शनिवार, 7 जुलाई 2018

''बृजेश्वरी देवी मंदिर '' (कांगड़ा,हिमाचल- प्रदेश)—यात्रा-2


साधना-शिविर के बाद हम एक दिन एक्स्ट्रा तपोवन में रुके तो मेरा मन हुआ क्यों न कांगड़ा की देवियों के दर्शन कर आऊं कांगड़ा में जगह- जगह पर देवस्थान होने से इसे देवभूमि कहा जाता है ...पर मेरे साथ की सभी फ्रैंड्स पहले ही दर्शन कर चुकी थीं पर शिविर में एक फ्रैंड बनी थीं कान्ता जी वो भी जाना चाह रही थीं तो हम दोनों टैक्सी करके सुबह सात बजे निकल पड़े ।कांगड़ा का प्राचीन नाम नगरकोट था अत: ब्रजेश्वरी देवी मंदिर को नगरकोट वाली देवी और कांगड़ा देवी भी कहा जाता है।यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के कांगड़ा शहर के समीप मालकड़ा पहाड़ी की ढलान पर स्थित है ।
करीब आधे  घन्टे में  हम मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने हमें ऊपर पहाड़ी पर जाती सीढियां दिखाईं हम और कान्ता जी चल दिए हाथ पकड़ कर आस्था की लाठी टेकते...कान्ता जी ने किसी बात पर मुझे बेटी कहा तो हंस कर टोका `मैं सहेली हूं आपकी आपसे ज्यादा छोटी नहीं ...मेरे रंगे बालों पर न जाएं ...’खैर सीढी के दोनों तरफ दुकानें सजी थीं जिनका वैभव ललचा रहा था ।रंग-बिरंगी चूड़ियां ,सिंदूर,कंगन ,तांबे -पीतल के कंगन,झुमके, भगवान जी की पोशाकें व दमकते जेवर, बच्चों के खिलौने .प्रसाद और भी जाने क्या-क्या ...खैर हमने भी प्रसाद लिया हांफते-सुस्ताते हम पहुंच गए मंदिर और लग गए लाइन में ।
मान्यता है कि जब मां सती ने शिव के द्वारा किए अपमान से आहत होकर दक्ष के यज्ञ-कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए थे तब कुपित होकर भगवान शिव उनका शव लेकर  पूरी सृष्टि में घूमे तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के बावन टुकड़े कर दिए तो जहां -जहां माता सती के अंग गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाते हैं, यहां मां का बायां वक्ष गिरा था तो यहां शक्तिपीठ की स्थापना हुई । शक्तिपीठ मंदिर किसे कहते हैं यह मुझे यहीं आकर पता चला ...यह मंदिर मध्यकालीन वास्तुशिल्प का सुंदर उदाहरण है,यहां स्थित गुंबद,शिखर ,कलश और स्तम्भ समूह पर राजपूत कालीन शिल्प का प्रभाव दिखाई पड़ता है प्राचीन काल में देवी की पूजा तांत्रिक विधि से होती थी आज भी यहां पांच टाइम पूजा बहुत विधि-विधान से होती है ।
दसवीं शताब्दी तक यह मंदिर बहुत समृद्ध था पर 1909 में मोहम्मद गजनबी ने इस मंदिर को पांच बार लूटा 1337 में मो. बीन तुगलक ने और पांचवी शताब्दी में सिकंदर लोदी ने इसको लूटा बार- बार इसका पुनर्निर्माण किया जाता रहा पर 1905 में आए भूकम्प में यह पूरी तरह नष्ट हो गया 1920 में पुन: इसका पुनर्निर्माण किया गया ।सिर्फ हिंदू ही नहीं मुस्लिम व सिक्ख सम्प्रदाय के श्रद्धालु भी यहां पर आस्था के फूल चढाते हैं ,उसके तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक हैं ।मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित पहली मुख्य पिंडी मॉं बृजेश्वरी की है,दूसरी भद्रकाली की और तीसरी सबसे छोटी मां एकादशी की है ...बहुत से श्रद्धालु पीले वस्त्र पहन कर आए थे पूंछने पर पता चला कि परम भक्त ध्यानु ने यहां मॉं को अपना शीश अर्पित किया था तो उनके अनुयायी आज भी पीले वस्त्र पहन कर दर्शन को आते हैं ।कहते हैं सच्चे मन से मांगी मुराद यहां जरूर पूरी होती है।
मंदिर में प्रवेश करने पर बहुत भीड़ के कारण ज्यादा देर रुकना मुश्किल था तो दर्शन करके तुरंत बाहर आ गए ।लौटते समय हमने भी बाहर की दुकानों से सिंदूर और पीतल के कड़े प्रसाद में देने के लिए खरीदे और हां आम पापड़ भी खरीदे । नीचे आने पर हम गाड़ी में बैठ कर आगे ज्वाला जी के दर्शन के लिए निकल लिए ।रास्ते में कान्ता जी की बेटी का फोन आया तो उन्होंने नहीं उठाया बार बार आने पर उठाया पर बताया नहीं कि वो कहां हैं बोलीं ''आश्रम से बाहर आई हूं ''मैंने पूंछा क्यों नहीं बताया तो बोलीं कि ''बच्चे गुस्सा करते उन्होंने मना किया था कि कौन तुमको हाथ पकड़ कर चढाई पर ले जाएगा  तुम गिर जाओगी ''पर बेटी को शक हो गया वो बार -बार फोन करने लगी मैंने कहा ''आप बता दो कि मेरी सहेली है साथ गिरने नहीं देगी'' तब उन्होंने बताया ...मैंने भी हम दोनों के फोटो उनके बच्चों को वहाट्अप पर भेजे साथ ही मैसेज किया कि ''मेरे साथ हैं फिक्र न करे आप लोग''...तब उनको तसल्ली हुई । कान्ता जी ने बताया कि पांचों बच्चे छोटे थे जब उनके पति की हार्ट- अटैक से डैथ हो गई थी बहुत मेहनत से बच्चे पाले वे मॉं ज्वाला जी को बहुत मानती हैं उन्होंने मन्नत मानी थी और मुराद पूरी हुई चारों बेटियों की बहुत अच्छे घरों में शादी हो गई मुंह से मांग लिया एक दो बेटियों को ...बेटे की भी शादी हो चुकी है और उसका बहुत अच्छा जॉब है सारे दामाद, बहू बेटियां बहुत सम्मान करते हैं ...मेरा बार- बार हाथ पकड़ कर कह रही थीं कि ''उषा तुम्हारी वजह से मैं दर्शन कर पाई ''मैंने कहा ''आपकी वजह से मैं कर पाई''...कान्ता जी का जोश और भोलापन बच्चों जैसा था सच ही मुझे उनसे प्यार हो गया ...रास्ते में वो अपनी आप बीती सुनाती रहीं और मॉं का धन्यवाद करती रहीं ..हम दोनों ही प्रभु कृपा को स्मरण करते श्रद्धावनत हो इतने अभिभूत हो चुके थे कि गाड़ी और ड्राइवर की सुविधा भी हमें  भावविभोर करे दे रही थी गाडी़ हमेंअर्जुन के रथ `नन्दीघोष ‘से कम नजर नहीं आ रही थी और सारथी( ड्राइवर) में हमें साक्षात वासुदेव ही दृष्टिगोचर हो रहे थे ...सारथी महोदय की आंखें सड़क पर थीं पर कान हम दोनों माताजीओं पर ही टिके थे वे भी हमें देवी महिमा के बारे में ज्ञान देते रहे  ...हम श्रद्धा और आस्था की मंदाकिनी में डुबकी लगाते ज्वाला जी के दर्शन हेतु प्रस्थान कर चुके थे. 🙏
                                                                                                                क्रमश:
                       



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