ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें
जो जन्म देकर पाली गईं
अफीम चटा कर या गर्भ में ही
मार नहीं दी गईं,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो पढ़ाई गईं
माँ- बाप की मेहरबानी से,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो ब्याही गईं
खूँटे की गैया सी,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो माँ बनीं पति के बच्चों की,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जिन्हें घर- द्वार सौंपे गये
पति के नाम वाली तख्ती के,
ख़ुशक़िस्मत हैं वे
जो पर्स टाँग ऑफिस गईं
पति की मेहरबानी से..!
जमाना बदल गया है
बढ़ रही हैं औरतें
कर रही हैं तरक्की
देख रही हैं बाहरी दुनिया
ले रही हैं साँस खुली हवा में
खुली हवा...खुला आकाश...!
क्या वाकई ?
कौन सा आकाश ?
जहाँ पगलाए घूम रहे हैं
जहरीली हवा में
दृष्टि से ही नोच खाने वाले
घात लगाए गिद्ध-कौए !
कन्धे पर झूलता वो पर्स
जिसमें भर के ढ़ेरों चिंताएं
ऊँची एड़ी पर
वो निकलती है घर से
बेटी के बुखार और
बेटे के खराब रिजल्ट की चिन्ता
पति की झुँझलाहट कि
नहीं दिखती कटरीना सी
मोटी होती जा रही हो...!
सास की शिकायतों
और तानों का पुलिन्दा
फिर चल दी महारानी
बन-ठन के...!
ऑफिस में बॉस की हिदायत
टेंशन घर पर छोड़ कर आया करिए
चेहरे पे मुस्कान चिपकाइए मोहतरमा
शॉपिंग की लम्बी लिस्ट
जीरा खत्म,नमक खत्म, तेल भी
कामों की लिस्ट उससे भी लम्बी
लौट कर क्या पकेगा किचिन में
घर भर के गन्दे कपड़ों का ढेर
कल टेस्ट है मुन्ना का...
सोच को ठेलती ट्रेन में पस्त सी
ऊँघती रहती है !
ख़ुशक़िस्मत औरतें
महिनों के आखिर में लौटती हैं
रुपयों की गड्डी लेकर
उनकी सेलरी
पासबुक, चैकबुक
सब लॉक हो जाती हैं
पति की सुरक्षित अलमारियों में !
खुश हैं बेवकूफ औरतें
सही ही तो है
कमाने की अकल तो है
पर कहाँ है उनमें
खरचने की तमीज !
पति गढ़वा तो देते हैं
कभी कोई जेवर
ला तो देते हैं
बनारसी साड़ी
जन्मदिवस पर
लाते तो हैं केक
गाते हैं ताली बजा कर
हैप्पी बर्थडे टू यू
मगन हैं औरतें
निहाल हैं
भागोंवाली हैं
वे खुश हैं अपने भ्रम में ...!
सुन रही हैं दस-दस कानों से
ये अहसान क्या कम है कि
परमेश्वर के आँगन में खड़ी हैं
उनके चरणों में पड़ी हैं
पाली जा रही हैं
नौकरी पर जा रही हैं
पर्स टांग कर
लिपिस्टिक लगा कर
वर्ना तो किसी गाँव में
ढेरों सिंदूर, चूड़ी पहन कर
फूँक रही होतीं चूल्हा
अपनी दादी, नानी
या माँ की तरह...!
बदक़िस्मती से नहीं देख पातीं
ख़ुशक़िस्मत औरतें कि...
सबको खिला कर
चूल्हा ठंडा कर
माँ या दादी की तरह
आँगन में अमरूद की
सब्ज छाँव में बैठ
दो जून की इत्मिनान की रोटी भी
अब नहीं रही उसके हिस्से !
घड़ी की सुइयों संग
पैरों में चक्कर बाँध
सुबह से रात तक भागती
क्या वाकई आज भी
ख़ुशक़िस्मत हैं औरतें....??
उषा किरण -
फोटो: गूगल से साभार
कविता बहुत से प्रश्न खड़े कर रही है, सोचने की बात है कि वाक़ई समाज बदल रहा है या केवल भ्रम पैदा किया जा रहा है
जवाब देंहटाएंसुन्दर
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