शाँत, सुन्दर, सौम्य , सजी-संवरी
नदी को देखते ही ये जो अकुला कर
शीतल निर्मल जल में गहरे पैठ
तुम बहा देते हो अपनी मलिनता
डुबोते हो अपना ताप
बुझाते हो तृष्णा
फिर जब चाहते हो
अपनी ठोकर से
मस्ती में उछाल देते हो कंकड़ और
लहरों की हलचल से पुलकित
मस्त चाल चल देते हो बेफिक्र
हंसते, गुनगुनाते…
क्या तुमने कभी सोचा है
ये है जो शाँतमना-मन्थर-गति प्रवाहित
उसके सीने में ज़ब्त हैं
कितने तूफानों की स्मृतियाँ
कितनी ताप की ऊष्मा
कितनी सर्द रातों की ठिठुरन
कितने कुहासे
कितने गहरे भँवर
कितनी दलदल
कितनी उलझी गाँठें
और कितने गहरे काले अँधेरे….
तुम तो बस उठाते हो एक कंकड़ और
पूरे जोर से उछाल देते हो उसके सीने में
छपाक….!!
— उषा किरण
वाह! अंतर्मन की व्यथा को सुंदर शब्दों की धार।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार!
हटाएंकंकड़ से ऊपजी अनगिनत ऊर्मियाँ .. उसके भँवर पर एक आवरण बन कर मरहम का काम कर जाती हैं .. शायद ...
जवाब देंहटाएंजी…बहुत सुन्दर लिखा आपने
हटाएंआसान है कंकड़ उछालना...ये क्या जाने अन्तर्मन की दशा...
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन।
हार्दिक आभार सुधा जी😊
हटाएंबेहद भाव पूर्ण अभिव्यक्ति ..
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार संजय जी
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