मायके जाने का प्रोग्राम बनते ही उन दिनों
बेचैनी से कलैंडर पर दिन गिनते
बदल जाती थी चाल- ढाल
चमकती आँखों में पसर जाता सुकून,मन में ठंडक…!
मायके की देहरी पर गाड़ी रुकते ही पैर कब रुकते
गेट पर लटकती छोटी बहन, भाई को देख
दौड़ पड़ती…भींच लेती छाती में जोर से
होंठ हँसते बेशक पर आँखें बरसतीं
धूप और बारिशें एक साथ सजतीं…!
अम्माँ का नेह धीरे से आँखों से छलकता
तो ताता का दुलार मुखर हो उठता
आ गई….आ गई बेटी…कह लाड़ भरा हाथ
सिर पर रख हँस पड़ते उछाह से
भूल जाते उम्र के दर्दों और थकान को…!
भैया साथ लग जाता तो छुटकी तुरन्त
पर्स की तलाशी में लग जाने क्या राज ढूँढती
उस दिन डॉक्टर का पर्चा पढ़
खुशी से उछलती- कूदती भागी थी
मैं पकड़ती तब तक तो वो शोर मचा चुकी थी…
अम्माँ ने बहुत ममता से मुस्कुरा कर
धीरे से आँचल से आँखें पोंछीं
उस बार विदा में अम्माँ ने खूब अचार, और नसीहतें
साथ बाँधीं थीं…!!
जाने क्या था अम्माँ के आँचल और
उस आँगन की हवा में
साँसें जैसे खुल कर पूरी छाती में भर जाती थीं
चौगुनी भूख सीधे चौके में खींच ले जाती
क्या पकाया,क्या बनाया कह बेसब्री से कढ़ाई से सीधे
चम्मच भर खाते, आँखें बंद कर चटखारा लेते
आत्मा तृप्त-मगन हो जाती…!
फिर चकरघिन्नी सी घूमती हर कमरे की
हर अलमारी को खोल उसकी खुशबू साँसों में उतारती
अपनी संगिनी किताबों, डायरियों को
छाती से लगा चूम लेती
नए लिए कपों, सामानों पर बहुत ममता से हाथ फेरती
अरे वाह, ये कब लिया…कितना सुन्दर है
देखना, ये साड़ी अबके मैं ले जाऊँगी…!
अम्माँ कहतीं हाँ- हाँ और अबके अपना तानपूरा और बाकी सब भी साथ ले जाना…!
फिर मुड़ जाती अपने प्यारे से बगीचे में
तितली सी थिरकती…चिड़िया सी चहकती
हर फूल, हर पत्ती पर हाथ फेर दुलारती
करौंदे, नीबू, जामुन, अमरूद जो मिलता
गप से मुँह में डाल तृप्ति से मुस्काती…!
नहा- धोकर आँगन की सुनहरी धूप में
कोई किताब ले गीले बाल फैला चारपाई पर
इत्मिनान से पसर कर भर आँख आसमान देखती
रात को तारों की झिलमिल में खोकर सोचती
अरे, तारे तो शायद वहाँ भी झिलमिलाते होंगे,कभी गौर नहीं किया
लम्बी साँसें भरती सोचती
यहाँ धूप कितनी सुनहरी है और हवा कितनी हल्की …!
यूँ तो काल के अंधेरे गर्भ में समय के साथ
बिला चुका है वो सब कुछ
लेकिन जब भी मेरी बेटी अपने मायके आती है
मायके की धूप-हवा को तरसती मेरी रूह
उसके उछाह और सुकून में समा कर
गहरी- लम्बी साँसें चुपचाप भरती है…!!
—————————
—उषा किरण
आपकी लिखी रचना सोमवार 12 सितम्बर ,2022 को
जवाब देंहटाएंपांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
बहुत शुक्रिया संगीता जी 😊🙏
हटाएंउषा दी, शायद हर महिला अपने मायके के बारे में यही कहना चाहती है। सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसही बात है…बहुत शुक्रिया 🥰😍
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१२-०९ -२०२२ ) को 'अम्माँ का नेह '(चर्चा अंक -४५५०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार अनीता जी 😊
हटाएंवाह मायके की अनुभूतियों का जीवंत चित्रण,पूरा अतीत ही ज्यूँ सामने साकार हो गया। उत्तम रचना
जवाब देंहटाएंअभिलाषा जी, बहुत स्नेह आपको…शुक्रिया
हटाएंउन अनमोल पलों को फिर से जी लेना भी तो उपहार ही है। चाहे कसमसाहट ही क्यों न हो।
जवाब देंहटाएंअमृता जी, बिल्कुल सही कहा आपने…सच है उन स्मृतियों मात्र से ही मन प्रफुल्लित हो उठता है…हम किस्मत वाले हैं जो भरपूर मायके का लाड़ दुलार इतना मिला कि अतीत की छाँव भी दुलरा देती है…बहुत शुक्रिया ☺️
हटाएंपल पल को जीती हुई बहुत ही प्यारी आत्मीय सी कविता , एक कोमल भाव जो बाबुल की देहरी पर एक अधेड़ या वृद्धा को भी बच्ची बना दिया करता है
जवाब देंहटाएंजी गिरिजा जी, अब तो स्मृतियों से कल्पना में ही वो सब याद कर आनन्दित हो लेते हैं…मायके की याद बच्ची ही बना देती है सच में😔
हटाएंआँखों में तैर गये शब्द चित्र।
जवाब देंहटाएंउषा जी क्या लिखूँ मन भींग गया।
सस्नेह।
बहुत स्नेह आपको
हटाएंमां का अंगना वाकई , भावुक कर दिया आपकी इस रचना ने।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार रंजु जी
हटाएंप्रभावशाली
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार
हटाएंसचमें कितनी यादें ताजा हो गयी । आँखें नम हो गयी मायके की यादों से...
जवाब देंहटाएंलेकिन जब भी मेरी बेटी अपने मायके आती है
मायके की धूप-हवा को तरसती मेरी रूह
उसके उछाह और सुकून में समा कर
गहरी- लम्बी साँसें चुपचाप भरती है…!!
बच्चों के साथ रिवाइज हो रहा है जीवन और जीवन की स्मृतियाँ.
हार्दिक आभार 🙏
हटाएंआँखें नम करती मार्मिक भावाभिव्यक्ति प्रिय उषा जी।मायके की गलियों और आँगन का संसार में कोई सानी नहीं है।एक लड़की मायके आकर ताउम्र अपना बचपन जीती है।ससुराल से बेटी के आने के बाद माँ को कितना सुकून मिलता होगा इसकी कल्पना मात्र ही की जा सकती है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रेणु जी😊
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