रविवार, 6 दिसंबर 2020

पुस्तक - समीक्षा (ताना-बाना)


                           

 सुप्रसिद्ध ब्लॉगर एवम् सम्वेदनशील लेखिका आदरणीय Sangeeta Swarup जी को कौन नहीं जानता ! उन्होंने ताना-बाना पढ़ कर "शाह टाइम्स “ पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की हैं ! बहुत आभार आपका और संपादक शाहिद मिर्जा जी का भी...देखिए वे क्या लिखती हैं-

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शाह टाइम्स के संपादक शाहिद मिर्ज़ा जी का हार्दिक धन्यवाद ।


पुस्तक - परिचय --

ताना - बाना  ( डॉ0 उषा किरण ) 


यूँ तो उषा जी की ताना बाना पर बहुत समृद्ध पाठकों और लेखकों की प्रतिक्रिया आ चुकी है फिर भी हर पाठक का अपना अलग दृष्टिकोण होता है इसलिए मैं भी एक सामान्य पाठक की हैसियत से इस पुस्तक और इस पुस्तक की लेखिका पर अपने विचार रखना चाहूँगी ।

  हिंदी साहित्य के आसमान में उषा किरण एक ऐसा नाम जो उषा की किरण की तरह ही दैदीप्यमान हो रहा है । यूँ तो हर क्षेत्र में ही अपने अपने मठ और मठाधीश हुआ करते हैं जो नए लोगों को बामुश्किल आगे बढ़ने में सहायक होते हैं लेकिन जो इन सबकी परवाह न कर अपनी पगडंडी पकड़ अपना रास्ता बनाता चले वो निश्चित ही अपनी मंज़िल पर पहुँचने में सक्षम होता है । और यह निश्चय डॉ ० उषा किरण के व्यक्तित्व में झलकता है । डॉक्टर उषा किरण  गद्य और काव्य लेखन, दोनो में ही सिद्धहस्त है ।कहानियाँ ऐसे बुनती हैं कि लगता है कि घटनाएँ सब आंखों के सामने घटित हो रही हैं ।लेकिन इस समय केवल इनके काव्य संग्रह  ताना -  बाना पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं । यह पुस्तक मुझे उषा जी के हाथों प्रेम सहित भेंट में मिली ।  यह संग्रह इतने खूबसूरत कलेवर में है कि कुछ देर तो मैं पुस्तक के सौंदर्य को ही देखती रह गयी । इस पुस्तक को इस रूप में प्रस्तुत करने में जिन लोगों का सहयोग मिला वह सब बधाई के पात्र हैं ।यह काव्य संग्रह शिवना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है । शिवना प्रकाशन को बधाई ।

इस पुस्तक में केवल काव्य ही संग्रहित नहीं वरन चित्र  भी समाहित है । हर रचना के साथ उन भावों को समेटे उसके लिए एक चित्र देख यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि डॉक्टर उषा किरण  में  बेहतरीन  कवयित्री और उम्दा चित्रकार का संगम है । जैसे जैसे उनका ताना बाना पढ़ती गयी उनके भावों की अभिव्यक्ति से अभिभूत होती गयी । हर रचना में जैसे सहज सरल भाषा में अपने भावों को ज्यों का त्यों उड़ेल दिया गया हो । उनकी  कविताएँ उनके आस पास के लोगों , उनकी स्मृतियों ,समाज में घटित घटनाओं , व्यवस्थाओं पर आधारित हैं । 


      इस काव्य संग्रह में हर तरह की कविता का समावेश है । कुछ क्षणिकाएँ हैं जो जीवन दर्शन को कहती प्रतीत होती हैं -

हमारी बातों की उँगलियाँ 

देखो न

बुनती हैं कितने वितान 

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सोच की सलाइयों को 

आदत है बुनने की 

रुकती ही नहीं ।


इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि कवयित्री  अपने परिवार और हर रिश्ते के प्रति सहज सरल निष्ठावान हैं ।अपनी काव्य यात्रा में उन्होंने हर रिश्ते को संजो लिया है । इनकी रचनाओं की ख़ासियत है कि जैसा जिसके लिए मन से महसूस किया वैसा ही कागज़ पर अंकित कर दिया । 

माँ के लिए लिखती हैं - 

सारे दिन खटपट करतीं

लस्त पस्त हो 

जब झुंझला जातीं

तब.....

तुम कहतीं - एक दिन 

ऐसे ही मर जाऊँगी ... 


आज स्वयं माँ बन वही सब याद कर रही हैं । उनकी कविताओं में हर रिश्ता अपनी झलक दिखला रहा है । उनकी स्मृतियों में सब सिमटा  हुआ है  । मुझे उनकी लिखी कविता "राखी" विशेष आकर्षित करती है  जिसमें उस भाई से निवेदन कर रही हैं जो इस संसार से विदा ले चुका है ।अपने दर्द को छिपा दुनियादारी निबाह कर अपने मन की बात कही है ,---


मना कर उत्सव पर्व 

लौट गए हैं सब 

अपने अपने घर .....

......

तारों की छांव में 

विशाल गगन तले

खड़ी हूँ बाहें फैलाये.....

......

अपनी कलाई बढ़ाओ तो 

भैया । 


इस पुस्तक के माध्यम से जान पाते हैं कि उनके लिए हर रिश्ता बहुत अज़ीज़ है ।फिर चाहे वो पिता को हो या पति का , बच्चों का हो या फिर दोस्ती का । लेकिन जब बात स्वयं की हो तो  अपना ही परिचय दूसरों से मांगती हैं । क्यों कि उनके अंदर तो एक धमाचौकड़ी करती बच्ची भी है तो ख्वाब बुनती युवती भी । 

उनकी सोच के ताने बाने हर समय और हर जगह चलते रहते हैं । पर्यटन के लिए एतिहासिक स्थलों पर वहाँ की इमारतों से भी संवाद स्थापित कर लेती हैं - 


सुनी हैं कान लगा कर 

उन सर्द, तप्त दीवारों पे

दफन हुईं वे

पथरीली धड़कने .... 


जहाँ उनका हृदय कोमल भावनाओं से भरा हुआ है वहाँ कहीं अत्याचार या किसी का शोषण उनको आक्रोशित भी कर देता है ।बाह्य जगत में होने वाले सामाजिक सरोकार से भी सहज ही जुड़ जातीं हैं । ऐसी ही कुछ कविताएँ  स्त्री के प्रति किये गए अत्याचार के विरुद्ध बिगुल फूँकने का काम कर रही हैं --


औरत ! सुनो, बात समझो 

इससे पहले कि बहती पीड़ाओं के कुंड में डूब जाओ 

इससे पहले कि सीने जी आग राख कर दे तुम्हें

पहला पत्थर तो उठाना होगा तुमको ही ...

**********

 जो अत्याचार सह चुप रहतीं हैं उन औरतों को व्यंग्यात्मक शैली में लताड़ा भी है -


चुप रहो 

खामोश रहो 

सभ्य औरतें , चुप रहती हैं । 

********** 

उन स्त्रियों पर करारा प्रहार है जो पुत्रों द्वारा किये गए कुकर्मों पर पर्दा डालती हैं --


क्यों नहीं दी पहली सज़ा तब 

जब दहलीज़ के भीतर 

दी थी औरत को पहली गाली ? 

.............उठो गांधारी 

अपनी आँखों से 

अब तो पट्टी खोलो ।

*********


इस काव्य -  संग्रह की एक बात विशेष रूप से प्रभावित करती है कि डॉ 0 उषा किरण कहीं भी निराशा से ग्रसित नहीं हैं । सकारात्मकता ही उनकी ऊर्जा है । "मुक्ति " कविता में सच ही मुक्ति का मार्ग खोज लिया है । हिसाब किताब का हर पन्ना फाड़ मुक्त हो जाना चाहती हैं ।  तो दूसरी ओर स्वयं के  हर बंधन को  हर तरह से काट दिया है और उन्मुक्त हो ज़िन्दगी जी रही हैं -

इन दिनों 

बहुत बिगड़ गयी हूँ मैं 

अलगनी से उतारे 

कपड़ों के बीच

खेलने लग जाती हूँ घंटों 

कैंडी क्रश ...

झांकते रहते हैं ठाकुर जी 

पूजा घर से 

स्नान - भोग के लिए ...


इतनी जीवंत कविता पढ़ पाठक भी ऊर्जावान हो उठता है और बरबस ही उसके  चेहरे पर एक स्मित की रेखा खिंच जाती है ।  कहीं खिली धूप से बात करती हैं  तो कहीं  एक टुकड़ा आसमाँ अपनी पिटारी में रख लेना चाहती हैं । यूँ तो बहुत सी कविताओं को यहाँ उध्दृत किया जा सकता है लेकिन पाठक स्वयं ही कविताओं को पढ़ अनुभव करें और पुस्तक का आनंद लें । 

ताना -  बाना अलग अलग अनुभव का पिटारा है । जिसमें कवयित्री ने शब्दों को ताना है और अपने भावों के बाने से कविताओं को बुना है । पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक सहजता से लेखिका के भावों के साथ बहता चला जाता है ।साथ ही हर कविता के साथ जो रेखांकन है उसमें खो जाता है । 

कुल मिला कर यह काव्य संग्रह संग्रहणीय है । डॉक्टर उषा किरण को मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ । उनके द्वारा लिखी और पुस्तकों का  इंतज़ार रहेगा । 


   

ताना - बाना 

डॉ0 उषा किरण 

ISBN : 978-93-87310-71-1

मूल्य - ₹ - 450/

शिवना प्रकाशन ।


पुस्तक का लिंक-


https://www.amazon.in/dp/B083V21F3G


http://geet7553.blogspot.com/2020/10/0.html?m=1





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