ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 10 जुलाई 2022

खुशकिस्मत औरतें




ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें

जो जन्म देकर पाली गईं

अफीम चटा कर या गर्भ में ही

मार नहीं दी गईं

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पढ़ाई गईं

माँबाप की मेहरबानी से

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो ब्याही गईं

खूँटे की गैया सी

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जो माँ बनीं पति के बच्चों की

ख़ुशक़िस्मत हैं वे 

जिन्हें सौंपे गये घरद्वार

पति के नाम वाली तख्ती के

ख़ुशक़िस्मत हैं वे

जो पर्स टाँग ऑफिस गईं

पति की मेहरबानी से..!


जमाना बदल गया है

बढ़ रही हैं औरतें 

कर रही हैं तरक्की

देख रही हैं बाहरी दुनिया

ले रही हैं साँस खुली हवा में 

खुली हवा...खुला आकाश...!

क्या वाकई ?

कौन सा आकाश ?

जहाँ पगलाए घूम रहे हैं

जहरीली हवा में 

दृष्टि से ही नोच खाने वाले

घात लगाए गिद्ध - कौए !


कन्धे पर झूलता वो पर्स

जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं

ऊँची एड़ी पर साध कर

वो निकलती है घर से

बेटी के बुखार की चिन्ता 

बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता

पति की झुँझलाहटकि

नहीं दिखती कटरीना सी

मोटी होती जा रही हो

सास की शिकायतों 

और तानों का पुलिन्दा

फिर चल दी महारानी

बन-ठन के...!


ऑफिस में बॉस की हिदायत

टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए

चेहरे पर मुस्कान चिपकाइए मैडम

शॉपिंग की लम्बी लिस्ट

जीरा खत्म,नमकतेल भी

कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी

लौट कर क्या पकेगा किचिन में 

घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर

कल  है टिंकू का टैस्ट

सोच को ठेलती बस में पस्त सी 

झपक जाती है पल भर को !


ख़ुशक़िस्मत औरतें

महिनों के आखिर में लौटती हैं 

रुपयों की गड्डी लेकर

उनकी सेलरी

पासबुकचैकबुक

सब लॉक हो जाती हैं

अक्लमन्द पति की 

सुरक्षित अलमारियों में !


खुश हैं बेवकूफ औरतें

सही ही तो है

कमाने की अकल तो है

पर कहाँ है उनमें

खरचने की तमीज !


पति गढ़वा  तो देते हैं 

कभी कोई जेवर

ला तो देते हैं

कोई बनारसी साड़ी

जन्मदिवस पर 

लाते तो हैं केक

गाते हैं ताली बजा कर

हैप्पी बर्थडे टू यू

मगन हैं औरतें

निहाल हैं 

भागोंवाली  हैं 

वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!


सुन रही हैं दस-दस कानों से

ये अहसान क्या कम है कि

परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं

उनके चरणों में पड़ी हैं 

पाली जा रही हैं

नौकरी पर जा रही हैं 

पर्स टांग कर 

लिपिस्टिक लगा कर

वर्ना तो किसी गाँव में

ढेरों सिंदूरचूड़ी पहन कर

फूँक रही होतीं चूल्हा

अपनी दादीनानी 

या माँ की तरह...!


बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं 

ख़ुशक़िस्मत औरतें कि

सबको खिला कर

चूल्हा ठंडा कर

माँ या दादी की तरह

आँगन में अमरूद की 

सब्जशीतल छाँव में बैठ

दो जून की इत्मिनान की रोटी भी

अब नहीं रही उसके नसीब में…!


घड़ी की सुइयों संग 

पैरों में चक्कर बाँध 

सुबह से रात तक भागती

क्या वाकई आज भी

ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??


                         उषा किरण -



26 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना  ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 11 जुलाई 2022 को साझा की गयी है....
    पाँच लिंकों का आनन्द पर
    आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    उत्तर
    1. हार्दिक आभार!

      हटाएं
    2. बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार…किसी टैक्नीकल प्रॉब्लम की वजह से मैं लिंक पर कमेन्ट नहीं कर पा रही हूँ ।

      हटाएं
  2. कामकाजी महिलाओं की स्थिती की सटिक प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं

  3. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(११-०७ -२०२२ ) को 'ख़ुशक़िस्मत औरतें'(चर्चा अंक -४४८७) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हार्दिक आभार अनीता जी मेरी रचना का चयन करने के लिए😊🙏

      हटाएं
  4. ढेरों सिंदूर, चूड़ी पहन कर
    फूँक रही होतीं चूल्हा
    अपनी दादी, नानी
    या माँ की तरह...!
    –बच्चे भी इतना होते थे कि बाहर की दुनिया की खबर लेने की सुध नहीं होती थी... उनके अंदर अंधड़ नहीं चलता था।
    हमारी पीढ़ी में थोड़ी अकुलाहट बढ़ी... बाहर की दुनिया में बराबरी करने की और आज की पीढ़ी दो पाट में पिस रही..

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    उत्तर
    1. विभा जी हार्दिक आभार, मेरी रचना से दिल से जुड़ने के लिए 🙏

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  5. मन को झकझोरती और एक सार्थक प्रश्न पूछती बेहतरीन रचना ।

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  6. आज की आत्मनिर्भर पर खोखली होती जा रहीं, पिसती जा रहीं, लगातार छली जा रहीं महिलाओं की एकदम मुकम्मल तस्वीर उषा जी ! आपके ब्रश की तरह आपकी कलम भी बहुत सुन्दर चित्र रचती है ! बहुत बहुत बधाई !

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    उत्तर
    1. साधना जी मेरी रचना से इतनी गहराई तक जुड़ कर उत्साह बढ़ाने का बहुत शुक्रिया 🙏😊

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  7. आदरणीय , बहुत उम्दा रेखांकन नारी शक्ति की दुविधा और दारुण स्थिति का ।

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  9. सबका ख्याल रखने वाली खुद ही स्थिति नहीं सुधार पाती....बहुत सुन्दर चित्रण किया है

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  10. उफ़... कितना कड़वा सच कह डाला है.

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  11. मार्मिक सत्य की बयानी करती आपकी बेहतरीन कविताओं में से एक।

    जवाब देंहटाएं

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