इतिहास - विभाग, मेरठ कॉलिज, मेरठ में स्वतन्त्रता प्राप्ति के 75 वर्ष पूर्ण होने पर " आजादी का अमृत महोत्सव ” के अन्तर्गत 10 मई 1922 को क्राँति - दिवस मनाया गया। मेरा सौभाग्य रहा कि उस अवसर पर आमन्त्रित होने के कारण उन क्राँति वीरों को श्रद्धा सुमन अर्पित करने का अवसर प्राप्त हुआ ।
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के इस वर्ष 163 साल पूरे हो रहे हैं। 10 मई 1857 को अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए आजादी की पहली चिंगारी सबसे पहले मेरठ के सदर बाजार में भड़की, जो पूरे देश में फैली थी। इसी दिन अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया था। यह मेरठवासियों के लिए गौरव की बात है।
मेरठ का कैंट इलाका एक छावनी इलाका था, जहां सैनिकों के बैरक बने हुए थे. औघड़नाथ मंदिर से नजदीक ज्यादातर स्वतंत्रता सेनानी मंदिर में आकर रुकते थे। उस समय अंग्रेजों ने मंदिर के पास ट्रेनिंग सेंटर भी बनाया था। छावनी में अंग्रेज और भारतीय दोनों सेनाओं के लोग अलग-अलग जगहों पर रहते थे. अंग्रेज भारतीय सैनिकों के प्लाटून को काली पलटन कहते थे. काली पलटन बैरक के पास ही एक शिव मंदिर था जहां पर भारतीय सैनिक पूजा-पाठ करने जाते थे. इसी मंदिर से भारत की आजादी की पहली लड़ाई की शुरुआत हुई. आज भी वह भव्य मन्दिर `काली- पल्टन का मन्दिर’ या `औघड़नाथ -मन्दिर’ के नाम से लोगों की आस्था का केन्द्र बना हुआ है। 10 मई 1857 को मंदिर के प्याऊ पर कुछ सैनिक पानी पीने के लिए पहुंचे. प्याऊ पर उस समय मंदिर के पुजारी बैठे हुए थे. सैनिकों ने हमेशा की तरह पुजारी से पानी पिलाने को कहा लेकिन पुजारी ने सैनिकों को अपने हाथ से पानी पिलाने से इंकार कर दिया. पुजारी ने कहा जो सैनिक गाय और सूअर की चर्बी से बने हुए कारतूस को अपने मुंह से खोलते हैं, उन्हें वह अपने हाथों से पानी नहीं पिला सकते।
1857 की क्रांति का जिक्र करते हुए एक साधु को भी याद किया जाता है। मेरठ के राजकीय संग्रहालय में बाक़ायदा फोटो के साथ ये लिखा गया है कि अप्रैल 1857 में एक साधु आए थे. आजतक भी उस साधु का परिचय अज्ञात ही है। वो कोई सामान्य साधु नहीं था उसके पास हाथी व अश्व थे । साधु का आना और फिर 10 मई को बगावत हो जाना ये महज एक संयोग नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक कुशल रणनीति थी। बताया जाता है कि ये साधु भी क्रांतिकारियों के साथ 10 मई 1857 को मौजूद थे, हालांकि साधु के नाम का जिक्र नहीं किया गया है।
कुछ इतिहासकारों का कहना है कि देश के क्रांतिकारी बहादुर शाह जफर, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, रानी लक्ष्मीबाई आदि ने बडे़ सुनियोजित ढंग से क्रांति की तिथि 10 मई 'रोटी और खिलता हुआ कमल' को प्रतीक मानकर पूरे अखंड भारत में गुप्त ढंग से सूचना भेज रखी थी। रोटी का अर्थ रहा हम सभी भारतीय अपनी रोटी मिल बांटकर खाएंगे तथा खिलते कमल का अर्थ कि हम सभी मिलकर देश को कमल के समान खिलते देखना चाहेंगे।
मेरठ छावनी में सैनिकों को 23 अप्रैल 1857 में बंदूक में चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल करने के लिए दिए गए। भारतीय सैनिकों ने इन्हें इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया था। इसी कारतूस को लेकर महीने भर पहले बंगाल के बैरकपुर में मंगल पांडे विद्रोह कर चुके थे और यह बात चारों तरफ फैल चुकी थी. तब 24 अप्रैल 1857 में सामूहिक परेड बुलाई गई और परेड के दौरान 85 भारतीय सैनिकों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने के लिए दिया गया, लेकिन परेड में भी सैनिकों ने कारतूस का इस्तेमाल करने से इनकार कर दिया। इस पर उन सभी का कोर्ट मार्शल कर दिया गया। मई छह, सात और आठ को कोर्ट मार्शल का ट्रायल हुआ, जिसमें 85 सैनिकों को नौ मई को सामूहिक कोर्ट मार्शल में सजा सुनाई गई। और उन्हें विक्टोरिया पार्क स्थित नई जेल में बेड़ियों और जंजीरों से जकड़कर बंद कर दिया था।
शहर में में 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की क्रांति की चिंगारी उस वक्त फूटी थी, जब देशभर में अंग्रेजों के खिलाफ जनता में गुस्सा भरा हुआ था। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लिए रणनीति तय की गई थी। एक साथ पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाना था, लेकिन मेरठ में तय तारीख से पहले ही अंग्रेजों के खिलाफ लोगों का गुस्सा फूट पड़ा।
इतिहासकारों की माने और राजकीय स्वतंत्रता संग्रहालय, मेरठ में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित रिकार्ड को देखे तो, दस मई 1857 में शाम पांच बजे जब गिरिजाघर का घंटा बजा, तब सदर बाजार से क्रांति की ज्वाला धधक उठी। लोग घरों से निकलकर सड़कों पर एकत्रित होने लगे थे। सदर बाजार क्षेत्र से अंग्रेज फौज पर लोगों की भीड़ ने हमला बोल दिया। क्रांति के दौरान सदर बाजार की वेश्याएं भी 85 सैनिकों की गिरफ्तारी के बाद उठ खड़ी हुई थीं। वेश्याओं ने सिपाहियों पर चूड़ियाँ फेंकीं।
उसी समय 11 वीं व 20वीं पैदल सेना के भारतीय सिपाही परेड ग्राउंड (अब रेस कोर्स) में इकट्ठे हुए और वहीं से अंग्रेजी सिपाहियों और अफसरों पर हमला बोल दिया। पहली गोली 20वीं पैदल सेना के सिपाही ने 11वीं पैदल सेना के सीओ कर्नल जार्ज फिनिश को रेस कोर्स के मुख्य द्वार पर मारी थी। उस सिपाही का नाम आजतक अज्ञात है। इस बीच थर्ड कैवेलरी के जवान अश्वों पर सवार होकर अपने उन 85 सिपाहियों को बंदी मुक्त कराने विक्टोरिया पार्क स्थित जेल पहुंच गए, जिन्हें कोर्ट मार्शल के तहत सजा दी गई थी।
सवा छह बजे तक दोनों जेल तोड़ दी गईं। साथ लाए लुहारों से बेड़ियाँ व हथकडियों को कटवा कर सैनिकों को जेल से मुक्त किया गया। अगले दो घंटे में छावनी इलाका जल उठा। सहसा `दिल्ली- दिल्ली ‘ का उद्घोष हुआ, शाम साढ़े सात बजे के आसपास ये लोग रिठानी गांव के पास एकत्रित हुए और विभिन्न रास्तों से दिल्ली कूच कर गए।
कहते हैं कि वो अज्ञात साधु भी हाथी पर बैठ कर दिल्ली के लिए रवाना हुआ। कुछ सैनिक तो रात में ही नावों के बने पुल को पार कर यमुना किनारे लाल किले की प्राचीर तक पहुंच गए और कुछ भारतीय सैनिक ग्यारह मई की सुबह यहां से दिल्ली के लिए रवाना हुए और दिल्ली पर कब्जा कर लिया ।
रात के हमलों से संभलकर ब्रिटिश सैनिकों ने भी दिल्ली कूच किया, लेकिन तब तक क्रांति की ज्वाला धधक चुकी थी ।क्रांतिकारियों के इस हमले में 50 से अधिक अंग्रेजी अफसर-सिपाही मारे गए। सदर, लालकुर्ती, रजबन आदि हर जगहों पर खून ही खून नजर आ रहा था।
वरिष्ठ इतिहासकार डॉ. के. डी. शर्मा ने अपने व्याख्यान में बताया कि नौ मई 1857 का दिन ही वह ऐतिहासिक दिवस था जब सैनिकों की बगावत के बाद बहादुर शाह जफर को हिंदुस्तान का बादशाह घोषित कर पहली बार हिंदुस्तान की आजादी का आगाज हुआ था। इस क्रांति ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलाकर, 'स्वतंत्र भारत' की आधारशिला रख दी।
1857 की क्रांति के वीरों को कोटि-कोटि नमन।🙏
फोटो व जानकारी : गूगल से साभार।
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय लेख
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद आलोक जी!
हटाएंबहुत ज़रूरी लेख । हमें आज़ादी की लड़ाई के प्रारंभ का ज्ञान होना चाहिए । काफी कुछ पता था लेकिन बहुत कुछ नया भी था ।
जवाब देंहटाएंआभार इस पोस्ट के लिए ।
बहुत शुक्रिया संगीता जी !
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ मई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
बहुत धन्यवाद श्वेता जी !
हटाएंबहुत ही सूचनाप्रद आलेख।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार!
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