हाँ, नहीं है स्वाभिमान मुझमें
बेवकूफ बनती हूँ ,ताने-बातें सुनती हूँ
ध्यान नहीं देती आड़ी- तिरछी बातों पर
अनदेखा करती हूँ चालबाज़ियाँ
ऐसा नहीं कि समझ नहीं आती
देर- सबेर सब समझ आती हैं
पर अनजान बन, चुप रहती हूँ
चुपचाप अपने अन्दर बैठ
देखती हूँ डुगडुगी वाले तमाशे
क्या सोचते हो
ये तिकड़में, होशियारी,ये शातिर चालें
मक्कारी से भरे झूठ, छलावे
समझ नहीं आते, बौड़म हूँ….
सब समझ आते हैं, फिर भी
तुमको ताली बजाकर हंसने देती हूँ
खुश होने देती हूँ
कहते हो-
भलमानस-पना दिखाती हूँ
हाँ, तो भला मानुष और क्या दिखाएगा
नहीं है दुष्टता तो कहाँ से लाएगा ?
थे मेरी पिटारी में भी कभी तुम्हारी तरह
पैने , जहरबुझे तीर
तरह- तरह के अस्त्र
भाँति- भाँति के मुखौटे
जब, जो चाहती , लगा
दुनियादारी खूब निभाती
फिर नहीं संभाले गए तो एक दिन
सौंप दिए लहरों के हवाले
बह जाने दिए दरिया में…
बदलते मौसम के साथ
फिर- फिर लौटेगा मेरा विश्वास
सौ बार करूँगी प्यार
क्योंकि सोचूँगी शायद
अबके बदल गई होगी फिज़ाँ
हालाँकि जानती हूँ कि फितरत नहीं बदलती
कभी भी, किसी की
जैसे नहीं बदलती मेरी भी…
खैर…..
अब खड़ी हूँ खुले मुँह, खाली हाथ
नीले आसमान के तले
दे सकते हो तो दो खुलकर गाली,
हँस सकते हो तुम ताली बजा कर तो हंसो
कर सकते हो उपेक्षा, अपमानित …
हाँ…नहीं है स्वाभिमान मुझमें…!!!
—उषा किरण
वाह।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंबहुत खूब।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंवाह बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंयह अंदाज़ निराला है !
जवाब देंहटाएंहृदय से आभार
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