्गी का बच्ची सहित छल से अपहरण करते एक बार भी पूछा नहीं उसका मन ...बस बाँध लिया साथ जैसे कोई ढोर हो ...पर दिल तो बेबे का छूट गया था न उस पार ।साथ आ गये उस रिश्ते की ख़ुशबू तो बेबे की साँसों में महकती रही अगर -कपूर सी आख़िर तक ।बेबे गाती रही मगन हो...हंसती रहीं ...बोलती ...गाली देती ताउम्र...।
".....ओय छल्लिया होया वैरी...वतन माहिया हो गया वैरी...सोहणा...वे ढोलणा....।”
धड़कनों की ताल पर गीतों में हंसने -रोने में ढलता रहा दिल का दर्द...गूंजती रही अनकही पीर ।
अंत तक पढ़ते-पढ़तेही एक झटके में जैसे भावना का ,आँसुओं का गुबार फूट पड़ता है और बहा ले जाता है अपने साथ और आप हठात् दुबारा पढ़ने को विवश हो जाते हैं ।
बाकी सबने पहले ही इतने विस्तार में इतनी सुंदर समीक्षा लिखी है कि मैं क्या लिखूँ ?
बस एक बात है कि मुझे इसमें एक नहीं दो-दो अनकही पावन प्रेम कहानियाँ नज़र आईं...एक बेबे की और दूसरी जो बेबे की नातिन और तोषी के बीच चलती है ने भी छू लिया ...अंदर तक उदास कर दिया । दूसरी कहानी बेबे के आड़ में छिपती छिपाती सी चलती रहती है बेहद लापरवाह अल्हड़ किशोरी सी ...काँगड़ी में जलती धीमी -धीमी आँच सी सुलगती सी ।
अमृतसर छूटने के बाद उसे लहना सिंह के बहाने जिसकी याद आती रही ......"कभी चाँद देखती तो आकाशगंगा से अमृत के बहते परनाले दिखते जो बगल की छत पर जाकर ठहर जाते...लेकिन अब वहाँ कोई नहीं होता ।केवल यादें ही यादें थीँ ....कौन बता सकता है किसके रौशन तन में मन के अंधेरे कैसे गाढ़े होते हैं ? ...जो पूर्णिमा की रात खीर और चुन्नी थामे चाँदनी में साथ बहता रहा... जो बचपन में कहता मैं भी चौकीदारी करूँगा ...तेरी सुंदर भूतनी की ...जो छल्ले को सीधा करता नाम पढ़ता है 'शमशेर ‘....दोनों साथ पढ़ते हैं ...रोते हैं ..समझते हैं साथ ही छिपा भी जाते हैं बेबे के रिश्ते के साथ अपना भी और सभी की गरिमा पूरी तरह निभा ले जाते हैं ...।
बेबे का अंतिम आर्तनाद “....छल्ला वैरी क्यूँ होया....ओ छल्लिया...” के पीछे कुछ और चाहतें , कुछ और सिसकियाँ भी छिपी रह जाती हैं और छोड़ जाती है हमारे मनों पर एक तीखी सी चिलचिलाती पीली धूप...!!!!!ब
स
शनिवार, 21 सितंबर 2019
पुस्तक- समीक्षा— देशी चश्मे से लंदन डायरी ; लेखिका - शिखा वार्ष्णेय
REPLY
खुशकिस्मत औरतें
ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...