ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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गुरुवार, 17 अक्तूबर 2024

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से


"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था

सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था

हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े 

दुश्मन थे हम ही अपने. औरों में कहाँ दम था…”

जिस तरह मेरे लिए किसी किताब को पढ़ने के लिए सबसे पहले प्रेरित करता है उसका कवर और पेपर की क्वालिटी। उसी तरह किसी फिल्म को देखने से पहले उसका टाइटिल व म्यूज़िक का अच्छा होना जरूरी है। अब इस फिल्म का टाइटिल बहुत बाजारू टाइप घटिया लगा हमें और गाना एक भी सुना नहीं था तो पता नहीं था कैसी है, फिर भी देखी तो सिर्फ़ इसलिए कि तब्बू और अजय देवगन दोनों की एक्टिंग कमाल होती है और इसमें साथ थे दोनों, तो ये तो तय था कि टाइम बर्बाद नहीं होगा।तो देखी फिर…और लगा कि इससे बेहतर टाइटिल इसका और क्या होता ?अजय देवगन की आवाज में पूरी नज्म सुनिए, आनन्द आ जाएगा।

एक सम्पूर्ण प्रेम किसे कहते हैं, यदि देखना हो तो देख सकते हैं । ऐसा प्रेम जहाँ सब कुछ खोने के बाद, बिछड़ने के बाद भी जीवन में जो बचा वह सम्पूर्ण प्रेम ही है। जहाँ मीलों दूरी के बाद भी इतनी निकटता है कि विछोह का भी स्पेस नहीं । जहाँ एक का सुखी होना ही दूसरे की सन्तुष्टि है, तो किसी की सन्तुष्टि के लिए ही किसी को सुखी होना है…जहाँ किसी के लिए बर्बाद होने पर भी कोई ग़म नहीं, क्योंकि वह आबाद है….जहाँ कुछ भी न पा सकने पर भी कोई कमी का अहसास नहीं या शायद जहाँ अब कुछ पाना शेष नहीं….तो वहीं दूसरी तरफ़ किसी तीसरे को सब हासिल होने पर भी ख़ालीपन का अहसास है। खुद को वह असुरक्षित, ठगा हुआ सा महसूस करता है( ठगा हुआ बेशक पर सच के हाथों, छल के हाथों नहीं) प्यार की यही रीत अनोखी है यहाँ पाने और खोने के मीटर पर आप कुछ नहीं नाप सकते ।

कुछ लोगों का मत है कि जिमी को खामखाँ मूवी में डाला गया है।जिम्मी यानि  पति के बिना तो यह प्रेम कहानी अधूरी ही रहकर एक आम कहानी बन जाती। वो न होता तो जेल से निकल दोनों शादी करते, गृहस्थी में बंध जाते…स्वाहा, बात खत्म।

लेकिन यहाँ, जहाँ एक ने प्रेम यज्ञ में अपनी ही आहुति भेंट कर दी उसके हाथ बेशक ख़ाली हैं पर वह जानता है कि नायिका पूरी तरह सिर्फ़ उसकी है, दूसरी तरफ़ पति है जिसने उसे हासिल तो किया पर जानता है कि नायिका को पाकर भी उसके हाथ ख़ाली हैं, उसका सर्वांग पहले ही किसी और का हो चुका है, इस प्रेम यज्ञ में उसने भी अपनी आहुति डाली है। पति बहुत अच्छा इंसान है और इसी अच्छाई से बंधी है वह. पति सालों से अपने उस रक़ीब को जेल से छुड़ाने में बिना बताए प्रयासरत है, जिससे खुद इन्सिक्योर है.ये कहानी एक प्रेम- यज्ञ की कहानी है जिसमें तीनों अपनी-अपनी आहुति डाल रहे हैं, वक्त ने रचा है ये हवनकुंड.

नायिका को अपने पति के प्यार पर भी इतना विश्वास है कि वह जानती है कि पति उसे पूर्व प्रेमी के गले लगा हुआ देख रहा है पर वह निर्भय है, क्योंकि कुछ इतना खोने को है नहीं जिसका डर हो, कोई ऐसा सच नहीं जो छिपा हो तो भय कैसा ? और विश्वास का घृत है इस समिधा में मिला हुआ…!

वैसे इसे आप एक मामूली नाटकीय प्रेम कहानी भी कह सकते हैं और देखने पर आएं तो प्रेम- दर्शन का महाकाव्य रचती है यह फिल्म…बात है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर है। मेरा चश्मा है ही विचित्र जाने क्या-क्या तो दिखा देता है, सब कुसूर उसी का है…।

फिल्म का आखिरी दृश्य जब तब्बू अजय देवगन को नीचे गाड़ी तक छोड़ने जाती है इस फिल्म का प्राण है।एक- एक डायलॉग, हरेक भाव अद्भुत है। अजय देवगन की आँखों में राख और चिंगारी एक साथ दिखाई देती हैं। तृप्ति और प्यास एक साथ मचलते हैं। उसकी आवाज में कही गई नज्म…'औरों में कहाँ दम था…’ लगता है हर शब्द से धुआँ उठ रहा है…बार- बार सुनने का मन करता है।

सच कहूँ तो फिल्म देखते समय गाने से ज्यादा कहानी पर ध्यान था, तो गानों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।फिल्म देखने के तुरन्त बाद जब सारे गाने इत्मिनान से सुने तो मन मुग्ध हो गया।सुनिधि और जुबीन नौटियाल की आवाज में गाया गाना बेहद सुन्दर है-

"ऐ दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना

ये आज की शाम संभाल के रख लेना..

मैं तारे-सितारे करूंगा क्या 

जो पैरों तले ये जमीन न रही 

वजूद मेरा ये तुम ही से तो है 

रहा क्या मेरा जो तुम ही न रही 

ए आंसू ठहर कभी और छलक लेना 

ए दिल जरा कल के लिए भी धड़क लेना…

ये गाना इस फिल्म की आत्मा है जिसे मनोज मुंतज़िर ने बहुत ख़ूबसूरत लिखा है और कम्पोज़ किया है एम.एम. केरावनी ने।सुनिधि की आवाज इस गाने को अलग ही मुकाम पर पहुँचा देती है।

एक और सूफी गाना है- 

"किसी रोज बरस जल- थल करदे न और सता ओ साहेब जी,मैं युगों- युगों की तृष्णा हूँ तू मेरी घटा ओ साहेब जी…” इसको सुनते ही लगा बहुत अपनी सी आवाज है पर है कौन…देखा, अरे ये तो वही है अपनी मैथिली ठाकुर ! ये गाना भी जैसे भटकती रूहों को विश्राम देता है।जैसे प्रार्थना करता है कि जन्मजन्मान्तरों से भटकती प्यासी रूहों को अब इतना बरसो कि तृप्त कर दो….

चारों एक्टर की एक्टिंग कमाल की है।

अब कहानी नहीं बताएंगे, आप खुद ही देखिए। हम बता कर आपका क्यों मजा खराब करें। बस एक चीज खटकती रही कि कुछ सीन को पूरा का पूरा बार- बार दोहराना। कुछ फालतू सीन हटा देते तो फिल्म में कसावट आती।वैसे मैं ज्यादा मीनमेख निकालकर मूवी नहीं देखती. जिस नजरिए से बनाई गई बस उसी से देखती हूँ…अपने काम के मोती चुन लेती हूँ…बस!

यदि अजय देवगन, तब्बू की केमिस्ट्री देखनी है, बढ़िया संगीत सुनना है, प्रेम की पराकाष्ठा देखनी है तो देख लीजिए…सुना है कुछ लोगों को पसन्द नहीं आई तो नहीं आई….अब हमने तो अपने चश्मे से जो देखा वो बता दिया, आगे आपकी मर्ज़ी…आप देखें अपने चश्मे से 

फिलहाल तो हम रात दिन सुनिधि और मैथिली की आवाजों की चाशनी में डूब रहे हैं…अच्छा संगीत भी ध्यान ही है मेरे लिए।

                   —उषा किरण 



रविवार, 26 मई 2024

`तीसरी कसम’ - ( फिल्म समीक्षा )

                     

-निर्देशक: बासु भट्टाचार्य 

-लेखक: फणीश्वर नाथ रेणु ( संवाद)

-पटकथा: नबेन्दु घोष

-निर्माता: शैलेन्द्र

-अभिनेता: राज कपूर, वहीदा रहमान, दुलारी, इफ़्तिख़ार , असित सेन, सी. एस. दुबे, केस्टो मुखर्जी

-संगीतकार: शंकर जयकिशन

-गीतकार- शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी

-पूरी फिल्म मध्यप्रदेश के बीना एवं ललितपुर के  पास खिमलासा में फिल्मांकित की गई।

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          बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी यादगार फिल्म `तीसरी कसम’ के निर्माता थे सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र। यह फिल्म सिने जगत में श्रेष्ठतम फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दर्शकों को लुभाती है। हीरामन और हीराबाई की यह दु:खान्त फिल्म , फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई । इस फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य है। निर्देशन की नजर से भी यह फिल्म बेजोड़ है।ग्रामीण परिवेश की भाषा- बोली, रहन- सहन , विचारधारा व परिवेश का निर्देशन बहुत ख़ूबसूरती से किया गया है। 

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ को गीतकार और कवि शैलेंद्र ने जिस तरह सिनेमा के परदे पर उतारा, वह अद्भुत है। इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है। अभिनय, संगीत, पटकथा, व निर्देशन हर दृष्टि से यह फिल्म बेजोड़ थी, इसीलिए 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया।

इस फिल्म के गीतकार स्वयं शैलेंद्र और हसरत जयपुरी हैं। गीतों को अपनी आवाज में  मुकेश, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और मन्नाडे ने बहुत ख़ूबसूरती से गाया है। संवाद स्वयं रेणु के हैं। पटकथा नवेंदु घोष की है। इन कलाकारों के सम्मिलित प्रयासों ने फिल्म के संवादों और गीतों को दर्शकों के हृदय में उतार दिया। "दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में  समाई…, सजनवा बैरी हो गए हमार…,चलत मुसाफिर मोह लियो रे…हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…पान खाए सइयाँ हमारो…,लाली- लाली डोलिया में…” आदि सभी गीत बेहद कर्णप्रिय व लोक- कला की सौंधी सी महक से सुवासित हैं और आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं ।

राजकपूर की एक्टिंग की ताकत उनकी सादगी और भोलापन है।जिसके कारण हीरामन के किरदार को उन्होंने बहुत सफलतापूर्वक जिया है।जब हीरामन बने राज कपूर बात- बात में हंसकर, शर्मा कर  एकदम गंवई अंदाज में 'इस्स’ कहते हैं तो देखते ही बनता है। हीरामन के साथ के दृश्यों में वहीदा रहमान का अप्रतिम सादगीपूर्ण शीतल सौंदर्य तथा सरलता मोहक लगती है। एक कुशल नृत्यांगना होने के कारण  नौटंकी में  "पान खाए सैंया हमारो…” और "हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…” जैसे गानों पर किए उनके नृत्यों व भावपूर्ण अभिनय ने फिल्म में चार चाँद लगा दिए हैं। हीराबाई पर फिल्माए सभी गाने नौटंकी की तर्ज पर लिखे और प्रस्तुत किए गए हैं। नौटंकी के स्टेज पर आते ही हीराबाई के व्यक्तित्व का दूसरा ही पक्ष उजागर होता है।कटाक्षयुक्त नयन, शोख, फुर्तीली नृत्यांगना और विभिन्न भावों में प्रवीण समर्पित अभिनेत्री का।ऐयाश विक्रम सिंह  का किरदार भी नौटंकी के अनुरूप ही बुना गया है जो हीराबाई को अपने पैसे व ताकत के बल पर खरीदना चाहता है। 

बेशक यह कथा ग्रामीण अंचल की है, लेकिन इसका विषय सार्वभौमिक है। प्रेम मनुष्य की आत्मा का संगीत है।इसकी कहानी प्रेम की पवित्रता व शक्ति को अभिव्यक्त करती है। कितनी सहजता से एक नौंटकी की बाई एक निर्धन, गंवार, भोलेभाले गाड़ीवान पर मोहित हो जाती है और जमींदार जैसे संपन्न व्यक्ति के प्रणय निवेदन को ठुकरा देती है। 

आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं हैं , तीसरी कसम इनमें सबसे अलग व विशेष है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम’ एक ग्रामीण अंचल की कथा है। इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं। हीराबाई नौंटकी में अभिनय करने वाली एक खूबसूरत अदाकारा है जिसे सामान्य भाषा में ‘बाई’ कहा जाता है। इस प्रेम कहानी को पर्दे पर उतारा था राजकपूर और वहीदा रहमान की लाजवाब एक्टिंग और शैलेन्द्र की परिकल्पना ने।

फ़िल्म की शुरुआत एक गाने से होती है जिसमें हीरामन बैलगाड़ी हाँकते हुए गा रहा है -"सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है…!” गाने के बाद नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे पुलिस पकड़ लेती है । किसी तरह वह अपने बैलों को छुड़ा कर भागता है और कसम खाता है कि अब से  चोरबजारी का सामान कभी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बाँस की लदनी की वजह से पिटाई होने पर, डर कर उसने दूसरी कसम खाई कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बाँस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। 

इसके बाद फिल्म में एक दृश्य में हीरामन बैलगाड़ी बहुत खुश होकर हाँक रहा है। उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। हीरामन कई कहानियाँ और लोकगीत सुनाते हुए सर्कस के आयोजन स्थल तक हीराबाई को ले जा रहा है।  पूरी दुनिया में अपने-अपने अकेलेपन से जूझ रहे दो सम्वेदनशील अजनबी यात्री इस यात्रा में सहसा  प्रीत व मित्रता की नाजुक सी डोर में बंध जाते हैं । पूरी यात्रा का हर पल, हरेक संवाद  व गाने दर्शकों के मन को लुभाते हैं।

सफर के प्रारंभ में हीरामन को डर लगता है। रात का सुनसान सफर है, वह मंदिर में भगवान के सामने बड़बड़ाता है कि -

"पीठ में गुदगुदी होती है, गाड़ी में रह- रह कर खुसबू आती है, एक पैर ही देखा था , वो भी जाने उल्टा था या सीधा…कहीं जिन परेत न हो …सवा रुपय का प्रसाद चढ़ाऊँगा भोलेनाथ रक्षा करो …!” 

परन्तु ताक-झाँक करते हीराबाई को देख खुशी से चिल्ला बैठता है "उरे बाबा ये तो परी है…!” हीराबाई परदे से बाहर आकर पूछती है "परी…कहाँ है परी !” 

जब हीरामन कहता है कि औरत और मर्द के नाम में बहुत फ़र्क़ होता है तो हीराबाई कहती है "कहाँ है फर्क ? मैं भी हीरा, तुम भी हीरा ।” हीरामन के हाव-भाव व मन:स्थिति यहाँ से बदल जाते हैं और दोनो के बीच  आत्मीयता पनप जाती है।सफर के मध्य दोनों के संवाद बहुत रोचक हैं।

हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी नहीं देखा है, वह पूछता है- "आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है?”कानपुर नाम सुनते ही उसकी हंसी छूट जाती है "वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा?” और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हंसते-हंसते दुहरा हो गया।

हीरामन का गाया लोकगीत  "सजनवा बैरी हो गए हमार…!” कर्णप्रिय होने के कारण आज भी लोकप्रिय है। हीरामन की सादगी, हीराबाई के प्रति करुणा व सम्मान का भाव हीराबाई के हृदय को छू लेता है।वह हीरामन से मन ही मन प्यार करने लगती है। 

एक जगह हीराबाई कहती है "तुमने पर्दा क्यों गिरा दिया मीता ?” तो वह कहता है आप यहाँ के लोगों को नहीं जानतीं , औरत देखी और लगे घूरने, देहाती भुच्च कहीं के !”  कोई सवारी के बारे में पूछता है तो कहता है बिदाही (लड़की को ससुराल ले जाना) ले जा रहे हैं । कभी कहता है हस्पताल  की डाक्टरनी हैं मरीज देखने जा रही हैं।वह झूठ बोलकर उसे सारी दुनिया की नजरों से बचाकर ले जाता है। हीराबाई की शिष्टता, शालीनता और सुंदरता उसे मंत्रमुग्ध कर देती है।वह उसे प्यार करने लगता है।प्यार और सम्मान को तरसती हीराबाई भी हीरामन को दिल में चाहने लगती है।वास्तव में इस अनोखे रिश्ते में मात्र प्यार ही नहीं है एक- दूसरे के प्रति सम्मान है। मीता (मित्र ) हैं वे । उनके नाम ही नहीं मिलते  हृदय में बहती कोमल सी भावधारा भी एक सी बहती है।जब हीराबाई महुआ घाट पर नहा रही होती है तब हीरामन गाड़ी में से छिपकर मुग्ध हो उसको एकटक देखता है, परन्तु तुरन्त पर्दा खींच देता है। अनुरागी मन से विवश हो उसके बिछावन पर चुपके से तनिक देर तक टिक जाता है।

दूसरी तरफ़ हीराबाई ‘मथुरामोहन नौटंकी कंपनी’ की नर्तकी है। इस बार वह `रौता संगीत नौटंकी’ कंपनीके सौजन्य से मेले में आई है। जिस प्रकार हीरामन को अपनी गाड़ीवानी पसंद है और इसे वह किसी मूल्य पर नहीं छोड़ना चाहता, ठीक उसी प्रकार हीराबाई भी नौटंकी में नाचने की कला को नहीं छोड़ना चाहती है।यह काम उसे आर्थिक अवलम्ब देता है और उसकी अस्मिता व पहचान से जुड़ा है। बेशक नौटंकी में लोग उसे रंडी, पतुरिया आदि नामों से संबोधित करते हैं ।लोगों की वासनापूर्ण दृष्टि व अश्लील कमेन्ट सुनकर वह  चाहता है कि हीराबाई नौटंकी का काम छोड़ दे। इस पर हीराबाई अपने कार्य के प्रति लगाव और प्रतिबद्धता को व्यक्त करते हुए उसे समझाती है- "गुस्सा न करो हिरामन! ये बात नामुमकिन है। समझते क्यों नहीं? नशा जो हो गया, जैसे तुम्हें बैलगाड़ी चलाने का नशा है, वैसे ही मुझे लैला और गुलबदन करने का नशा है।  देश-देश घूमना, सज-धज के रोशनी में नाचना-गाना, जीने के लिए सिवा इस नशे के और क्या है मेरे पास ?” 

फिल्म में ‘छोकरा-नाच’ तथा ‘महुआ घटवारिन’ नामक लोककथा का वर्णन मिलता है। छोकरा- नाच बिहार राज्य का प्रमुख नाच- विधा है। इसमें स्त्री-वेश धारण कर पुरुष ही नाचते हैं। हीराबाई के चेहरे को देखकर हिरामन को छोकरा-नाच के मनुआ-नटुआ की याद आ जाती है। हीराबाई पूछती है तो  हीरामन संकोच के साथ अपने दिल की बात को प्रकट कर देताहै- "जी, आपका मुँह बिल्कुल छोकरा-नाच के मनुआ नटुआ जैसा दिखता है।”

“हाय राम! मैं क्या छोकरा जैसे दिखती हूँ?”

“जी नहीं! वे छोकरे ही लड़कीनुमा हुआ करते थे।” हीरामन कहता है तो दोनों निश्छल हंसी हंस पड़ते हैं ।


महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।

"तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?”

"इस्स! कथा सुनने का बड़ा सौक है आपको?”

लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।महुआ घटवारिन की कथा सुनकर हीराबाई विह्वल हो जाती है क्योंकि इस कथा में उसे अपने ही जीवन की झलक दिखाई देती है।महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।

"यहाँ देखती हूँ हर कोई गीत गीत गाता रहता है।”

गीत नहीं गाएगा तो करेगा क्या ? कहते हैं फटे करेजा गाओ गीत

दुख सहने का ये ही रीत।”


एक दृश्य में गाड़ी गाँव के बीच से जा रही है बच्चे परदेवाली गाड़ी देख पीछे लग लेते हैं और तालियां बजा-बजा कर गाने लगे-

“लाली-लाली डोलिया में

लाली रे दुलहिनिया

पिया की पियारी भोलीभाली रे दुल्हनियाँ ..”

हीराबाई हल्का सा घूंघट काढ़े नवेली दुल्हन सी शर्माती है। हीरामन के चेहरे पर भी दूल्हे जैसे भाव हैं । दोनों के मन का अरमान चेहरे पर साफ़ परिलक्षित होता है।

हीराबाई हीरामन को नौटंकी का पास देती है. जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है, लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अश्लील शब्द कहे जाने पर वो उनसे झगड़ा कर बैठता है। हीरामन के मन में अपने  लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है। इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है, और उसे पैसे का लालच भी देता है।पर हीराबाई उसे ठुकरा देती है। हीराबाई नौटंकी छोड़ कर हीरामन के साथ जाने का मन बनाती है तो नौटंकी कंपनी के साथी उसे समझाते हैं, कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे -

"जिसके मन में देवी हो उसके घर में बाई कैसे बस सकती है ? यदि उसका भ्रम तोड़ दोगी तो वह बर्बाद हो जाएगा और नौटंकी छोड़ दोगी तो तुम ख़ुद बर्बाद हो जाओगी…बिना कुछ कहे मुँह मोड़ लो बेवफा समझ कर माफ कर देगा !” वे समझाते हैं कि जमींदार  हीरामन की हत्या भी करवा सकता है। रोते हुए हीराबाई अपनी व्यथा सखी से कहती है कि " उसके भोलेपन और सादगी की हरेक बात मुझे याद आती है।रास्ते में वो गाड़ी का पर्दा ऐसे गिरा देता था जैसे यदि मुझे किसी ने देख लिया तो नजर लग जाएगी।आठ आने के टिकिट में जिसका नाच  कोई भी देख सकता है मुझे वह सारी दुनियाँ से छिपा कर ले आया। महुआ के घाट पर बोला यहाँ मत नहाइए यहाँ कंवारी लड़कियाँ नहीं नहातीं…लैला का पाठ करने वाली लैला बनने चली थी..मेरा चाहें जो भी हो मैं उसके सपने टूटने नहीं दूँगी, उसके मन में हीराबाई तो बनी रहेगी…"अपनी विवशता पर रोकर कहती है "दोष मेरा नहीं पाठ लिखने वाले का है अब पाठ ख़त्म नहीं हुआ तो मैं क्या करूँ!”

और सोच-विचार कर हीरामन की भलाई के लिए हीराबाई गांव छोड़ हीरामन से बिना अपने मन की बात कहे चुपचाप जाने की तैयारी कर लेती है।इस दृश्य में वहीदा रहमान की एक्टिंग देखने लायक है। हीराबाई के मन की मजबूरी, कसक, उदासी को अपनी सम्वेदनशील अभिनय से जीवंत कर दिया है।

फिल्म के आखिर में रेलवे स्टेशन का दृश्य है, जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसे समझाती हुए कहती है-" दिल छोटा मत करो हीरामन । तुमने कहा था न कि महुआ को सौदागर ने ख़रीद लिया, मैं बिक चुकी हूँ हीरामन…!” और उसके पैसे उसे लौटा देती है जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे रखने के लिए दिए थे।

विदाई का अन्तिम दृश्य बहुत मार्मिक है। रेलगाड़ी में बैठी आँसू भरी विवश आँखों से जाते हुए दूर तक वह हीरामन को देखती रहती है।हीरामन उदासी व क्षोभ के साथ गाड़ी में आकर बैठता  है और फिर हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है, तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं-“न, मारो नहीं” वह रुक जाता है।फिर झुँझलाकर कहता है- "उलट- उलट कर क्या देखते हो…खाओ कसम कम्पनी की बाई को कभी गाड़ी में नहीं बिठाओगे..!”

जाते हुए गाड़ी के नेपथ्य में गीत बजता है-

"प्रीत बना के तूने जीना सिखाया, 

हंसना सिखाया रोना सिखाया

जीवन के पथ पर मीत मिलाए

मीत मिलाके तूने सपने जगाए

सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई…!”

अन्तिम  दृश्य दर्शकों के मन में कसक छोड़ जाता है। 

बहुधा ऐसी साहित्यिक कृतियां कम ही होती हैं, जिसमें फिल्मनिर्माता कहानी को उसके मौलिक स्वरूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन तीसरी कसम में रेणू की कहानी के सभी पात्रों के नाम, संवाद और कुछ गीत भी वही हैं जो कहानी के मूलस्वरूप में हैं।इसी कारण  'तीसरी कसम’ क्लासिक फिल्म कहलाई और मील का पत्थर साबित हुई, परन्तु उस समय व्यावसायिक रूप से असफ़ल होने व बॉक्स ऑफ़िस पर पिटने के कारण निर्माता गीतकार शैलेन्द्र का निधन हो गया।

कुछ लोगों का मत था कि इसका अन्त परिवर्तित करके दोनों का मिलन करवा दिया जाय परन्तु इसके लिए शैलेंद्र व रेणु तैयार नहीं हुए। यह उचित निर्णय था वर्ना कहानी का असली फ्लेवर समाप्त हो जाता और यह एक सामान्य श्रेणी की फिल्म होती।

बेशक इसको तत्कालीन बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता नहीं मिली थी परन्तु आज भी लोकतत्वों को समाहित किए यह  फिल्म हिन्दी की श्रेष्ठतम फ़िल्मों में गिनी जाती है।              

— उषा किरण 

बुधवार, 8 मई 2024

हीरामंडी मेरे चश्मे से😎




           तवायफों पर बनी पाकीजा, उमरावजान, गंगूबाई और  हीरामंडी तीनों फिल्म व वेबसीरीज़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती। इनको देखकर जो भाव मन में ठहर गया वो थी बस करुणा और मर्दों के प्रति नफरत व गुस्सा।

ये रईस और नवाबों में कितनी हवस थी जो कई बेगमों, बीवियों के बावजूद कोठों की भी जरूरत पड़ती थी। जाने कहाँ- कहाँ से मासूम लड़कियों को खरीद कर  इनकी हवसपूर्ति के लिए कोठों को आबाद किया जाता था मासूम लड़कियों को तवायफ बनाया जाता था। और हद्द तो ये है कि उन्हीं ऐयाश अमीरों व नवाबों की तवायफों से पैदा हुई औलादें फिर उन्हीं कोठों पर घुँघरू बाँध तवायफ बन कोठे आबाद करतीं या बेटे दलाल और तबलची बनते। वो तो भला हो फिल्म इंडस्ट्री का जिसकी बदौलत लाहौर व हिन्दुस्तान की कई तवायफों ने बाद में गायिका व अभिनेत्री बनकर इज़्ज़तदार जिंदगी गुजारी और आज उनका नाम इज़्ज़त से लिया जाता है। उनके बच्चों व परिवार को भी समाज में इज़्ज़त की नजर से देखा गया जिनमें से एक नरगिस की माँ जद्दनबाई भी थीं । खैर अब ये बातें जाने देते हैं और बात करते हैं हीरामंडी की। अब मैं तो कोई समीक्षक हूँ नहीं तो बस दिल की बात ही कहूँगी।

पहले तो इस सीरीज़ को देखते साहिर लुधियानवी का लिखा बहुत पुरानी फिल्म साधना का गाना याद आ गया-
"औरत ने जनम दिया मर्दों को 
मर्दों ने उन्हें बाजार दिया
जब जी चाहा मसला- कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया…!”
इस नज़्म में ही  इन औरतों के दर्द की पूरी दास्तान दर्ज हो जैसे…!

जब ट्रेलर देखा तो मेरी नजर गाने "सकल बन फूल रही सरसों …” पर ही अटक गई । हाँ  सारी हीरोइनें, डांस, हावभाव, मुद्राएँ, पेशाकें, जेवरात ग़ज़ब, लेकिन मेरी सुई अटकी कि पोशाकों में ये नया सा पीला रंग कौन सा ले आए भंसाली साहब ? अभी तक फिल्मों में शोख लाल, गुलाबी, नारंगी , काले और हरे रंग में ही मुजरे देखे थे।ये तीखी पीड़ा , उदासी को, देशभक्ति को समेटे, छिपाये हुए सरसों ,अमलतास या सूरजमुखी सा पीला नहीं ये तो खेतों में लहलहाती गेहूँ की पकी सुनहरी बालियों पर जब सन्ध्या की किरणें पड़ती हैं या बर्फ़ से ढंकी हिमालय चोटियों पर सूर्यास्त से कुछ पहले जो आभा होती है वैसी ही पीतवर्णीय आभा है कुछ। सबसे पहले तो इस शेड ने ही दिल चुरा लिया। रात भर सुई अटकी रही इसके पीलेपन पर , सुबह होते ही फिर पैलेट पर ढूँढा तो Light raw umber, orange, unbleached titinum के मेल- मिलाप से कुछ बात बनी, शेड पकड़ में आया तो मन प्रसन्न हो गया। एक तो हमें नई- नई मोहब्बत हुई है पीले रंग से पर क्या बताएं इस नए पीले के अनोखे शेड से तो इश्क़ ही हो गया।

       हीरामंडी सीरीज़ बहुत खूब बनाई है लेकिन बाद के दो- तीन एपीसोड कमाल के बने हैं।जिसकी वजह से यह सीरीज़ एक अलग ही मुकाम हासिल करती है। गाना सबसे बढ़िया लगा।"सकल बन फूल रही सरसों”,  और "चौदहवीं शब को कहाँ चाँद कोई ढलता है…!”
     
और क्या कहें ये नई लड़की शरमिन सहगल पर  जाकर फिर हमारी निगाह ठहर गईं…हमने पढ़ा कि लोग काफ़ी आलोचना कर रहे हैं कि एक्सप्रेशन विहीन एक्टिंग की है भंसाली की भानजी ने पर हमें तो वो ही एक्टिंग भा गई। एक लड़की जो कोठे पर रहकर तवायफ की बेटी होने पर भी शेरो शायरी की दुनियाँ में विचरती है, शायरा बनने के ख़्वाब बुनती है, हकीकत से कोसों दूर खोई- खोई सी बादलों में विचरती है …कोठे पर बेशक है पर तवायफ नहीं बनी है अभी, तो वो यही एक्सप्रेशन तो देगी न, सपनों में  खोई- खोई सी आँखें और धुआँ धुआँ सा चेहरा…। कटाक्ष, चंचलता, खिलखिलाहट, रोना- पीटना और लुभावनी अदाएं ये सारे भाव उसके किस काम के ? वो सब तो बाकी सबमें भरपूर दिखाई देते ही हैं। बाद में किया गया उसका मुजरा भी मुजरा कम प्रेम दीवानी की दीवानगी भरा रुदन ही नजर आता है और जब किसी का प्रेम सारी सीमाएँ तोड़कर देशप्रेम का बाना पहन ले तो सदके उस प्यार के।

          एक विशेष बात ने बहुत सुकून दिया कि इस कोठों की कहानी में कितने ही अश्लील दृश्य परोसे जा सकते थे पर भंसाली साहब का शुक्रिया कि तवायफों को भी शालीनता से पेश किया है ,कहीं कोई अश्लीलता, छिछोरीपन नहीं। बल्कि अन्त तक आते- आते स्त्री ( याद है न कि तवायफ भी स्त्री ही होती हैं) की अस्मिता व गरिमा को बहुत मार्मिक व शालीन तरीके से हीरामंडी से निकाल देशभक्ति के रंग में रंग कर एक नया मुकाम दिया है…इसके लिए एक सैल्यूट तो बनता है।

बाकी चीजों के बारे में तो और सब लोग लिखेंगे ही और हमसे बेहतर ही लिखेंगे तो हम क्या लिखें ? 
बस इतना जरूर कहेंगे कि देख डालिए, वाकई लाजवाब बनाई है हीरामंडी…।

— उषा किरण 

शनिवार, 14 मई 2022

गंगूबाई काठियावाड़ी




 हर व्यक्ति का नजरिया किसी भी चीज को देखने का भिन्न- भिन्न होता है। संजय लीला भंसाली की देवदास मूवी मुझे जरा नहीं भाई थी लेकिन  सच्ची कहानी पर आधारित " गंगूबाई काठियावाड़ी” मुझे बहुत पसन्द आई और कुछ लोगों को बिल्कुल पसन्द नहीं आई। तो टटोला खुद को कि हाँ भई तुमको क्यों पसन्द आई इतनी कि हफ्ते में लगभग दो बार देख डाली ?

एक अबोध, अल्हड़, बेहद खूबसूरत, नाजुक खानदानी लड़की जो प्यार में विश्वास कर अपने सपने पूरे करने प्रेमी का हाथ पकड़कर चाबी के गुच्छे के साथ साथ घर की इज़्ज़त भी लेकर निकल पड़ती है और प्रेमी उसे हजार रुपये में कोठे पर छोड़ भाग जाता है।

-होना तो ये चाहिए था कि उस प्यार में लुटी लड़की के सपनों का फलक जब जला तो वो दुनियाँ में आग लगाने का सोचती लेकिन उसका फलक तो और विशाल हो गया । हौसला  तो देखो जरा अपना फलक जला तो जला पर औरों के फलक में अंधेरा दूर करने का संकल्प ले बैठती है ।

- होना तो ये चाहिए था कि प्यार में लुटने पर वो प्यार शब्द से नफरत करने लगती लेकिन होता है ये कि वो अपने जैसी सभी लड़कियों से प्यार करती है , उनके दुखों को अपनाती है जिसके कारण वे सभी उसे अपनी संरक्षिका बना कर गलीच काम से मुक्त करती  हैं।और मन के कोने में जो पावन सा प्यार का बिरवा अनायास फिर उग आया उसको भी जनकल्याण हेतु दूसरे के आँगन में रोप कर खुद धूप में झुलसती रह कर प्यार को मुक्त कर देती है।

- होना तो ये चाहिए था कि उसे कमजोर होकर कोने में पड़े रहकर सिसक- सिसक कर मर जाना था , पर होता ये है कि उसके मन की ताकत उसके नाजुक बदन पर भी भारी पड़ती है।सफेद साड़ी, काला चश्मा, हाथ में पर्स लेकर वो जिस शान से अकड़ कर चलती है आलिया की बॉडी लैंग्वेज देखते ही बनती है।

-  होना तो ये चाहिए था कि बदसूरत माहौल में उसे बदसूरत हो जाना था।परन्तु  कोठेवाली  बना दिए जाने पर भी, और सुन्दर होकर उसका ओजस्वी रूप व व्यक्तित्व दमक उठता है। उसका आत्मविश्वास , हौसला व बुद्धिमत्ता उसे और निखार देते हैं।

-पहली बार बिकती है जब तो उन पैसों को खुद आग लगा कर तुरन्त खाना माँगती है।दो ही रास्ते हैं उसके सामने या तो मर जाए या जो और जैसी ज़िंदगी, जिस भी कारण सामने आ खड़ी हुई है उससे आँख मिलाकर दो- दो हाथ करे।और वो दूसरा रास्ता चुनती है। और चुनती ही नहीं बहुत जल्दी ही अपना ओहदा और कद भी बढ़ा लेती है। सारी दुनिया में अपना लोहा मनवा कर ही दम लेती है। न किसी से डरती है न झुकती है , न ही हालात से समझौता करती है। जो मौका सामने आता है उसको लपक कर अपनी ताकत बना लेती है।

-कुछ लोग आलिया की शबाना आजमी या शर्मिला टैगोर से तुलना कर रहे हैं कि उनकी तुलना में कोठेवाली सी नहीं लगी …हाँ तो क्यों लगना था ? एक मजबूत मन वाला और समाजसेवा का संकल्पधारी व्यक्ति भीड़ में भी सौ- सौ जुगनुओं सा चमकता है। देह बेचकर पैसा कमाने की जगह वह तवायफों व उनके बच्चों के हक की लड़ाई को ही अपने जीवन का मकसद बना लेती है।

-मुझे आलिया की एक्टिंग और मोती जैसे रंग- रूप ने मोह लिया। फिल्म के कुछ गाने भी अच्छे लगे और बाद की आलिया की स्पीच भी। अंधेरी गलियों में कीगई  अंधेरी सी फ़ोटोग्राफ़ी भी…जहाँ चाँदनी में नहाई सी आलिया चाँदनी के फूलों सी चमकती है हर रूप में।

-जहाँ आजकल वेब सीरीज और मूवीज में अश्लीलता व भोंडापन अपने चरम पर है वहाँ संजय लीला भंसाली ऐसे विषय पर भी साफ- सुथरी और सुन्दर मूवी बना ले गए ये प्रशंसनीय है।कोठा संचालिका बनी सीमा पाहवा का रोल व रंग- रूप इतना वीभत्स है कि मन झुलस जाता है । औरत के नसीब में कोठा लिखने वालों और जिनकी वजह से कोठे बनते हैं उन जलील मर्दों के मुँह पर थूकती है ये मूवी।

-इस फिल्म में छिपे दो सन्देश दिखे एक तो ये कि इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है ।शुभ संकल्प हो तो एक तवायफ भी इज्जत कमा सकती है परोपकार का रास्ता चुन सकती है। नारी सशक्तिकरण को दर्शाती ये फिल्म जरा सी विपरीत परिस्थितियों के आने में आत्महत्या करने का संकल्प लेने वालों को भी सबक देती है।उसका यही जुझारू रूप मुझे मुग्ध कर गया और दूसरा मैंने अपने कार्यकाल में बहुत लड़कियों का जीवन प्यार के हाथों गलत कदम उठाकर बर्बाद होते देखा है। प्यार में अंधी होकर , अपने माँ- बाप का घर छोड़ प्रेमी के संग भाग जाने का संकल्प लेने वाली लड़कियों को कोई कदम उठाने से पहले ये फिल्म जरूर ही देख लेनी चाहिए।


( ये मेरा नजरिया है, मैं कोई फ़िल्म समीक्षक तो हूँ नहीं ।जो अच्छा लगा लिख दिया…सबकी सहमति होनी क़तई आवश्यक नहीं है और हाँ नेटफ्लिक्स पर मूवी उपलब्ध है )

                              — उषा किरण 

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से

"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े  दुश्मन थे हम ही अपने. औरो...