कल एक विवाह समारोह में जाना हुआ। लड़के की माँ ने हल्का सा यलो व पिंक कलर का बहुत सुन्दर राजस्थानी लहंगा पहना हुआ था और आभूषण व हल्के मेकअप में बेहद खूबसूरत लग रही थीं । आँखों की उदासी छिपा चेहरे पर हल्की मुस्कान व खुशी लेकर वे सबका वेलकम कर रही थीं। दूल्हे के पिता की कुछ वर्ष पहले ही कोविड से डैथ हो गई थी। मैंने गद्गद होकर उनको गले से लगा कर शुभकामनाएँ दीं और मन में दुआ दी कि सदा सुखी रहो बहादुर दोस्त !
ये बहुत अच्छी बात हुई कि पुरानी क्रूर रूढ़ियों को तोड़ कर बहुत सी स्त्रियाँ आगे बढ़ रही हैं । पढ़ी- लिखी , आत्मविश्वास से भरी स्त्री ही ये कर सकती हैं । पिता की मृत्यु के बाद माँ को सफेद या फीके वस्त्रों में बिना आभूषण व बिंदी में देख कर सबसे ज्यादा कष्ट बच्चों को ही होता है। तो अपने बच्चों की खुशी व आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ये जरूरी है कि माँ वैधव्य की उदासी से जितना शीघ्र हो सके निजात पाए और वैसे भी आज की नारी सिर्फ़ पति को रिझाने के लिए ही नहीं सजती है। वो सजती है तो खुद के लिए क्योंकि खुदको सुन्दर व संवरा देखकर उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। समाज में सम्मान व प्रशंसा मिलती है( ध्यान रखें समाज सिर्फ़ परपुरुषों से ही नहीं बना वहाँ स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग सभी हैं ) मेरा मानना है कि आपकी वेशभूषा व बाह्य आवरण का आपकी मन:स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है।
हर समय की उदासी डिप्रेशन में ले जाती है और जीवन ऊर्जा का ह्रास करती है व आस- पास नकारात्मकता फैलाती है।जीवन- मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है और किसी एक के जाने से दुनियाँ नहीं रुकती , एक के मरे सब नहीं मर जाते ….ये समझ जितनी जल्दी आ जाए उतना अच्छा है। इंसान के जाने के बाद बहुत सारी अधूरी ज़िम्मेदारियों का बोझ स्त्री पर व परिवार पर आ जाता है जिसके लिए सूझबूझ व दिल दिमाग़ की जागरूकता जरूरी है वर्ना खाल में छिपे भेड़ियों को बाहर निकलते देर नहीं लगती।
देखा गया है कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री के साथ जो भी क्रूरतापूर्ण आडम्बर भरे रिवाज होते हैं जैसे चूड़ी फोड़ना, सिंदूर पोंछना, बिछुए उतारना, सफ़ेद साड़ी पहनाना वगैरह , इस सबमें परिवार की स्त्रियाँ ही बढ़चढ़कर भाग लेती हैं । मेरे एक परिचित की अचानक डैथ हो जाने पर उसकी बहनों ने इतनी क्रूरता दिखाई कि दिल काँप उठा। पहले उसकी माँग में खूब सिंदूर भरा फिर सिंदूरदानी उसके पति के शव पर रख दी। फिर रोती- बिलखती , बेसुध सी उसकी पत्नि पर बाल्टी भर भर कर उसके सिर से डाल कर सिंदूर को धोया व सुहाग की निशानियों को उतारा गया।
कैसी क्रूरता है यह? यदि ये उनकी परम्परा है तो आग लगा देनी चाहिए ऐसी परम्पराओं को।
क्या ही अच्छा होता यदि बहनें भाभी को दिल से लगाकर इन सड़े- गले व क्रूर रिवाजों का बहिष्कार करतीं । यही नहीं आते ही उन्होंने बार- बार बेसुध होती भाभी के दूध की चाय व अन्न खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया कि ये सब उठावनी के बाद खा सकती है, बस काली चाय व फल ही दिए जाएंगे। उसकी सहेलियों को बहुत कष्ट तो हुआ पर मन मसोस कर रह गईं। अगले ही दिन वे उसको व उसकी छोटी बेटी को अपने साथ गाँव ले गईं कि वहाँ पर ही बाकी रीति- रिवाजों का पालन होगा। कई दिन तक सोचकर दिल दहलता रहा कि न जाने बेचारी के साथ वहाँ क्या-क्या क्रूरतापूर्ण आचरण हुआ होगा?
चाहकर भी हम हर जगह इसका विरोध नहीं कर सकते परन्तु जहाँ- जहाँ भी हमारी सामर्थ्य व अधिकार में सम्भव हो प्रतिकार करना चाहिए। रोने वाले के साथ बैठ कर रोना नहीं, यही है असली शोक- सम्वेदना।
—उषा किरण
बेहद सारगर्भित और संदेशात्मक ... समाज कभी सोयी संवेदना को झकझोरना लेखक की क़लम की सार्थकता है ऊषा जी।
जवाब देंहटाएंसस्नेह प्रणाम
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १२ दिसम्बर २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
आभार…
हटाएंहार्दिक आभार आपका 🙏😊
हटाएंसमाज में स्त्रियों को लेकर हर विषय की रूढ़ियां हैं जिन्हें तोड़ने की आवश्यकता है, मेरे घर में भी स्त्रियों ने वैधव्यता को जीवन का अंत न मानकर स्वयं को परिष्कृत किया है, और आगे बढ़ गई है, ऐसे बदलाव ही स्त्रियों को शक्ति दे रहे है।
जवाब देंहटाएंज़रूरी विमर्श। अच्छा आलेख।
बदलाव तो बहुत आया है परन्तु और प्यास की आवश्यकता है अभी…धन्यवाद 🙏
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंकिसी मर्माहत करती आपबीती वाली सच्ची मार्मिक घटना को शब्द चित्र में पिरो कर तथाकथित समाज के समक्ष प्रश्न चिन्ह की तरह परोसने के लिए .. नमन संग आभार आपका ...
जवाब देंहटाएंआज के तथाकथित समाज को गढ़ी गयी राम की प्रतिमा से कहीं अधिक आवश्यकता है एक राजा राममोहन राय जैसे जीवित मानव की, जो .....
बहुत सुन्दर लिखा आपने, सही कहा बदलाव ईया है पर बहुत प्रयास की आवश्यकता है अभी….धन्यवाद 🙏
हटाएंविवाहिताएं अगर सुहाग के चिह्नों को अपना धर्म, अपना कर्तव्य मान कर धारण ही नहीं करें तो फिर उनके वैधव्य की स्थिति में उन्हें उन सुहाग के चिह्नों को उतारने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी. क्या कभी किसी पुरुष को यह दिखाने के लिए कि वह विवाहित है, अपने सिर से लेकर अपने पैर तक कुछ धारण करना पड़ता है?
जवाब देंहटाएंहमारी सुशिक्षित महिलाएं इस क्षेत्र में विवाहिता होने पर भी सुहाग के तथाकथित चिह्न न धारण करने की पहल कर सकती हैं.
वैसे भी अगर अविवाहिता बिंदी लगा सकती है, चूड़ी पहन सकती है, लिपस्टिक लगा सकती है तो फिर अपने पति की मृत्यु के बाद कोई स्त्री इन प्रसाधनों का उपयोग क्यों नहीं कर सकती?
आपने बहुत सही कहा, वैसे जॉब करने वाली महिलाओं ने अब सुहाग चिन्ह धारण करने लगभग छोड़ दिए हैं …बदलाव तो आया है परन्तु अभी सोच बदलने की बहुत आवश्यकता है…धन्यवाद 🙏
हटाएंसुंदर, सारगर्भित लेख । इन रूढ़ियों को तोडनें की आवश्यकता है ...वैसे आजकल काफी बदलाव आया है ।
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने…धन्यवाद 😊
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