शनिवार, 14 मई 2022

गंगूबाई काठियावाड़ी




 हर व्यक्ति का नजरिया किसी भी चीज को देखने का भिन्न- भिन्न होता है। संजय लीला भंसाली की देवदास मूवी मुझे जरा नहीं भाई थी लेकिन  सच्ची कहानी पर आधारित " गंगूबाई काठियावाड़ी” मुझे बहुत पसन्द आई और कुछ लोगों को बिल्कुल पसन्द नहीं आई। तो टटोला खुद को कि हाँ भई तुमको क्यों पसन्द आई इतनी कि हफ्ते में लगभग दो बार देख डाली ?

एक अबोध, अल्हड़, बेहद खूबसूरत, नाजुक खानदानी लड़की जो प्यार में विश्वास कर अपने सपने पूरे करने प्रेमी का हाथ पकड़कर चाबी के गुच्छे के साथ साथ घर की इज़्ज़त भी लेकर निकल पड़ती है और प्रेमी उसे हजार रुपये में कोठे पर छोड़ भाग जाता है।

-होना तो ये चाहिए था कि उस प्यार में लुटी लड़की के सपनों का फलक जब जला तो वो दुनियाँ में आग लगाने का सोचती लेकिन उसका फलक तो और विशाल हो गया । हौसला  तो देखो जरा अपना फलक जला तो जला पर औरों के फलक में अंधेरा दूर करने का संकल्प ले बैठती है ।

- होना तो ये चाहिए था कि प्यार में लुटने पर वो प्यार शब्द से नफरत करने लगती लेकिन होता है ये कि वो अपने जैसी सभी लड़कियों से प्यार करती है , उनके दुखों को अपनाती है जिसके कारण वे सभी उसे अपनी संरक्षिका बना कर गलीच काम से मुक्त करती  हैं।और मन के कोने में जो पावन सा प्यार का बिरवा अनायास फिर उग आया उसको भी जनकल्याण हेतु दूसरे के आँगन में रोप कर खुद धूप में झुलसती रह कर प्यार को मुक्त कर देती है।

- होना तो ये चाहिए था कि उसे कमजोर होकर कोने में पड़े रहकर सिसक- सिसक कर मर जाना था , पर होता ये है कि उसके मन की ताकत उसके नाजुक बदन पर भी भारी पड़ती है।सफेद साड़ी, काला चश्मा, हाथ में पर्स लेकर वो जिस शान से अकड़ कर चलती है आलिया की बॉडी लैंग्वेज देखते ही बनती है।

-  होना तो ये चाहिए था कि बदसूरत माहौल में उसे बदसूरत हो जाना था।परन्तु  कोठेवाली  बना दिए जाने पर भी, और सुन्दर होकर उसका ओजस्वी रूप व व्यक्तित्व दमक उठता है। उसका आत्मविश्वास , हौसला व बुद्धिमत्ता उसे और निखार देते हैं।

-पहली बार बिकती है जब तो उन पैसों को खुद आग लगा कर तुरन्त खाना माँगती है।दो ही रास्ते हैं उसके सामने या तो मर जाए या जो और जैसी ज़िंदगी, जिस भी कारण सामने आ खड़ी हुई है उससे आँख मिलाकर दो- दो हाथ करे।और वो दूसरा रास्ता चुनती है। और चुनती ही नहीं बहुत जल्दी ही अपना ओहदा और कद भी बढ़ा लेती है। सारी दुनिया में अपना लोहा मनवा कर ही दम लेती है। न किसी से डरती है न झुकती है , न ही हालात से समझौता करती है। जो मौका सामने आता है उसको लपक कर अपनी ताकत बना लेती है।

-कुछ लोग आलिया की शबाना आजमी या शर्मिला टैगोर से तुलना कर रहे हैं कि उनकी तुलना में कोठेवाली सी नहीं लगी …हाँ तो क्यों लगना था ? एक मजबूत मन वाला और समाजसेवा का संकल्पधारी व्यक्ति भीड़ में भी सौ- सौ जुगनुओं सा चमकता है। देह बेचकर पैसा कमाने की जगह वह तवायफों व उनके बच्चों के हक की लड़ाई को ही अपने जीवन का मकसद बना लेती है।

-मुझे आलिया की एक्टिंग और मोती जैसे रंग- रूप ने मोह लिया। फिल्म के कुछ गाने भी अच्छे लगे और बाद की आलिया की स्पीच भी। अंधेरी गलियों में कीगई  अंधेरी सी फ़ोटोग्राफ़ी भी…जहाँ चाँदनी में नहाई सी आलिया चाँदनी के फूलों सी चमकती है हर रूप में।

-जहाँ आजकल वेब सीरीज और मूवीज में अश्लीलता व भोंडापन अपने चरम पर है वहाँ संजय लीला भंसाली ऐसे विषय पर भी साफ- सुथरी और सुन्दर मूवी बना ले गए ये प्रशंसनीय है।कोठा संचालिका बनी सीमा पाहवा का रोल व रंग- रूप इतना वीभत्स है कि मन झुलस जाता है । औरत के नसीब में कोठा लिखने वालों और जिनकी वजह से कोठे बनते हैं उन जलील मर्दों के मुँह पर थूकती है ये मूवी।

-इस फिल्म में छिपे दो सन्देश दिखे एक तो ये कि इंसान अपने कर्म से पहचाना जाता है ।शुभ संकल्प हो तो एक तवायफ भी इज्जत कमा सकती है परोपकार का रास्ता चुन सकती है। नारी सशक्तिकरण को दर्शाती ये फिल्म जरा सी विपरीत परिस्थितियों के आने में आत्महत्या करने का संकल्प लेने वालों को भी सबक देती है।उसका यही जुझारू रूप मुझे मुग्ध कर गया और दूसरा मैंने अपने कार्यकाल में बहुत लड़कियों का जीवन प्यार के हाथों गलत कदम उठाकर बर्बाद होते देखा है। प्यार में अंधी होकर , अपने माँ- बाप का घर छोड़ प्रेमी के संग भाग जाने का संकल्प लेने वाली लड़कियों को कोई कदम उठाने से पहले ये फिल्म जरूर ही देख लेनी चाहिए।


( ये मेरा नजरिया है, मैं कोई फ़िल्म समीक्षक तो हूँ नहीं ।जो अच्छा लगा लिख दिया…सबकी सहमति होनी क़तई आवश्यक नहीं है और हाँ नेटफ्लिक्स पर मूवी उपलब्ध है )

                              — उषा किरण 

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