ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 30 जून 2024

युरोप डायरी ,खगोलीय घड़ी, प्राग(चैक रिपब्लिक)

 


खगोलीय घड़ी, प्राग
(Astronomical Clock, Prague)

जून, 2024 में यूरोप के ट्रिप में हमें प्राग के सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक ओल्ड टाउन स्क्वायर में स्थित खगोलीय घड़ी देखने का सुअवसर मिला। प्राग के सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक ओल्ड टाउन स्क्वायर में स्थित खगोलीय घड़ी है। यह 600 साल से भी ज़्यादा पुरानी है और दुनिया की सबसे पुरानी खगोलीय घड़ियों में से एक है। प्राग खगोल घड़ी पहली बार 1410 में स्थापित की गई थी। यह दुनिया की तीसरी सबसे पुरानी खगोल घड़ी है और आज भी चालू स्थिति में है।

जिसे ओर्लोज के नाम से भी जाना जाता है, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी और राशि चक्र नक्षत्रों की सापेक्ष स्थिति दिखाती है। यह समय भी बताती है, तारीख भी बताती है और सबसे अच्छी बात यह है कि यह अपने दर्शकों को हर घंटे कुछ न कुछ नाटकीय करतब दिखाती है। प्राग खगोलीय घड़ी , जिसे आमतौर पर ओर्लोज के नाम से जाना जाता है, चेक राजधानी में सबसे लोकप्रिय स्थलों में से एक है। सुबह 9 बजे से रात 9 बजे के बीच पूरे समय, आप दो खिड़कियों में दिखाई देने वाली 12 लकड़ी की प्रेरित मूर्तियों की परेड देखने वाले पर्यटकों की भीड़ देखेंगे। पौने बारह बजे जब हम वहाँ पहुँचे तो भारी भीड़ देखकर रुक गए। सब बारह बजे का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे, हम भी भीड़ में शामिल हो गए।बारह बजते ही टनटनाटन करके घंटियाँ बजने लगी और एक ब्रास के नरकंकाल ने घंटा बजाना शुरु कर दिया। सब तरफ़ हर्ष छा गया।

इसकी सबसे खास बात है इसका प्रभावशाली और खूबसूरती से अलंकृत खगोलीय डायल। यह आकाश में सूर्य और चंद्रमा की स्थिति और अन्य विभिन्न खगोलीय विवरणों को दर्शाता है।निचले कैलेंडर डायल को लगभग 1490 में जोड़ा गया था। लगभग उसी समय,अविश्वसनीय गॉथिक मूर्तियां भी जोड़ी गईं। 

1600 के दशक के अंत में, संभवतः 1629 और 1659 के बीच, लकड़ी की मूर्तियाँ स्थापित की गईं। प्रेरितों की मूर्तियाँ 1787 और 1791 के बीच एक बड़े जीर्णोद्धार के दौरान जोड़ी गईं। घंटाघर पर प्रतिष्ठित स्वर्ण बांग देने वाले मुर्गे का निर्माण लगभग 1865 में किया गया था। 

कई सालों तक यह माना जाता रहा कि इस घड़ी को घड़ी-मास्टर जान रूज़े ने डिज़ाइन किया और बनाया था, जिन्हें हनुश के नाम से भी जाना जाता है। बाद में यह साबित हो गया कि यह एक ऐतिहासिक गलती थी।हालांकि, इस गलती की वजह से एक स्थानीय रोचक किंवदंती बन गई जिसे आज भी पर्यटकों को सुनाया जाता है। कहानी के अनुसार- इस घड़ी के बनने के बाद, हनुस के पास कई विदेशी राष्ट्र आए, जिनमें से हर कोई अपने शहर के चौराहे पर एक अद्भुत खगोलीय घड़ी लगवाना चाहता था। हनुस ने अपनी उत्कृष्ट कृति की योजना किसी को भी दिखाने से इनकार कर दिया, लेकिन यह बात प्राग के पार्षदों तक पहुंच गई। इस डर से कि हनुस किसी दूसरे देश के लिए इससे बड़ी, बेहतर और ज़्यादा सुंदर घड़ी बना सकता है, पार्षदों ने उस शानदार घड़ी बनाने वाले को अंधा करवा दिया, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनकी घड़ी कभी भी खराब न हो। पागल हो चुके घड़ी बनाने वाले ने सबसे बड़ा बदला लिया, खुद को कला के अपने असाधारण काम में झोंक दिया, घड़ी के गियर को गुम कर दिया और उसी समय आत्महत्या कर ली। ऐसा करते हुए, उसने घड़ी को श्राप दे दिया। जो कोई भी इसे ठीक करने की कोशिश करेगा, वह या तो पागल हो जाएगा या मर जाएगा।वास्तव में, यह घटना कभी नहीं हुई और ऐसा प्रतीत होता है कि हनुश मूल शिल्पकार नहीं थे। 1961 में खोजे गए एक पेपर के अनुसार, जिसमें घड़ी के खगोलीय डायल के काम करने के तरीके का एक व्यावहारिक विवरण है, निर्माता कदान के शाही घड़ी-निर्माता मिकुलास थे।

इस कहानी को सुनकर मुझे भी ताजमहल की कहानी याद आ गई कि उसको बनाने वाले कारीगरों के हाथ भी बादशाह ने कटवा दिए थे। 

2018 में, जब इस घड़ी का नवीनीकरण किया जा रहा था, तो इसकी एक मूर्ति के अंदर एक गुप्त संदेश छिपा हुआ मिला।जब इसकी कुछ मूर्तियों पर जीर्णोद्धार का काम चल रहा था, तो उन्होंने देखा कि सेंट थॉमस के प्रेषित की मूर्ति बाकी सभी मूर्तियों से हल्की थी। जब उन्होंने मूर्ति पर दस्तक दी, तो उन्होंने पाया कि यह खोखली थी। फिर मूर्ति को हटाया गया और एक्स-रे किया गया और अंदर एक अजीब धातु का डिब्बा मिला।धातु के बक्से में वोजटेक सुचार्डा नामक एक मूर्तिकार द्वारा लिखा गया 18 पृष्ठ का पत्र था।संदेश में मूर्तिकार की खगोलीय घड़ी के लिए अधिक व्यापक योजनाओं का खुलासा किया गया है, जो कभी पूरी नहीं हुईं।

जीर्णोद्धार कार्य से घड़ी टॉवर की कुछ अन्य छिपी हुई विशेषताएं भी सामने आईं जो 15वीं शताब्दी के आसपास की हैं। कुछ लकड़ियों के पीछे कैलेंडर डायल के नीचे कोनों में कई पत्थर की मूर्तियाँ प्रकट हुईं। ऐसा प्रतीत होता है कि ये 1400 के दशक के अंत में डायल की स्थापना से पहले घड़ी के कुछ मूल विवरण थे।

द्वितीय विश्व युद्ध के प्राग विद्रोह के दौरान घंटाघर को भारी नुकसान पहुंचने के बाद उन्हें कुछ मूर्तियों को फिर से बनाने का काम सौंपा गया था। 

15वीं सदी में इस तरह की वस्तु को "हाई-टेक" माना जाता रहा होगा। आज के परिप्रेक्ष्य से देखें तो यह मध्ययुगीन वैज्ञानिक ज्ञान, तकनीकी कौशल और सुंदर डिजाइन का एक आकर्षक संयोजन है।

मुझे उक्त घड़ी से संबंधित खोजबीन करने पर उक्त रोचक जानकारी मिली। पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन जो भी है, है बहुत रोचक 😊

- उषा किरण 

 

सोमवार, 24 जून 2024

युरोप डायरी( मन्नतों के ताले)

 



मन्नत मांगने के सबके अपने तरीके हैं। हम प्रसाद बोलते हैं, हे भोलेनाथ मनोकामना पूरी कर दो सवा रूपये ( अब तो रेट बढ़ गए हैं महंगाई के साथ) का प्रसाद चढ़ायेंगे। मजार, मन्दिर व पेड़ों पर भी मन्नतों के धागे बाँधे जाते हैं। विदेशों में देखा पुलों पर मन्नतों के ताले बाँधते हैं लोग। उन तालों पर कई बार प्रेमी युगल के दिल और नाम अंकित होते हैं । कई बार बच्चों की सूदर या कोई वस्तु साथ में लॉक कर चाबी नीचे नदी में फेंक देते हैं। कैसा विश्वास है कि नदी अपने हृदय में सब संजो लेगी और पुल के साथ प्रार्थना करेगी।

नदी के दो किनारे जो कभी नहीं मिलते, परन्तु उनको जोड़ देता है एक पुल।ये कैसा अजीब सा रिश्ता है प्यार का कि एक दूसरे से अनजान, कई बार तो अलग-अलग देशों व संस्कृतियों के लोग एक हो जाते हैं, जन्म- जन्मान्तरों तक साथ निभाने की कसमें खाते हैं ।ज़्यादातर ये ताले दो प्रेमी ही लगाते हैं। कई बार इन लव- लॉक्स का वजन इतना ज़्यादा हो जाता है कि इनमें से कई तालों को तोड़कर हटाना पड़ता है। 

दो इंसानों की परिस्थितियाँ चाहें कितनी ही विकट या विपरीत हों, प्यार दो दिलों पर पुल बना कर उनको एक कर देता है और भावनाओं की लहरें बहती रहती है निरन्तर। आशाओं के सहारे ही जी लेता है कई बार इंसान…शायद इसीलिए मन्नत मांगने के लिए ये विदेशी प्रेमी युगल पुलों को चुनते हैं कि शायद…!!!

मेरी मनोकामना है कि इन तालों में बंधी सबकी कामनाएं पूर्ण हों…आमीन🤲

युरोप डायरी

Photo ;Makartsteg  Bridge, Salzburg( Austria)


शनिवार, 1 जून 2024

पंचायत वेब सीरीज, सीजन 3

 





लेखक ; चंदन कुमार

निर्देशक ; दीपक कुमार मिश्रा

अभिनय ; जितेंद्र कुमार, रघुवीर यादव, 

नीना गुप्ता ; चंदन राय ; फैजल मलिक 


वेब सीरीज पंचायत का तीसरा सीज़न भी धमाल है और नवीनता बरकरार है। हम तो आठों भाग डेढ़ दिन में देख गए।यदि आपका वास्ता गाँव से पड़ा है तो यकीनन आपको बहुत मजा आने वाला है। हम सपरिवार बचपन में छुट्टियों में गाँव जाते रहे हैं और गाँव को खूब देखा परखा है । कमाल की कहानी लिखी है और कमाल का डायरेक्शन भी है। देख कर लगता है कि कथाकार व डायरेक्टर के जीवन का जरूर काफी हिस्सा गाँव में बीता है। 


इस बार फुलेरा गाँव और विधायक की नाक की लड़ाई पर सारा पंचायत सीजन तीन केन्द्रित है ।जब भी बार- बार गाँव के लोगों का नफरत व मजाक उड़ाते हुए कहना "विधायक कुत्ता मार के खा गया” सुनती तो मुझे जोरों की हंसी आ जाती थी। सोचो ज़रा विधायक जी कुत्ता खा रहे हैं , सोच कर ही हंसी आती है।विधायक जी की बौखलाहट देखने लायक है और तिस पर कयामत ये कि फुलेरा गाँव वाले विधायक को दो कौड़ी का कुछ नहीं समझते, सिवाय कुछ फितरती लोगों के।


नया कैरेक्टर मुझे सबसे प्यारा लगा अम्माँ जी का। जगमोहन की अम्माँ का मकान लेने के लिए छल- कपट करना, कहानी बनाना और कभी दीन- हीन तो कभी चतुर चालाक वाले एक्सप्रेशन ग़ज़ब के दिए हैं । कई करैक्टर तो ऐसे हैं जैसे गाँव से ही पकड़ कर आम आदमी से एक्टिंग करवाई गई हो।


जो बहुत बारीकी से बात पकड़ी है वो है गाँव के लोगों की मानसिकता। प्राय: वे चौपाल पर, पेड़ के नीचे बैठे टूटी सड़क की बनवाने जैसी समस्याओं पर विचार विमर्श करते रहते हैं। गाँवों के आदमियों को किसी विषय पर चाहें जानकारी न हो पर प्राय: कॉन्फ़िडेंस ग़ज़ब होता है।दाँवपेंच, दूसरे को पटकी देने की साजिश, चालाकियाँ, दुश्मनी निकालने के तरीके, आपसी सौहार्द, परस्पर सुख- दुख में भागीदारी सब कुछ जो एक गाँव की मिट्टी में समाया होता है पंचायत में मिलेगा। बाकी तो सचिन जी के रिंकी से इश्क के पेंच  इशारों-इशारों में हौले - हौले चल ही रहे हैं । गाँव के मेहमान ( दामाद जी )की ठसक और शेखी भी खूब दिखाई है।एक के दामाद सारे गाँव के मेहमान हैं । 


पहले गाँवों में गोरे दिखने के लिए अफगान स्नो क्रीम की चेहरे पर रगड़ाई चलती थी और उस पर टैल्कम पाउडर  हथेली में लेकर चुपड़ लिया जाता था तो चेहरे पर सफेदी सी नजर आती थी। प्रधान बनी नीना गुप्ता का मेकअप उसी तर्ज पर किया गया है, देखकर हमें अपने गाँव की कई बहुओं , चाचियों के मेकअप की याद ताजा हो गई।


प्राय: गाँव में जब चार  लोग जमा होकर हंसी ठट्ठा करते हैं तो छोटी सी बात पर भी ताली बजाकर खूब मजे लेते हैं । विधायक जी के कबूतर उड़ाने को ख्वाहिश पर वैसे ही ठट्ठे प्रधान जी की टीम लगाती है।प्रह्लाद का बेटे के गम में दारू पीकर पड़े रहना और विकास, प्रधान जी व सबका उनका ध्यान रखना बहुत दिल को छू जाता है।


बम बहादुर की दबंगई व चतुराई देखते बनता है। गाँव का उसके साथ खड़ा रहना, गाँव में दो ग्रुपों पूरब वाले व पश्चिम वालों के बीच की खींचातानी सब रोचक है। बम बहादुर ने छोटे से रोल में जान फूंक दी है।कुल मिलाकर देख डालिए। 


आप कहेंगे भई क्यूँ देखें ? तो ग्रामीण भारतीय जीवन का चित्रण,जीवन की चुनौतियाँ आपको भी पसंद आएगी। कलाकारों का अभिनय और गाँव की राजनीति, स्थानों, वेशभूषा और भावनाओं का सजीव व विस्तृत चित्रण हुआ है। यकीन मानिए ये तय है कि आखिरी सीन देखते ही आप भी मेरी तरह अगले सीजन का इंतजार शुरु कर देंगे। 

                      —उषा किरण

गुरुवार, 30 मई 2024

इससे पहले

 ज़िंदगी में कुछ हादसे, कुछ लोग या उनसे जुड़ी बातें या कुछ अफ़सोस ऐसे होते हैं जो सालों बाद भी पीछा नहीं छोड़ते।चाह कर भी भुला नहीं पाते और वे हमारी विचारधारा व जीवनधारा को दूसरी दिशा में मोड़ देते हैं।

लगभग बाइस - तेइस साल पहले मेरा एक माली था मोहन, जो बिल्कुल ही चुप रहता था, बस जितना पूछो उतना जवाब दे देता था। पैंतीस , चालीस के बीच का होगा।कई घरों में काम  करता था। बाकी सहायकों ने बताया कि वो शराब पीता है तो कई बार मैंने उसे समझाया भी । वह सिर झुका कर अपना काम करता जवाब नहीं देता था। चुपचाप आता था और क्यारियों व लॉन में जो भी जितना काम बताओ, करके चला जाता था। अब जो इतना चुप्पा हो उससे कोई कहाँ तक सिर मारे ? फिर उसी समय मैं भी कैंसर जैसी असाध्य बीमारी के चंगुल में फँसकर डॉक्टर व हॉस्पिटल के चक्रवात में फंसी जीवन व मृत्यु के बीच कहीं खड़ी थी। सारा  परिवार स्तब्ध व तनावग्रस्त था। तो मुझे खुद अपनी ही खबर नहीं थी और न ही घर परिवार व सहायकों की। 

एक दिन सहसा खबर मिली कि वो सोते - सोते मर गया। मैं हैरान रह गई। ड्राइवर और बाकी सहायकों से पता चला कि वो खाली पेट शराब पीता रहता था जब भूख लगती तो हमारी क्यारी से तोड़ कर भिंडी या मूली खा लेता , या जामुन बीन कर खा लेता था। "अरे ! कच्ची भिंडी ?और  ये बात तुम लोग मुझे अब बता रहे हो ? तब क्यों नहीं बताया ? या तुम ही खाना खिला दिया करते अंदर से लाकर “ मैं गुस्से और ग्लानि से भर गई। पर अब क्या हो सकता था ? मैं खुद को भी मन ही मन कोस रही थी कि घर में रोज  इतना खाना बनता है, और फ्रिज में  भी बचा हुआ रखा रहता है यदि समय पर पता चलता तो मैं ही उसे रोज कम से कम एक वक्त का तो खाना खिला ही सकती थी। मेरा मन मुझे लानतें भेजता कि मेरे यहाँ काम करने वाला एक कर्मचारी भूखे पेट पी- पीकर मर गया और मुझको खबर भी नहीं हुई…डूब मरो  ! उसका गाँव कहीं पटना के पास था। घर पैसे भेजता होगा और  शराब पीने के बाद इतना पैसा बचता ही नहीं होगा कि पेट भर खाना खा सके। 

उसके बाद से मैं बहुत ज़्यादा सजग हो गई। सभी सहायकों को व उनके परिवार, उनकी सेहत, भूख प्यास सबको ज्यादा पूछती हूँ व मदद भी करती हूँ ।पर वो जो अफसोस है वो अब भी मन को कचोटता है। हमें ज़्यादा संवेदनशील व सजग होना ही चाहिए इनके प्रति। ये लोग पूरब से , नेपाल व पहाड़ों और जाने कहाँ- कहाँ के गाँवों से बेहद गरीबी के मारे आते हैं चार पैसे कमाने के लिए। कई तरह की बीमारियों, अभावों व कुंठाओं से ये जूझ रहे होते हैं। अशिक्षित होने के कारण ज़्यादा सोच- विचार की बुद्धि भी नहीं होती। कई बार जघन्य अपराधों में भी संलग्न हो जाते हैं । इनके जीवन  में मनोरंजन का अभाव रहता है तो ये शराब के उन्माद को ही एन्जॉय करने लगते हैं । इनकी सोच- समझ इतनी वीक हो जाती है कि खुद नहीं निकल पाते इस जाल से। 

यहाँ मेरे लिखने का मक़सद सिर्फ़ यही है कि आप बड़ी- बड़ी समाज सेवा बेशक न करें, कम्बल बाँटकर फोटो भले न छपवाएं पर यदि अपने सहायकों को किसी तरह समझाकर, इलाज कर किसी तरह मदद कर सकें तो ये बहुत बड़ी मानव सेवा है। इस तरह आप न सिर्फ़ इनकी बल्कि इनके परिवार की भी मदद कर सकते हैं। हो सकता है ये आपको जवाब दें, बहस करें, बत्तमीजी भी कर दें , काम छोड़कर जाने की धमकी भी देते हैं। तब बहुत क्रोध आता है कि भाड़ में जाओ फिर। लेकिन तब भी विवेकपूर्वक व धैर्य से इनके सुख- दुख पर नजर रखना और उदार होना हमारा फ़र्ज़ है। हम समर्थ हैं और बौद्धिक स्तर पर भी बेहतर सोच सकते हैं  तो इनकी मदद करनी चाहिए ताकि  फिर हमारा या आपका कोई और मोहन यूँ जिंदगी की लड़ाई न हार जाए।

                            —🌸🌿उषा किरण



रविवार, 26 मई 2024

`तीसरी कसम’ - ( फिल्म समीक्षा )

                     

-निर्देशक: बासु भट्टाचार्य 

-लेखक: फणीश्वर नाथ रेणु ( संवाद)

-पटकथा: नबेन्दु घोष

-निर्माता: शैलेन्द्र

-अभिनेता: राज कपूर, वहीदा रहमान, दुलारी, इफ़्तिख़ार , असित सेन, सी. एस. दुबे, केस्टो मुखर्जी

-संगीतकार: शंकर जयकिशन

-गीतकार- शैलेन्द्र व हसरत जयपुरी

-पूरी फिल्म मध्यप्रदेश के बीना एवं ललितपुर के  पास खिमलासा में फिल्मांकित की गई।

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          बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी यादगार फिल्म `तीसरी कसम’ के निर्माता थे सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र। यह फिल्म सिने जगत में श्रेष्ठतम फिल्मों में गिनी जाती है और आज भी दर्शकों को लुभाती है। हीरामन और हीराबाई की यह दु:खान्त फिल्म , फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई । इस फिल्म के निर्देशक बासु भट्टाचार्य है। निर्देशन की नजर से भी यह फिल्म बेजोड़ है।ग्रामीण परिवेश की भाषा- बोली, रहन- सहन , विचारधारा व परिवेश का निर्देशन बहुत ख़ूबसूरती से किया गया है। 

हिंदी साहित्य के प्रसिद्ध लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ को गीतकार और कवि शैलेंद्र ने जिस तरह सिनेमा के परदे पर उतारा, वह अद्भुत है। इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है। अभिनय, संगीत, पटकथा, व निर्देशन हर दृष्टि से यह फिल्म बेजोड़ थी, इसीलिए 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया।

इस फिल्म के गीतकार स्वयं शैलेंद्र और हसरत जयपुरी हैं। गीतों को अपनी आवाज में  मुकेश, लता मंगेशकर, आशा भोंसले और मन्नाडे ने बहुत ख़ूबसूरती से गाया है। संवाद स्वयं रेणु के हैं। पटकथा नवेंदु घोष की है। इन कलाकारों के सम्मिलित प्रयासों ने फिल्म के संवादों और गीतों को दर्शकों के हृदय में उतार दिया। "दुनियाँ बनाने वाले क्या तेरे मन में  समाई…, सजनवा बैरी हो गए हमार…,चलत मुसाफिर मोह लियो रे…हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…पान खाए सइयाँ हमारो…,लाली- लाली डोलिया में…” आदि सभी गीत बेहद कर्णप्रिय व लोक- कला की सौंधी सी महक से सुवासित हैं और आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं ।

राजकपूर की एक्टिंग की ताकत उनकी सादगी और भोलापन है।जिसके कारण हीरामन के किरदार को उन्होंने बहुत सफलतापूर्वक जिया है।जब हीरामन बने राज कपूर बात- बात में हंसकर, शर्मा कर  एकदम गंवई अंदाज में 'इस्स’ कहते हैं तो देखते ही बनता है। हीरामन के साथ के दृश्यों में वहीदा रहमान का अप्रतिम सादगीपूर्ण शीतल सौंदर्य तथा सरलता मोहक लगती है। एक कुशल नृत्यांगना होने के कारण  नौटंकी में  "पान खाए सैंया हमारो…” और "हाय ग़ज़ब कहीं तारा टूटा…” जैसे गानों पर किए उनके नृत्यों व भावपूर्ण अभिनय ने फिल्म में चार चाँद लगा दिए हैं। हीराबाई पर फिल्माए सभी गाने नौटंकी की तर्ज पर लिखे और प्रस्तुत किए गए हैं। नौटंकी के स्टेज पर आते ही हीराबाई के व्यक्तित्व का दूसरा ही पक्ष उजागर होता है।कटाक्षयुक्त नयन, शोख, फुर्तीली नृत्यांगना और विभिन्न भावों में प्रवीण समर्पित अभिनेत्री का।ऐयाश विक्रम सिंह  का किरदार भी नौटंकी के अनुरूप ही बुना गया है जो हीराबाई को अपने पैसे व ताकत के बल पर खरीदना चाहता है। 

बेशक यह कथा ग्रामीण अंचल की है, लेकिन इसका विषय सार्वभौमिक है। प्रेम मनुष्य की आत्मा का संगीत है।इसकी कहानी प्रेम की पवित्रता व शक्ति को अभिव्यक्त करती है। कितनी सहजता से एक नौंटकी की बाई एक निर्धन, गंवार, भोलेभाले गाड़ीवान पर मोहित हो जाती है और जमींदार जैसे संपन्न व्यक्ति के प्रणय निवेदन को ठुकरा देती है। 

आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं हैं , तीसरी कसम इनमें सबसे अलग व विशेष है। फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम उर्फ़ तीसरी कसम’ एक ग्रामीण अंचल की कथा है। इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं। हीराबाई नौंटकी में अभिनय करने वाली एक खूबसूरत अदाकारा है जिसे सामान्य भाषा में ‘बाई’ कहा जाता है। इस प्रेम कहानी को पर्दे पर उतारा था राजकपूर और वहीदा रहमान की लाजवाब एक्टिंग और शैलेन्द्र की परिकल्पना ने।

फ़िल्म की शुरुआत एक गाने से होती है जिसमें हीरामन बैलगाड़ी हाँकते हुए गा रहा है -"सजन रे झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है…!” गाने के बाद नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे पुलिस पकड़ लेती है । किसी तरह वह अपने बैलों को छुड़ा कर भागता है और कसम खाता है कि अब से  चोरबजारी का सामान कभी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बाँस की लदनी की वजह से पिटाई होने पर, डर कर उसने दूसरी कसम खाई कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बाँस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। 

इसके बाद फिल्म में एक दृश्य में हीरामन बैलगाड़ी बहुत खुश होकर हाँक रहा है। उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। हीरामन कई कहानियाँ और लोकगीत सुनाते हुए सर्कस के आयोजन स्थल तक हीराबाई को ले जा रहा है।  पूरी दुनिया में अपने-अपने अकेलेपन से जूझ रहे दो सम्वेदनशील अजनबी यात्री इस यात्रा में सहसा  प्रीत व मित्रता की नाजुक सी डोर में बंध जाते हैं । पूरी यात्रा का हर पल, हरेक संवाद  व गाने दर्शकों के मन को लुभाते हैं।

सफर के प्रारंभ में हीरामन को डर लगता है। रात का सुनसान सफर है, वह मंदिर में भगवान के सामने बड़बड़ाता है कि -

"पीठ में गुदगुदी होती है, गाड़ी में रह- रह कर खुसबू आती है, एक पैर ही देखा था , वो भी जाने उल्टा था या सीधा…कहीं जिन परेत न हो …सवा रुपय का प्रसाद चढ़ाऊँगा भोलेनाथ रक्षा करो …!” 

परन्तु ताक-झाँक करते हीराबाई को देख खुशी से चिल्ला बैठता है "उरे बाबा ये तो परी है…!” हीराबाई परदे से बाहर आकर पूछती है "परी…कहाँ है परी !” 

जब हीरामन कहता है कि औरत और मर्द के नाम में बहुत फ़र्क़ होता है तो हीराबाई कहती है "कहाँ है फर्क ? मैं भी हीरा, तुम भी हीरा ।” हीरामन के हाव-भाव व मन:स्थिति यहाँ से बदल जाते हैं और दोनो के बीच  आत्मीयता पनप जाती है।सफर के मध्य दोनों के संवाद बहुत रोचक हैं।

हीराबाई ने हिरामन के जैसा निश्छल आदमी नहीं देखा है, वह पूछता है- "आपका घर कौन जिल्ला में पड़ता है?”कानपुर नाम सुनते ही उसकी हंसी छूट जाती है "वाह रे कानपुर! तब तो नाकपुर भी होगा?” और जब हीराबाई ने कहा कि नाकपुर भी है, तो वह हंसते-हंसते दुहरा हो गया।

हीरामन का गाया लोकगीत  "सजनवा बैरी हो गए हमार…!” कर्णप्रिय होने के कारण आज भी लोकप्रिय है। हीरामन की सादगी, हीराबाई के प्रति करुणा व सम्मान का भाव हीराबाई के हृदय को छू लेता है।वह हीरामन से मन ही मन प्यार करने लगती है। 

एक जगह हीराबाई कहती है "तुमने पर्दा क्यों गिरा दिया मीता ?” तो वह कहता है आप यहाँ के लोगों को नहीं जानतीं , औरत देखी और लगे घूरने, देहाती भुच्च कहीं के !”  कोई सवारी के बारे में पूछता है तो कहता है बिदाही (लड़की को ससुराल ले जाना) ले जा रहे हैं । कभी कहता है हस्पताल  की डाक्टरनी हैं मरीज देखने जा रही हैं।वह झूठ बोलकर उसे सारी दुनिया की नजरों से बचाकर ले जाता है। हीराबाई की शिष्टता, शालीनता और सुंदरता उसे मंत्रमुग्ध कर देती है।वह उसे प्यार करने लगता है।प्यार और सम्मान को तरसती हीराबाई भी हीरामन को दिल में चाहने लगती है।वास्तव में इस अनोखे रिश्ते में मात्र प्यार ही नहीं है एक- दूसरे के प्रति सम्मान है। मीता (मित्र ) हैं वे । उनके नाम ही नहीं मिलते  हृदय में बहती कोमल सी भावधारा भी एक सी बहती है।जब हीराबाई महुआ घाट पर नहा रही होती है तब हीरामन गाड़ी में से छिपकर मुग्ध हो उसको एकटक देखता है, परन्तु तुरन्त पर्दा खींच देता है। अनुरागी मन से विवश हो उसके बिछावन पर चुपके से तनिक देर तक टिक जाता है।

दूसरी तरफ़ हीराबाई ‘मथुरामोहन नौटंकी कंपनी’ की नर्तकी है। इस बार वह `रौता संगीत नौटंकी’ कंपनीके सौजन्य से मेले में आई है। जिस प्रकार हीरामन को अपनी गाड़ीवानी पसंद है और इसे वह किसी मूल्य पर नहीं छोड़ना चाहता, ठीक उसी प्रकार हीराबाई भी नौटंकी में नाचने की कला को नहीं छोड़ना चाहती है।यह काम उसे आर्थिक अवलम्ब देता है और उसकी अस्मिता व पहचान से जुड़ा है। बेशक नौटंकी में लोग उसे रंडी, पतुरिया आदि नामों से संबोधित करते हैं ।लोगों की वासनापूर्ण दृष्टि व अश्लील कमेन्ट सुनकर वह  चाहता है कि हीराबाई नौटंकी का काम छोड़ दे। इस पर हीराबाई अपने कार्य के प्रति लगाव और प्रतिबद्धता को व्यक्त करते हुए उसे समझाती है- "गुस्सा न करो हिरामन! ये बात नामुमकिन है। समझते क्यों नहीं? नशा जो हो गया, जैसे तुम्हें बैलगाड़ी चलाने का नशा है, वैसे ही मुझे लैला और गुलबदन करने का नशा है।  देश-देश घूमना, सज-धज के रोशनी में नाचना-गाना, जीने के लिए सिवा इस नशे के और क्या है मेरे पास ?” 

फिल्म में ‘छोकरा-नाच’ तथा ‘महुआ घटवारिन’ नामक लोककथा का वर्णन मिलता है। छोकरा- नाच बिहार राज्य का प्रमुख नाच- विधा है। इसमें स्त्री-वेश धारण कर पुरुष ही नाचते हैं। हीराबाई के चेहरे को देखकर हिरामन को छोकरा-नाच के मनुआ-नटुआ की याद आ जाती है। हीराबाई पूछती है तो  हीरामन संकोच के साथ अपने दिल की बात को प्रकट कर देताहै- "जी, आपका मुँह बिल्कुल छोकरा-नाच के मनुआ नटुआ जैसा दिखता है।”

“हाय राम! मैं क्या छोकरा जैसे दिखती हूँ?”

“जी नहीं! वे छोकरे ही लड़कीनुमा हुआ करते थे।” हीरामन कहता है तो दोनों निश्छल हंसी हंस पड़ते हैं ।


महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।

"तब? उसके बाद क्या हुआ मीता?”

"इस्स! कथा सुनने का बड़ा सौक है आपको?”

लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।महुआ घटवारिन की कथा सुनकर हीराबाई विह्वल हो जाती है क्योंकि इस कथा में उसे अपने ही जीवन की झलक दिखाई देती है।महुआ घटवारिन की कथा सौतेली माँ के शोषण और अत्याचार पर आधारित है। हीराबाई रास्ते में लोकगीत व लोककथा  हीरामन से बहुत आग्रह से सुनती है।लोककथा सुनाने की अपनी कला होती है। हीरामन इस कला में माहिर है। कथा में आए उत्साह, वियोग और दु:ख के भावों को वह स्वर को तेज, धीमे और करुणा भरे स्वर में सुनाता है।

"यहाँ देखती हूँ हर कोई गीत गीत गाता रहता है।”

गीत नहीं गाएगा तो करेगा क्या ? कहते हैं फटे करेजा गाओ गीत

दुख सहने का ये ही रीत।”


एक दृश्य में गाड़ी गाँव के बीच से जा रही है बच्चे परदेवाली गाड़ी देख पीछे लग लेते हैं और तालियां बजा-बजा कर गाने लगे-

“लाली-लाली डोलिया में

लाली रे दुलहिनिया

पिया की पियारी भोलीभाली रे दुल्हनियाँ ..”

हीराबाई हल्का सा घूंघट काढ़े नवेली दुल्हन सी शर्माती है। हीरामन के चेहरे पर भी दूल्हे जैसे भाव हैं । दोनों के मन का अरमान चेहरे पर साफ़ परिलक्षित होता है।

हीराबाई हीरामन को नौटंकी का पास देती है. जहां हीरामन अपने दोस्तों के साथ पहुंचता है, लेकिन वहां उपस्थित लोगों द्वारा हीराबाई के लिए अश्लील शब्द कहे जाने पर वो उनसे झगड़ा कर बैठता है। हीरामन के मन में अपने  लिए प्रेम और सम्मान देख कर वो उसके और करीब आ जाती है। इसी बीच गांव का जमींदार हीराबाई को बुरी नजर से देखते हुए उसके साथ जबरदस्ती करने का प्रयास करता है, और उसे पैसे का लालच भी देता है।पर हीराबाई उसे ठुकरा देती है। हीराबाई नौटंकी छोड़ कर हीरामन के साथ जाने का मन बनाती है तो नौटंकी कंपनी के साथी उसे समझाते हैं, कि वो हीरामन का ख्याल अपने दिमाग से निकाल दे -

"जिसके मन में देवी हो उसके घर में बाई कैसे बस सकती है ? यदि उसका भ्रम तोड़ दोगी तो वह बर्बाद हो जाएगा और नौटंकी छोड़ दोगी तो तुम ख़ुद बर्बाद हो जाओगी…बिना कुछ कहे मुँह मोड़ लो बेवफा समझ कर माफ कर देगा !” वे समझाते हैं कि जमींदार  हीरामन की हत्या भी करवा सकता है। रोते हुए हीराबाई अपनी व्यथा सखी से कहती है कि " उसके भोलेपन और सादगी की हरेक बात मुझे याद आती है।रास्ते में वो गाड़ी का पर्दा ऐसे गिरा देता था जैसे यदि मुझे किसी ने देख लिया तो नजर लग जाएगी।आठ आने के टिकिट में जिसका नाच  कोई भी देख सकता है मुझे वह सारी दुनियाँ से छिपा कर ले आया। महुआ के घाट पर बोला यहाँ मत नहाइए यहाँ कंवारी लड़कियाँ नहीं नहातीं…लैला का पाठ करने वाली लैला बनने चली थी..मेरा चाहें जो भी हो मैं उसके सपने टूटने नहीं दूँगी, उसके मन में हीराबाई तो बनी रहेगी…"अपनी विवशता पर रोकर कहती है "दोष मेरा नहीं पाठ लिखने वाले का है अब पाठ ख़त्म नहीं हुआ तो मैं क्या करूँ!”

और सोच-विचार कर हीरामन की भलाई के लिए हीराबाई गांव छोड़ हीरामन से बिना अपने मन की बात कहे चुपचाप जाने की तैयारी कर लेती है।इस दृश्य में वहीदा रहमान की एक्टिंग देखने लायक है। हीराबाई के मन की मजबूरी, कसक, उदासी को अपनी सम्वेदनशील अभिनय से जीवंत कर दिया है।

फिल्म के आखिर में रेलवे स्टेशन का दृश्य है, जहां हीराबाई हीरामन के प्रति अपने प्रेम को अपने आंसुओं में छुपाती हुई उसे समझाती हुए कहती है-" दिल छोटा मत करो हीरामन । तुमने कहा था न कि महुआ को सौदागर ने ख़रीद लिया, मैं बिक चुकी हूँ हीरामन…!” और उसके पैसे उसे लौटा देती है जो हीरामन ने मेले में खो जाने के भय से उसे रखने के लिए दिए थे।

विदाई का अन्तिम दृश्य बहुत मार्मिक है। रेलगाड़ी में बैठी आँसू भरी विवश आँखों से जाते हुए दूर तक वह हीरामन को देखती रहती है।हीरामन उदासी व क्षोभ के साथ गाड़ी में आकर बैठता  है और फिर हठात अपने दोनों बैलों को झिड़की दी, दुआली से मारते हुए जैसे ही बैलों को हांकने की कोशिश करता है, तो उसे हीराबाई के शब्द याद आते हैं-“न, मारो नहीं” वह रुक जाता है।फिर झुँझलाकर कहता है- "उलट- उलट कर क्या देखते हो…खाओ कसम कम्पनी की बाई को कभी गाड़ी में नहीं बिठाओगे..!”

जाते हुए गाड़ी के नेपथ्य में गीत बजता है-

"प्रीत बना के तूने जीना सिखाया, 

हंसना सिखाया रोना सिखाया

जीवन के पथ पर मीत मिलाए

मीत मिलाके तूने सपने जगाए

सपने जगा के तूने काहे को दे दी जुदाई…!”

अन्तिम  दृश्य दर्शकों के मन में कसक छोड़ जाता है। 

बहुधा ऐसी साहित्यिक कृतियां कम ही होती हैं, जिसमें फिल्मनिर्माता कहानी को उसके मौलिक स्वरूप में प्रस्तुत करता है। लेकिन तीसरी कसम में रेणू की कहानी के सभी पात्रों के नाम, संवाद और कुछ गीत भी वही हैं जो कहानी के मूलस्वरूप में हैं।इसी कारण  'तीसरी कसम’ क्लासिक फिल्म कहलाई और मील का पत्थर साबित हुई, परन्तु उस समय व्यावसायिक रूप से असफ़ल होने व बॉक्स ऑफ़िस पर पिटने के कारण निर्माता गीतकार शैलेन्द्र का निधन हो गया।

कुछ लोगों का मत था कि इसका अन्त परिवर्तित करके दोनों का मिलन करवा दिया जाय परन्तु इसके लिए शैलेंद्र व रेणु तैयार नहीं हुए। यह उचित निर्णय था वर्ना कहानी का असली फ्लेवर समाप्त हो जाता और यह एक सामान्य श्रेणी की फिल्म होती।

बेशक इसको तत्कालीन बॉक्स ऑफ़िस पर सफलता नहीं मिली थी परन्तु आज भी लोकतत्वों को समाहित किए यह  फिल्म हिन्दी की श्रेष्ठतम फ़िल्मों में गिनी जाती है।              

— उषा किरण 

खाने की बर्बादी



मेरे घर का एक बच्चा होटल मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहा है। एक प्रतिष्ठित फाइव- स्टार होटल में छह महिने की ट्रेनिंग के बाद छुट्टियों में घर आया हुआ है।वह अपने अनुभव बताता रहता है। आज उसने बताया कि वहाँ पर रोज तीन टाइम बुफे लगता था और बचा हुआ सारा खाना फेंक दिया जाता था। तो हमने पूछा कि अपने स्टाफ को या जो ट्रेनी थे तुम जैसे उनको नहीं देते थे ? उसने कहा नहीं, हमारा अलग से बनता था बहुत ही ऑडनरी सा खाना और महंगी से मंहगी डिश सब डस्टबिन में…।” हमने कलप कर कहा ” अरे तो तुम लोगों को ही दे देते। और होटल में तो देते होंगे ?”

तो उसने कहा कि "नहीं देते, फ़ाइव स्टार पर यही पॉलिसी है सब जगह। बुफे तो रोज लगता है , कई बार तो बहुत कम लोग खाते हैं और काफ़ी ज़्यादा खाना फिंकता है।” उसके साथ के जो और  बच्चे अन्य जगह पर करते आए उन्होंने भी यही बताया।

सुनकर इतना दुख हुआ कि क्या बताएं। सोचिए जरा रोज कितना सारा खाना इन मंहगे होटलों व रेस्टोरेन्ट में फेंका जाता होगा। कम से कम अपने स्टाफ़ को ही खिला दें, फिर बाकी बचा हुआ खाना कुछ ऐसी व्यवस्था करें कि गरीबों में बाँट दिया जाय। 

इस विषय में आपको कुछ जानकारी है,यह सच

आपके क्या विचार हैं इस पर ?

— उषा किरण 

शुक्रवार, 10 मई 2024

जरा सोचिए

    


अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है

क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है

हर समय उधार मांगती रहती है

कामवालों के नखरे बहुत हैं 

पूरी हीरोइन है , चोर है

जब देखो बीमारी का बहाना…

मेरा ड्राइवर बत्तमीज है

जवाब देता है, बेईमानी करता है

सच में, इन लोगों ने नाक में दम कर रखा है…

बिल्कुल सही..!

पर क्या कभी सोचा है कि आपकी मेड, माली, ड्राइवर, धोबी, चौकीदार, बच्चों का रिक्शेवाला…ये सब न हों तो आपका क्या हो ? इनकी बदौलत आप कितनी ऐश करते हैं? कितने शौक पूरे करते हैं, कितना आरामदायक व साधनसम्पन्न जीवन जीते हैं ? 

कोविड के दिनों में इनका महत्व काफी समझ आ गया था वैसे हमको और आपको । अपने ही घर का काम करते कमर दोहरी हो गई और मेनिक्योर, पेडिक्योर का तो बाजा बज गया था…नहीं ? 

आपके सहायक अपना कीमती समय, अपना परिश्रम देकर आपका व हमारा घर, आपके बच्चों को, आपके कपड़े, खाने- पीने को संभालती हैं, मदद करती हैं , आप आराम से सोते हुए या गाने सुनते यात्रा एन्जॉय करते हैं और आपका ड्राइवर एक ही मुद्रा में घन्टों ड्राइव करता है, गर्मी, सर्दी, बरसात घर के बाहर या गाड़ी में बैठा जीवन का कितना मूल्यवान समय आपके आराम व सुरक्षा पर खर्च करता है। हमारे सहायकों के  घर में कोई उत्सव हो, बच्चा या पति या बीवी बीमार हो, खुद बीमार हों किसी की डैथ  हो जाए तो भी आप बहुत अहसान जता कर डाँट- डपट कर एक दो दिन की छुट्टी देते हैं । ज़्यादा छुट्टी होने पर पैसे काट लेते हैं । आपके बच्चों को स्कूल से घर लाने वाले रिक्शे वाले के गर्मियों की छुट्टियों के पैसे नहीं देते जबकि आपको अपनी जॉब में छुट्टियों के पूरे पैसे मिलते हैं ।होली, दीवाली पर या कभी जरा सा कुछ बख़्शीश देकर आप कितनी शान से सबके बीच बखान करते हैं ।आपके सहायक कुछ पैसों की खातिर अपने बच्चों व अपने आराम को देने वाला समय आपको देते हैं । 

आप क्या देते हैं? ? ?

चन्द पैसे ? उतने ही न जितने आप एक बार में एक डिनर या एक ड्रेस या एक ट्रिप , या एक गिफ्ट में उड़ा देते हैं। पाश्चात्य सभ्यता, फैशन की तो नकल हम करते हैं पर ये भी तो जानिए और नकल करिए कि विदेशों में वे सहायिकाओं को कितनी इज्जत, पैसा व सुविधा भी देते हैं । 

जरा सोचिए कि आप उनको जो कीमत देते हैं वो ज्यादा मूल्यवान  है या वो जो वे आपको देते हैं…कभी सोचा है ? हर चीज की कीमत पैसों से नहीं तोली जा सकती। जितना प्यार और सहानुभूति आप आपने पालतू पशु- पक्षी पर लुटाते हैं क्या उसके पचास प्रतिशत के भी ये हक़दार नहीं हैं?


मेरी बात कड़वी अवश्य लगेगी आपको लेकिन इंसानियत के नाते उनको डाँटने फटकारने, पैसे काटने से पहले एक बार सोचिएगा जरूर

  — उषा किरण

औरों में कहाँ दम था - चश्मे से

"जब दिल से धुँआ उठा बरसात का मौसम था सौ दर्द दिए उसने जो दर्द का मरहम था हमने ही सितम ढाए, हमने ही कहर तोड़े  दुश्मन थे हम ही अपने. औरो...