ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

रिटायरमेंट के साइड इफ़ेक्ट



#रिटायरमेन्ट_के_साइड_इफैक्ट

लेट निशाचर सोने वाले
हम लेट सवेरे उठते
जाने कैसे छै बजे बस
आज सवेरे उठ गए
सोचा चलो बहुत हुआ 
अब सूर्योदय दर्शन कर लें !

हरी चाय का कप ले हम
फौरन छत के ऊपर पहुँचे
इधर- उधर देखा लेकिन
सूर्यदेव कहीं न दिखते
आँख बन्द कर नाक दबा 
अनुलोम- विलोम करते
तब`इनकी’ओर हम पलटे
थे ये बेहद हैरान -परेशाँ
आज सुबह-सुबह ही कैसे
ये कयामत ऊपर आयी 
राम ही जाने आज सूरज 
जाने किधर से निकले भाई ?

अकड़ के पूछा इनसे हमने
कहाँ है सूरज साढ़े छै हैं
देखो अब तक गैरहाजिर हैं
एक आँख से देख हमें तब
ये धीरे से कुछ बुदबुदाए
`पॉल्यूशन के कारण भाई’
हैं ! ये भी कोई बहाना है
पॉल्यूशन से बोलो कोई
गायब  कैसे हो सकता है
साढ़े छह तक भी कोई 
इस तरह पड़ा सोता है?

दोनों आँखें बन्द किए फिर
झट चुप्पी इनने साधी
जल्दी जल्दी छत पर हमने  
दो चार फिरकियाँ काटीं
इतने में मुँह लाल किए
प्राची  से आँखें मलते
दिखे वे धीरे - धीरे आते !

ये भी कोई वक्त भला है
जब सारी दुनिया जागे
और तब तुम भरी दुपहरी
अब धीरे- धीरे आते ?
देख हमारी शकल सलोनी
वे जल्दी- जल्दी भागे
दस मिनिट में ठीक हमारे
सिर ऊपर आ विराजे !

अरे भई,पहले देर से उठते 
फिर जल्दी- जल्दी भगते
सारी छत पर धूप बिखेरी
अब जल्दी क्या है इतनी
अब तुम ही भला बताओ
हम वॉक कैसे कर पाएं
कुछ तो ढंग की बात करो
क्यूँ चाल बेढंगी चलते !

नाक उठा सूरज से जब
यूँ  हमको भिड़ते देखा
झट बीच में कूद पड़े ये
सूरज पे दिखाते ममता
अरे नाहक इतनी जल्दी
उठ कर क्यों ऊपर  आईं 
कुछ देर और सो लेतीं
सुबह- सुबह क्यों तुमने
इतनी तकलीफ़ उठाई 
सूर्योदय का तो रोज
बस यही वक्त है भाई !

जब उठ ही गईं तो आओ 
मिल कर प्राणायाम करें
देखो तितली भंवरे चिडिएं
कैसा मीठा गुनगुन गान करें 
हम नाक दबा बैठे बेशक थे
पर आँख हमारी ऊपर थी 
अनुशासन-पाठ पढ़ाने की
बस आज हमने ठानी थी !

कल से वक्त पर आना तुम 
वर्ना अनुपस्थिति लगाएंगे
ठीक सुबह के पाँच बजे तुम
सूर्योदय कल से लाओगे!’
हमने आँख निकाली जमकर
उनने धीरे से मुँडिया हिलाई
इनने हमसे चोरी छुप कर 
उसे एक आँख दबाई !

अगली सुबह उठे आठ पर
हड़बड़ कर छत पर भागे
अटेंडेंस का ले रजिस्टर 
छत के ऊपर जा बिराजे
जाकर पूछा सख्ती से
तुम कितने बजे थे जागे
अरे,ठीक पाँच बजे थे
जब ये आए भागे-भागे 
बोले धीरे से पति हमारे
उधर सूरज बगलें झाँके !

चलो तुम आ जाओ नीचे
हम चाय बनाने जाते हैं
रिटायरमेन्ट के बाद अब
ज़िम्मेदारी हम पर भारी है
सूरज-चाँद जगें समय पर
और समय पर जा सोएँ
दसों दिशाएं चौबस्त रहें
नदिएं व सागर ठीक बहें !

कल से तुमको इन सब पर 
करनी निगरानी जारी है
हम ही दोनों पर अब देखो
बस ज़िम्मेदारी भारी है !
बिल्कुल सही कहा मैडम
ऐसा ही होगा बस अब
कपालभाती थोड़ा कर
पीछे-पीछे आते  हम !

आँख तरेर घूरा तब हमने
अबके थी इनकी बारी 
बूढ़े हो गए तुम फिर भी
कपालभाती न कर पाते
पेट अंदर साँस हो बाहर
स्वामी रामदेव बतलाते
बेवकूफ न हमको समझो 
हम भी हैं चतुर -सयाने 

और खूब बिगाड़ो तुम इनको  
सब कारिस्तानी तुम्हारी है
इतने भोले तुम न बनो
सब हरकत मनमानी है
पहले तुमने बिगाड़े बच्चे
अब चाँद सूरज की बारी है...!’

                                  — उषा किरण




                                  


8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
    धन्यवाद
    दिलबागसिंह विर्क

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २३ अक्टूबर २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. नाक उठा सूरज से जब
    यूँ हमको भिड़ते देखा
    झट बीच में कूद पड़े ये
    सूरज पे दिखाते ममता
    अरे नाहक इतनी जल्दी
    उठ कर क्यों ऊपर आईं
    कुछ देर और सो लेतीं
    सुबह- सुबह क्यों तुमने
    इतनी तकलीफ़ उठाई
    सूर्योदय का तो रोज
    बस यही वक्त है भाई !
    ....बच्चों सा बहाने खूब आते हैं बुढ़ापे में बनाना और एक औरत की डुयूटी और बढ़ जाती हैं
    बहुत सुन्दर

    जवाब देंहटाएं

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