ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 30 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग 1 )





      सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।

उसे सहसा याद अाया--- जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी।
संयोगिता को सहसा खिसियानी-सी हंसी आ गयी अपनी बेबसी पर। तोंद पर बनियान चढाये आराम से हाथ फिराते, दियासलाई की  तीली से अन्तिम दाढ को मुंह फाडकर कुरेदते विनय ने अधमुंदी  आंखों से उसकी ओर एकटक ताकते तीली सामने कर गौर से देखते हुए पूछा, `क्यों क्या याद आ गया, क्यों हंस रही हो ‘?
वह हडबडा गयी। उसे पता था, जब तक विनय जवाब नहीं पा लेंगे, पूछते जायेंगे।
'क्या बात है आखिर ?'   
'बात क्या है?'
'आखिर पता तो चले ?'
'फिर भी' 
इससे पहले कि यह सिलसिला शुरू होता, वह प्लेट उठाकर चल दी, 'कुछ नहीं काफी देर तक रसोई में  खटर-पटर करती रही। जैसे सभी आम औरतें रात में थके लस्त-पस्त शरीर घसीटती, पसीने, प्याज और मसाले से गंधाती करती है।
कमरे के दरवाजे पर खडे होकर एक पल को दहशत फिर उभरी । पर्दे से झांककर देखा, विनय सो चुके थे। आश्वस्त हाेकर वह धीरे-धीरे कमरे में जाकर आराम-कुर्सी पर पसर गयी। क्या पता यदि विनय जाग रहे होते तो फिर हांक लगाते शायद।
'तुमने बताया नहीं, तुम क्यों हंसी थीं ?'
एक पल को संयोगिता को लगा शायद आज वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती, पर तुरन्त ही वह एक व्यंग्य भरे अाश्चर्य से दग्ध हो उठी कि दस-बारह वर्षों बाद भी आज तक खुद से ऐसे किसी साहस या उत्तेजना की आशा रखती हैं ?
सच ! यह अनुभव उसके लिए एकदम आकस्मिक था और किसी हद तक रोमांचक भी..
                                                                                                                                क्रमश:

मंगलवार, 29 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग २ )


सोच लेने भर से ही सहमकर उसने खाट की तरफ देखा, पर विनय मजे में छाती पर हाथ बांधे टांगें फैलाये सो रहे थे । गले से मोटे पेट तक और पेट से पैर तक फैली चादर का आरोह-अवरोह देखती रही। तनी हुर्इ चादर पंखे की हवा से लगातार कांप रही थी। 
जाने क्यों उसे बडी जोर की इच्छा हुई कि वह शीशा देखे। डरती-डरती सी वह शीशे के सामने जाकर आंखें बंद कर खडी हो गयी । आंखें खोली तो उसे लगा, वह किसी अजनबी जिस्म को देख रही है। किसी दूसरी औरत के शरीर को।
शीशे की तरफ हाथ बढाकर उसने अपने अक्स को छूना चाहा तो उसकी तर्जनी शीशे के पथरीलेपन से टकराकर अटक गयी। उसे एक क्षण के लिए यह अपनी देह का ही सत्य लगा कि हृदय  में कोई स्पन्दन  न था। न जाने क्यों जब उसने वापस हाथ अपने सीने पर रख धुकधुकी महसूस की तो वह एक अचरज से भर उठी। 
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? बार-बार उठ रहे इस अचरज को कहां छुपा दे ? चकले-बेलन के बीच पीस डालेअचार का इमर्तबान खोल उसमें झोंक दे या फिर दूध में जामन की जगह डाल आराम से सो जाये।
         उसने कितना चाहा, वह सो जाये, परन्तु पैरों में न जाने कैसी हठीली पायजेब पड गयी थी। न चाहने पर भी अवश होकर दृष्टि उठाकर उसने शीशे में खड़ी औरत को देखा।छोटे से हेयरपिन की सहायता से ठोंका गया गुठली सा जूडा। गले की अवश दो उभरी हड्डियां और असहाय सा गले की दोनाें हड्डियों के बीच का अबोध गड्ढा । अचानक उसे ख्याल आया, क्या आज भी मधु उसे देखकर कह सकती है- 'तेरा यह नन्हा सा गड्ढा ही बस इतना प्यारा है कि..... ' शरारत से आंख झपकाती मीनू जैसे कल्पना से भी आंख चुरा कर उड गयी। सहसा उसका ध्यान आंखों पर गया तो वह चौंक पडी। अरे, कब ‍वे लम्बी-घनी बरौनियां झड गयीं ? उसके चेहरे पर इतनी झांइयां कब पडी ? वह कब इतनी निचुड गयी ?
  कॉलेज में भी वह कभी मेकअप करके नहीं जाती थी। उसे पता था, उसके रूप में वह कुछ है जो उसे औरों से अलग खड़ा कर हर क्षण नवीनता से भर देता है । मनु उसके कान पर झुक कर किस कदर गुनगुनी आवाज में मदालस भ्रमर-सा गुनगुनाता था तो वह नखशिखान्त लाल पड जाती थी। उसे लगा अब तक की आधी उम्र उसने लाल पड़ कर लाज की गुडिया बनने में काटी और अब बाकी उम्र वह हल्दी घोलती पीली ही पडती रहेगी।
  उस दिन वह पढने के लिए अपनी मेज पर गयी भी, तो लिफाफा उत्सुकता से खोल एक फोटो देख अचकचा गयी थी। फिर सहसा कुछ कौंध गया। पलटकर देखा, फोटो पर 'इलाहबाद' के फोटो स्टूडियो की छाप थी। उसे समझते देर न लगी, कई दिनों  से घर में 'इलाहाबाद वाले लडके' के बारे में उसके कानों में पडता रहा था। 
  मम्मी ने उसकी राय जाननी चाही होगी। क्रोध व झुंझलाहट में उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं। क्या दोनों बहनें या मम्मी कोई भी उसके उसके हाथ में  यह फोटो देकर साफ बात नहीं कर सकती थीं  ? 
  धुंधली दृष्टि में भी परख ली गयी कपडों की कीमती सिलाई से  उधार मांगी स्मार्टनेस उसे तिलमिला गयी थी। छोटी आंखें, भरे पुष्ट गाल, मंझोला-कद और मांसल होठों का वह सांवला सा नजर आने वाला व्यक्तित्व निश्चय ही व्यापारी होगा। 
  उसने मुक्के मार-मारकर तकिये को धुन डाला। उसका जी चाहा वह तानपूरे से सिर फोड़ ले। तबलों को टन्न से सडकपर दे मारे। ऑयल-कलर्स के सारे ट्यूब निचोडकर उन्हें खा जाये। आर्ट पेपर्स के टुकडे-टुकडे कर दे। कैनवास जला दे, पर वह ऐसा नहीं कर पायी। 
  दूसरे दिन मम्मी उसे सुना-सुनाकर चड्ढा आंटी से कह रही थीं। 'लाखों रूपया है, पढे-लिखे सभ्य लोग हैं। लडका भी ठीक और फिर लडके की खूबसूरती देखता ही कौन है, गुण देखते हैं।'
  'मतलब संयोगिता को पसन्द है लडका ?' उन्होंने थूक सुडक कर बडी बुजुर्गी से मजा लेकर पूंछा। 
  'अरे हमने पसन्द किया था क्या ? हमारे मां-बाप ने पसन्द किया था। मां-बाप भला ही करते हैं।' दीदी जल्दी-जल्दी धूप में चटाई  पर पसरी चैन से सलाइयां चलाये जा रही थीं। 
  'सो तो है ही ? पर आजकल की लडकियाें को तो आप जानती ही हैं, दिखा लेना ठीक रहता है बहन जी ।' 
हमारी संयोगिता ऐसी नहीं है, बहुत ही सीधी है। बेचारी को यह तक तो पता नहीं ठीक से कि उसकी उम्र कितनी है, वह क्या जांचेगी?' 
  एक तो उसे मम्मी, दीदी पर गुस्सा आ रहा था जिन्हें चड्ढा आंटी ही मिली ‍थीं बताने काे, जो मोहल्ले भर में अभी पूर आएंगी  दूसरे जबरदस्ती लादी गयी 'समझदारी' के बोझ के नीचे लद्दू घोडे-सी वह पिस कर रह गयी।
  चड्ढा आंटी को तो वह जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी कभी। थूक सुडक-सुडक कर हर बात के बीच में फूहड तरीके से मतलब-मतलब कहती बातें करतीं तो लगता 'दो-एकम -दो' का पहाडा रट रही हैं । 
  बहुत बार दीदी ने घुमा-फिरा कर उससे फोटो के बारे में राय जाननी चाही, परन्तु वह मौन ही रही । न समझने का ढोंग कर तटस्थ बनी रही। 
  उसे लगा काश वह अभी, इसी क्षण से कई सालों  को सो जाये और चाराें तरफ घनी कंटीली झाडियां उग आयें , रास्ते पथरीले हो जायें और वह कई सालों  तक न जागे। तब उसकी कल्पना का राजकुमार झाडियां काटता आये और उसे जगा ले। अगले रोज कॉलेज में मीनू के सामने बहुत देर चुप रहने के बाद वह फिर खोयी-खोयी सी बोली थी, 'कभी-कभी' मैं भी सोचती हूं मेरी इतनी उम्र, इतनी शिक्षा सब व्यर्थ है, यदि मैं खुद की अनाथ मांगों को पूरा नहीं कर सकती। मुझे तो हर तरफ घोर अंधेरा ही दिखाई देता  है.....' कैसी विवशता थी वह, भोगते जाना अनाम पीडाओं को और फिर तडपना। 
  उसने किसी से कोई शिकायत  नहीं की, परन्तु बहनों को, पडोसियों और नातेदारनियों, यहां तक कि धोबिन, महरी  तक को यह देखकर कि वह विदा में जरा भी नहीं रोयी, उसने घूंघट नहीं किया, बडा ही सदमा लगा। पर दरवाजे पर आरता करने से पहले ही सास ने जब हाथ बढाकर कठोर चेहरा बना आंचल खींच कर मुख ढांप दिया था, तो वह कुछ भी नहीं कर पायी थी। फिर, कुछ दिन बाद तो उसे यह बडा ही मजेदार लगा था कि लम्बा घूंघट काढ कर सारी दुनिया से अलग एक पर्दे में अपनी आंखों के सारे रंग  छुपा लो। 

   जब वह पहली बार विनय के पत्र का उत्तर लिखने बैठी थी, तो घंटों कोशिश करने पर भी एक शब्द तक नहीं लिख सकी थी। सस्ती, रोमांटिक, उपाधियों से भरी उन पढ-पढकर चुरायी गयी पंक्तियों का क्या उत्तर दे, वह समझ नहीं पायी।

लाल पीली लड़की --(भाग 3 समापन किश्त)




 खिड़की  से उडते मेघों को देख मेघदूत के कई श्लोकों को याद कर वह 'यक्षप्रिया' की भांति विह्वल हो जाने के लिए सिर्फ एक बार ही मचली, फिर कागज की चिन्दी-चिन्दी कर उड़ा दी थीं। कुछ सोचकर फिर मीनू को लिखने बैठी-आज मन छटपटाता है मीनू काश मैं पुरूष होती ! बचपन में कभी-कभी कल्पना करती कि यदि भगवान ने कहीं हमें लडका बनाया होता तो ? फिर हम सोचते नहीं-नहीं  लडकियों के मजे हैं। मजे में घर रहती हैं, खाती हैं, पीती हैं। न कमाना, न धमाना । सजी-धजी बढिया इन्द्रधनुषी साडियां पहनों, सपने देखो, सितारों -से जेवर पहनों और कोमलता-कोमलता में मजे से रही। लडकों को तो न जेवर मिलते हैं, न बढिया शोख रंग । वे ही उबाऊ  सिलेटी ,बादामी रंग। सारे दिन जी-तोड कर कमाओ और धूल फांकते फिरो। न बाबा, लडका होना बडा बुरा है। 
  परन्तु आज लगता है, लडकी होना बहुत बडा अभिशाप है। पीडाएं झेलना, झेल-झेल कर कर्कश-कठोर हो जाना, यही भाग्य में है उसके। लडकी के बड़े सुन्दर पंख होते हैं, पर उड़ने के लिए नहीं, छटपटाने के लिए।
  कभी सोचती हूं , क्या एक दिन मैं भी और औरतों की तरह महिला-मण्डली में बैठकर दूसरों के छिद्रान्वेषण में दिन बिताया करूंगी ? दाेनों समय जानवरों की तरह पेट ठूंसकर क्रोशिया या सिलाइयां चलाती, झुंझलाती जीवन बिता सकूंगी ?जाने कितना अनमोल समय मुझे बेमोल-सा करता छूकर गुजर जाता है।
रंग -ब्रश सब उसने मीनू को दे दिये थे और 'ऊपर वाली आंटी' के पास गयी थी।
'क्यों संयोगिता कैसी हो  भई ? तुम्हारे कैनवास तो मैं मंगवा नहीं पायी, कोई  गया ही नहीं आगरा । अबकी बार मंगवा दूंगी। अभी तो तुम ससुराल नहीं जा रही हो न ?
  'जाने का तो कुछ पता नहीं अभी आंटी, पर आप कैनवास मत मंगवाइएगा अभी।' 
 'कोई नई  पेटिंग बना रही हो आजकल? 
 'नहीं, कोई भी  नहीं बना सकी ।' उसने आंख चुरा लीं ।
 'अच्छा आंटी चलूं, देर हो रही है।' 
 'अच्छा, जाओ तो मिलकर जाना। इतनी कमजोर क्यों होती जा रही हो तुम? 
  उसे बड़ी उलझन हुई  नजरों ही में खोद-खोद कर सब जानें क्या जानना चाहते हैं? 
   टी ०वी ० से देख कर, तो कभी और ढेरों कुकरी-बुक्स तथा मेगजीन से पढकर चौके में ठेठ गृहस्थिन के अन्दाज में कमर में आंचल खोंस रोज ही कुछ न कुछ बनाती हुई उसे  देख मां बहुत ही खुश हुई थीं क्यों कि उनके  अनुसार 'मरद-जात' बढिया भाेजन से ही खुश की जा सकती है। इस दृष्टि से विनय की जाति मां के अनुसार खरी उतरती थी। सोचकवह मुस्कुरा पड़ी थी। 
  परन्तु ससुराल में जाकर वे पनीर के कोफ्ते, बिरयानी, रोगन -जोश, शामी कबाब, स्पेनिश-राइस,चाइनीज़ ,इटैलियन रेसिपीज  सब डायरी तक ही सीमित रह गयी  थीं, पन्द्रह-बीस लोगों का खाना-नाश्ता तैयार करते-करते  ही वह इतनी अधमरी हो जाती कि सूखी सब्जी, दाल, रसेदार सब्जी, कढी, रायता, बडियों से आगे कुछ और की सीमा वह असम्भव मान बैठी थी। चाइनीज  बनाने की एक बार इच्छा हाेने पर जब तामझाम जुड़ाने लगी  तो सबके सवालोँ और उत्सुकता भरे सवालों से ही पस्त  हो गई ऊपर से किसी को खास पसंद भी नहीं आया। छोटी-छाेटी कलात्मक, कागजी, हल्की, मुलायम अपनी बनायी रोटियों पर उसे कितना नाज था। पर इतनी 'भारी-रसोई में  यदि तीन-तीन बार परथन लगाकर वह फूल-सा बेलन नजाकत से घुमाती तो क्या इतने सारे लोगों को एक समय की भी रोटी शाम तक दे पाती।
  एक बार सब्‍जी के लिए भिंडी काटते समय मम्‍मी बोली थीं, 'ऐसे काटी जाती है सब्जी? कोई छोटा टुकडा तो कोई बडा?ऐसी कला से क्‍या फायदा कि दो चार पेन्टिंग बनाकर दीवार पर लीं, और चीजों में भी कलात्‍मक-रूचि होनी चाहिए '! 
  लेकिन कहां रह पायी है अब कलात्‍मक अभिरूचि ? कमरे की सजावट में चाहे वह कितनी ही कलात्‍मकता उडेलती, कभी जेठानी का बिन्‍नी पर्दे को नन्‍ही घण्टियां नोच बिल्‍ली की पूंछ में बांध देता, तो कभी देवरानी की टुन्‍नी फूलदान से फूल निकाल अपनी मैडम को पेश कर आती । 
  खुद विनय ही कौन कम थे ? सारे कमरे में सामान छितरा देते, कभी शेविंग का, तो कभी कपडों का । ताम -झाम  समेटती वह थकान से पस्त, गुजली -मुजली  चादर पर ही निढाल होकर सो जाती ।
  कई बार  उसने जीवन को जीना चाहा पूरी आस्था और पकड़ से । कई बार चाहा, वह अपने हाथों अपने आप, अपने चारों ओर का बिखरापन, अस्त-व्यस्तता कुछ सुव्यस्थित करे, तब बडे जोर-शोर से कपडों की अलमारी या किताबों से शुरुआत करती और अन्त होता जूते-चप्पलों की कतार पर और बस इसके आगे सब ठंडा ।
  अपने से थक कर, पस्त होकर जब वह बाहर देखती है तो कई बार आश्चर्य- चकित हो उठती है। सब ओर, सब कुछ कितना क्षणिक है । कोई  एक दिन मरा, दूसरे दिन, तीसरे दिन तक मातम रहा और फिर सब सामान्य, वे ही संवरे- संभले, व्यस्त लोग ! 
  फिर कैसे उसके जीवन में ही सब बदसूरती, ऊब शाश्वत सत्य  होकर कुण्डली मार बैठ गयी है? शुरू - शुरू में उसे अपना आप और भी बेढंगा, अनचाहा, अनचीह्ना लगता था। अब तो फिर भी काफी अभ्यस्त हो गयी थी। 
  वो  भी प्लेटें अब साफ तौलिये से साफ करने की अपेक्षा कूल्हे पर साड़ी से रगड कर या पल्ले से चम्मच पोंछ लेने में सहूलियत महसूस करने लगी थी ।
  अब उसे पड़ोस की औरतें इतनी फूहड नहीं लगती थीं ।दो-दो दिन तक चोटी न होने पर भी समय से सबको खाना खिला देने पर सन्तोष हो जाता है। उसे पता  होता था जेठानियों की शातिर चालों का, अक्सर सास के कानों में मंत्र फूंके जाते थे यह और बात है कि उसका असर नहीं होता था।
  फिर भी वह ऊपर से शांत, सहज थी। उसे लगता था जरूरत के हिसाब से उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमताएं रबड़ की भांति खिंच जाती हैं ।  वह आश्वस्त थी महान कलाकारों, दार्शनिकों कवियों का आदर्श, उनके पद-चिह्नों पर चलने का स्वप्न सब कुछ उसके लिए अतीत की झक हो गये थे। 
  उसकी कोमल, सूक्ष्म अनुभूतियां मर गयी थीं। व्यक्तित्व की पर्तों से कविताओं का जादू उतर गया था, स्वप्नों के पंख नुच गये थे पर मां सन्तुष्ट थीं। सुबह-शाम पूजा घर में महाशान्ति से  माला जपतीं  चन्दन घिसतीं मुक्ति की साधना में लीन थीं। पापा जिम्मेदारियों से मुक्त थे। सास को आदर्श बहु मिली थी और विनय को दो स्वस्थ बच्चों वाली सुघड, सहनशील पत्नी । सब ही तो सुखी थे। 
  लम्बी सांस लेकर वह बच्चों के कमरे में गयी। मनीषा पढते-पढते छाती पर किताब रखे-रखे ही सो गयी थी। लैम्प जल रहा था। उसने किताब उठाकर देखी । सिंड्रेला का पाठ खुला हुआ था। सोती हुई नन्हीं -सुकुमार बिटिया को देख वह करूणा विगलित हो उठी, जिसकी नन्हीं-नन्हीं पलकों पर सिंड्रेला  बनने का सपना महक रहा था। होंठ नाजुक-स्पन्दन से मुस्कुराते थोडे से खुल गये थे। रूआंसे होकर उसने सोचा, वह उसे जगा दे ताकि वह यह सपना भूल कर कोई दूसरा  सपना देखने लगे। कोई वास्तविक  या ठोस सपना । पर फिर उसे लगा वह सपनों के साथ दौड़ नहीं सकती। वे सपने जो पहले आगे दौडते हैं और फिर सहसा बहुत पीछे छूट जाते हैं ।
  हाथ में थामी किताब का पन्ना न जाने कब उसके हाथों-मसल कर अधफटा हो गया था। किताब रखकर उसने बहुत करूणा से बेटी का  माथा चूम लैंप  बुझा दिया और सपनों को उसकी पलकों पर छोड़ कमरे से बाहर निकल आयी।
 उसे लगा आज शायद वह बहुत दिनों बाद सोती राजकुमारी, संयोगिता या सिंड्रेला  का प्यारा सा सपना देखेगी। कुछ भयभीत सी कुछ उत्तेजित सी वह जाकर अपने बैड पर लेट गयी।  बगल से विनय के खर्राटों को सुनती संयोगिता न जाने कब सो गयी।
                                                       समाप्त




                                         यह मेरी  कहानी 1979 में सर्वप्रथम सारिका  में छपी थी |         

                                  फिर '' कथा -वर्ष1980 '' के लिए डॉ .देवेश ठाकुर द्वारा  चुनी गई 

                                         पंजाबी तथा उर्दू भाषा में भी छप चुकी है 

                                        आज फिर से ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रही हूँ 

जब तक


सुन लो               
जब तक कोई 
आवाज देता है
क्यूँ कि...  
सदाएं  एक वक्त के बाद 
खामोश हो जाती हैं 
और ख़ामोशी .... 
आवाज नहीं देती!!
                  -----उषा किरण 













शनिवार, 26 मई 2018

इन दिनों...

इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच बैठ
खेलने लग जाती हूं घंटो
कैंडी-क्रश
रास्ते में गाड़ी रोक
टिक्की- गोलगप्पों के चटखारे ले
कुल्फी चूसती घर आती हूं
नाक सिकोड़ कहती हूं दाल चावल से
`नहीं भूख नहीं अभी’!
रात के दो बजे तक इयरफोन की आड़ में
सुनती हूं गीत...गजल...कहानियां
भटकती रहती हूं फेसबुक
ब्लॉग या इन्स्टाग्राम की गलियों में
लगभग सारी रात
जब तक एक भी रेशा बाकी है
नींद का पलकों पर
सोती रहती हूं
चादर तान कर लम्बी
आठ...नौ...या दस
कितने भी बजे तक
`हुंह बजते रहें...
रोज ही तो बजते हैं ...’
बाथरूम में बन्द हो घंटों
करती हूं गाने रेकॉर्ड...
अपने मोबाइल पर
कमरा बंद कर याद करती हूं
बचपन में सीखे
कत्थक के स्टैप
और...तलाश जारी है
एक सितार टीचर की
आदि की चॉकलेट कुतर लेती हूं
थोड़ी सी
लड़ता है वो..`नानी गंदी हैं ’
सुबह...दोपहर...रात कभी भी
जब मन हो नहाती हूं
ठाकुर जी झांकते रहते हैं पूजाघर से
स्नान-भोग के इंतजार में
जब मन होता है भाग जाती हूं
बैग उठा कर
दिल्ली...मुरादाबाद...गुड़गांव
या कहीं भी...
मन होता खिलखिलाती हूं
मन होता है रोती हूं
कोई नॉवेल लेकर घंटों
पड़ी रहती हूं औंधे
तकिए पर
या टी०वी० पर देखती हूं लगातार
दो मूवी एक साथ...
सालों साल घड़ी की सुइयों पर सवार
भागी हूं बेतहाशा
पर अब
चल रही हूं मैं
अपनी घड़ी के हिसाब से
सच...
इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं
मैं !!!







बहादुर लड़की


एक नन्हे से पौधे की ओट में
मीलों चली है वो
आसमान पर तपता सूरज
नीचे जलती जमीन
एक पग धरती है
दूसरा उठा लेती
दूसरा धरती है तो
तिलमिला कर
पहला उठा लेती है
पैर छालों से भरे हैं
मन भी...
कुछ छायादार पेड़
दिखते हैं दूर-दूर
मन करता है दौड़ जाए
टिक जाए कुछ देर
या हमेशा को....
फिर देखती है हाथ में पकड़े
उस नन्हे पौधे को
नहीं ! अभी नहीं....
बुदबुदाती है होठों में
अभी चलना ही होगा
दूर क्षितिज के पास
हरियाली की गोद में
रोपना है इसे
सूरज ढलने से पहले...
और...
वो बहादुर बेटी
निरन्तर
चल रही है मीलों
तपती बंजर जमीन पर...!!!
                        ___उषा किरण

मंगलवार, 22 मई 2018

सच कहना !




ए चाँद सच कहना
देखो ,झूठ न बोलना
कल
छिटकी देखी तुम्हारी 

चांदनी से बुनी चूनर 

तारों की पायल

 मैंने भी उठ 

एक दीप जलाया 

मेरा नन्हा सा मन 

हुलसा उठा  

बस तभी से 

गुम हो तुम 

सच कहना 

तुम जल गए न

हाँ चाँद 

जल गए हो तुम !
                          __ उषा किरण 










खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...