ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 31 जुलाई 2019

कविता— दोस्त



ऐ दोस्त
अबके जब आना न
तो ले आना हाथों में
थोड़ा सा बचपन
घर के पीछे बग़ीचे में खोद के
बो देंगे मिल कर
फिर निकल पड़ेंगे हम
हाथों में हाथ लिए
खट्टे मीठे गोले की
चुस्की की चुस्की लेते
करते बारिशों में छपाछप
मैं भाग कर ले आउंगी
समोसे गर्म और कुछ कुल्हड़
तुम बना लेना चाय तब तक
अदरक  इलायची वाली
अपनी फीकी पर मेरी
थोड़ी ज़्यादा मीठी
और तीखी सी चटनी
कच्ची आमी की
फिर तुम इन्द्रधनुष थोड़ा
सीधा कर देना और
रस्सी डाल उस पर मैं
बना दूंगी मस्त झूला
बढ़ाएँगे ऊँची पींगें
छू लेंगे भीगे आकाश को
साबुन के बुलबुले बनाएँ
तितली के पीछे भागें
जंगलों में फिर से भटक जाएँ
नदियों में नहाएँ
चलो न ऐ दोस्त
हम फिर से बच्चे बन जाएँ ...!!

चित्र ; Pinterest से साभार

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