ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 22 जुलाई 2024

असुर

 



बहुत मुश्किल था 

एकदम नामुमकिन 

वैतरणी को पार करना 

पद्म- पुष्पों के चप्पुओं से

उन चतुर , घात लगाए, तेजाबी

हिंसक जन्तुओं के आघातों से बच पाना...!


हताश- निराश हो 

मैंने आह्वान किया दैत्यों का

हे असुरों विराजो

थोड़ा सा गरल

थोड़ी दानवता उधार दो मुझे 

वर्ना नहीं बचेगा मेरा अस्तित्व !


वे खुश हुए

तुरन्त आत्मसात किया

अपने दीर्घ नखों और पैने दांतों को

मुझमें उतार दिया 

परास्त कर हर बाधा 

बहुत आसानी से

पार उतर आई हूँ मैं !

अब...


मुझे आगे की यात्रा पर जाना है

कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

हे असुरों आओ

जा न सकूँगी आगे 

तुम्हारी इन अमानतों सहित

ले लो वापिस ये नख,ये तीक्ष्ण दन्त

ये आर - पार चीरती कटार

मुक्त करो इस दानवता से

पर नदारद हैं असुर !


ओह ! नहीं जानती थी

जितना मुमकिन है 

असुरों का आना

डेरा डाल देना अन्तस में

उतना ही नामुमकिन है 

उनका फिर वापिस जाना

मुक्त कर देना ...!


बैठी हूँ तट पर सर्वांग भीगी हुई

हाथ जोड़ कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

आओ हे असुरों आओ

मुक्त करो

आओ......मुक्त करो मुझे

परन्तु....!


—उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 


                 

2 टिप्‍पणियां:

  1. मुक्ति की प्रार्थना ही सरल है मुक्ति इतनी भी सहज संभव नहीं।
    सस्नेह
    सादर।
    -------
    जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना मंगलवार २३ जुलाई २०२४ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

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