ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

जीवन की आपाधापी में…!!


जीवन की आपाधापी में न जाने हमसे हमारे कितने प्रिय लोगों का हाथ और प्रिय वस्तुओं का साथ अनचाहे छूट जाता है।

नाइन्थ में मैंने वोकल म्यूजिक लिया और घर में आदरणीय `श्री परमानन्द शर्मा’ गुरुजी से विधिवत संगीत की शिक्षा लेनी शुरु की। तबले और हारमोनियम के साथ मैं और दीदी संगीत  सीखते थे। गुरुजी की मैं बहुत प्रिय शिष्या थी। उनके हिसाब से मैं बहुत टेलेन्टेड स्टुडेंट थी, जबकि मुझे खुद पर विश्वास जरा सा भी नहीं था। वे प्राय: क्लास में सिखाई जा रही बंदिशों से अलग भी खूबसूरत बंदिशें सिखाते।

गुरुजी को ज्योतिष का भी अच्छा ज्ञान था। मेरी जन्मपत्री एक दिन अम्माँ से मांग कर देखी और बहुत खुश हुए। उस दिन उन्होंने जो भी बातें कहीं वो आगे जाकर सब सच साबित हुईं। अम्माँ ने उनके परिवार को खाने पर आमन्त्रित किया और उनकी गुरुजी की पत्नि से खूब दोस्ती हो गई।अम्माँ प्राय: हम लोगों को साथ लेकर उनके घर जातीं तो कभी उनका परिवार हमारे घर आमन्त्रित रहता।

 उन्होंने सुझाव दिया कि मुझे हारमोनियम की जगह तानपूरे के साथ रियाज करना चाहिए। तब ताताजी की पोस्टिंग बुलन्दशहर में थी। वहाँ तानपूरा नहीं मिलता था तो गुरुजी दिल्ली से बस में अपनी गोद में रखकर मेरे लिए तानपूरा लाए और हमने तानपूरा संग रियाज करना शुरु किया…सचमुच रियाज में अलग ही आनन्द आने लगा। हमारा तानपूरा बेहद सुघड़ व सुँदर था। जब गुरुजी कहते कि मेरी ज़िंदगी का अब तक का  ये सबसे बढ़िया तानपूरा है तो मैं मगन हो जाती।फिर उसका कवर भी खुद बनवा कर लाए। तानपूरा मिलाना और संभालना सिखाया। टैन्थ में स्लेबस में छोटा खयाल था परन्तु गुरुजी ने बड़ा खयाल, घ्रुपद, धमार व तराना भी सिखाया। प्रैक्टिकल परीक्षा में टीचर की परमीशन से तबले पर संगत करने के लिए खुद कॉलेज आए और हमने चॉयस राग का बड़ा ख्याल वगैरह भी गाया। जाहिर है मेरी डिस्टिन्क्शन आई। मैंने गुरुजी से इलैवेन्थ तक ही, कुल तीन साल तक संगीत की शिक्षा ली फिर ताताजी का ट्रांसफ़र मथुरा हो गया और गुरुजी का साथ छूट गया। गुरुजी ने इतनी अच्छी तैयारी करवा दी थी कि ट्वैल्थ में कोई परेशानी नहीं हुई और म्यूज़िक में डिस्टिन्कशन मार्क्स मिले। 

टॉन्सिल की परेशानी की वजह से फिर बी ए में मैंने म्यूज़िक नहीं लिया और धीरे-धीरे मेरी  रुचि पेंटिंग और साहित्य की तरफ़ बढ़ती गई, संगीत छूट गया। 

गुरुजी के लाये तानपूरे की मैं बहुत संभाल करती थी।जहाँ- जहाँ ट्रांसफ़र होता मैं अपने साथ संभाल कर ले जाती रही।कभी-कभी तानपूरे पर ओम् की चैन्टिंग और सीखे रागों की प्रैक्टिस करती। 

 संस्कृत में एम ए किया और फिर पेंटिंग में एम ए करते बीच में शादी भी हो गई। अम्माँ बोलीं अब इसे तुम अपने साथ ले जाओ हमसे नहीं संभलेगा। तो ले आए ससुराल, बड़े प्यार से गोदी में रखकर। ससुराल हमारी भरा-पूरा कुनबा थी। वहाँ सबके लिए तानपूरा भी एक अजूबा था। सबके हिस्से में एक- एक कमरा बंटा था। पी-एच॰ डी० की पढ़ाई के साथ जॉब, फिर बेटी हुई तो किताबों , खिलौनों और नैपियों  के बीच विराजमान तानपूरे को भी वहीं संभालना होता था। कमरा छोटा लगने लगा। घर तो बड़ा था परन्तु कई शैतान बच्चों के रहते उसे कहीं और नहीं रख सकती थी। तानपूरा बहुत नाजुक होता है तो बहुत संभालने की जरूरत होती है। बहुत संभालने पर भी कुछ डैमेज हो गया।

 मेरे दिल की नाजुक रगों से उसके तार बंधे थे। मेरे गुरुजी की कुछ ही सालों बाद कैंसर से डैथ हो गई थी उस समय तक उनके बच्चे भी सैटिल नहीं हुए थे। पता नहीं क्या हुआ सबका…।गुरुजी जिस तानपूरे को गोद में रखकर लाए थे उसको मैं किसी हाल में खुद से दूर करना नहीं चाहती थी। तानपूरा मुझे यह भी याद दिलाता था कि एक सुप्त पड़ी कला है मुझमें, कभी मौका लगा तो फिर से सुरों से सुरीला होगा जीवन। बेशक अभी जीवन से संगीत दूर हो गया हो। लगता जब गुरूजी की इतनी फेवरिट थी तो कुछ तो प्रतिभा रही ही होगी ?

    फिर एक दिन मजबूर होकर अपना प्रिय तानपूरा मैंने अपनी एक बहुत प्रिय सखी को सौंप दिया क्योंकि वे उन दिनों संगीत सीख रही थीं । कुछ सालों बाद अपना शौक पूरा होने पर उन्होंने मुझसे पूछ कर वह किसी और जरूरतमंद को दे दिया। 

उसके बीस साल बाद मैं बहुत बीमार पड़ी। जब  बीमारी से उभरी तो भैया के जिद करने पर एक गुरुजी से फिर से संगीत सीखना शुरु किया। तब कहीं से एक तानपूरे की व्यवस्था की। लेकिन उसका बेहद डार्क कलर और बृहद बेडौल  तूम्बा होने के कारण मुझे ज़रा नहीं भाता था।पूरे समय अपना सुनहरी आभायुक्त, यलो ऑकर व बर्न्ट साइना कलर का सुन्दर तानपूरा याद आता जो अजन्ता व एलोरा में उकेरी नारी सौन्दर्य की क्षीण कटि और पुष्ट व सन्तुलित अधोभाग वाली सुन्दरियों सा साम्य रखता था।

आज जब भी किसी गायक को तानपूरे संग गाते देखती हूँ, तो अपने  तानपूरे को याद करके मेरे मन में एक हूक सी उठती है, मन विचलित हो उठता है कि काश….!!

      "जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला

      कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूं,

      जो किया, कहा, माना उसमें भला बुरा क्या…

      जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,

      जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,

      जीवन की आपाधापी में कब वक्त मिला…।”

                                      —उषा किरण 

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023


 ताताजी को लगता था कि मुझे लुकाट बहुत पसन्द हैं, हैं तो आज भी। वो इसीलिए खूब भर- भरके मंगवाते थे। लेकिन क्यों पसन्द थे ये उनको नहीं पता था।नाइन्थ क्लास में जब बुलन्दशहर में पढ़ती थी तब एक दिन जिस थैले में लुकाट आये उस पर जब ध्यान गया तो बेहद खूबसूरत मोती जैसी लिखाई में नीली स्याही से कविता लिखी थीं। आजतक मैंने वैसी सुघड़ लिखाई किसी की नहीं देखी। कविता क्या थीं, ये अब नहीं याद परन्तु उन कविताओं ने तब मन मोह लिया था।मैंने वो लिफ़ाफ़ा अपने पास सहेज कर रख लिया। खूब शोर मचा कर कहा लुकाट मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, फिर कई दिनों तक वैसे ही कविताओं में लिपटे लुकाट रोज आते रहे। मैंने मोहन से कहा रोज उसी से लाना जिससे कल लाए थे, उसके लुकाट बहुत मीठे थे। मैं लुकाट खाती और लिफ़ाफ़े को सहेज लेती। कई दिन तक आती रहीं ।पता नहीं किसकी कॉपी या रजिस्टर थे जो रद्दी में बिक गये…।पता नहीं कभी वे कविताएं लोगों तक पहुँची भी या नहीं? तब गूगल भी नहीं था जो सर्च कर पाती। कई साल तक सहेज कर रखीं, फिर जीवन की आपाधापी में कहीं गुम हो गईं । 

शादी के बाद पति को पता चला मुझे लुकाट पसन्द हैं तो मौसम आने पर वे भी लाने लगे, लेकिन बिना कविताओं के लुकाट में अब वो मिठास कहाँ…?

Anjum Sharma की पोस्ट पढ़ कर पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो गईं।सच है जाने कितनी प्रतिभाएं यूँ ही बिना साधन व प्रयास के गुमनामी के कोहरे में लिपटी गुम हो जाती हैं …!!!

—उषा किरण 

बुधवार, 29 सितंबर 2021

हर घर कुछ कहता है





मुझे बचपन से ही लगता है कि जिस तरह इंसान की व अन्य जीव- जन्तुओं की रूह होती है उसी प्रकार हर मकान की और पेड़ -पौधों की भी अपनी रुह होती है। उसमें रहने वाले प्रणियों के साथ-साथ वो भी साँस लेते हैं और न सिर्फ़ सांस लेते हैं, अपितु उनके सुख-दुख के मौसम उन पर से भी होकर गुजरते हैं।


मकान जब घर बनते हैं तो वे भी जीवित हो जाते हैं।उनमें भी प्राण- प्रतिष्ठा हो जाती है। सालों हमारे साथ रहते मकानों का वजूद हमारी साँसों पर टिका रहता है।वे हमारी साँसों से ही साँस लेते हैं ,उनकी और हमारी प्राणवायु एक हो जाती है।हमारे सुख-दुख में साथ हंसते रोते हैं। मकान ही नहीं, वहाँ के पेड़-पौधे, पक्षी, भी हमारे सगे-संबंधी से हो जाते हैं। हम जब उनको छोड़ कर चले जाते हैं, तो वे श्रीहीन हो जैसे निष्प्राण हो जाते हैं ।


दरअसल ताताजी( अपने पापा को हम ताताजी कहते थे ) का जॉब ट्रान्फरेबल था, तो दो- तीन साल में ट्रान्सफर हो जाता था। नए शहर में नए सिरे से डेरा जमाना होता। हम लोगों ने  इस कारण बहुत से शहर देखे।भाँति-भाँति की संस्कृतियों से परिचय हुआ।अनेक प्रकार की बोलियाँ,खानपान, पहनावा व स्वभाव देखने को मिलते रहे। हर शहर के खाने व पानी का स्वाद तो अलग होता ही है, हर शहर की अपनी रूह ,अपना अलग ही रंग व मिजाज भी होता है।


शहर ही क्यों हर घर का भी अपना अलग मिजाज, अपनी अलग खुशबू  भी मुझे महसूस  होती थी। इतना ही नहीं मुझे लगता है कि हर घर की भी अपनी एक रुह होती है। जब  भी ट्रान्सफर के बाद किसी नए शहर में, किसी नए मकान में डेरा जमाया तो वो उखड़ा सा, उजाड़ और उदास सा मिला। धीरे-धीरे हम उसके और वो हमारा हो जाता। कुछ ही  महिनों में वो मकान घर में तब्दील हो हमारा हमनवाज़ बन चहक उठता। लेकिन एक दो साल बाद अगले ट्रान्सफर पर सारा सामान ट्रक में लद जाने के बाद दुबारा उजाड़, उदास हुए मकान को डबडबाई आँखों से देख उससे   विदा लेते, हम गले मिल मूक रुदन रोते।सालों बाद भी मुझे बचपन से लेकर अब तक रहे हर घर की याद हमेशा को पीछे छूट गए किसी  दोस्त की तरह ही सताती है। हर घर से मेरा एक नए रंग का रिश्ता बना।


किसी घर के बाहर लगे गुलमोहर व अमलतास की सुर्ख- जर्द छाँव, किसी का बड़ा सा आंगन और कोने पर लगे अमरूद, अनार, किसी के आँगन में अमरूद पर छींके में बंधे लटकते कद्दू , किसी आँगन में आम से लदी झुकीं डालियाँ,किसी के पीछे से जाती रेलगाड़ियों की छुक-छुक , बरसों याद आती रहीं। इलाहाबाद व बनारस का गंगा घाट, नैनीताल,अल्मोड़ा की बारिशें,पहाड़िएं व झील, लखनऊ के हज़रतगंज की चाट व कुल्फी, मैनपुरी का कपूरकंद, अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंगोड़ा, भी खूब याद आते।


 ताताजी का ट्रान्सफर होने पर फिर नया शहर ,नया मकान ,नया स्कूल।सब कुछ अजनबी सा लगता। लोग तो अजनबी लगते ही, यहाँ तक कि दुकानें, पार्क, सड़कें, पेड़-पौधे भी अपरिचित से लगते।  हर बार शहर ही नहीं सहेलियाँ व स्कूल भी छूट जाते। नई सहेलियाँ बनाने में  वक्त लगता। जब तक नए शहर में कुछ मन लगना शुरु होता कि दुबारा ट्रान्सफर का ऑर्डर आ जाता। इस सबसे मेरा बहुत दिल टूटता। हर समय रोना सा आता रहता।शायद इसी वजह से बचपन से ही मन के किसी कोने में वैराग्य का पौधा स्वयम् ही पनप गया था।


मुझे याद आता है कि कई घरों से कोई भूत या चुड़ैल का किस्सा भी जुड़ा रहता था। जो कि वहाँ पिछले वाले साहब के साथ काम कर चुके कर्मचारी लोग अम्माँ को बहुत धीरे से फुसफुसा कर सुनाते थे, लेकिन सबसे पहले मेरे ही कान सुनते उनको।उनमें से कुछ भूत तो वहीं सोते छूट गए पर कुछ मेरे सपनों में जब- तब घुसपैठ करते सालों तक हमारा खून सुखाते, रात में अमरूद के पेड़ पर तो कभी पीपल के पेड़ पर लटक कर दाढ़ी हिला-हिला कर हंसते हमें डराते रहे।


पीलीभीत की हाजी जी की बहुत विशाल कोठी के आधे भाग को उन्होंने हमें किराए पर दिया हुआ था।बाकी आधे में वे स्वयम् तीन बीबियों और बच्चों के साथ रहते थे। बढ़ी बीबी का काम था घर का मैनेजमेन्ट देखना, दूसरे नम्बर की हर वक्त हाँडी और रोटियाँ पकाती रसोई में ही घुसी रहतीं और तीसरी सबसे छोटी मशीन पर कपड़े सिलती रहती थीं। कभी बहुत सम्पन्न रहे हाजी जी की माली हालात कुछ ठीक नहीं थे अब। दोनों घरों के बीच की दीवार में एक दरवाजा था जिसकी कुंडी दिन में हमेशा खुली रहती थी और हमारी अम्माँ व हाजी जी की बीबियाँ काम के बीच में मौका देख दरवाजे पर ही खड़े-खड़े खूब बतरस का आनन्द लेतीं।


प्राय: पहले दो घरों के आंगन के बीच की दीवार कॉमन होती थी और उसमें एक दरवाजा होता था जिसका खुलना व बन्द होना दोनों घरों के मालिकों के आपसी संबंधों पर निर्भर रहता था। अम्माँ खूब मजे लेकर सुनाती थीं कि`ललितपुर में श्रीवास्तव साहब का और हमारा बीच का दरवाजा खुला ही रहता था तो तुम छोटी सी थीं उनकी रसोई से एक छोटा लोटा लाकर हमेशा अपने घर के बरतनों में रख देती थीं। जब ट्रान्सफर हुआ तो उन्होंने भरे मन से चलते समय वो लोटा तुमको ही दे दिया।’


जहाँ भी ट्रान्सफर होकर हम लोग जाते हफ्ते भर में ही अम्माँ की आस-पड़ोस में आन्टी लोगों से अटूट दोस्ती हो जाती।कभी डोंगों की अदला-बदली होती तो कभी चीनी, नमक, दही का जामन या कोई दवाई के आदान-प्रदान के लिए बच्चे इधर से उधर दौड़ लगाते रहते। कभी साथ में बड़िएं, अचार बन रहे हैं, तो कभी चिप्स-पापड़, कभी जवे बन रहे हैं तो कभी स्वेटर के डिजाइन सीखे जा रहे हैं। दीवाली, होली पर हमारे यहाँ से मिठाइयाँ, गुझियाँ हाजी जी के यहाँ पहुँचते तो ईद पर हाजी जी की तरफ से कोई उनका कारिन्दा सीधे हलवाई के यहाँ से गर्मागर्म कचौड़ी, सब्जी, रबड़ी व मिठाइयों का टोकरा सिर पर रखे लिए चला आता।रामप्यारी मौसी के हाथ की सब्जी और तन्दूर में लगाई रोटियाँ हमें बहुत पसन्द थीं तो वे एक कटोरी सब्जी और दो तन्दूर की रोटियाँ जब- तब हमारे लिए लिए चली आती थीं।


ट्रान्सफर होने पर मोहल्ले के लोगों की भीड़ लग जाती और नम आँखों से, भरे गलों से हम लोगों की मार्मिक विदाई होती इसका श्रेय अम्माँ की व्यवहारकुशलता व अपनत्वपूर्ण व स्नेहसिक्त व्यवहार को ही जाता था।


पीलीभीत में पुराने साहब लोगों के साथ काम कर चुके मोहर ने एक बार बताया-"अब का बताएं बहू जी हम सुने जौन कमरा मा आप लोग सोवत हैं उसी के आले में पीर साहब का वास रहिन। हम पिछली वाली बहूरानी को कहत सुने।” हम आस-पास ही खेल रहे थे, सुनते ही हमारे प्राण कन्ठ तक आ गए लगा बस आज की रात हमारी ही गर्दन पीर साहब नापने वाले हैं ।


अम्माँ ने हाजी जी की बड़ी बेगम से इस बाबत पूछा तो उन्होंने कहा कि " हा बीबी, जब हम उसमें रहते थे तो हमने उसे पीर साहब का आला बनाया था, डर की कोई बात नहीं, वो आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचाएंगे बस आप कोई ऐसी- वैसी चीज मत रखिएगा उसमें !” अम्माँ ने बताया कि हम तो बस चाबियों के गुच्छे रखते हैं तो उन्होंने कहा कि" ठीक है कोई बात नहीं।”


ऐसे ही बलिया वाले घर के एक कमरे में चुड़ैल की सूचना मोहन से मिली, तो मथुरा वाले घर के स्टोर में किसी भूत के वास की भी चर्चा हुई। लेकिन हमारी अम्माँ और ताताजी ने कभी भी उन बातों को गम्भीरता से नहीं लिया बस अफवाह मान कर उड़ा दिया, लेकिन हम बच्चों के सपनों में उनका तान्डव जारी रहता और हमारा  खून ही सूखता रहता था।


इसी तरह शादी के बाद हम सालों जिस पुश्तैनी मकान में रहते थे उसकी कई स्मृतियों में बन्दरों की घटनाओं की भी कई स्मृतियाँ हैं। जब बन्दरों का अटैक होता तो कई दिनों तक लगातार झुंड के झुंड आते ही चले जाते थे। जिस साल शादी हुई तब इन्वर्टर, जैनरेटर तो होते नहीं थे तो लाइट जाने पर तिमंजले की छत पर ही जाकर सो जाते थे। एक दिन मैं तो सुबह ही उठ कर नीचे आ गई। थोड़ी देर बाद देखा कि बराबर की छत पर बन्दर बैठा तकिया फाड़ कर कूद- कूद कर सड़क पर रुई उड़ा रहा है और सड़क चलते लोग देख कर हंस रहे हैं। उसकी हरकतों पर हमें भी हंसी आ गई।हमने सोचा कि सिंह साहब अभी ऊपर ही सो रहे हैं कहीं बन्दर काट न ले तो  जाकर जगा दें। ऊपर गए तो देखा उनके सिर के नीचे से तकिया गायब है। हमारी हंसी गायब हो गई ,समझ आया वो हमारे ही तकिए की धज्जिएं बिखेर रहा था।


एक दिन कमरे की खिड़की खुली रह गयी तो जैसे ही मैं कमरे में घुसी तो धक् से रह गई कमरे का एक भी सामान ठिकाने पर नहीं थी। कुशन फटे पड़े थे, एलबम की चिंदियाँ उड़ रही थीं कई कैसेट की रीलों के गुच्छे परस्पर गुँथे पड़े थे कुछ कपिराज के गले में हार सी शोभा पा रहे थे।और दो कपि युगल हमारे नर्म गद्दों पर रजाई सिर से ओढ़ कर कूद रहे थे।हमारी चीख सुन कर दाँत निकाल खौं- खौं करके खिड़की से कूद बाहर भाग गए और जाते- जाते भी ड्रेसिंग टेबिल पर रखी हमारी रिस्टवॉच भी ले गये।


ऐसे ही कभी बच्चों के मुँह से बोतल छीन के ले गये तो कभी चश्मा या कपड़े, कभी फ्रिज से छिली रखी पाँच किलो मटर के दाने का पैकिट ले जाकर पूरी सड़क पर बिखेर दिए, कभी आम की दावत उड़ाई। तीनों कमरों के बीच में दो बड़ी- बड़ी खुली छतें थीं तो बन्दरों का खूब आतंक रहता था। मेरा भी सारा डर निकल गया। कई बार हम एकदम आमने- सामने टकरा जाते थे, पर मैं दृढ़ता से स्थिर खड़ी रह कर उसकी आँखों में टकटकी लगा कर देखती रहती। पापा का बताया ये फॉर्मूला बहुत काम आता था और उल्टा बन्दर ही डर कर भाग जाते थे।


एयर गन और कई डंडों का इंतजाम हम हमेशा रखते थे।प्राय: एयर गन देखते ही बन्दर तेजी से डर कर भाग जाते थे। लेकिन हमें इस बात की बेहद हैरानी है कि हर मोहल्ले के बन्दरों का  मानसिक बल भी अलग ही होती है। जब हम दूसरे मकान में शिफ़्ट हुए तो वहाँ के बन्दरों पर एयर गन का जरा भी असर नहीं होता था। हम कन्धे से लगा कर एक आँख बन्द कर चाहें कितनी ही नेचुरल पोज़ीशन साधें पर मजाल है जो किसी बन्दर पर जरा भी फर्क पड़ता हो आराम से पूँछ हिलाते सामने से टहलते निकल जाते और हम हैरान दाँत किटकिटा कर रह जाते।


मुझे याद है ताताजी के गुजर जाने के कुछ दिनों बाद,भैया की परेशानी में जब हम चारों भाई-बहन पापा का बनवाया मकान बेचने के लिए मैनपुरी गए और सुनसान घर का ताला खोल कर जब अन्दर प्रवेश किया तो हमारे अन्तस में भी सन्नाटा पसर गया ...कंठ अवरुद्ध हो गया। मुझे एक ही बात की हैरानी हो रही थी और मैं भरे गले से बार-बार यही बुदबुदा रही थी कि,`ये घर सिकुड़ कर इतना छोटा कैसे हो गया...जो घर इतना विशाल था, इतना रौशन था, हर समय जगमग करता था उसमें अब भरी दोपहर में भी इतना अँधेरा कैसे भर गया ?’ मेरे आँसू थम ही नहीं रहे थे।


 घर वालों के बिना वो हमारा  घर एकदम अनाथ, उजाड़ और बेनूर सा लग रहा था।उजड़े पड़े इसी आँगन में कभी, कैसी चहल-पहल भरी होती थी। अम्माँ के महकते ममतामयी आँचल के साथ  इसी चहकते आँगन का भी मानो इतना विस्तार बढ़ जाता था कि ओर-छोर ही नजर नहीं आता था। हम सब जब जाते तो अपनी थकान और परेशानियों को भूल, सुकून में डूब कर गुम ही हो जाते।


रिटायरमेंट से पहले ही गाँव पास होने के कारण ताताजी ने मैनपुरी में बहुत प्यार से कोठी बनवाई , जिसका नक्शा भी खुद ही बनाया था और रिटायरमेंट के बाद वहीं रहने लगे थे। 


इसी आँगन में जब अम्माँ अपना पोर्टेबल चूल्हा रख कर पीढ़े पर बैठ बड़ी सी कढ़ाई में गाजर का हलुआ घोंटती, साग, मक्का की रोटी, कढ़ी, दही बड़े, बिरियानी, कोरमा वगैरह प्रसन्नता से दमकते मुख से पकाती थीं, तो हम और हमारे बच्चे उनके चारों तरफ चहकते-लहकते चक्कर काटते रहते।


ताताजी भी बीच- बीच में आकर हमारी हा-हा,ठी-ठी और बतकही के बीच शामिल हो जाते।अपने शिकार के और जंगलों के किस्से सुनाते, तो कभी विद्यार्थी जीवन की शैतानियाँ सुनाते। मुझे प्राय: छेड़ते- "देखो ये इतनी तनख़्वाह ले रही है, बच्चों को बेवकूफ बनाने की, अरे पेंटिंग भी कोई पढ़ाने का सब्जेक्ट है ?” 


हम लोगों के आने से पहले ही ताताजी पपीते, शरीफे, आम, चीकू तोड़ कर पेपर में लपेट कर कनस्तर में रख कर पकने रख देते थे और हम लोगों को बहुत प्यार से निकाल कर खिलाते थे।


खाने पीने का न कोई टाइम रहता, न ही सीमा। भरे पेट पर भी पकौड़ी बन जातीं, तो कभी भर गिलास काँजी के बड़े या भर गिलास मट्ठा लेकर हम सब खाने-पीने बैठ जाते। कभी ठंडाई पिसती, तो कभी चाट बन रही होती।अचानक कपूरकन्द की या जलेबी की फरमाइश पर मोहन साइकिल ले बाजार भागता। कितना ही खा-पी लें लेकिन पेट और मन ही नही भरता था हमारा। बाद में झींकते कि "हाय राम कितना वेट बढ़ गया।” 


लौटते समय अम्माँ के हाथ की प्यार भरी सौगातें-अचार,पापड़, मुरब्बे ,बड़िएं, लड्डू ,मठरी ,गुझियाँ, बेसन के सेब वगैरह हमारे साथ बंधे होते।मौसम के अनुसार अम्माँ हम लोगों के हिस्से के अचार, पापड़ वगैरह बना कर रखती थीं। 


इसी उदास, उजाड़ आँगन की तब कैसी शोभा होती थी। बाहर के बरामदे के साइड में सुगन्धित गुलाबी फूलों से लदी बेल व घनी मधुमालती के सघन, सुगन्धित कुंज से आच्छादित बरामदे की सीढ़ियों के पास का कोना हम बहनों की सबसे मनपसन्द जगह थी। तरह- तरह की चिड़ियों की मनमोहक चहचहाहट सुनती मैं वहीं भीनी-भीनी सुगन्धित शीतल छाँव में सीढ़ियों पर बैठी शिवानी या अमृता प्रीतम का कोई उपन्यास और काँजी, चाय या फेट कर बनाई खूब झागदार कॉफी का मग लेकर घंटों बैठी रहती।


 सुबह लॉन की हरी घास के कोने में हरसिंगार के नीचे ओस से भीगे श्वेत-केसरिया फूलों की सुगन्धित, शीतल चादर सी बिछ जाती। मैं रोज सुबह उठ कर वहाँ जाकर लेट जाती। फूल-पत्तों से छन कर आती सुबह की सुनहरी किरणें चेहरे पर अठखेलियाँ करतीं।ओस-भीगे फूल जैसे तन-मन का सारा सन्ताप व थकन हर कर तुष्टि से भर देते और मैं गुनगुनाती हुई बहुत देर तक अलसाई सी वहीं पड़ी रहती। अम्माँ को जोर से चिल्ला कर कहती "अम्माँ हमारी चाय यहीं भिजवा दो !”

ताताजी भी प्राय: पास में कुर्सी डाल कर पेपर लेकर बैठ जाते।


कभी कोई पेन्टिंग बना कर, तो कभी कुम्हार के यहाँ से मिट्टी मंगवा कर मैं कोई मूर्ति गढ़ती, पुआल-उपलों में पका कर, कलर करके घर में सजा आती। ताताजी, अम्माँ बहुत खुश होते। आने-जाने वालों को मगन होकर आर्टिस्ट बिटिया के करतब दिखाते।


वही घर-आँगन था, वही पेड़-लताएं ...पर आज श्रीहीन, स्तब्ध खड़े थे मानो सब।अब न हमें रंग-बिरंगे फल-फूल नजर आ रहे थे और न ही वे पेड़ों पर चहकते ,फुदकते रंग- बिरंगे सुग्गा,पंछी। हम सबकी आँखें बरस रही थीं।उस उजड़े, सूने आँगन में स्तब्ध-अवाक खड़े हमें अपने अनाथ हो जाने का अहसास पहली बार इतनी शिद्दत से मर्माहत कर रहा था।


उसके नए मालिक को चाबियों के साथ उस घर की धड़कनें सौंपते, मन ही मन अपने प्राणप्रिय उस घर से माफी माँगी, जिसकी एक-एक ईंट ताताजी ने बहुत प्यार से रखी थी।मन पर बहुत भारी बोझ लेकर हम लोगों ने अपने घर से अन्तिम विदा ली।गाड़ी में बैठ, घर पर प्यार भरी अन्तिम दृष्टि डाल मैंने आँखें मूँद प्रार्थना की कि नए मालिकों का होकर मेरा घर फिर से हरा-भरा हो खिलखिला उठे और खूब शुभ हो नए मालिकों के लिए ये हमारा सपनों का घर।


 घर की भी आत्मा होती है ये मैंने दो बार महसूस किया है।एक तो मैनपुरी के मकान को बेचने के बाद जब वहाँ आँगन में खड़ी थी तब और दूसरी बार तब, जब हम लोगों ने अपने ससुराल का पुश्तैनी मकान खाली कर ताला लगाया।


अम्माँ व बाबूजी के गुजर जाने के बाद, समय के साथ जब परिवार बढ़ा तो जगह की कमी व सौ साल पुराने मकान की जर्जर हालत देख कर अपनी सुविधानुसार तीनों भाई सालों साथ रहने के बाद अपने-अपने अलग घर बनवा कर  उनमें शिफ्ट हो गए। मुझे बेहद आश्चर्य हुआ ये देख कर कि हमारा वो पुश्तैनी मकान साल भर में ही ढहने की स्थिति में आ गया। आज भी जब सपना कोई देखती हूँ तो उसकी बैकग्राउंड में वही पुश्तैनी मकान दिखाई देता है जबकि बीस- इक्कीस साल पहले ही उसे छोडकर हम दो और मकानों में शिफ्ट हो चुके है।हम लोगों को अहसास होता है कि उस घर में पितरों के आशीष भी हमारे साथ थे। दो पीढ़ियों की पढाई-लिखाई, कैरियर व कई शादी- ब्याह वहीं से सम्पन्न हुए। खानदान के कई और बच्चे भी हमारे घर में रह कर पढ़ लिख कर ऊँची उड़ानों पर निकले। दूर-दराज के रिश्तेदारों की जाने कितनी लड़कियों को अपनी कोई साड़ी पहना कर तैयार करके दिखाने की ज़िम्मेदारी भी खूब निभाई हमने


रिटायरमेंट से दो साल पहले ही जब हमने बीस सालों से रह रहे मकान को खाली किया तो प्यार से बनाए अपने सपनों के घर में जाने की बेहद ख़ुशी तो थी लेकिन बाहर से दीवार को पार  कर आँगन में लम्बी - लम्बी बाहें फैलाए आमों से लदे ,अपने प्रिय आम के पेड़ से गले लग विदा ली तो आँखें नम हो गईं। मेरे जाने कितने सुख- दुख का साक्षी रहा वो। कॉलेज आते-जाते प्राय: मैं उसके गले लग जाती। जिंदगी में न जाने कितने पेड़- पौधे आए लेकिन उसके साथ किन्हीं कारणों से मैं एक विशेष रिश्ता महसूस करती थी, जैसे सुख-दुख का साथी …अभिन्न मित्र !


#विदा_दोस्त...!!


आज मैंने पीछे, दरवाजे के पास लॉन में

त्रिभंग मुद्रा में खड़े प्यारे दोस्त आम के पेड़ से

लता की तरह लिपट कर विदा ली 


उसके गिर्द अपनी बाहें लपेट कर 

कान में फुसफुसा कर कहा

अब तो जाना ही होगा

विदा दोस्त...!


तुम सदा शामिल रहे 

मेरी जगमगाती दीवाली में

होली  की रंगबिरंगी फुहारों में

मेरे हर पर्व और त्योहारों में  


और साक्षी रहे 

उन अंधेरी अवसाद में डूबी रातों के भी

डूबते दिल को सहेजती 

जब रो पड़ती तुमसे लिपट कर

तुम अपने सब्ज हाथों से सिर सहला देते


पापा की कमजोर कलाई और

डूबती साँसों को टटोलती हताशा से जब 

डबडबाई आँखों से बाहर खड़े तुमको देखती

तो हमेशा सिर हिला कर आश्वस्त करते 

तुम साक्षी रहे बरसों आँखों से बरसती बारिशों के 

तो मन की उमंगों के भी


तुम कितना झूम कर मुस्कुरा रहे थे जब

मेरे आँगन शहनाई की धुन लहरा रही थी

ढोलक की थापों पर तुम भी

बाहर से ही झाँक कर ताली बजा रहे थे

कोयल के स्वर में कूक कर मंगल गा रहे थे


पापा के जाने के बाद तुम थे न…

पावन-पीत दुआओं सी बौरों से 

आँगन भर देते और

अपने मीठे फलों से झोली भर असीसते थे…!


मैं जरूर आऊँगी कभी-कभी  तुमसे मिलने

एक पेड़ मात्र तो  नहीं हो तुम मेरे लिए

कोई  जाने न जाने पर तुम तो जानते हो न 

कि क्या हो तुम मेरे लिए…!


अपनी दुआओं में याद रखना मुझे

आज विदा लेती हूँ दोस्त

फ़िलहाल…अलविदा...!!!


                     — उषा किरण

बुधवार, 7 जुलाई 2021

बड़ी बी



मात्र बच्चे, पति, पत्नि, रिश्तेदारों से ही परिवार पूरा नहीं होता बल्कि गृहस्थी की नींव में जाने कितनी अन्य महत्वपूर्ण इकाइयों का योगदान मिल कर उसकी नींव को सुदृढ़ बनाते हैं। 

परिवार को सुदृढ़ व सुचारू रूप से चलाने में हमारे सहायकों का भी बहुत योगदान होता ही है। हमारी तरक्की, हमारी खुशी, हमारे चैन, विश्राम, सुचारू व्यवस्था, समाज में रुतबा, शाही खान-पान में भी इनका योगदान है ।औरों का तो नहीं जानती लेकिन मेरी जिंदगी में तो हमेशा रहा ही है ये मैं खुले दिल से स्वीकार करती हूँ।

जब- जब छुट्टी करने या काम छोड़ देने से इनका सहयोग नहीं मिला तो हमेशा मेरी गाड़ी पटरी से उतर जाती। तब आराम, बढ़िया पकवान, हॉबीज , सुव्यवस्था, पार्टी वग़ैरह मेरी  दिनचर्या से गायब हो जाते रहे।

दूसरे शहर जाकर जॉब करने, बच्चों के पालन-पोषण, रुटीन कामों के बाद अपने आराम , मनोरंजन, पेंटिंग व लेखन के अपने शौक आदि को जारी रख पाने लायक समय व शक्ति को बचा कर रख पाने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है।

पहले वॉशिंग मशीन तो होती नहीं थीं तो जो मेरे घर के कपड़े प्रैस करने के लिए ले जाते थे शराफत मियाँ, उनकी ही बीबी को हमने कपड़े धोने पर लगा लिया। सब उनको बड़ी बी ही कहते थे।उनके सात बच्चे थे। तीन लड़के और चार लड़कियाँ। पाँचवी उनकी देवरानी की थी ,जब उसका इन्तकाल हुआ तो उसे भी बड़ी बी ने ही पाल लिया इस तरह उनकी  कुल आठ संतानें थीं।

उनके लड़के जितने सुस्त और औंघियाए हुए थे बेटियाँ उतनी ही चटर- पटर व तितली सी रंगीन व फुर्तीली। वे प्राय: साथ- साथ जोड़ों में आती थीं।और जब तक मैं कपड़े लिख कर गठरी बनाती वे कमरे की चौखट पर बैठी, आँखें गोल-गोल घुमाती कुछ न कुछ मुझसे पूछती रहतीं या अपनी सुनाती रहती थीं।

उनकी माँ बड़ी बी भी  कम बातूनी नहीं थीं, तो मौके- बेमौके हमें पकड़ कर वो भी अपनी कुछ न कुछ दास्तान सुनाने लगतीं ।वे दिन मेरे बेहद व्यस्तता भरे थे। बच्चे छोटे थे तो जॉब, गृहस्थी और बच्चों के कामों में सारे दिन चकरघिन्नी बनी रहती। लेकिन उसको इग्नोर नहीं कर सकती थी वर्ना न जाने कब एक ईंट मेरी गृहस्थी की सरक जाए और मैं ही अगले दिन से थपकी लेकर धमाधम ...। यदि कभी उनकी बात पर तवज्जो न दे पाऊं तो कह देतीं 'ऐ लो जी तुमाए पास तो टैम ही नहीं होता हैगा हमारी बात भी सुनने का।’ 

मैं हंस कर कहती 'अरे सुन तो रही हूँ बड़ी बी, सुनाती जाओ काम हाथ से कर रही हूँ पर कान तुम्हारे ही हैं !’

तो...पता नहीं उन माँ बेटियों को मुझे ही अपने इतने किस्से जाने क्यों सुनाने होते थे ये मुझे आजतक समझ नहीं आता। बड़ी बी से उन दिनों मैंने अपने कई मलमल के दुपट्टे लहरिया में रंगवा कर चुनवाए थे और उनका बेलन बना कर सहेजना सीखा था।जो सालों मेरे पास रहे।

हम अपने पुश्तैनी घर की पहली मंजिल पर रहते थे और नीचे की मंजिल पर हमारे जेठ जी सपरिवार रहते थे। तीनों कमरों और किचिन के बीच बड़ी- बड़ी दो छतें थीं। बड़ी बी किचिन के सामने की छत पर ही कपड़े धोना पसन्द करती थीं और प्राय: हमारे कुकिंग टाइम के समय ही कपड़े धोने आती थीं।

एक दिन हम दूसरे कमरे में थे कि बड़ी बी के चीखने की आवाज आई-' हाय अल्लाह ...बचाओ भाभीईईईईईईई...अरे भाभी बचाओ....!’  हम बदहवास हो तेजी से ताबड़तोड़ भागे। जाकर देखते ही हमारे होश गुम हो गए। एक बहुत ही मोटा सा झज्झू सा बन्दर बड़ी बी के कन्धों पर सवार होकर दोनों हाथों से उनके बालों को पकड़ कर जोर - जोर से झिंझोड़ रहा था, साथ ही खौं- खौं करता जा रहा था। सारा मंजर देख हमें तो जैसे काठ मार गया, लेकिन हमारे हस्बैंड भी चीख पुकार सुन कर आ गए तो उन्होंने जल्दी से एयर गन से हड़का कर बन्दर को भगाया।वहाँ पर बन्दर बहुत आते थे तो हम डंडों व एयर गन का इंतजाम सदा रखते थे।

बदहवास सी हाय- तौबा करती, रोती- पीटती बड़ी बी को उठा कर पानी, शरबत पिला कर शान्त किया। और चैक किया कि कहीं काटा तो नहीं, या नाखून तो नहीं मारा।शान्त होते ही बड़ी बी ने मार बन्दर को गाली देनी और कोसना शुरु कर दिया - 'ऐ मुआ बदमास, नासपीटा देखो तो भाभी कैसा हमें पेड़ सा हिला गया। तौबा…तौबा…चक्कर आ रे अभी भी...।’

तो हमने हंस कर कहा ' अरे अब तो वो भाग गया तभी देतीं गाली...देना था न चाँटा घुमा कर।’

'ऐ जाओ भाभी, तुम भी हमारा ही मख़ौल उड़ा रईं , हाँ नईं तो ...ऐसी- कैसी हौल हो रई पेट में ...और जो वो काट लेता तो ? भाभी सिर घूम रा अब न धुलेंगे हमसे कपड़े आज।’ 

हमने खिला- पिला कर उनको विदा किया और भीगे पड़े कपड़ों को धमाधम निबटाते हुए मुए बन्दर को किटकिटा कर दो-चार गाली हमने भी दे डालीं।आज भी मेंहदी लगे बिखरे, झौआ से बालों में बदहवासी से चीखती और उनके कन्धों पर बैठे बन्दर का वो रौद्र रूप का जलवा जब भी याद आता है तो बरबस हंसी आ जाती है।हंसी की वजह है कि उस पल दोनों एकदम समानरूपा हो रहे थे। जानती हूँ बुरी बात है, हँसना नहीं चाहिए, मैं होती उनकी जगह तो शायद मेरा तो हार्ट फेल ही हो जाता !

एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगीं-'आज तो भाबी सुरैया को खूब छेत दिया हमने ...अरे न हाँडी पकानी, न रोटी से कोई मतलब, न प्रैस के कपड़ों को हाथ लगाती...बस सारे दिन मरी सफाई ही करे जाए है ...बालकन को खेलने दे, न खाने दे कि जाओ बाहर खेलो जाकर, घर गंदा कर दोगे फिर से। आज तो पिट ली, म्हारे हाथों।’

'अरे तो मारा क्यों बेचारी को ? सफाई रखना तो बहुत अच्छी बात है न ...च्च बेचारी...गलत बात है।’

'अरे तुम न जानो हो भाबी, सिगरे दिन की सफ़ाई किन्ने बताई लो भला ? बालक नन्हें खाबें - पीबें भी न...खेलने भी न देती। अरे हमने कही बाल बच्चों वाले भर में किन्ने बताई इतनी सफाई...लो भला...कम्बख्तों के रहवे है इतनी सफाई तो।’ 

हम उसकी बात सुन कर और अपनी सफाई की सनक सोच कर सन्न रह गए…चुप रहने में ही खैरियत समझी।

 दूसरे नम्बर की बेटी रुखसाना बहुत चटर- पटर थी। एक दिन मैं कपड़े लिख रही थी तो वो चौखट पर बैठी मटक- मटक कर गा रही थी `मार गई मुझे तेरी जुदाई….’ सहसा गाते- गाते बोली-`पता है हम सब तुमको न, रेखा कहवे हैं और तुम्हारी मिट्ठू को मन्दाकिनी कहवे हैं, बिल्कुल उनके सी ही सकल है तुम दोनों की।’

‘अच्छा पापा और चुन्नू को क्या कहते हो?’ मिट्ठू ने मजा लेते हुए पूछा।

'तुमाए पापा की मूँछें बिल्कुल जितेन्दर जैसी हैं और भाई तुमारे तो मिथुन जैसे लगे हैं।’ 

तब हमारे जितेन्दर के बाल भी खूब घने थे , मूछें भी ठीक-ठाक ...लेकिन सात साल के चुन्नू की तुलना मिथुन से सुन कर बहुत हंसी आ रही थी। वो खिलंदड़ी ऐसे ही दुनिया जहान की बातें सुनाती बड़ी देर खेलती- खाती बैठी रहती।

 हमारे घर से प्रैस के कपड़े ले जाने और वापिस देने का काम वो ही करती।किसी और के आने पर उनसे लड़ती थी। ईद पर वे लड़कियें नए कपड़ों में खूब सज- धज कर इठलाती हुई मिठाई का डिब्बा लेकर आतीं। मैं बड़ी बी को बहुत मना करती कि मिठाई न भेजा करें पर वे नहीं मानती थीं। मैं भी उन बच्चियों को प्यार से ईदी देकर विदा करती।

बहुत कम उम्र में ही दो- दो लड़कियों के एक साथ निकाह कर दिए गए। बड़ी बी से उनकी खैरियत पूछती रहती तो उनके सुख- दु:ख की खबरें मिलती रहती थीं। उनकी दो लड़कियों की शादी के बाद हम लोग दूसरे घर में शिफ़्ट हो गए जो उनके घर से दूर पड़ता था अत: लड़के या शराफत मियाँ ही कपड़े लाते, ले जाते रहे। बड़ी बी भी कभी-कभी मिलने आ जाती थीं। कभी सूट और कभी अचार माँग कर ले जाती थीं। एक दिन हंस कर बोलीं- `अरे, तमने तो वहाँ की तरहे यहाँ भी खूब फूल पत्ते लगा रक्खे... पता है हमाए घर में इसी से सब बच्चे तुमको पत्तोंवाली कहवे करे है।’ 

'अच्छा...ये नहीं बताया कभी रुखसाना ने?’ मुझे हंसी आ गई उसके वाक्-चातुर्य की याद करके।

अचानक बड़ी बी की आँखें बरसने लगीं, ` कम्बख्त उसका मरद पी के बहुत मारे है बेचारी रुखसाना को। तुम तो देखोगी तो पहचानोगी भी नहीं अपनी रुखसाना को...ऊपर से दो-दो लड़किएं और  हो गईं, तो मरी सास भी न जीने देवे है।’ सुन कर मेरा मन बहुत दुखी हो गया।बहुत देर तक बड़ी बी को हौसला देती रही।अपना घर बनवा कर अब हम और दूर आ गए तो उन लोगों का आना -जाना अब बन्द हो गया है।

वे छोटे- छोटे बच्चे जो सामने पैदा हुए, हमारे बच्चों के ही समानान्तर पले, बढ़े उनसे बहुत ममता हो गई थी।आज उनका सुख-दुख अन्दर तक छू जाता है। सोचती हूँ-

`इस प्यारी- प्यारी दुनियाँ में क्यों अलग- अलग तक़दीर...’

प्रार्थना करती हूँ कि हे प्रभु सबके बच्चों को सुखी रखना...सबको स्वस्थ रखना।🙏

                                            —उषा किरण 


चित्र; गूगल से साभार

रविवार, 4 जुलाई 2021

मा ब्रूयात सत्यमsप्रियम्

बात तीस साल पुरानी है-

कई बाइयों के आगम व प्रस्थान के बाद आखिर एक अच्छी बाई मिली `बीना ‘ जो काम अच्छा करती थी। एक दिन आते ही बड़बड़ाने लगी-

`बताओ दो दिन नहीं जा पाई उनके काम पे तो लाला के बजार वाली कै रई थीं कि तुमारा कितना काम पड़ा हैगा कपड़े, झाड़ू, पोंचा, बर्तन और तुम गायब हो गईं, हैं…हम बोले भाबी जी काम तो तुमारा  है हमारा थोड़ी न है…तो लगी बहस करने कि नईं तुमारा है …हमने कहा लो बोलो भाबी घर तुमारा, बच्चे तुमारे, पति तुमारा तो उनका सब काम भी तुमारा हुआ न हमारा काए कूँ होता ?’

हम धीरे से ‘हम्म…’ कह कर चुप हो गए।

`नहीं भाबी आप हमेसा सही बात बोलती हो , अब बोलो मेंने गलत कई या सई …?’

मैंने मुस्कुरा कर बात टाली परन्तु वो बार- बार पूछने लगी तो हमने कहा-

` देख बीना सारा काम भले उनका लेकिन जब तू उनसे काम के पैसे लेती है तो फिर वो काम तेरा…सीधी सी बात है !’

हम तो कह कर हट गए परन्तु वो बहुत देर तक छनछनाती रही। अगले दिन से दस दिन को गायब हो गई और मैं काम में चकरघिन्नी बनी बदहवास सी बार - बार अपने गाल पर चाँटा मारती, बड़बड़ाती…सब काम मेरा…सब काम मेरा…पर तीर कमान से निकल चुका था और सुनने वाली तो ग्यारहवें दिन पधारीं। 

तो जब भी बोलो परिणाम सोच कर बोलो, वर्ना………😂😆


शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

शरबती बुआ - (दहलीज से परे...! )






कह दो अंधियारों से 

कहीं और जाकर दें दस्तक 

अभी तो  दिए में तेल बाकी है

अभी तो लौ मेरी जगमगाती है...!!


मेरी उन आदरणीया पुरखियों की जिंदगी सदा ही फूलों की सेज पर बीती हो ऐसा नहीं है ....बड़े परिवारों के बीच रह कर उनके सामने भी अनेक बार  पराजय के, अपमान के , कलह या विपत्ति के पल आए।ऐसा भी नहीं कि जीवन मात्र  सुखों की छाँव में ही बीता, ऐसा भी नहीं कि परिवार के हर व्यक्ति का आचरण सदा सम्मानपूर्ण ही रहा। बहू-बेटियों व रिश्तेदारों से मुचैटा भी भरपूर रहा। रोग-शोक भी आए ...ये सब भी खूब झेला और झेल- झेल कर, तप के सोने सी खरी हुईं मजबूत हुईं।

गाँव-देहात में जो ब्याही गईं उनका जीवन तो और भी दुरूह था। पर बात ये है कि बावजूद इसके उन्होंने हार नहीं मानी ...जिजीविषा की लौ धीमी नहीं पड़ने दी। वे लड़ीं भी, पारिवारिक-राजनीतिक उठा-पटक की शिकार हो कभी हारीं तो कभी विजयी भी हुईं। कभी सही थीं तो कभी गलत भी सिद्ध हुईं बेशक ...लेकिन सलाम है उनको, जो उस सबको लेकर कभी मन से हारी नहीं, अवसाद में नहीं गईं। जो भी रास्ता मिला, वहीं से निकल लीं और अन्तत: उस जंजाल से मुक्त हो खिलखिला पड़ीं।

 ऐसी ही एक थीं हम सबकी प्यारी "शरबती बुआ !”

लगभग चार  फुट दस इंच की शरबती बुआ अस्सी साल की उम्र में भी किसी षोडशी सी फुर्तीली, किसी अजूबे से कम नहीं थीं।चेहरे पर झुर्रियों के मकड़जाल के मध्य उनकी  आँखें गजब की सजगता से भरी जुगनुओं सी चमकती थीं। अपनी शादी वाले दिन से लेकर आखिर तक वो मुझे एक सी ही दिखती थीं।

जब मैं शादी के बाद विदा होकर ससुराल आई तो अनजाना परिवेश , मेहमानों की भीड़ और खास कर भाँति-भाँति की आदरणीया बुढ़ियों की फौज से सहम गई। न जाने कितनी तरह की तो सासें- चचिया सास, मौसिया सास, फुफिया सास...और सबके अजीब- अजीब लाड़, बोलियाँ, उत्सुकता से भरे सवाल ! मैं घबराहट के मारे सबको अन्दर ही अन्दर तोलती रहती।

विदा होकर जब ससुराल पहुँचे तो सासु अम्माँ  ने अपने कमरे में लाड़ से बैठाया। हमारा अपना कमरा ऊपर था तो जब भी नीचे होती तो सासु अम्माँ के ही कमरे में हमें बैठाया जाता। सब वहीं नई दुल्हन को देखते, वहीं हमारा खाना- पीना, लाड़- प्यार, पूँछ- ताछ सब चलता।

वापिस घर जाकर छोटी बहन और भैया के साथ मिल कर फिर सासों के खूब नाम रख कर झौंस उतारी "हे राम कितनी तो बुढ़ियें हैं वहाँ और सारी सास ! झाडू वाली ...पान वाली...मोटी वाली...पेटू...बातूनी वाली सास।

अम्माँ ने सुना तो डाँट लगाई "उषा बहुत बुरी बात है ये...ऐसे नहीं कहते। बत्तमीजी नहीं इज़्ज़त से बात करो। बड़ी-बूढ़ी हैं घर की, ये क्या सीखा है तुमने ?” लेकिन छोटी बहन और भैया को बहुत मजा आ रहा था सुन कर।

सफेद सूती धोती का पल्लू लापरवाही से दाँएं कंधे से बाएं कन्धे पर डाल बुआ एक हाथ तेज-तेज हिलाते हुए जब सड़क पर तेजी से फर्राटे भरतीं झपाटे से चलतीं तो एक से एक जवान भी अगल- बगल छिटक कर परे हो जाते।उनका बिना दाँतों का पोपला सा मुंह सिकुड़ कर छोटा सा होकर चेहरे को एक कठोरता का भाव देता था।

बच्चे उनकी ठोड़ी पर हाथ लगा कर कहते- `बुआ आपकी शक्ल मदर टेरेसा से कितनी मिलती है !’तो वे बहुत खुश होकर पोपले  मुँह पर पल्लू रख कर हँसने लगतीं।

"अरे बालकों पढ़ी-लिखी होती तो मैं कोई यहाँ थोड़े होती मैं तो इंदिरा गांधी होती ...मेरी बुद्धि बहुत तेज है बावली न हूँ मैं !” आत्ममुग्ध हो वे फिर शुरु हो जातीं कि कब-कब, अच्छे-अच्छों का मुँह अपने वाक्- चातुर्य से बन्द कर दिया उन्होंने। कब किसकी सिट्टी- पिट्टी गुम कर दी।

उनको कभी भी कोई बीमारी नहीं हुई। दिल, गुर्दे, बीपी, शुगर सब दुरुस्त रहे ताउम्र।मुँह में उनके एक भी दाँत नहीं था मसूड़ों से ही रोटी को दाल या सब्जी में भिगो कर खा लेतीं पर नकली दाँत नहीं लगवाए।आँखें भी दुरुस्त थीं ।नब्बे - बयानवे साल तक जीं , पर कभी चश्मा भी नहीं लगाया।

अस्सी साल की उम्र में भी ऊर्जा का अखन्ड स्त्रोत बहता रहता मानो उनके भीतर।कभी भी थकती नहीं थीं।कभी किसी के साथ पराँठे बनवा रही हैं तो कभी किसी बच्चे के सिर में तेल ठोंक रही हैं।कभी बाजार से कुछ खरीद कर ला रही हैं तो कभी हमारी सास के साथ उनके कपड़ों की तह बनवा रही हैं।कभी बच्चों को पार्क ले जा रही हैं तो कभी बाबू जी के सिर में मालिश कर रही हैं ।

पार्क से लौटते समय पता नहीं क्या किस्से-कहानी सुनाती लातीं कि सारे बच्चे हंसते-खिलखिलाते, कूदते- फाँदते बुआ-बुआ करते लौटते।एक बार बेटी ने बताया कि वे रिश्तेदारों के या सड़क पर जा रहे कुछ जोकर टाइप लोगों पर बच्चों को हंसाने के लिए चुटकुले छेड़ती रहती थीं ।

हर इंसान का एक मूल स्वभाव होता है जो कभी भी बहुत नहीं बदलता। हो सकता है परिस्थितियों के कुहासे उनको ढंक लें पर उल्लास की धूप पड़ते ही वही असली रूप चमक उठता है। बुआ मूलत: चुलबुली, शैतान,हंसमुख स्वभाव की थीं। मायके आते ही वे किसी षोडषी सी खिल उठतीं। कभी फूफा के किस्से सुनातीं, तो कभी अपने पिता के जमाने में की गई शैतानियों की पोटली खोल कर बैठ जातीं।अपनी सास के किस्से जब वो एक्टिंग करके सुनातीं तो हम हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते।

`ए बहू जब सादी हुई तो मैं छोटी सी तो थी। तो मेरी सास बोली कि बेटा सिर में बड़ो दर्द है रहो जरा मूड दबा दे। हमने कही आहाँ अभी लो दबाए देते हैं और हमने दबाते-दबाते बहू उनकी चुटिया में झुनझुना बाँध दओ । अब वे जब इधर सिर हिलाएं तो झुनझुना बोले छुन्न, उधर सिर हिलाएं तो बोले छुन्न। हमारी सास ने डंडा उठाया इधर को आ बताऊँ तुझे, मोसे मसखरी करे है। पर मैं कौन हाथ आने वाली बुढ़िया के ...एक छलाँग में बाहर और ये जा वो जा।” एक्टिंग करके उनके सुनाने के ढंग पर घर भर में हंसी की लहर दौड़ जाती।

मौके पर बुआ खिंचाई करने से किसी को नहीं छोड़ती थीं और भतीजे भी उनसे हंसी- मजाक करते मजा लेते ही रहते थे।

शादी- ब्याह में एक से एक गीत और नाच करती बुआ जरा नहीं थकती थीं। सबसे ज्यादा जोश उनमें ही दिखाई देता था। सारी रस्मों को बहुत मन से जोश के साथ करवातीं और बैठी सी आवाज में मौके दस्तूर के मुताबिक़ बन्ना, बन्नी, सोहर आदि लोक-गीत गाती जाती थीं।

मैंने कभी भी उनको सहजता से, शाँति से बैठे नहीं देखा। बैठे-बैठे भी सर्र-फर्र सा कुछ करती रहती थीं। हमेशा या तो किसी से बात कर रही होतीं या चकर-मकर गोल-गोल आँखों से तीक्ष्ण दृष्टि से निरीक्षण करती होतीं।कोई भी अपने को कितना भी तुर्रम खाँ समझे पर बुआ के सामने सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती, बुआ के सामने सब बहू- बेटियों की चाल भी सतर रहती कि न जाने कब, किसको,क्या कह दें।

शरबती बुआ यूँ तो जगत बुआ थीं, परन्तु वो दरअसल मेरे पति की बुआ थीं। जिनकी कम ही उम्र में खूब बड़े ज़मींदार घर में गाँव में ही शादी कर दी गई थी।अपनी शादी के किस्से सुनाना बुआ का मनचाहा शगल था।जब वे अपनी शादी के किस्से किलकते हुए सुनातीं तो उनके चेहरे पर हया, हास्य और वीरता के मिलेजुले आत्ममुग्धता के  भाव होते। चेहरे पर हल्की लालिमा आ जाती और हम सब भी मुग्ध होकर सुनते रहते।

शादी के बाद पहले मैं बुआ से बहुत ही काँपती थी, क्योंकि वे ठहरीं मुँहफट...साफ मुँह पर कह देती थीं जो मन में होता और हम थे थोड़े से नाजुकमिजाज। लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि बुआ की जुबान ही सिर्फ़ कड़क है पर दिल तो मक्खन सा नर्म है।और बुआ को अपनी तारीफ़ करवाना बहुत पसन्द है। बुआ के साथ आधा -एक घंटा बैठ कर उनकी बातें सुन लो तो भी वो खुश हो जाती थीं। तो जल्दी ही बुआ को मैंने पटा लिया ।

वैसे तो बुआ को बातें करना ही बहुत पसन्द था लेकिन बुआ का मनपसंद टॉपिक होता था बुआ की शादी की चर्चा।मैं जानबूझ कर जिक्र छेड़ती " तो बुआ शादी में आपने तो फूफा को देखा था न पहले ? और बुआ शुरु हो जातीं-`अरी सादी में मैंने गुलाबी रंग का किमखाब का लहंगा पहना था। इतना सुंदर कि क्या बताऊं बहू । और ऐसे सिर  से ओढ़नी लेकर छोटा सा घूँघट निकाला तो मरी मेरी सब सहेलियाँ जल मरीं। ‘ बुआ अपनी सफेद धोती से घूँघट निकाल कर मुँह मटकाती बालिका वधू सी शरमाने लगतीं ।

'अरे बुआ तुम तो बहुत सुंदर लगती होगी  अब भी कौन कम हो ? अच्छा बुआ फिर क्या  हुआ ?’ मैं रस लेकर पूछती। चाहें कितनी भी बार सुन लो पर बुआ का भावपूर्ण एक्टिंग के साथ सुनाया विवाह- प्रकरण हमेशा बेहद मज़ेदार लगता और जिस दिन भी बुआ वो किस्सा सुनातीं उस सारे दिन वे बेहद खुश रहतीं। उनकी चालढाल और भाव बदले होते।

"अरी बहू मेरी बारात आई तो सोर मच गया शरबती का दूल्हा तो बड़ा ही सुंदर है। हमने पिताजी से कही भई हमें भी दिखाओ पहले, कैसा है दूल्हा? हम तो न करेंगे बिना देखे सादी। बस फिर क्या  ...पिताजी ने गोद में उठा कर दरवज्जे पे ले जाकर दिखाया-ले मौड़ी देख ले अपना दूल्हा ! अरी बहू के बताऊं कित्ते सुँदर , कित्ते मलूक तेरे फूफा...जे गोरा रंग, जे ऊंचा माथा, जे ऊँची खड़ी नाक ,जे काजल लगी बड़ी-बड़ी गोटी सी आँखें।ऐसे लगे जैसे कोई राजकुमार !”

बुआ मुग्ध भाव से अतीत में डुबकी मार सुना ही रही थीं कि पास से निकलते मेरे के पति ने सुन लिया और लगे छेड़ने -"अरे बुआ झूठ तो मत बोलो, फूफा तो काले थे नाक भी मोटी थी!’ 

"चल मरे तू तो पैदा भी न हुआ था तब...आया बड़ा चलके ...कितनो बन रहो है बहुरिया के सामने ...भाग यहाँ से !” वे हंस - हंस कर और छेड़ने लगे।

"अच्छा बुआ देखो मैं तुम्हारा कितना ध्यान रखता हूँ ,कोई नहीं रखता इतना।”

"हाँ सो तो है भैया तू प्यार तो करे है मोकौ!”

"हाँ, और क्या, तभी देखो मैंने कैसी खिन्नी खिलाईं तुमको !”उन्होंने हंस कर कहा।

"ओहो...पाँच साल पहले दस रुपये की खिन्नी खबाईं सो आज तक गा रहो है !” 

और बस ये सुर्री छेड़ वहाँ  से सरक लिए।  क्योंकि कोई  अगर छेड़ दे तो बुआ फिर इतनी उतारतीं कि सामने वाला भागता ही नजर आता।

एक दिन हमने पति से पूछा" ये खिन्नी का क्या किस्सा है जो कह कर तुम बुआ को छेड़ते रहते हो!” 

तो हंस कर बताया कि "बुआ ने एक बार  मंदिर ले चलने को कहा, तो मैं ले गया।रास्ते में कहा बुआ प्रसाद तो ले लो तो सामने खिन्नी बिकती देख बोलीं हाँ ये खिन्नी ले लो।मैंने कहा अरे बुआ खिन्नी कौन प्रसाद में चढ़ाता है ? पर बुआ तो अड़ गईं कि मैं तो खिन्नी ही चढाऊंगी । खैर मैंने ले लीं पर बुआ ने वो मन्दिर जाने से पहले ही रास्ते में सब खा लीं और ख़ाली मन्दिर में हाथ जोड़ कर आ गईं।” 

ऐसी ही थीं  हमारी बुआ मनमौजी।

सारे बच्चों को भी बुआ बहुत प्रिय थीं । जब भी वो आतीं तो हमारे संयुक्त परिवार के सारे बच्चे खुश हो जाते उनको बत्तख की तरह पंख फैलाते घेर कर जोर- जोर से चिल्लाते -"बुआ पार्क चलेंगे !”

"अरे हाँ-हाँ...ले चलूँगी साम को, तनिक साँस तो ले लूँ !” बुआ लाड़ से पोपले मुँह से  हंस कर कहतीं।

रोज शाम को सबको घेर कर पार्क ले जातीं। बुआ को भी बच्चों की तरह पार्क जाना बहुत प्रिय था, क्योंकि उनको बातों का बहुत शौक था। पार्क में वो प्राय: एक दो बुजुर्ग महिलाओं को पकड़ कर खूब रस ले लेकर बतियाती रहतीं और बच्चे खेलते रहते।दो चार घन्टे बाद बतकही से छक कर लौटतीं तो आगे-आगे कूदते उछलते बच्चे और पीछे-पीछे सतर्क तेज-तेज सतर चाल चलती बुआ।

आस-पास के घरों में उनकी एकाध सहेलियाँ भी थीं जिनके पास भी वे कभी- कभी मटरगश्ती को निकल जातीं और बहुत खुश होकर लौटतीं ।

बुआ बाबूजी को बहुत मानती थीं और बाबूजी भी इकलौती बहन का बड़ा लाड़ करते थे। दोनों  भाई- बहन घंटो बातें करते रहते।बाबूजी आवाज लगाते बैठक से " अरी शरबती आ जरा सिर में खुर-खुर कर दे !” बुआ दौड़ी- दौड़ी जातीं और उंगलियों से उनके सिर में मालिश करती जातीं और खूब बातें करतीं।बाबूजी को मानो वे अभी भी अस्सी की नहीं अट्ठारह की शरबती लगती थीं और बुआ भी उनको भैया- भैया कहतीं किसी किशोरी लाडली बहन सी बन जातीं।

बाबूजी के आखिरी वक्त जब वे मोहन नगर हॉस्पिटल में एडमिट थे। डायलिसिस चलती थी तब बुआ पूरे वक्त अस्पताल में उनके साथ रहीं। कितना भी मना करो पर वे नहीं मानती थीं। पति मना करते थे कि दो लोगों के सोने की व्यवस्था नहीं है पर  वे कैसे भी कष्ट से सो लेतीं पर साथ ही रहीं ।

फूफा की अच्छी-खासी कई गाँवों में ज़मींदारी थी। पर सब बताते हैं कि घर में बुआ की ही चलती थी। फूफा बहुत सम्मान करते थे उनका।ज़्यादा नहीं बोलते थे और निहायत शरीफ थे।एक ही बेटा था जो कुछ ख़ास नहीं पढ़ सका। लेकिन कई बीघों का मालिक होने के कारण जीवन में कोई कमी नहीं हुई। बेटा भी परम मातृ-भक्त था। फूफा को टी बी हो गई और लगभग पचपन साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। बुआ टूट गईं लेकिन हिम्मत नहीं टूटने दी।

सारी खेती-बाड़ी को मजबूती से अपने निर्देशन में बेटे के साथ मिलकर संभाला। साठ साल की उम्र में बेटे की भी  मृत्यु से गहरा आघात लगा। बहू, दो पोते उनकी बहुएं व उनके बच्चों के साथ बुआ घर -गृहस्थी में रमी रहीं। बाकी सभी बुआ का बहुत सम्मान करते थे पर छोटा पोता बहुत बत्तमीज और उद्दंड निकला। बुआ लगभग नब्बे साल की हो गई थीं हौसला भी कुछ थक गया था।

एक दिन कुछ झगड़े के बाद नाराज होकर बैग में कपड़े रख कर हम लोगों के पास निकल आईं।हम लोगों से कह-सुन कर मन हल्का किया तो हम लोगों ने कहा आप यहीं रहो हमारे पास।कुछ दिन वे दुखी रहीं फिर जल्दी ही बुआ अपने पुराने स्वरूप में वापिस आ गईं।दो महिने बाद उन्होंने जाने के लिए कहा भी तो हम लोगों ने रोक लिया।

सर्दी आ गई थीं ओर बुआ गर्म कपड़े साथ नहीं लाईं थीं तो घर जाने के लिए फिर कहने लगीं हमने कहा इतनी क्या जल्दी है बुआ और रुको कुछ दिन हमारे पास। हम लोगों का भी मन लगता है।मैं बुआ को बाजार ले गई और उनको कुछ गर्म कपड़े और दो  धोती भी दिलवाईं। बुआ बहुत खुश थीं सारे दुकानदारों से बता रही थीं ' अरे बहू है ये हमारी, बहुत प्यार करती है, तो कपड़े दिलवाने लाई है ,बड़े कॉलेज में प्रॉफेसर है ये भी बताना नहीं भूलती थीं।

फिर मैं मिठाई की दुकान पर ले गई। बुआ को मीठा बहुत पसन्द था तो कुछ मिठाई उनकी पसन्द की दिलवाईं और उन्होंने कुछ रेवड़ी भी लीं जिन्हें वो मुँह में डाल कर टॉफी की तरह चूसती रहती थीं । वहाँ भी वही बताया सबको कि "बहू है हमारी...!”

लगभग छह  महिने  रह कर बहुत रोकने पर भी बुआ चली गईं। कुछ बहुत जरूरी काम है कह कर। जाते-जाते मैंने  वादा लिया कि वो काम निबटाते ही वापिस आ जाएंगी। 

लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। जाने के आठ ही दिन बाद बुआ को भयंकर डायरिया हुआ और उन्होंने अपने घर-आँगन में आखिरी साँस ली। खबर सुन कर हम सब सन्न रह गए। पता चला आखिरी समय में बुआ ने मुझे ही याद किया था।  किसी ने कहा भी कि उनको खबर भेज दो पर तब तक बुआ महाप्रस्थान कर गईं। बुआ के आकस्मिक निधन की खबर ने हम सबको सन्न कर दिया था।

जब मैं बुआ को कपड़े दिलवा रही थी तब मुझे क्या पता था कि ये मैं उनकी आखिरी विदाई की तैयारी  कर रही हूँ...बुआ को उन्हीं कपड़ों में आखिरी बार विदा किया गया।

आज जब भी कभी परिवार-जन एकत्रित होते हैं और बुआ को याद करते हैं तो सबके मुँह पर हंसी और प्यार ही होता है और होते हैं उनके बहुत मजेदार किस्से। दुख जीवन में बहुत आए पर बुआ ने अपना आनन्दी स्वभाव नहीं खोया। फूफा व बेटे की बीमारी, उनकी मौत और जीवन में आईं एक भी परेशानी का जिक्र करते मैंने तो उन्हें कभी भी नहीं सुना।उन्होंने हमेशा ख़ुशियाँ ही बाँटीं सबसे। प्यार करना और सबसे प्यार पाने को ही हमेशा तत्पर रहीं।बुआ का गुस्सा भी कम नहीं था, तो पूरी दबंगई से जीवन जिया।

पार्क ले जाने वाली, परियों और राजकुमार व राक्षस की कहानी सुनाने वाली बुआ को बच्चे भी बहुत दिनों तक याद करते रहे.. अज भी करते हैं ।उनसे हमने कहा बुआ तारा बन गईं तो छोटे बच्चे बहुत दिनों तक आसमान में तारों के बीच तारा बनी अपनी प्यारी बुआ को तलाशते रहते ।

जाने के बाद भी बुआ हमारे दिलों में आज भी बसती हैं....नमन हमारी ऐसी प्यारी शरबती को  बुआ को 🙏

                                       क्रमश:

                                                       .. उषा किरण 

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

दहलीज से परे...!




बेशक ...

उनके पाँवों के नीचे 

ज़मीनें संकरी थीं

और सिर पर

सहमा सा आसमाँ

छाया था चहुँओर 

तिमिर घनघोर 

पथ अनचाहा

राह अनजानी

पर उनके पास पंख थे

मज़बूत हौसलों के

और हाथ थी 

हिम्मत की मशाल

उनके पद-चापों की 

धमक से

हारते गए अँधियारे

खुलते गए रास्ते

क्षितिज रंगते गए 

सतरंगी रंगों से

देखो गौर से वहाँ अब

उड़ते हैं सुनहरे पंछी 

गाते जीत का मधुर गान...!!


जब भी स्त्री विमर्श की बात होती है । 

स्त्रियों के अधिकारों, उत्पीड़न, अस्मिता, शोषण व सम्मान की बात होती है।और जब भी पढ़ी -लिखी, नौकरीपेशा महिलाएं भी जब अपने उत्पीड़न की ,विवशता की बात करती हैं तो मुझे सर्वप्रथम अपने जीवन में आईं कुछ बेहद सशक्त परिवार की ही कुछ बुजुर्ग महिलाओं की याद आती है जो स्त्री सशक्तीकरण का जीवन्त उदाहरण रहीं। और उनका साहस मुझे सदैव ही अचम्भित करता रहा।


उन्होंने आजन्म कभी किसी की ज़्यादती और धौंस-धपट बर्दाश्त नहीं की।अपने हौसलों की मशाल की रोशनी में मस्तक ऊँचा कर वे हर बाधा पार कर दृढ़ कदमों से चलती रहीं और अन्तत: विजयी हुईं। मजाल है कोई भी उनका किसी  तरह का शोषण करने की सोच भी सके या उनके सामने किसी तरह की बेअदबी कर सके ।


उन्होंने अपनी जिंदगी शान से जी और पूरी गरिमा से जीवन यात्रा सम्पन्न कर आज भी हम सबकी स्मृतियों में न केवल आदर व श्रद्धा की पात्र हैं अपितु अनुकरणीय भी हैं ।


बेशक वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, नौकरी या व्यवसाय नहीं करती थीं।परन्तु बुद्धिमत्ता, आत्मविश्वास और साहस में किसी से भी रत्ती भर भी कम नहीं थीं। आज हम और हमारे बच्चे बहुत गर्व और प्यार से याद करते हैं उन्हें ।


उनमें से कुछ आदरणीय कम उम्र में ही विधवा हो गईं। परन्तु हिम्मत न हार कर पाँच ,सात बच्चों को , घर- गृहस्थी व खेती-बाड़ी को भी आजन्म पूरे सम्मान व गरिमा से खूब संभाला। बच्चों को काबिल बनाया। बहुओं व बेटों को पूरे अनुशासन में रख कर परिवार में सामन्जस्य बनाए रखा तो पोते- पोतियों को भी संस्कार व अनुशासन की घुट्टी पिलाई। वक्त के साथ भरे- पूरे परिवार में सामन्जस्य स्थापित करके तीन पीढ़ियों को पूरी जिजीविषा से साथ लेकर चलीं।


इसी संदर्भ में मुझे याद आती हैं इसके विपरीत कोई पैंतालिस साल पहले बुलन्दशहर के हमारे मकान मालिक गर्ग साहब की बहन `शैलजा रस्तोगी’की।जो कि किसी डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल थीं। शादी के साल दो साल बाद ही पति की मृत्यु के बाद उन्होंने किसी तरह खुद को और बेटी को संभाला, प्राचार्या बनीं , लेकिन हमेशा एक चुप्पी सी घेरे रहती थी उनको। कभी भी हमने उनको हंसते-बोलते,मुस्कुराते नहीं देखा।वे बेहद खूबसूरत अपनी बेटी को खूब सजा संवार कर रखतीं। सभी बच्चों में वो अलग व विशेष दिखाई देती थी।


धीरे-धीरे उषा रस्तोगी गहन अवसाद की शिकार हुईं, फिर टी.बी. ...और दस साल की बेटी को छोड़कर हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं...हार गईं जिंदगी की जंग।बाद में सुना जो बेटी राजकुमारियों सी पल रही थी बाद में धनलोलुप रिश्तेदारों के हाथों बहुत दुखमय जीवन बिता कर एक बेहद साधारण पति व घर में ब्याह दी गई। हारी हुई हिम्मत और हौसला खुद के ही लिए नहीं बच्चों व परिवार के लिए भी कई बार अभिशाप बन जाता है।


इसी तरह याद आता है मेरे एक परिचित का बेटा मयंक जो आई आई टी कानपुर से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके भी कभी कोई जॉब नहीं कर सका।पिता के पैसों से कई बिजनेस शुरु करके लाखों रुपये डुबो कर अब कुंठित हो सारे दिन घर- बाहर झगड़े करना और सबसे बत्तमीजी का आचरण करना मात्र उसकी जिंदगी का मकसद रह गया है। क्या इतने बढ़े संस्थान की डिग्री उसकी विद्वता साबित कर सकी ?


खैर ....जब मैं अपने परिवार की उन बुजुर्ग महिलाओं के बारे में सोचती हूँ कि उनकी इस हिम्मत’ हौसले और दृढ़ता के पीछे कारक क्या थे ? तो मुझे समझ आता है कि कोई जरूरी नहीं कि हर पढ़ा- लिखा, बड़ी डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति हर तरह से बुद्धिमान भी हो और उसी तरह से ये भी ज़रूरी नहीं कि हर अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति निपट मूर्ख ही हो। हो सकता है उसमें पढ़े- लिखे व्यक्ति से ज्यादा वाक्- चातुर्य हो, ज़्यादा व्यवहारिक बुद्धि हो, ज़्यादा सहनशीलता हो, वो प्रत्युत्पन्नमति ज्यादा हो, बेहतर निर्णायक-क्षमता, बेहतर व्यवहारिकता, धैर्य और सहनशीलता हो।


बुद्धिमत्ता का दायरा तो बहुत विस्तृत है आप उसको मात्र डिग्री या परीक्षा में प्राप्त नम्बरों से नहीं आँक सकते।कम पढ़े- लिखे व्यक्ति भी कई बार कई क्षेत्रों में सफलता के झंडे गाढ़ देते हैं और दूसरी तरफ कुछ खूब बड़े ओहदों पर स्थापित, करोड़ों सम्पत्ति के मालिक होकर भी सब संभालने में असमर्थ साबित होते हैं। जीवन में आई थोड़ी सी असफलता या पराजय न सह कर  निराशा व अवसाद के सागर में डूब जाते हैं ।


प्राय: हमारी एक बीमारी होती है कोई क्या कहेगा और सबसे भलाई लूटने की चाह। इस कामना में वैसे तो कोई बुराई भी नहीं है, परन्तु एक सीमा तक ही ये परवाह उचित है।कई बार हमें बोल्ड होकर इन बातों की परवाह न करते हुए आगे बढ़ कर, परम्पराओं से परे भी निर्णय लेने की हिम्मत होनी चाहिए बशर्ते हमारे अंदर न्यायबुद्धि व तर्कसंगत बुद्धि से निर्णय लेने की क्षमता हो। 


मेरी दादी को मैंने कभी नहीं देखा।वे हम भाई- बहनों के जन्म से पहले ही स्वर्गवासी हो चुकी थीं। मेरे दादाजी की डैथ के समय पापा छह महिने के थे दोनों ताऊ जी, बुआ भी छोटे थे दादी ने सबको संभाला, पढाया- लिखाया, शादी की, कामगारों के साथ खेती- बाड़ी भी संभाली। इतना ही नहीं वे इतनी दबंग व बुद्धमति  थीं और उनमें इतनी ठसक थी कि गाँव के झगड़ों- टंटों में भी सरपंच की भूमिका के लिए बहुत आदर से बुलाई जाती थीं और वे जो फैसले करती थीं वह सबको मान्य होते थे। मेरी मामी, नानी व ननद आदि भी ऐसी ही दबंग महिलाएं थीं।


वे साहसिक महिलाएं स्त्री- विमर्श या किसी भी तरह के विमर्श के  बारे में नहीं जानती थीं और न ही उनको जानने की जरूरत थी।बस मजबूत इरादे,  बुलन्द हौसले और खुद पर विश्वास ही उनके हथियार थे।


 तो मैं कुछ ऐसी ही अपने परिवार की उन बिंदास व ओजस्वी महिलाओं को याद करूँगी जो अतीत के सीने पर छोड़ गई हैं कुछ सशक्त हस्ताक्षर...कल जो मजबूत स्तम्भ रहीं अपने परिवार की और आज भी जिनके छोड़े रौशन पदचाप हमें राह दिखाते हैं।


  तो सर्वप्रथम श्रद्धा सुमन अर्पित शरबती बुआ को....!!🙏

                                                                                              

                                                क्रमश:

                                                                      - उषा किरण


चित्र; `दहलीज से परे ‘ 

( मिक्स मीडियम)

           -उषा किरण




                                                                                             

                                                                                           -

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

पाती ताताजी के नाम



                          

 आज ताताजी का जन्मदिन💐💐💐


पूज्य ताताजी 🙏


याद करती हूँ जब भी आप को तो स्मृतियों में मोंगरा  महक उठता है। आप सुबह ही क्यारी से मोंगरे  के फूल तोड़ कर तकिए के पास या मेज पर रख लेते थे...महकता रहता सारा दिन आपका कमरा।


आज तक ये रहस्य हम नहीं समझ पाते हम कि वो आपकी चादर,कपड़ों,से दिव्य महक कैसे आती थी । आप कपड़े धोने को देते तो हम नाक लगा कर सूँघते कि ये पसीना इतना कैसे  महकता है  हम हैरान होते ..सच में दिव्य पुरुष ही थे आप !


बहुत सोच समझ कर कम ही बोलते थे। बेहद नफ़ासत पसन्द व्यक्तित्व था आपका। आपके  बोलने, चलने,खाने- पीने , हंसने सभी में आभिजात्य झलकता।


मुझे याद है आपके पास कम ही कपड़े होते थे पर उस समय भी ब्राँडेड शर्ट ही पहनते थे । कपड़ों को इतना संभाल कर पहनते कि वो दसियों साल चल जाते ।


आपके जाने के बाद इतने कम कपड़े थे कि उनको बाँटने में कोई परेशानी नहीं हुई मुझे ।मैं अक्सर बेटी से कहती हूँ कि मेरे बाद तुम्हारी हालत खराब हो जाएगी बाँटते- बाँटते ।


  बैडशीट में एक भी सिलवट हो तो वे सो नहीं सकते थे । नौकर-चाकर होने पर भी अपनी बैडशीट  खुद बिछाते और फिर सेफ्टिपिन्स से चारों तरफ से खींच कर पिनअप कर देते । कभी जब शीट गन्दी देख अम्माँ  बदलतीं तो पिन निकालते- निकालते भुनभुनाती रहतीं।ये जीन्स मेरे बेटे में अपने नाना जी से आए  हैं । बचपन से ही वो भी उठ-उठ कर चादर की सिलवटें निकालता रहता है।


आप भागलपुरी चादर सिर से पैर तक तान कर सोते थे । बेटी मिट्ठू जब  छोटी थी और जब मैं घर जाती  तब चुपके से वो आपकी चादर खींच कर उतार लेती और लेकर भाग जाती ।उसे आपकी चादर का सॉफ्ट टच और खुशबू बहुत भाती थी । नाक लगा कर सूँघती, गाल पर लगा कर कहती `ममा कितना सॉफ्ट- सॉफ्ट!’ जब मैं वापिस मेरठ लौट रही थी पैकिंग करते समय आपने वो चादर मुझे देकर कहा`रख लो बेटी मिट्ठू को बहुत पसंद है ‘कहते आपका चेहरा ममता और भावुकता से भीग गया था आपमें बहुत ममत्व था।


         बस एक रोटी ,दो चम्मच चावल ही खाते थे । अम्माँ जब आपकी थाली लगातीं तो लगता जैसे ठाकुर जी का भोग लगा रही हों कपड़े से पोंछने के बाद अपनी धुली सूती धोती के पल्लू से भी एक बार पोछतीं फिर रच- रच कर अपने हाथ का  अमृततुल्य स्वादिष्ट भोजन बिना हड़बड़ी के बहुत धैर्य से लगातीं ।छोटी सी कटोरी में एक चम्मच घी और एक छोटी कटोरी में ताजी सिल पर पिसी चटनी भी रखतीं । उनको थाली लगाते हम बड़े मनोयोग से देखते फिर हमें बहुत संभाल के थमातीं  कहीं जरा भी कोई छींट या बूँद न रहे ये ध्यान रखतीं हम लोग भी बहुत साध कर उनकी टेबिल तक ले जाते ।


आप कभी डाँटते नहीं थे हम लोगों को । बस अम्माँ से कहलवा देते जो बात पसंद नहीं आती  थी। मुझसे गल्ती बहुत होती थीं जाने ध्यान कहाँ-कहाँ उड़ा रहता ।कभी बर्तन तोड़ देती , कभी कुछ बिखेर देती कहीं कुछ छोड़ आती ।मेरी गलती पर `पूरी फिलॉस्फर हो तुम ‘इतना ही कहते । 


छोटी बहन निरुपमा खूब पटर- पटर बोलती थी ।वो बहुत लाडली थी । जैसे ही आप ऑफिस से आते चेंज कर कॉफी पीते सारे दिन के सब समाचार सुनाने बैठ जाती।कहते `आओ भाई सेक्रेटरी क्या खबरें हैं ‘और बस वो शुरु...।


मेरी और सब भाई- बहनों की उपलब्धियों पर जी भर कर सराहते ।जब भी मैं कोई पेंटिंग बनाती तो शाबाशी भी देते । कोई कहानी या कविता छपती तो बहुत खुश होते थे। पता नहीं क्यों मैं पहले जब कुछ बड़ी हुई तो डरती थी आपसे ।फिर सब डर निकल गया जब अम्माँ ने आपको  बताया तो आप मुझसे ज्यादा बातें करने लगे ।प्राय: हम भाई-बहनों को कभी-कभी खुद पढ़ाते भी थे ।


         इतने कड़क अफसर ...पर फिल्म देख कर कोई इमोशनल सीन आने पर चुपके से रोते थे खास कर माँ का कोई सीन होता तो। हमने दादी को नहीं देखा पर उनके लिए जो श्रद्धा थी ...भक्ति थी आपके मन में वो हमने देखी।


आपकी और देवानन्द की जन्मतिथि एक ही थी जब आप ये बताते तो मैं कहती यदि वो थोड़ा ग्रेसफुल होता तो वो आप जैसा दिखता...इस पर कितना हंसते थे।


जब कभी मुझे कॉलेज छोड़ने जाते तो मेरी फ्रैंड पूछतीं वो भाई थे तुम्हारे? मैं बताती तो यक़ीन नहीं करती थीं ।क्योंकि आप स्मार्ट और उम्र से बहुत यंग लगते थे।


आप हमेशा टिप- टॉप रहते। सन्डे में भी नहा धोकर  अच्छे से तैयार होते। सारे दिन न्यूज सुनते । प्राय: बी बी सी न्यूज सुनते और कैप्सटन के पेपर व तम्बाकू से सिगरेट बना कर सिगरेट - केस में रखते जाते ।बचपन में मैं और भैया एक दो  पार कर लेते और छिपा कर सुट्टे लगाते कभी- कभी और सोचते थे आपको पता नहीं चलता होगा पर आपको पता होता था ये मुझे शादी के बाद बताया तो मैंने पूछा आपको कैसे पता चलता था बोले मैं गिन कर रखता था । आज तक ताज्जुब है कि आपने कभी कुछ नहीं कहा बचपन में। शायद भरोसा था  और ये बच्चों की शैतानी है ये समझते थे।


हम लोगों को जब भी बुखार आता तो दवा देना, थर्मामीटर लगाना,सिर पर पट्टी रखने का काम आप ही करते थे कितना परेशान हो जाते हमारी तकलीफ देख कर।


             हम नैनीताल या मसूरी घूमने जाते तो थकने पर चढ़ाई पर बारी- बारी से हम चारों को गोद में उठा लेते कुछ- कुछ देर के लिए।छुट्टियों में कभी नैनीताल, मसूरी शिमला ले जाते क्योंकि पहाड़ बहुत पसंद थे और कभी गाँव में ताऊजी ताईजी के पास जहाँ हम जम कर मस्ती करते और आप लखनवी कुर्ता और धोती पहन दोस्तों से जब मिलने निकलते तो आपका वो रूप कितना बेफिक्र , भव्य होता ।गाँव में भी लोगों की बहुत मदद करते थे बहुत इज्जत और प्यार करते थे वहाँ सब आपकी ।हम जहाँ से निकलते सब कहते `अरे बे सन्त की लली हैं ऊसा ?’


हम तीनों बहनों को लेकर आप बहुत संवेदनशील थे । अम्माँ बताती हैं मैं सबसे ज्यादा जिद्दी थी बहुत रोती और रोती तो रोती ही चली जाती जोर -जोर से।अम्माँ सहायकों  को कहतीं 'साहब के पास ले जा उठा कर ‘और मैं आपके पास जाते ही चुप हो जाती ।अम्माँ को ही सुनना पड़ता कि वो मेरा ध्यान नहीं रखती हैं।आप अक्सर कहते `उषा बिल्कुल मुझ पर गई है मैं भी बहुत जिद्दी था।’


बेटी मिट्ठू जब हुई तो मैं एक महिने की होते ही ग़ाज़ियाबाद अपने घर आ गई थी। बहुत सुबह ही अम्माँ के उठने से भी पहले मिट्ठू को उठा कर अपने रूम में ले जाते और कह जाते `अब तुम सो लो आराम से ‘ सबसे कहते शोर मत करना वो सो नहीं पाई होगी रात में। और सारी रात की जागी मैं दो तीन घंटे खूब चैन से सो पाती पैर पसार कर ।


नाम भर के नहीं आप सच में `सन्त ‘थे ताताजी ।आप कृष्ण के परम् भक्त थे अंतिम समय में , कोमा में जाने से पहले तक भी  निर्विकार रूप से"ओम् नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप कर रहे थे कितना दुर्लभ है पूरा जीवन ऐश्वर्यशाली जीवन जीने के बाद अंत समय यदि स्मरण रहे प्रभु नाम और बाकी कुछ भी ममता बाकी न रहे।


हमारा सौभाग्य कि हम आपके बच्चे थे । कितना कुछ लिखना चाहती हूँ पर ज़्यादा नहीं लिख पाती बहुत तकलीफ़ होती है लिखे बिना भी बेचैनी होती है बहुत...।आपके हिस्से का एक जगमगाता आकाश बसता है मेरे अंदर  आज भी।


आज आपके  जन्मदिवस पर हमारा शत- शत नमन ...🙏! यदि अगला जन्म हो तो आपके आस- पास ही रहें हम ।आप जहाँ कहीं हों हमपर आशीर्वाद बनाए रखिएगा.....ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी आत्मा को शाँति प्रदान करें और अपने चरणों में स्थान दें 🙏 !!


                    आपकी फिलॉस्फर बेटी🙏😔💐





शनिवार, 27 मार्च 2021

जब फागुन रंग झमकते थे



#जब_फागुन_रंग_झमकते_थे


बचपन की मधुर स्मृतियों में एक बहुमूल्य स्मृति है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।


प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 


हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ...गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था !याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो !”ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 


छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं।परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।


रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और सहेलियों से मिलने निकल जाते। 


रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...? अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो ‘गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार कहते।”


गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आतीं, साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।


पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' सन्त’ आ रहे हैं ।


पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था ।उधर अम्माँ  हल्का घूँघट चदरिया हटा जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का  भी ये नया रूप होता ।


अम्माँ की  भी गाँव में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी , सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बिटिया और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।


 वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको ।

गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर -

" हैं सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम,लल्ला हमाओ सूख रहो है...हैं काए  कुछ खबाती पिबाती नहीं का !”

" कहाँ जिज्जी !का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !” 

अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 


एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें । हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं -

"ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्दर रहीं...जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी...बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने, हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुक जाता , हम बड़बड़ाते तो अम्माँ समझातीं अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं।


             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह , उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।


गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते तो कभी तालाब में कूद जाते ।कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाते।चूल्हे की धुँआरी गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती । चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहती में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । 


बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने मानती कहाँ थीं !”


गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो ।और होली पर भेंट चढ़ी चीज वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 


सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज  होता जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते जल देकर परिक्रमा करते और आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए पर कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा आधी रात ही होली में लपट दिखा देता बस सारे गाँव में तहलका मच जाता लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,लोग धोती , पजामे संभालते ,आँख मलते जल भरा लोटा और गेहूं की बालियाँ लेकर लप्पड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ओ ऽऽ चलियो रेऽऽऽ ददा काऊ नासपीटे ,दारीजार ,मुँहझौंसे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ऽऽऽ...’गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास ‘को।


दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ कढाई से दूर...’पर हम दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई- छपाक् करते फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।


गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती गली में ढोल लटका गाते बजाते...गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।


दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकोर कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ...सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जात। गाँव में कहते थे कि रंग का नशा ठंडाई से ज़्यादा चढ़ता है।

रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।


कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे  पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी जाने का विशेष आकर्षण होती थी जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं।बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती ।


मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम, सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे।हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे। वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल -बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?


आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं...अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-दमकते थे लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें, पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे।

दो गज दूरी भी है जरूरी तो बेहतर है कि इस बार अपने ही परिवार के साथ होली खेलें । आप सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

                                  —उषा किरण     


फोटो :गूगल से साभार

रविवार, 21 फ़रवरी 2021

लड़की की फोटो



वर्ष 1978 ग़ाज़ियाबाद , गाँधी-नगर, बसन्ती सदन -


एम.एम.एच. कॉलेज से ड्रॉइंग एन्ड पेन्टिंग में एम.ए. की पढ़ाई कर रही लड़की की शादी की बातें शुरु हो चुकी हैं। तो सबसे पहले तो एक फोटो की दरकार है लड़की की, वो भी स्टूडियो में मेकअप करके बनारसी साड़ी पहन कर और स्टैंड  पर हाथ रख कर पोज बनाते हुए ।सही अनुपात में हंसते हुए। एकदम सही अनुपात से मतलब न थोड़ा सा भी ज्यादा कि बेशर्म लगे और न ही इतना कम जो घुन्नी लगे। लेकिन अब सवाल ये है कि बिल्ली के गले में घंटी बाँधे कौन ? 


किसी तरह माँ ने कहा -

एक फोटो खिंचवा लो ।

क्या जरूरत है ?

अरे सब लड़किएं खिंचवाती हैं न ।

तो ? पर किसलिए?

शादी के लिए भेजनी होती है न ।

तो हैं तो इतनी कोई सी भी भेज दो।

एक भी ढ़ंग की नहीं,और अकेले तो एक भी नहीं है।

जैसी शकल होगी वैसी ही तो आएगी और ग्रुप वाली फोटो पर टिक लगा कर भेज दो।जिसे पसन्द आ जाए करे वर्ना न करे।अहसान नहीं करेगा शादी करके कोई।

ओफ् हो तुमसे तो बात करना ही बेकार है

माँ झुँझला कर बड़बड़ाते हुए उठ गईं ।

खैर फिर एक फैमिली ग्रुप फोटोग्राफ में से गाँधी नगर चौराहे वाले चौधरी फ़ोटो स्टूडियो से लड़की का फोटो निकलवाया गया और लड़के वालों के यहाँ भेजना शुरु किया गया। 


जवाबों के सिलसिले शुरु-

पसन्द है

पसन्द नहीं लड़के को

पसन्द है...दहेज कितना देंगे चौहान साहब?

लड़की की भाभी को पसन्द नहीं ।

कहीं लड़के वाले को लड़की नहीं पसन्द तो कहीं पापा को लड़का या घर नहीं पसन्द ।

आखिरकार एक महापुरुष को  फोटो पसन्द और पापा को लड़का पसन्द ...अब लड़का और घरवाले लड़की देखेंगे।पापा को घर बुला कर बेटियों को नुमाइश लगा कर दिखाना नहीं पसन्द ।

आगरे मामाजी के घर जाने का प्रोग्राम बनाया गया।साथ में दिखाने लायक  साड़ी ब्लाउज भी माँ ने चुपके से सूटकेस में दबा ली।


कल सब `कभी-कभी’ मूवी देखने जाएंगे ।लड़की खुश ! ये लम्बू हीरो एक्टिंग अच्छी करता है ..टाइटिल सॉन्ग बहुत पसन्द है तो समझते हुए भी मामी के कहने पर बिना चूँ चपड़ किए साड़ी पहन ली। कोई मेकअप नहीं। रानी बेटी एक बिन्दी छोटी सी लगा लो । मामी ने धीरे से कहा। नहीं! सपाट मना कर चल दी साथ।अम्माँ, मामा जी, मामी जी , मामी की बेटी और छोटी बहन भी साथ गए बाकी सब घर पर ।


सिनेमा हॉल के बाहर ही `अचानक’ मामाजी के कोई दोस्त की फैमिली के दस- बारह लोग मिले...बड़ी खुशी हुई...बड़ी खुशी हुई के बाद लड़की का परिचय -ये हैं हमारी बहन की बेटी`जलफुकड़ी देवी’😜 लड़की ने जितना रूखा- सूखा सा मुँह बना सकती थी बनाया।


खैर लड़की ने झूम कर मूवी देखी जम कर हंसी , जम कर रोई। कभी -कभी मेरे दिल में खयाल आता है पर धीमे -धीमे सुर मिलाया। खूब डकारें लेकर ठंडा कोका-कोला पिया।खूब मजा लेकर मूवी देखी।


लौटते समय फिर हॉल के बाहर सब साथ मिले तो मामाजी के दोस्त के खानदान ने पुन: पुन: लड़की को ऊपर से नीचे तक खूब आँखें फाड़-फाड़ कर घूर कर देखा । बच्चे बिना बात शरमाए जा रहे थे शायद कल्पनाओं में लड़की को मामी या चाची बना देखने की कल्पना करके। पर लड़की आज जरा नहीं बिदकी। मूवी के खुमार में सब माफ...घूर लो जितना घूरना हो बेशरमों। मन ही मन सोच रही थी इस लम्बू की फिल्म देखने के बदले तो रोज देख लें लड़के वाले...चूँ तक नहीं करेगी।


लड़की का रंग जरा दबा है गोरा नहीं है ! हफ्ते भर बाद लड़के वालों का रिएक्शन आया।लड़की को जरा बुरा नहीं लगा ।ठीक है पहले से देख कर रिजेक्ट कर दिया वर्ना बिना देखे हो जाती शादी तो सारी उम्र लड़का कौए की तरह ठोंगे मारता। तब तो बड़ी वाली बेइज्जती हो जाती। एक महिने बाद दूसरी खबर...स्कूटर की डिमान्ड है यदि देंगे तो शादी हो जाएगी। उस समय लड़कों की दहेज की औकात बस स्कूटर तक ही थी या मोटरसाइकिल तक की। गाड़ी तो किसी- किसी के ही बाप पर होती थी। अब जैसी बात नहीं थी कि हमारा ड्राइवर भी अपनी लड़की की शादी में गाड़ी दे रहा है ।

पापा खुश हैं स्कूटर देने को तैयार हैं ।

जीजाजी और भैया से बात कर रहे हैं। रोकना के लिए जाना है। पर लड़की का खून खौल रहा है। पहले रिजेक्ट करने पर बेइज्जती नहीं लगी पर अब ये तो सरासर बेइज्जती है। वो घायल शेरनी सी आँगन के चक्कर लगा रही है।


अकेले में माँ को घेर लिया -क्यूँ अम्माँ ये स्कूटर ले कर डॉक्टर साहब को हम गोरे लगने लगेंगे क्या ? रहेंगे तो हम तब भी  काले ही न ? अरे ये तो लड़के वाले पहले कहते ही हैं जरा भाव बढ़ाने के लिए। वर्ना तुम कोई काली थोड़े ही हो अम्माँ ने लिपाई- पुताई की। हमें नहीं चाहिए किसी से गोरे काले होने का सर्टिफिकेट बताए देते हैं। हम नहीं करने वाले शादी इस डॉक्टर के बच्चे से। लड़की गुस्से से फनफनाई। तुमको शादी करनी है नहीं बस बहाने ढूँढती रहती हो ! अम्माँ को गुस्सा आ गया।हाँ तो बढ़ाएं न अपने भाव अपने घर बैठ कर ...अब तो हमारा भाव बढ़ गया...कह दो नहीं करनी उस फकीर से शादी।डॉक्टर, कलैक्टर ही क्यूँ  मुझे खुद पर भरोसा है मेहनत से सब हासिल कर सकती हूँ मैं !


लड़की की भुनभुन और अम्माँ की बड़बड़ कि- जाने कहाँ निभेंगी ये नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं ।सुगबुगाहट पापा के पास पहुँची। पापा ने कहा हाँ ठीक तो कह रही है वो ...बात खत्म !


खैर ...और लड़के देखे जाने लगे । रिश्तेदारों के फोन खटखटाए गए । चिट्ठियाँ लिखी गईं । पेपर में एड दिया गया।आखिर एक और जगह फोटो पसन्द आई लड़की की। सुना आई ए एस है लेकिन एक लाख कैश की डिमान्ड है।उस जमाने में शायद लाख की वैल्यू आज के करोड़ के बराबर तो होती ही होगी।


पापा को कलैक्टर दामाद का बड़ा लालच पकड़े था । जुगाड़ सोच ही रहे थे कि गाँव की कुछ जमीन बेच देंगे या लोन ले लेंगे ।भनक पाते ही लड़की फिर सिरे से उखड़ गई-भिखारी कलैक्टर, भिखारी कलैक्टर कह कर खूब मुट्ठियाँ हवा में लहराईं छोटी बहन और भाई व अम्माँ के सामने।पापा तक बात गई तो बोले वो कह तो सही रही है तो वो बात भी गई। लड़की को सुकून मिला वो मस्त है फिर से अपनी पेन्टिंग, लेखन, म्यूजिक और ढेरों और शौक में। आसमानों में उड़ती फिरती है जमीन पर पैर ही नहीं रखती।सारे दिन लॉन में , धूप में ईजल लगा कर म्यूजिक सुनते हुए पेन्टिंग करती है या संतरे , मूँगफली खाते हुए पढ़ती रहती है। बराबर वाले घर से अग्रवाल आन्टी टोकती हैं अरे लड़की सारे दिन धूप में बैठ कर काली हो जाएगी छाँव में बैठा कर।लडकी मुस्कुरा देती है बस।


कुछ दिन शान्ति में बीते ही थे कि एक और धमाका हुआ। गाँव से नउआ काका आए हैं बिटिया के लिए रिश्ता लेकर। पापा उनकी आवभगत में कोई कमी नहीं रखते। खूब खा पीकर नउआ काका फूटते हैं कि सौ बीघा जमीन है, ट्रैक्टर है, दो भैंस हैं और लड़का बी ए में पढ़ रहो है , देखन में बिल्कुल रामजी जैसो सुन्दर है। लड़की को खाएबे  पिएबे की कौनो दिक़्क़त नहीं आनी है ।लड़की अपने कमरे में पढ़ रही थी बातें उसके कानों में भी पड़ रही थीं। सुन कर हंस-हंस कर लोट-पोट हो गई। अम्माँ का तो मारे गुस्से के बुरा हाल था वो पीछे से बड़बड़ाती रहीं पर पापा के सामने वो हमारी तरह तबड़- तबड़ नहीं करती थीं।खैर नउआ काका को दे लेकर समझा कर विदा किया गया।


उसके बाद लड़की ने अम्माँ से खूब मस्ती की। वो जितना नउआ काका को खरी-खोटी कहतीं लड़की उतनी ही मस्ती करती। अम्माँ हम सोच रहे हैं भैंस का दूध निकालने की कोचिंग ले लें।और बस अम्माँ शुरु हो जातीं ।


खैर फिर अम्माँ की बुआ की बहू के भाई के दोस्त की बहन ने एक प्रोफ़ेसर लड़का बताया। राजपूतों में अच्छी रसूख वाला प्रतिष्ठित परिवार है। पर पापा कुछ अनमने से हो गए।उनका मन है कि पहले दामाद की तरह इंजीनियर हो या डॉक्टर। पर लड़की की अम्माँ ने बहुत समझाया कि वो जॉब करना चाहती है तो प्रॉफेसर ऐतराज नहीं करेगा इंजीनियर के तो प्राय: ट्रान्सफर होते रहते हैं वो नहीं करवाएगा जॉब।पापा मान तो गए पर बहुत बुझे मन से गए हैं लड़का देखने।


पापा बहुत खुश हैं लौट कर कि पहली बार ऐसा हुआ कि किसी लड़के वाले ने दहेज की माँग नहीं की बल्कि क्या डिमान्ड है पूछने पर कहा कि सिर्फ़ आपकी बेटी और कुछ नहीं चाहिए । आपके जैसे प्रतिष्ठित परिवार में रिश्ता जोड़ कर हमें खुशी होगी। सभी का व्यवहार बहुत सम्मान से भरा था।सभ्य, सौम्य, विनम्र लोग।


लड़की ने सुना तो आँख नम हो गईं। न डॉक्टर, न कलैक्टर, न ही इंजीनियर...बस यही तो चाहिए था पापा का सम्मान ! बाकी जो किस्मत को मंजूर...!

सोमवार, 7 सितंबर 2020

#तस्मै_ श्री_ गुरुवे_नम: ( अन्तिम भाग)🌸🌼🌸🌼☘️🌿

                 

मथुरा में पाँच साल पापा की पोस्टिंग रही ।बी. ए. में किशोरी रमण कॉलेज में एडमिशन लेकर बहुत सुखद अहसास हुआ डिग्री कॉलेज का स्वतन्त्र माहौल बहुत माफ़िक़ आया।कभी भी आने-जाने की व क्लास  से बन्क मारने की स्वतन्त्रता  बहुत सुकून देती थी।वहाँ की कैंटीन जैसे समोसे हमने कहीं नहीं खाए।मैं , मन्जु और बृजलता खाली पीरियड में समोसे खाते थे !

कॉलेज की बाउन्ड्री नीची थी और खाली पीरियड नें लड़किएं ग्राउंड में चहकती रहती थीं । कॉलेज के बाहर साइकिलों पर लड़के मंडराते रहते थे । वाइस प्रिंसिपल लीला मैडम बहुत कड़क पर्सनैलिटी थीं , हमेशा सिर के ऊपर बीच में गुलाब का फूल लगातीं थीं ,वो लड़कों को हड़काती रहती थीं । कॉलेज की व्हाइट यूनिफ़ॉर्म थी तो लड़के बाउन्ड्री की वॉल पर बड़ा- बड़ा 'विधवा-आश्रम’ लिख जाते थे।डॉ० सरोजनी मैडम प्रंसिपिल थीं उनका सब्जैक्ट हिन्दी था , वो प्राय: कभी भी  शौकिया महादेवी वर्मा पढ़ाने आ जाती थीं और पढ़ाते- पढ़ाते बड़ी रोमान्टिक हो जाती थीं ।हम सब खूब एक दूसरे को इशारे करते और मजे लेते ।लीला-मैडम,कुसुम सिंह मैडम,निर्मल मैडम आदि सभी की स्मृतियाँ आज भी सजीव हैं।मेरे भाग्य से उसी साल वहाँ पर ड्रॉइंग एन्ड पेन्टिंग खुल गया था जिसकी क्लास में मेरा सबसे ज़्यादा मन लगता था।बहुत जल्दी ही कुसुम सिंह मैडम की फेवरिट स्टुडेंट हो गई।वहाँ की सभी टीचर्स को नमन🙏 

मैं एम. ए. पेन्टिग से ही करना चाहती थी लेकिन वहाँ इसमें एम.ए.न होने के कारण मैंने अपनी फ्रैंड बृजलता के साथ संस्कृत में फ़ॉर्म भर दिया।कॉलेज में कैजुअल क्लासेज़ की व्यवस्था के तहत तीन टीचर्स की नियुक्ति की गई थी कुल पाँच बच्चे थे हम।ख़ूब मन लगता था क्लास में क्योंकि जहाँ भी ज़बर्दस्ती का क़ैद जैसा अनुशासन हो वहाँ दम घुटता था और यहाँ संस्कृत साहित्य और फिलॉस्फी की  क्लास में जो पेड़ों के नीचे  खुले में होती थीं आनन्द आता था ।वेद व भारतीय दर्शन की क्लास श्रद्धेय वनमाली शास्त्री जी लेते थे जिन पर मेरी अगाध श्रद्धा थी ।हालाँकि वे कभी भी स्कूल नहीं गए पर प्रकान्ड पन्डित थे।वे सचमुच में योगी ही थे।उन्होंने इतनी अच्छी तरह से गूढ़ ग्रन्थों को समझाया जो आज तक याद है।

एम. ए. फ़ाइनल में वे क्लास होनी बन्द हो गईं और मेरी फ्रैंड ने बृन्दावन में एडमिशन ले लिया पर मेरा बस से डेली सफर करने का मन नहीं था तो हमने शास्त्री जी से अनुरोध किया कि वो हमें घर पर पढ़ा दिया करें और उन्होंने स्वीकार कर लिया वे हमें रोज़ पढ़ाने आते थे हमने ऑप्शनल पेपर में फिलॉस्फी भरा था ।आचार्य जी का औरा इतना दिव्य था कि उनके पास बैठ कर पढ़ने में अलौकिक अनुभूति होती थी।जब पापा उनकी फ़ीस का लिफ़ाफ़ा पकड़वाते तो वे बेहद अपराध- बोध से भर जाते थे अत: जैसे ही पापा लिफाफा देने आते हम उठ कर चले जाते थे।

एग्ज़ाम को बस चार दिन रह गए थे और मीमांसा की किताब बाक़ी थी हमें बहुत घबराहट हो रही थी कई बार पढ़ने की कोशिश का पर समझ नहीं आ रहा था कुछ ! आचार्य जी ने कहा टेन्शन मत लो सब हो जाएगा।दो दिन पहले उन्होंने कहा कि आज मीमांसा कराएँगे तुम किताब बन्द कर रख दो और बस ध्यान से सुनती रहो।वो बोलते रहे हम सुनते रहे ।पूरी किताब पर डेढ़ घन्टे का लेक्चर देकर कहा कि बस एक बार पढ़ लेना और जो सुना- समझा है अपने विवेक से लिख आना ! हमने ऐसा ही किया !

बी.आर.कॉलेज ,आगरा में सेन्टर था तो पेपर वाले दिन सुबह ही आगरे के लिए निकल जाते थे ।फिलॉस्फी का पेपर बहुत अच्छा आया था लेकिन चार ही प्रश्न का उत्तर लिख पाए और घन्टी बज गई हमारी सासें रुक गई मानो...पर धड़ाधड़ लिखते रहे ! सब बच्चे चले गए कॉपी जमा करके ! एक टीचर भी चले गए पर दूसरे चुपचाप कुर्सी पर बैठे रहे न उन्होंने हमसे कॉपी माँगी न हमने दी ! हम बार- बार डर के उनको देख रहे थे वो गॉगल्स लगाए मुँह में पान दबाए शान्ति से बाहर देखते बैठे हमें किसी देवदूत से कम नहीं लग रहे थे ! पूरे बीस मिनिट एक्स्ट्रा लेकर हमने आन्सर पूरा लिखा कॉपी देकर सर को बार- बार थैंक्यू बोला वो मुस्कुरा कर कॉपी समेट कर चले गए ! 

जिंदगी भर उन अनजान टीचर को नहीं भूल सकी ! उस पेपर में दोनों सालों के सभी पेपर्स से सबसे ज्यादा मार्क्स आए ! उनसे मैंने सीखा कि टीचर का सम्वेदना- पूर्ण व्यवहार स्टुडेंट के मन में अगाध श्रद्धा व उदारता के प्रति आस्था के बीज बो देता है ।पूरी जॉब के समय एग्जाम की ड्यूटी में मैंने कभी भी स्टुडेंट से टाइम पूरा होने पर कॉपी नहीं छीनी अपितु उनके रिक्वेस्ट करने पर उन अनजान टीचर को याद कर कुछ टाइम एक्स्ट्रा भी दे देती थी और स्टुडेंट के प्रति सहृदय भी रहती थी।तो नमन आचार्य जी को और उन अनजान टीचर को और उनकी सम्वेदना को भी , 🙏

पापा का ट्रान्सफर फिर ग़ाज़ियाबाद हो गया और वहाँ पर एम एम एच कॉलेज में मैंने एम ए ,ड्रॉइंग एन्ड पेन्टिंग में एडमिशन ले लिया और मेरा बरसों का सपना पूरा हुआ।मैं और मेरी फ्रैंड लता घन्टों लाइब्रेरी में नोट्स बनाते थे।और के. डी. पान्डे सर को चैक करने के लिए देते थे तो सर चैक कर लौटाते समय नोट्स की तारीफ़ करते थे कुछ लड़कों ने हमसे एक दिन नोट्स माँगे हमने मना कर दिया तो चिढ़ कर एक दिन ब्लैक-बोर्ड पर लिख दिया "उषा किरण इज माई फ्रैंड” ।हम अपनी फ्रैंड्स के साथ बातों में मस्त थे तो नहीं ध्यान दिया ।

पान्डे सर ने क्लास में आते ही देखा और बोले अरे ये किसने लिखा है और ब्लैक बोर्ड साफ़ कर दिया ।हमने जैसे ही पढ़ा मारे ग़ुस्से और अपमान से हमारा मुँह लाल हो गया और हम रुआँसे होकर नीचे मुँह करके बैठ गए। आज से बयालीस साल पहले लड़के और लड़कियों की दोस्ती को अच्छा नहीं समझा जाता था।

सर ने हमें देखा तो बोले कि "अरे तुम क्यों परेशान हो रही हो कोई दोस्ती करना चाहता होगा कह नहीं पाया तो लिख दिया ।”

फिर कहा "तुम इतना क्या सोच रही हो देखना एक दिन तुम किसी ऊँची कुर्सी पर बैठी होगी और ये सब### लगे होंगे कहीं लाइन में !”

फ़ाइनल में हमारी शादी हो गई हमने बहुत कहा कि एम. ए. के बाद करेंगे लेकिन लड़का मिल चुका था और पापा चाहते थे कि रिटायरमेण्ट से पहले ही शादी कर दें तो हो गई शादी और हमने आर.जी.कॉलेज,मेरठ में ही एडमिशन ले लिया जहाँ शुरु में स्टुडेन्ट और टीचर्स ने हमें एकदम ही नकार दिया।न टीचर को हमारा काम पसन्द आ रहा था न ही कोई फ्रैंड थी । एम. एम. एच.कॉलेज में हम क्लास के बेस्ट स्टुडेंट थे ,कहानी और कविता भी छपती थीं तो क्लास में व टीचर्स में अलग प्रतिष्ठा थी , रुतबा था और यहाँ हमें कौड़ियों के भाव तोला जा रहा था ।हमने पढ़ाई के कारण हनीमून पर जाने के लिए भी मना कर दिया था ।टीचर्स की अवहेलना और तिरस्कार से आत्मविश्वास कीं धज्जियाँ उड़ गईं ...डिप्रेशन में आने लगे ...हर समय रोना आता था ।ऊपर से क्लास में हम अकेले मैरिड थे तो एक अलग ही प्रजाति के नजर आते थे ।नई शादी , बड़ी सी जॉइन्ट फैमिली और कॉलेज का स्ट्रैस बहुत अधिक था।तब मेरे हस्बैंड मुझे अपने दोस्त मेरठ कॉलेज के पेन्टिंग के प्रोफ़ेसर डॉ. आर. ए. अग्रवाल सर के पास ले गए जिन्होंने थ्योरी में मेरी मदद की।पूरे परिवार से बहुत अपनापन व प्यार मिल भाभी जी का सरल व प्यार भरी आत्मीयता सुकून देती थी तो बच्चे भी खूब घुल- मिल गए।

प्रैक्टिकल के लिए मेरठ कॉलेज के प्रोफ़ेसर  डॉ.दिनेश शर्मा सर और उनकी पत्नी डॉ. सुधा शर्मा मैडम जो आर. जी कॉलेज में ही प्रोफ़ेसर थीं उनसे भी उनका परिचय था तो उनके पास ले गए ।वो लोग ट्यूशन नहीं करते थे पर रिक्वेस्ट करने पर हमें पेन्टिंग सिखाने के लिए राज़ी हो गए ।हम उनके घर पर जाकर पेंटिंग सीखने लगे और बहुत जल्दी ही बच्चों से और उन लोगों से आत्मीयता हो गई। उन लोगों से न सिर्फ़ पेंटिंग सीखी और बहुत कुछ सीखा ।सुधा दीदी से अचार बनाने के व कुछ किचिन के टिप्स भी मिले और पूरे परिवार का स्नेह मिला । मेरठ में दो आत्मीय परिवारों सेघुलना -मिलना ,आना- जाना हुआ जो आज भी क़ायम है कॉलेज में भी कुछ दोस्त बन गईं और मन लगने लगा।पेन्टिंग में एम. ए. करते जिन गुरुजनों ने मदद की सभी को सादर नमन ।🙏

एम. ए. करते ही आर.जी .कॉलेज में ही ट्यूटर की पोस्ट पर हमारा सिलेक्शन हो गया और हमने टीचिंग की शुरुआत की।राका मैडम, सविता नाग मैडम, सुधा मैडम,सावित्री मैडम ,मृदुला मैडम,सुषमा मैडम के साथ स्टाफ़ रूम में साथ चेयर शेयर करते कितनी ख़ुशी मिलती थी बता नहीं सकते ।सभी टीचर्स का प्यार व आत्मीयता भरे व्यवहार के कारण खोया हुआ आत्मविश्वास दुगना होकर वापिस आया ।

सभी से भरपूर स्नेह व मार्गदर्शन मिला और आगे जाकर परस्पर मित्रवत् सम्बन्ध विकसित हुए।सबिता नाग मैडम ने "कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन “ की स्थापना की तब उनके साथ कई शहरों में प्रदर्शनी लगाईं और कई वर्कशॉप अटैंड कीं ! हम कभी सुस्त पड़ते तो वे प्रोत्साहित कर पेन्टिंग बनवा लेती थीं ।डॉ. आर ए अग्रवाल सर के साथ पी-एच .डी .की और फिर मोदीनगर में जी डी एम पी जी कॉलेज नया खुला था उसमें परमानेन्ट जॉब लग गयाऔर उस कॉलेज की प्रथम टीचर बनने का सौभाग्य मिला !

एक बार मेरठ कॉलेज में सेमिनार अटैंड करने गई तो डॉ. आर ए अग्रवाल सर ने बातों ही बातों में कहा एक दिन आपको यहाँ आकर हैड की कुर्सी सम्भालनी है देखिएगा मैं आपको ही चार्ज सौंपूँगा। सत्रह साल बाद मेरा ट्रान्सफर मेरठ कॉलेज में हो गया और तीन साल बाद अग्रवाल सर ने मुझे जब चार्ज सौंपा तो वो ही बात याद दिलाई कि देखिए मैंने पहले ही कह दिया था कि एक दिन हैड का चार्ज आपको ही सौंपूँगा ! पान्डे सर एक बार प्रैक्टिकल के एग्जामिनर  बन कर डिपार्टमेन्ट आए तो बोले -

“मुझे बहुत गर्व है तुम पर जहाँ का मैं स्टुडेन्ट था आज तुम वहाँ कि हैंड ऑफ दि डिपार्टमेंट हो !” उन्होंने उस दिन क्लास में जो उद्घोषणा की थी वो भी याद दिलाई और बधाई दी। आज सर नहीं हैं पर मैं उनको मन ही मन श्रद्धांजलि देती हूँ ।

मैं चार्ज लेते ही बहुत बीमार रही पूरे वर्ष भर इलाज चला तब डॉ आर ए अग्रवाल सर ने रिटायर होने के बाद भी कई दिन चलने वाले हर प्रैक्टिकल में आकर मदद की और हमेशा  हर समस्या का निराकरण किया। डॉ सुधा मैडम व डॉ दिनेश सर कुछ साल बाद अमेरिका चले गए थे पर जब भी इंडिया आते हैं मैं अब भी उनसे बहुत कुछ सीखती हूँ वाक़ई वे बहुत अच्छे आर्टिस्ट हैं।

इस साल रिटायर हो गई ।पुरानी यादों के साथ अपने सभी गुरुजनों को ये मेरी भावान्जलि है ,! सच में मुझे मेरे गुरुओं का आशीर्वाद बहुत फला है !

तो सभी गुरुजनों को मेरा धन्यवाद !

धन्यवाद मेरे जीवन को दिशा देने के लिए!

धन्यवाद मेरे सपनों को पूरा करने में मेरी मदद करने के लिए !

और मुझे मान-सम्मान पूर्ण जीवन यापन में मदद करने के लिए धन्यवाद और नमन !🙏

और अन्त में मेरे उन सभी आध्यात्मिक गुरुओं विशेषत:पूज्य स्वामी शंकरानन्द जी और पूज्य स्वामी सुबोधानन्द जी को मेरा नमन जिन्होंने अज्ञान से ज्ञान की तरफ़ ले जाने वाली राह दिखाई ...!

                             गुरु बिन ज्ञान न उपजै,

                             गुरु बिन मिलै न मोष।

                             गुरु बिन लखै न सत्य को,

                             गुरु बिन मिटे न दोष॥

               सभी गुरुओं के चरणों में मेरा सादर नमन 🌼🌸🌼🌸🌼🌸🌼🌸🙏                           














                                                                                                                              


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