ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 30 मई 2024

इससे पहले

 ज़िंदगी में कुछ हादसे, कुछ लोग या उनसे जुड़ी बातें या कुछ अफ़सोस ऐसे होते हैं जो सालों बाद भी पीछा नहीं छोड़ते।चाह कर भी भुला नहीं पाते और वे हमारी विचारधारा व जीवनधारा को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं।

लगभग बाइस - तेइस साल पहले मेरा एक माली था मोहन, जो बिल्कुल ही चुप रहता था, बस जितना पूछो उतना जवाब दे देता था। पैंतीस , चालीस के बीच का होगा।कई घरों में काम  करता था। बाकी सहायकों ने बताया कि वो शराब पीता है तो कई बार मैंने उसे समझाया भी । वह सिर झुका कर अपना काम करता जवाब नहीं देता था। चुपचाप आता था और क्यारियों व लॉन में जो भी जितना काम बताओ, करके चला जाता था। अब जो इतना चुप्पा हो उससे कोई कहाँ तक सिर मारे ? फिर उसी समय मैं भी कैंसर जैसी असाध्य बीमारी के चंगुल में फँसकर डॉक्टर व हॉस्पिटल के चक्रवात में फंसी जीवन व मृत्यु के बीच कहीं खड़ी थी। सारा  परिवार स्तब्ध व तनावग्रस्त था। तो मुझे खुद अपनी ही खबर नहीं थी और न ही घर परिवार व सहायकों की। 

एक दिन सहसा खबर मिली कि वो सोते - सोते मर गया। मैं हैरान रह गई। ड्राइवर और बाकी सहायकों से पता चला कि वो खाली पेट शराब पीता रहता था जब भूख लगती तो हमारी क्यारी से तोड़ कर भिंडी या मूली खा लेता , या जामुन बीन कर खा लेता था। "अरे ! कच्ची भिंडी ?और  ये बात तुम लोग मुझे अब बता रहे हो ? तब क्यों नहीं बताया ? या तुम ही खाना खिला दिया करते अंदर से लाकर “ मैं गुस्से और ग्लानि से भर गई। पर अब क्या हो सकता था ? मैं खुद को भी मन ही मन कोस रही थी कि घर में रोज  इतना खाना बनता है, और फ्रिज में  भी बचा हुआ रखा रहता है यदि समय पर पता चलता तो मैं ही उसे रोज कम से कम एक वक्त का तो खाना खिला ही सकती थी। मेरा मन मुझे लानतें भेजता कि मेरे यहाँ काम करने वाला एक कर्मचारी भूखे पेट पी- पीकर मर गया और मुझको खबर भी नहीं हुई…डूब मरो  ! उसका गाँव कहीं पटना के पास था। घर पैसे भेजता होगा और  शराब पीने के बाद इतना पैसा बचता ही नहीं होगा कि पेट भर खाना खा सके। 

उसके बाद से मैं बहुत ज़्यादा सजग हो गई। सभी सहायकों को व उनके परिवार, उनकी सेहत, भूख प्यास सबको ज्यादा पूछती हूँ व मदद भी करती हूँ ।पर वो जो अफसोस है वो अब भी मन को कचोटता है। हमें ज़्यादा संवेदनशील व सजग होना ही चाहिए इनके प्रति। ये लोग पूरब से , नेपाल व पहाड़ों और जाने कहाँ- कहाँ के गाँवों से बेहद गरीबी के मारे आते हैं चार पैसे कमाने के लिए। कई तरह की बीमारियों, अभावों व कुंठाओं से ये जूझ रहे होते हैं। अशिक्षित होने के कारण ज़्यादा सोच- विचार की बुद्धि भी नहीं होती। कई बार जघन्य अपराधों में भी संलग्न हो जाते हैं । इनके जीवन  में मनोरंजन का अभाव रहता है तो ये शराब के उन्माद को ही एन्जॉय करने लगते हैं । इनकी सोच- समझ इतनी वीक हो जाती है कि खुद नहीं निकल पाते इस जाल से। 

यहाँ मेरे लिखने का मक़सद सिर्फ़ यही है कि आप बड़ी- बड़ी समाज सेवा बेशक न करें, कम्बल बाँटकर फोटो भले न छपवाएं पर यदि अपने सहायकों को किसी तरह समझाकर, इलाज कर किसी तरह मदद कर सकें तो ये बहुत बड़ी मानव सेवा है। इस तरह आप न सिर्फ़ इनकी बल्कि इनके परिवार की भी मदद कर सकते हैं। हो सकता है ये आपको जवाब दें, बहस करें, बत्तमीजी भी कर दें , काम छोड़कर जाने की धमकी भी देते हैं। तब बहुत क्रोध आता है कि भाड़ में जाओ फिर। लेकिन तब भी विवेकपूर्वक व धैर्य से इनके सुख- दुख पर नजर रखना और उदार होना हमारा फ़र्ज़ है। हम समर्थ हैं और बौद्धिक स्तर पर भी बेहतर सोच सकते हैं  तो इनकी मदद करनी चाहिए ताकि  फिर हमारा या आपका कोई और मोहन यूँ जिंदगी की लड़ाई न हार जाए।

                            —🌸🌿उषा किरण



रविवार, 26 मई 2024

`तीसरी कसम’ - ( फिल्म समीक्षा )

                     

-निर्देशक: बासु भट्टाचार्य 

-लेखक: फणीश्वर नाथ रेणु ( संवाद)

-पटकथा: नबेन्दु घोष

-निर्माता: शैलेन्द्र

-अभिनेता: राज कपूर, वहीदा रहमान, दुलारी, इफ़्तिख़ार , असित सेन, सी. एस. दुबे, केस्टो मुखर्जी

-संगीतकार: शंकर जयकिशन

-गीतकार- शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी

-पूरी फिल्म मध्यप्रदेश के बीना एवं ललितपुर के  पास खिमलासा में फिल्मांकित की गई।

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          बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी यादगार फिल्म `तीसरी कसम’ के निर्माता थे सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र। यह फिल्म सिने जगत में श्रेष्ठतम फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दर्शकों को लुभाती है। हीरामन और हीराबाई की यह दु:खान्त फिल्म , फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई । इस फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य है। निर्देशन की नजर से भी यह फिल्म बेजोड़ है।ग्रामीण परिवेश की भाषा- बोली, रहन- सहन , विचारधारा व परिवेश का निर्देशन बहुत ख़ूबसूरती से किया गया है। 

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ को गीतकार और कवि शैलेंद्र ने जिस तरह सिनेमा के परदे पर उतारा, वह अद्भुत है। इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है। अभिनय, संगीत, पटकथा, व निर्देशन हर दृष्टि से यह फिल्म बेजोड़ थी, इसीलिए 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया।

इस फिल्म के गीतकार स्वयं शैलेंद्र और हसरत जयपुरी हैं। गीतों को अपनी आवाज में  मुकेश, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और मन्नाडे ने बहुत ख़ूबसूरती से गाया है। संवाद स्वयं रेणु के हैं। पटकथा नवेंदु घोष की है। इन कलाकारों के सम्मिलित प्रयासों ने फिल्म के संवादों और गीतों को दर्शकों के हृदय में उतार दिया। "दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में  समाई…, सजनवा बैरी हो गए हमार…,चलत मुसाफिर मोह लियो रे…हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…पान खाए सइयाँ हमारो…,लाली- लाली डोलिया में…” आदि सभी गीत बेहद कर्णप्रिय व लोक- कला की सौंधी सी महक से सुवासित हैं और आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं ।

राजकपूर की एक्टिंग की ताकत उनकी सादगी और भोलापन है।जिसके कारण हीरामन के किरदार को उन्होंने बहुत सफलतापूर्वक जिया है।जब हीरामन बने राज कपूर बात- बात में हंसकर, शर्मा कर  एकदम गंवई अंदाज में 'इस्स’ कहते हैं तो देखते ही बनता है। हीरामन के साथ के दृश्यों में वहीदा रहमान का अप्रतिम सादगीपूर्ण शीतल सौंदर्य तथा सरलता मोहक लगती है। एक कुशल नृत्यांगना होने के कारण  नौटंकी में  "पान खाए सैंया हमारो…” और "हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…” जैसे गानों पर किए उनके नृत्यों व भावपूर्ण अभिनय ने फिल्म में चार चाँद लगा दिए हैं। हीराबाई पर फिल्माए सभी गाने नौटंकी की तर्ज पर लिखे और प्रस्तुत किए गए हैं। नौटंकी के स्टेज पर आते ही हीराबाई के व्यक्तित्व का दूसरा ही पक्ष उजागर होता है।कटाक्षयुक्त नयन, शोख, फुर्तीली नृत्यांगना और विभिन्न भावों में प्रवीण समर्पित अभिनेत्री का।ऐयाश विक्रम सिंह  का किरदार भी नौटंकी के अनुरूप ही बुना गया है जो हीराबाई को अपने पैसे व ताकत के बल पर खरीदना चाहता है। 

बेशक यह कथा ग्रामीण अंचल की है, लेकिन इसका विषय सार्वभौमिक है। प्रेम मनुष्य की आत्मा का संगीत है।इसकी कहानी प्रेम की पवित्रता व शक्ति को अभिव्यक्त करती है। कितनी सहजता से एक नौंटकी की बाई एक निर्धन, गंवार, भोलेभाले गाड़ीवान पर मोहित हो जाती है और जमींदार जैसे संपन्न व्यक्ति के प्रणय निवेदन को ठुकरा देती है। 

आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं हैं , तीसरी कसम इनमें सबसे अलग व विशेष है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम’ एक ग्रामीण अंचल की कथा है। इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं। हीराबाई नौंटकी में अभिनय करने वाली एक खूबसूरत अदाकारा है जिसे सामान्य भाषा में ‘बाई’ कहा जाता है। इस प्रेम कहानी को पर्दे पर उतारा था राजकपूर और वहीदा रहमान की लाजवाब एक्टिंग और शैलेन्द्र की परिकल्पना ने।

फ़िल्म की शुरुआत एक गाने से होती है जिसमें हीरामन बैलगाड़ी हाँकते हुए गा रहा है -"सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है…!” गाने के बाद नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे पुलिस पकड़ लेती है । किसी तरह वह अपने बैलों को छुड़ा कर भागता है और कसम खाता है कि अब से  चोरबजारी का सामान कभी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बाँस की लदनी की वजह से पिटाई होने पर, डर कर उसने दूसरी कसम खाई कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बाँस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। 

इसके बाद फिल्म में एक दृश्य में हीरामन बैलगाड़ी बहुत खुश होकर हाँक रहा है। उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। हीरामन कई कहानियाँ और लोकगीत सुनाते हुए सर्कस के आयोजन स्थल तक हीराबाई को ले जा रहा है।  पूरी दुनिया में अपने-अपने अकेलेपन से जूझ रहे दो सम्वेदनशील अजनबी यात्री इस यात्रा में सहसा  प्रीत व मित्रता की नाजुक सी डोर में बंध जाते हैं । पूरी यात्रा का हर पल, हरेक संवाद  व गाने दर्शकों के मन को लुभाते हैं।

सफर के प्रारंभ में हीरामन को डर लगता है। रात का सुनसान सफर है, वह मंदिर में भगवान के सामने बड़बड़ाता है कि -

"पीठ में गुदगुदी होती है, गाड़ी में रह- रह कर खुसबू आती है, एक पैर ही देखा था , वो भी जाने उल्टा था या सीधा…कहीं जिन परेत न हो …सवा रुपय का प्रसाद चढ़ाऊँगा भोलेनाथ रक्षा करो …!” 

परन्तु ताक-झाँक करते हीराबाई को देख खुशी से चिल्ला बैठता है "उरे बाबा ये तो परी है…!” हीराबाई परदे से बाहर आकर पूछती है "परी…कहाँ है परी !” 

जब हीरामन कहता है कि औरत और मर्द के नाम में बहुत फ़र्क़ होता है तो हीराबाई कहती है "कहाँ है फर्क ? मैं भी हीरा, तुम भी हीरा ।” हीरामन के हाव-भाव व मन:स्थिति यहाँ से बदल जाते हैं और दोनो के बीच  आत्मीयता पनप जाती है।सफर के मध्य दोनों के संवाद बहुत रोचक हैं।

हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी नहीं देखा है, वह पूछता है- "आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है?”कानपुर नाम सुनते ही उसकी हंसी छूट जाती है "वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा?” और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हंसते-हंसते दुहरा हो गया।

हीरामन का गाया लोकगीत  "सजनवा बैरी हो गए हमार…!” कर्णप्रिय होने के कारण आज भी लोकप्रिय है। हीरामन की सादगी, हीराबाई के प्रति करुणा व सम्मान का भाव हीराबाई के हृदय को छू लेता है।वह हीरामन से मन ही मन प्यार करने लगती है। 

एक जगह हीराबाई कहती है "तुमने पर्दा क्यों गिरा दिया मीता ?” तो वह कहता है आप यहाँ के लोगों को नहीं जानतीं , औरत देखी और लगे घूरने, देहाती भुच्च कहीं के !”  कोई सवारी के बारे में पूछता है तो कहता है बिदाही (लड़की को ससुराल ले जाना) ले जा रहे हैं । कभी कहता है हस्पताल  की डाक्टरनी हैं मरीज देखने जा रही हैं।वह झूठ बोलकर उसे सारी दुनिया की नजरों से बचाकर ले जाता है। हीराबाई की शिष्टता, शालीनता और सुंदरता उसे मंत्रमुग्ध कर देती है।वह उसे प्यार करने लगता है।प्यार और सम्मान को तरसती हीराबाई भी हीरामन को दिल में चाहने लगती है।वास्तव में इस अनोखे रिश्ते में मात्र प्यार ही नहीं है एक- दूसरे के प्रति सम्मान है। मीता (मित्र ) हैं वे । उनके नाम ही नहीं मिलते  हृदय में बहती कोमल सी भावधारा भी एक सी बहती है।जब हीराबाई महुआ घाट पर नहा रही होती है तब हीरामन गाड़ी में से छिपकर मुग्ध हो उसको एकटक देखता है, परन्तु तुरन्त पर्दा खींच देता है। अनुरागी मन से विवश हो उसके बिछावन पर चुपके से तनिक देर तक टिक जाता है।

दूसरी तरफ़ हीराबाई ‘मथुरामोहन नौटंकी कंपनी’ की नर्तकी है। इस बार वह `रौता संगीत नौटंकी’ कंपनीके सौजन्य से मेले में आई है। जिस प्रकार हीरामन को अपनी गाड़ीवानी पसंद है और इसे वह किसी मूल्य पर नहीं छोड़ना चाहता, ठीक उसी प्रकार हीराबाई भी नौटंकी में नाचने की कला को नहीं छोड़ना चाहती है।यह काम उसे आर्थिक अवलम्ब देता है और उसकी अस्मिता व पहचान से जुड़ा है। बेशक नौटंकी में लोग उसे रंडी, पतुरिया आदि नामों से संबोधित करते हैं ।लोगों की वासनापूर्ण दृष्टि व अश्लील कमेन्ट सुनकर वह  चाहता है कि हीराबाई नौटंकी का काम छोड़ दे। इस पर हीराबाई अपने कार्य के प्रति लगाव और प्रतिबद्धता को व्यक्त करते हुए उसे समझाती है- "गुस्सा न करो हिरामन! ये बात नामुमकिन है। समझते क्यों नहीं? नशा जो हो गया, जैसे तुम्हें बैलगाड़ी चलाने का नशा है, वैसे ही मुझे लैला और गुलबदन करने का नशा है।  देश-देश घूमना, सज-धज के रोशनी में नाचना-गाना, जीने के लिए सिवा इस नशे के और क्या है मेरे पास ?” 

फिल्म में ‘छोकरा-नाच’ तथा ‘महुआ घटवारिन’ नामक लोककथा का वर्णन मिलता है। छोकरा- नाच बिहार राज्य का प्रमुख नाच- विधा है। इसमें स्त्री-वेश धारण कर पुरुष ही नाचते हैं। हीराबाई के चेहरे को देखकर हिरामन को छोकरा-नाच के मनुआ-नटुआ की याद आ जाती है। हीराबाई पूछती है तो  हीरामन संकोच के साथ अपने दिल की बात को प्रकट कर देताहै- "जी, आपका मुँह बिल्कुल छोकरा-नाच के मनुआ नटुआ जैसा दिखता है।”

“हाय राम! मैं क्या छोकरा जैसे दिखती हूँ?”

“जी नहीं! वे छोकरे ही लड़कीनुमा हुआ करते थे।” हीरामन कहता है तो दोनों निश्छल हंसी हंस पड़ते हैं ।


महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।

"तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?”

"इस्स! कथा सुनने का बड़ा सौक है आपको?”

लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।महुआ घटवारिन की कथा सुनकर हीराबाई विह्वल हो जाती है क्योंकि इस कथा में उसे अपने ही जीवन की झलक दिखाई देती है।महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।

"यहाँ देखती हूँ हर कोई गीत गीत गाता रहता है।”

गीत नहीं गाएगा तो करेगा क्या ? कहते हैं फटे करेजा गाओ गीत

दुख सहने का ये ही रीत।”


एक दृश्य में गाड़ी गाँव के बीच से जा रही है बच्चे परदेवाली गाड़ी देख पीछे लग लेते हैं और तालियां बजा-बजा कर गाने लगे-

“लाली-लाली डोलिया में

लाली रे दुलहिनिया

पिया की पियारी भोलीभाली रे दुल्हनियाँ ..”

हीराबाई हल्का सा घूंघट काढ़े नवेली दुल्हन सी शर्माती है। हीरामन के चेहरे पर भी दूल्हे जैसे भाव हैं । दोनों के मन का अरमान चेहरे पर साफ़ परिलक्षित होता है।

हीराबाई हीरामन को नौटंकी का पास देती है. जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है, लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अश्लील शब्द कहे जाने पर वो उनसे झगड़ा कर बैठता है। हीरामन के मन में अपने  लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है। इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है, और उसे पैसे का लालच भी देता है।पर हीराबाई उसे ठुकरा देती है। हीराबाई नौटंकी छोड़ कर हीरामन के साथ जाने का मन बनाती है तो नौटंकी कंपनी के साथी उसे समझाते हैं, कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे -

"जिसके मन में देवी हो उसके घर में बाई कैसे बस सकती है ? यदि उसका भ्रम तोड़ दोगी तो वह बर्बाद हो जाएगा और नौटंकी छोड़ दोगी तो तुम ख़ुद बर्बाद हो जाओगी…बिना कुछ कहे मुँह मोड़ लो बेवफा समझ कर माफ कर देगा !” वे समझाते हैं कि जमींदार  हीरामन की हत्या भी करवा सकता है। रोते हुए हीराबाई अपनी व्यथा सखी से कहती है कि " उसके भोलेपन और सादगी की हरेक बात मुझे याद आती है।रास्ते में वो गाड़ी का पर्दा ऐसे गिरा देता था जैसे यदि मुझे किसी ने देख लिया तो नजर लग जाएगी।आठ आने के टिकिट में जिसका नाच  कोई भी देख सकता है मुझे वह सारी दुनियाँ से छिपा कर ले आया। महुआ के घाट पर बोला यहाँ मत नहाइए यहाँ कंवारी लड़कियाँ नहीं नहातीं…लैला का पाठ करने वाली लैला बनने चली थी..मेरा चाहें जो भी हो मैं उसके सपने टूटने नहीं दूँगी, उसके मन में हीराबाई तो बनी रहेगी…"अपनी विवशता पर रोकर कहती है "दोष मेरा नहीं पाठ लिखने वाले का है अब पाठ ख़त्म नहीं हुआ तो मैं क्या करूँ!”

और सोच-विचार कर हीरामन की भलाई के लिए हीराबाई गांव छोड़ हीरामन से बिना अपने मन की बात कहे चुपचाप जाने की तैयारी कर लेती है।इस दृश्य में वहीदा रहमान की एक्टिंग देखने लायक है। हीराबाई के मन की मजबूरी, कसक, उदासी को अपनी सम्वेदनशील अभिनय से जीवंत कर दिया है।

फिल्म के आखिर में रेलवे स्टेशन का दृश्य है, जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसे समझाती हुए कहती है-" दिल छोटा मत करो हीरामन । तुमने कहा था न कि महुआ को सौदागर ने ख़रीद लिया, मैं बिक चुकी हूँ हीरामन…!” और उसके पैसे उसे लौटा देती है जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे रखने के लिए दिए थे।

विदाई का अन्तिम दृश्य बहुत मार्मिक है। रेलगाड़ी में बैठी आँसू भरी विवश आँखों से जाते हुए दूर तक वह हीरामन को देखती रहती है।हीरामन उदासी व क्षोभ के साथ गाड़ी में आकर बैठता  है और फिर हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है, तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं-“न, मारो नहीं” वह रुक जाता है।फिर झुँझलाकर कहता है- "उलट- उलट कर क्या देखते हो…खाओ कसम कम्पनी की बाई को कभी गाड़ी में नहीं बिठाओगे..!”

जाते हुए गाड़ी के नेपथ्य में गीत बजता है-

"प्रीत बना के तूने जीना सिखाया, 

हंसना सिखाया रोना सिखाया

जीवन के पथ पर मीत मिलाए

मीत मिलाके तूने सपने जगाए

सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई…!”

अन्तिम  दृश्य दर्शकों के मन में कसक छोड़ जाता है। 

बहुधा ऐसी साहित्यिक कृतियां कम ही होती हैं, जिसमें फिल्मनिर्माता कहानी को उसके मौलिक स्वरूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन तीसरी कसम में रेणू की कहानी के सभी पात्रों के नाम, संवाद और कुछ गीत भी वही हैं जो कहानी के मूलस्वरूप में हैं।इसी कारण  'तीसरी कसम’ क्लासिक फिल्म कहलाई और मील का पत्थर साबित हुई, परन्तु उस समय व्यावसायिक रूप से असफ़ल होने व बॉक्स ऑफ़िस पर पिटने के कारण निर्माता गीतकार शैलेन्द्र का निधन हो गया।

कुछ लोगों का मत था कि इसका अन्त परिवर्तित करके दोनों का मिलन करवा दिया जाय परन्तु इसके लिए शैलेंद्र व रेणु तैयार नहीं हुए। यह उचित निर्णय था वर्ना कहानी का असली फ्लेवर समाप्त हो जाता और यह एक सामान्य श्रेणी की फिल्म होती।

बेशक इसको तत्कालीन बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता नहीं मिली थी परन्तु आज भी लोकतत्वों को समाहित किए यह  फिल्म हिन्दी की श्रेष्ठतम फ़िल्मों में गिनी जाती है।              

— उषा किरण 

खाने की बर्बादी



मेरे घर का एक बच्चा होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहा है। एक प्रतिष्ठित फाइव- स्टार होटल में छह महिने की ट्रेनिंग के बाद छुट्टियों में घर आया हुआ है।वह अपने अनुभव बताता रहता है। आज उसने बताया कि वहाँ पर रोज तीन टाइम बुफे लगता था और बचा हुआ सारा खाना फेंक दिया जाता था। तो हमने पूछा कि अपने स्टाफ को या जो ट्रेनी थे तुम जैसे उनको नहीं देते थे ? उसने कहा नहीं, हमारा अलग से बनता था बहुत ही ऑडनरी सा खाना और महंगी से मंहगी डिश सब डस्टबिन में…।” हमने कलप कर कहा ” अरे तो तुम लोगों को ही दे देते। और होटल में तो देते होंगे ?”

तो उसने कहा कि "नहीं देते, फ़ाइव स्टार पर यही पॉलिसी है सब जगह। बुफे तो रोज लगता है , कई बार तो बहुत कम लोग खाते हैं और काफ़ी ज़्यादा खाना फिंकता है।” उसके साथ के जो और  बच्चे अन्य जगह पर करते आए उन्होंने भी यही बताया।

सुनकर इतना दुख हुआ कि क्या बताएं। सोचिए जरा रोज कितना सारा खाना इन मंहगे होटलों व रेस्टोरेन्ट में फेंका जाता होगा। कम से कम अपने स्टाफ़ को ही खिला दें, फिर बाकी बचा हुआ खाना कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि गरीबों में बाँट दिया जाय। 

इस विषय में आपको कुछ जानकारी है,यह सच

आपके क्या विचार हैं इस पर ?

— उषा किरण 

शुक्रवार, 10 मई 2024

जरा सोचिए

    


अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है

क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है

हर समय उधार मांगती रहती है

कामवालों के नखरे बहुत हैं 

पूरी हीरोइन है , चोर है

जब देखो बीमारी का बहाना…

मेरा ड्राइवर बत्तमीज है

जवाब देता है, बेईमानी करता है

सच में, इन लोगों ने नाक में दम कर रखा है…

बिल्कुल सही..!

पर क्या कभी सोचा है कि आपकी मेड, माली, ड्राइवर, धोबी, चौकीदार, बच्चों का रिक्शेवाला…ये सब न हों तो आपका क्या हो ? इनकी बदौलत आप कितनी ऐश करते हैं? कितने शौक पूरे करते हैं, कितना आरामदायक व साधनसम्पन्न जीवन जीते हैं ? 

कोविड के दिनों में इनका महत्व काफी समझ आ गया था वैसे हमको और आपको । अपने ही घर का काम करते कमर दोहरी हो गई और मेनिक्योर, पेडिक्योर का तो बाजा बज गया था…नहीं ? 

आपके सहायक अपना कीमती समय, अपना परिश्रम देकर आपका व हमारा घर, आपके बच्चों को, आपके कपड़े, खाने- पीने को संभालती हैं, मदद करती हैं , आप आराम से सोते हुए या गाने सुनते यात्रा एन्जॉय करते हैं और आपका ड्राइवर एक ही मुद्रा में घन्टों ड्राइव करता है, गर्मी, सर्दी, बरसात घर के बाहर या गाड़ी में बैठा जीवन का कितना मूल्यवान समय आपके आराम व सुरक्षा पर खर्च करता है। हमारे सहायकों के  घर में कोई उत्सव हो, बच्चा या पति या बीवी बीमार हो, खुद बीमार हों किसी की डैथ  हो जाए तो भी आप बहुत अहसान जता कर डाँट- डपट कर एक दो दिन की छुट्टी देते हैं । ज़्यादा छुट्टी होने पर पैसे काट लेते हैं । आपके बच्चों को स्कूल से घर लाने वाले रिक्शे वाले के गर्मियों की छुट्टियों के पैसे नहीं देते जबकि आपको अपनी जॉब में छुट्टियों के पूरे पैसे मिलते हैं ।होली, दीवाली पर या कभी जरा सा कुछ बख़्शीश देकर आप कितनी शान से सबके बीच बखान करते हैं ।आपके सहायक कुछ पैसों की खातिर अपने बच्चों व अपने आराम को देने वाला समय आपको देते हैं । 

आप क्या देते हैं? ? ?

चन्द पैसे ? उतने ही न जितने आप एक बार में एक डिनर या एक ड्रेस या एक ट्रिप , या एक गिफ्ट में उड़ा देते हैं। पाश्चात्य सभ्यता, फैशन की तो नकल हम करते हैं पर ये भी तो जानिए और नकल करिए कि विदेशों में वे सहायिकाओं को कितनी इज्जत, पैसा व सुविधा भी देते हैं । 

जरा सोचिए कि आप उनको जो कीमत देते हैं वो ज्यादा मूल्यवान  है या वो जो वे आपको देते हैं…कभी सोचा है ? हर चीज की कीमत पैसों से नहीं तोली जा सकती। जितना प्यार और सहानुभूति आप आपने पालतू पशु- पक्षी पर लुटाते हैं क्या उसके पचास प्रतिशत के भी ये हक़दार नहीं हैं?


मेरी बात कड़वी अवश्य लगेगी आपको लेकिन इंसानियत के नाते उनको डाँटने फटकारने, पैसे काटने से पहले एक बार सोचिएगा जरूर

  — उषा किरण

बुधवार, 8 मई 2024

हीरामंडी मेरे चश्मे से😎




           तवायफों पर बनी पाकीजा, उमरावजान, गंगूबाई और  हीरामंडी तीनों फिल्म व वेबसीरीज़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती। इनको देखकर जो भाव मन में ठहर गया वो थी बस करुणा और मर्दों के प्रति नफरत व गुस्सा।

ये रईस और नवाबों में कितनी हवस थी जो कई बेगमों, बीवियों के बावजूद कोठों की भी जरूरत पड़ती थी। जाने कहाँ- कहाँ से मासूम लड़कियों को खरीद कर  इनकी हवसपूर्ति के लिए कोठों को आबाद किया जाता था मासूम लड़कियों को तवायफ बनाया जाता था। और हद्द तो ये है कि उन्हीं ऐयाश अमीरों व नवाबों की तवायफों से पैदा हुई औलादें फिर उन्हीं कोठों पर घुँघरू बाँध तवायफ बन कोठे आबाद करतीं या बेटे दलाल और तबलची बनते। वो तो भला हो फिल्म इंडस्ट्री का जिसकी बदौलत लाहौर व हिन्दुस्तान की कई तवायफों ने बाद में गायिका व अभिनेत्री बनकर इज़्ज़तदार जिंदगी गुजारी और आज उनका नाम इज़्ज़त से लिया जाता है। उनके बच्चों व परिवार को भी समाज में इज़्ज़त की नजर से देखा गया जिनमें से एक नरगिस की माँ जद्दनबाई भी थीं । खैर अब ये बातें जाने देते हैं और बात करते हैं हीरामंडी की। अब मैं तो कोई समीक्षक हूँ नहीं तो बस दिल की बात ही कहूँगी।

पहले तो इस सीरीज़ को देखते साहिर लुधियानवी का लिखा बहुत पुरानी फिल्म साधना का गाना याद आ गया-
"औरत ने जनम दिया मर्दों को 
मर्दों ने उन्हें बाजार दिया
जब जी चाहा मसला- कुचला
जब जी चाहा दुत्कार दिया…!”
इस नज़्म में ही  इन औरतों के दर्द की पूरी दास्तान दर्ज हो जैसे…!

जब ट्रेलर देखा तो मेरी नजर गाने "सकल बन फूल रही सरसों …” पर ही अटक गई । हाँ  सारी हीरोइनें, डांस, हावभाव, मुद्राएँ, पेशाकें, जेवरात ग़ज़ब, लेकिन मेरी सुई अटकी कि पोशाकों में ये नया सा पीला रंग कौन सा ले आए भंसाली साहब ? अभी तक फिल्मों में शोख लाल, गुलाबी, नारंगी , काले और हरे रंग में ही मुजरे देखे थे।ये तीखी पीड़ा , उदासी को, देशभक्ति को समेटे, छिपाये हुए सरसों ,अमलतास या सूरजमुखी सा पीला नहीं ये तो खेतों में लहलहाती गेहूँ की पकी सुनहरी बालियों पर जब सन्ध्या की किरणें पड़ती हैं या बर्फ़ से ढंकी हिमालय चोटियों पर सूर्यास्त से कुछ पहले जो आभा होती है वैसी ही पीतवर्णीय आभा है कुछ। सबसे पहले तो इस शेड ने ही दिल चुरा लिया। रात भर सुई अटकी रही इसके पीलेपन पर , सुबह होते ही फिर पैलेट पर ढूँढा तो Light raw umber, orange, unbleached titinum के मेल- मिलाप से कुछ बात बनी, शेड पकड़ में आया तो मन प्रसन्न हो गया। एक तो हमें नई- नई मोहब्बत हुई है पीले रंग से पर क्या बताएं इस नए पीले के अनोखे शेड से तो इश्क़ ही हो गया।

       हीरामंडी सीरीज़ बहुत खूब बनाई है लेकिन बाद के दो- तीन एपीसोड कमाल के बने हैं।जिसकी वजह से यह सीरीज़ एक अलग ही मुकाम हासिल करती है। गाना सबसे बढ़िया लगा।"सकल बन फूल रही सरसों”,  और "चौदहवीं शब को कहाँ चाँद कोई ढलता है…!”
     
और क्या कहें ये नई लड़की शरमिन सहगल पर  जाकर फिर हमारी निगाह ठहर गईं…हमने पढ़ा कि लोग काफ़ी आलोचना कर रहे हैं कि एक्सप्रेशन विहीन एक्टिंग की है भंसाली की भानजी ने पर हमें तो वो ही एक्टिंग भा गई। एक लड़की जो कोठे पर रहकर तवायफ की बेटी होने पर भी शेरो शायरी की दुनियाँ में विचरती है, शायरा बनने के ख़्वाब बुनती है, हकीकत से कोसों दूर खोई- खोई सी बादलों में विचरती है …कोठे पर बेशक है पर तवायफ नहीं बनी है अभी, तो वो यही एक्सप्रेशन तो देगी न, सपनों में  खोई- खोई सी आँखें और धुआँ धुआँ सा चेहरा…। कटाक्ष, चंचलता, खिलखिलाहट, रोना- पीटना और लुभावनी अदाएं ये सारे भाव उसके किस काम के ? वो सब तो बाकी सबमें भरपूर दिखाई देते ही हैं। बाद में किया गया उसका मुजरा भी मुजरा कम प्रेम दीवानी की दीवानगी भरा रुदन ही नजर आता है और जब किसी का प्रेम सारी सीमाएँ तोड़कर देशप्रेम का बाना पहन ले तो सदके उस प्यार के।

          एक विशेष बात ने बहुत सुकून दिया कि इस कोठों की कहानी में कितने ही अश्लील दृश्य परोसे जा सकते थे पर भंसाली साहब का शुक्रिया कि तवायफों को भी शालीनता से पेश किया है ,कहीं कोई अश्लीलता, छिछोरीपन नहीं। बल्कि अन्त तक आते- आते स्त्री ( याद है न कि तवायफ भी स्त्री ही होती हैं) की अस्मिता व गरिमा को बहुत मार्मिक व शालीन तरीके से हीरामंडी से निकाल देशभक्ति के रंग में रंग कर एक नया मुकाम दिया है…इसके लिए एक सैल्यूट तो बनता है।

बाकी चीजों के बारे में तो और सब लोग लिखेंगे ही और हमसे बेहतर ही लिखेंगे तो हम क्या लिखें ? 
बस इतना जरूर कहेंगे कि देख डालिए, वाकई लाजवाब बनाई है हीरामंडी…।

— उषा किरण 

शुक्रवार, 15 मार्च 2024

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है। 

जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे से चुपचाप निकल जाने का मन करता है।कई बार तो साफ हाथ भी जोड़ दिए हैं ।खून के रिश्ते ही नहीं संभलते तो मुँहबोले रिश्तों का ढोल कौन गले में डाले ?

     क्या जरूरत है रिश्तों में किसी को बाँधने की उतावली दिखाने की ? कोई भी पराया आपके सगे पिता या भाई जैसा होता कहाँ है ? क्या आप उस रिश्ते की गरिमा का भार उठा सकते हैं? आपमें है इतनी क्षमता, इतनी गम्भीरता? ज़्यादातर तो ऐसे रिश्तों की बुनियाद सिर्फ़ किसी न किसी मतलब पर टिकी होती है या फिर कोरी भावुकता पर। ये वो हवा से भरा ग़ुब्बारा है जिसमें जरा सी सुई चुभते ही सारी हवा निकल जाती है।ज़्यादातर तो ललक कर जोड़ते हैं और लपक कर तोड़ते हैं ।

           कितनी आसानी से आप कहते हैं मेरी बहन हो तुम ? मेरा घर तुम्हारा, मेरी कलाई तुम्हारी , मेरी बीवी तुम्हारी भाभी, मेरे बच्चों की तुम बुआ, तुम्हारा पति तो मेरा मान और जरा सी बात आपके पक्ष में नहीं बैठी तो आप उस बहन को पहचानने से भी गुरेज करते हैं। सामने आ जाने पर धूप का चश्मा लगा या मोबाइल में आँखें गढ़ा कर बेशर्मी से साफ बगल से निकल लेते हैं। क्या आप जानते भी हैं कि बहन होना क्या होता है एक लड़की के लिए ? किसी बहन के लिए भाई क्या होता है , पिता या माँ होना क्या होता है ? या एक भाई होना क्या होता है ?

     जरा- जरा सी बात पर आपका अहम् चोटिल होकर क्रोध से सिर उठाकर फुँफकारने लगता है, फिर भूल जाते हैं आप बहन या बेटी की गरिमा और अपनी गरिमा भी।

       खून के रिश्तों से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होती है मुँहबोले रिश्ते की। खून के रिश्ते दरकते हैं पर फिर जुड़ जाते हैं लेकिन ये मुँहबोले रिश्ते जब अपना असली चेहरा निकालते हैं तो बड़ा दर्द दे जाते हैं, ये ज़ख़्म नहीं भरते कभी…!

       एक ही भाई था मेरा। बहुत प्यारा, दुलारा, मेरी आँख का तारा मेरा भैया..जो भगवान को भी कुछ ज़्यादा ही प्यारा लगा और…! 

       बहन होकर बहुत दर्द सहा है मैंने।मैं बिना पिता, भाई के ही ठीक हूँ जैसी भी हूँ ।अब मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे सिर पर हाथ रख बहन कहे। इन कागजी रिश्तों पर से भरोसा उठ चुका है मेरा। देख चुकी हूँ इन रिश्तों के रंग भी। यूँ तो कई लोगों को मैं भाईसाहब कहती हूँ पर कहने से वे मेरे भाई नहीं हो जाते, बस ये आदरसूचक सम्बोधन मात्र है। 

      तो अगर जरा सी भी सम्वेदना बाकी है तो कृपया  रिश्तों का मज़ाक़ उड़ाना छोड़िए…!

                              —उषा किरण                    


फोटो: गूगल से साभार

बुधवार, 13 मार्च 2024

चिट्ठियों के अफसाने- यादों के गलियारों से



हाँ पिछली पोस्ट में मैंने अपनी प्रथम कहानी `बिट्टा बुआ ‘ के छपने की स्मृतियों को साझा किया। बिट्टा बुआ से पहले मनोरमा में छपने हेतु कहानी `गिरगिट और गुलाब’ भेजी थी। बाद में बिट्टा बुआ भेजी। परन्तु सम्पादक अमरकान्त जी ने पहले बिट्टा बुआ छापी क्योंकि वो उन्हें बहुत पसन्द आई थी। गिरगिट और गुलाब कहानी में बहुत कमियाँ होने पर भी सम्पादक अमरकान्त जी ने उस पर गहन चर्चा की, सुझाव दिए , यहाँ तक कि खुद करैक्शन करने के लिए भी कहा पर रिजेक्ट नहीं की। मैंने लिखा था कि कहानी पसन्द न आए तो लौटाइएगा नहीं, फाड़कर फेंक दीजिएगा । क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि घर में किसी को पता चले। और पता नहीं तब मैंने क्या- क्या बेवक़ूफ़ी लिखी थीं कि हर बात को बहुत प्यार से समझाया। और फिर बिना करैक्शन के ही कहानी को ज्यों का त्यों ही छाप दिया बस उसका शीर्षक बदल कर "गुलमोहर “ कर दिया था। शायद मैंने बेवक़ूफ़ी में लिखा था कि मैं नहीं चाहती कि कहानी में ज़्यादा परिवर्तन हो। 


ये कहानी मैंने अपने कजिन और भाभी पर लिखी थी, जिन भाभी को बहुत प्यार करती थी। भाभी गुलाब सी प्यारी और अहंकार में ऐंठे गिरगिट से थे दद्दा (भैया)।

दद्दा आर्मी में थे। महिनों बाद जब भी घर आते तो भाभी से लड़ते, बेइज्जती करते। भाभी ताईजी व ताऊजी के साथ रहती थीं । तब कोई बच्चा भी नहीं था। बहुत दुख से भरा जीवन था उनका।हमारे समाज की ये सच्चाई है कि जिस स्त्री का पति उसको नहीं पूछता तो समाज भी निरपराध होने पर भी उसी स्त्री को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हर साल हम लोग छुट्टियों में गाँव जाते थे , तब मैं छोटी थी पर भाभी की तरफ़ से लड़ने खड़ी हो जाती। अम्माँ हंसकर कहतीं  "अरे ! उषा की भाभी को कोई कुछ मत कहना वर्ना भाभी को लेकर कुंए  में कूद जाएंगी!”


फिर ये कहानी लिखी। जब छप गई तो एक प्रति पत्र सहित भाभी को भेज दी। इत्तेफाक से दद्दा तब घर ही आए हुए थे। भाभी ने बताया कि वे रसोई में थीं तो दद्दा ने ही कहानी पढ़ी और जब वे कमरे में आईं तो दद्दा रो रहे थे। वे इतने शर्मिंदा हुए कि भाभी से माफी मांगी। और उसके बाद एकदम ही बदल गए। फिर आगे का जीवन बच्चों सहित सुख-पूर्वक बीता। बाद में तो दद्दा भाभी की झिड़की भी हंसकर सुन लेते। देखकर मैं खूब हंसती।जब मुझे कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ तो मैंने अमरकान्त जी को बताया कि मुझे तो असली पुरस्कार मिल चुका है, इससे बेहतर कोई पुरस्कार क्या होगा ? कहानी ने सार्थकता पा ली है। जानकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। बेशक वो मेरी सबसे कमजोर कहानी है, परन्तु मुझे तो सबसे प्रिय है इसी कारण।


नवोदित लेखक के प्रति इतनी उदारता और साहित्य के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी की भावना अब कहाँ मिलती है ? रद्दी को टोकरी में उठाकर किसी रचना को फेंक देना आसान है परन्तु लेखन की संभावना देखकर नए हस्ताक्षर को समय देकर लम्बे पत्र लिखना, तराशना और हौसला बढ़ाना बहुत बड़प्पन होने की निशानी है जो  अमरकान्त जी में था। आज भी मैं बहुत सम्मान से उनको याद करती हूँ। 




औरों में कहाँ दम था - चश्मे से

"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े  दुश्मन थे हम ही अपने. औरो...