ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

सोमवार, 27 जुलाई 2020

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10 रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 10 

                                                           
 ताना-बाना
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन 


न जीवन मरता है
न सत्य
न झूठ
ना ही कल्पनाओं का संसार ...
पर समाप्ति की एक मुहर लगानी होती है, तभी तो एक नई सुबह का आगाज़ होता है, कुछ नया सोचा और लिखा जाता है ...
अनुभवों का एक और बाना ।
"हर बार गिरकर उठी हूँ
खुद का हाथ पकड़ पुचकारा
सराहा,समझाया..."
यूँ ही चलना होता है और तभी ज़िन्दगी साथ होती है और कुछ कहने की स्थिति बनती है ।
और तभी खुद में सिमटकर, खुद को जीते हुए कहती है मन की स्वामिनी
"इनदिनों बहुत बिगड़ गई हूँ मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच
खेलने लग जाती हूँ कैंडी क्रश
...
बचपन मे सीखे कत्थक के स्टेप्स
आदी की चॉकलेट कुतर लेती हूँ"
...
चल रही हूँ बस अपने हिसाब से ।
ज़रूरी है मन, कभी कभी आसपास से,खुद के लिए बेपरवाह हो जाना, पुरवइया बन जाना,या बेमौसम की बारिश की शक्ल ले लेना - बिगड़ा कहो या बिंदास ।
हमेशा नफ़ासत अच्छी नहीं, थोड़ी मस्ती भी ज़रूरी है -
जीवन का पुलोवर बनाते हुए कवयित्री ने शोख़ी से कहा,
"क्यों जी
कई बार से देख रही
ये हर करवाचौथ जो तुम
कहीं बाहर जाते हो ... चक्कर क्या है
कहीं और कोई चाँद तो नहीं ?"
प्रत्युत्तर में भी शरारतें ना हों तो पूजा का अर्थ ही क्या !😊

क्रमशः

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9 रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 9 














ताना-बाना 
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन 








पूरी ज़िन्दगी रामायण
महाभारत की कथा जैसी होती है
समय का दृष्टिकोण
हर पात्र
हर स्थिति-परिस्थिति की व्याख्या
अपनी मनःस्थिति की आंच पर
अलग अलग ढंग से करता है ...
- रश्मि प्रभा
ताना-बाना एक व्याख्या है पल पल जिये एहसासों की, नज़र से गुजरते पात्रों की, शब्दों की, स्त्री पुरुष की,प्रकृति की, सप्तपदी की,मातृत्व की, तूफान के आसार की, मानसिक चक्रव्यूह की, अदृश्य शक्ति की ....
"क्या होगा कल बच्चों का ?
....
वही जो होना है"
यह जवाब झंझावात में वही देता है, जिसकी पतवार पर प्रभु की हथेलियों के निशान होते हैं, मृत्यु के खौफ़ से जो लड़ बैठता है ।
अब इसे जीने का सलीका कह लो, या अपनी आत्मा से मौन साक्षात्कार ।
तभी तो
"अंजुरी में संजोकर तुमसे
ढेरों प्रश्न पूछती हूँ"
और प्रत्युत्तर में तुम्हें
"निरुत्तर
निःशब्द ही देखना चाहती हूँ !"
प्रश्न तो अम्मा के लिए भी रहे, खुद अपने लिए, पर - अम्मा के होने का,अपनी परछाई के होने का एहसास मात्र सुरक्षा कवच सा रहा ...
"कभी लड़ नहीं पाई तुमसे
क्योंकि तुम्हारी ही परछाई थी मैं अम्मा ...
नहीं लड़ पाती मैं
आज भी
ख़ुद अपनी परछाई से
समेट लेती हूँ ख़ुद को
बस एक संभ्रांत चुप्पी में"
एक ख़ामोशी में जाने कितनी नदियों,सागर,महासागर की उद्विग्नता होती है ... समझा है क्या किसी ने, जो बोलकर अपना अस्तित्व खो दूँ !!!

क्रमशः

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 8 रश्मि प्रभा


23 जुलाई, 2020

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 8 






















धूप दिखाई दे न दे, उतरती है मन के घुप्प अंधेरे में, हौसला बांधती है ... कई छायाचित्र भविष्य के दिखाती है, कहती है - अगर ये हो सकता है, तो वह भी हो सकता है न !
वैसे,
"ये धूप भी पूरी
शैतान की नानी है !"
नहीं होती धूप समाज द्वारा निर्धारित सभ्य औरत ... खिलखिला उठती है ज़र्रे ज़र्रे में ।
"मेरी सैंडिल पहनती
पर्स से लेकर लिपस्टिक लगाती
गुड़िया को दुलराती ...
कितना उतावलापन होता
आंखों में"
धूप सी बेटियाँ पूरे आँगन में इक्कट दुक्कट खेलती रहती हैं ।
धूप सा मेरा मन ...
"हमें मिलना ही था
मेरे जुलाहे ! ... तभी तो,
मेरे होम का धुंआ
तुम्हारी तान में
लीन हो जाता है"
"अपना चरखा बन्द मत कर देना
कई पूनी कातनी बाकी हैं अभी"
.. .... कुछ दूर ही चलना है और ।

क्रमशः




ताना - बाना - मेरी नज़र से - 7 - रश्मि प्रभा

ताना - बाना - मेरी नज़र से - 7 

ताना-बाना 
उषा किरण 
शिवना प्रकाशन
















सत्य का रास्ता एक युद्धभूमि ही तो है, पर उसके सलीब पर सुकून ही सुकून होता है । शरीर से बहता रक्त अमरत्व है, 
-नीलकंठ की तरह ।

"सत्य बोलकर तुमने
अपनी सलीब खुद गढ़ ली थी ...
पत्थर मारने वाले 
अपने हमदर्द, अपने दोस्त थे !"

कवयित्री की कारीगरी लुप्त होने लगी थी, उलझे फंदों के निकट न रास्ता था, न उम्मीद । हंसते,मुस्कुराते अचानक समय की कालकोठरी में कैद होकर बहुत डर लगा,
पर ---,

"एक युग के बाद 
किसी ने आकर 
वह बन्द कोठरी अचानक खोल दी!"
बिल्कुल उस कारावास की तरह,जहाँ से हरि गोकुल की तरफ बढ़े ।

"धूल की चादर हटाते सहसा
वही महकता गुलाब दिखा
जिसे बरसों पहले मैंने
झुंझला कर
दफ़न कर दिया था..."

आह, सांसें चल रही थीं, सिरहाने के पास रखी मेज पर सपनों की सुराही रखी थी, अंजुरी भर सपनों को पीया और बसंत होने लगी ।
क्योंकि,
"सोच का स्वेटर
बचपन से बुना"
बेढब ही सही ---
"आदत है बुनने की
रुकती ही नहीं
-,बस ... बुने ही जाती है ।

कितने अनचाहे, चाहे, 
अनजाने, जाने, रास्ते मिले
किसी के आंसुओं में गहरे धंसी-फंसी,
कहीं बुझा चूल्हा देखा,
कहीं चीख,कहीं विलाप
कहीं छल, कहीं विश्वास ... न बुनती तो आज यहाँ न होती यह लड़की, जो पत्नी,माँ, नानी-दादी,...के दायित्वों को निभाते हुए,सपनों की सुराही से कड़वे-मीठे घूंट भरती गई, शब्दों के कंचे चुनती गई और बना दिया ताना-बाना .......

क्रमशः

सोमवार, 20 जुलाई 2020

ताना_बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 6



ताना_बाना”  — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा  6


रास्ते मुड़ सकते हैं
हौसले नहीं
वादे टूट सकते हैं
हम तुम नहीं ....
कोई ना थी मंजिल
न था कारवां
अजनबी सा लगता रहा
सारा जहाँ
कारवां खो सकता है
मंजिलें नहीं
राहें रुक सकती हैं
हम तुम नहीं ...
रात भर दर्द रिसता रहा
मोम की तरह पिघलता रहा
तुम जो आए जीने की चाह जग उठी
नाम गुम हो सकता है
आवाजें नहीं
रिश्ते गुम हो सकते हैं
हम तुम नहीं ...! ...महीनों का फ़लसफ़ा रहा यह ताना-बाना मेरी कलम से । टुकड़े टुकड़े पढ़ती गई, जीती गई - शब्द शब्द भावनाओं को, रेखाओं को ।
निःसंदेह, किसी एक दिन का परिणाम नहीं यह ताना-बाना । बचपन,यौवन,कार्य क्षेत्र, सामाजिक परिवेश, रिश्तों के अलग अलग दस्तावेज,क्षणिक विश्वास, स्थापित विश्वास, और आध्यात्मिक अनुभव है यह लेखन ।
कई बार ज़िन्दगी घाटे का ब्यौरा देती है और कई बार सूद सहित मुनाफ़ा -"बेटी तो आज भी
उतनी ही अपनी थी,
ब्याज में एक बेटा..."कुछ भी यूँ ही नहीं होता" प्रयोजन जाने बग़ैर हम अशांत हो उठते हैं, लेकिन कोई भी प्रयोजन एक मार्ग निश्चित करता है । जैसे कवयित्री का मार्ग दृष्टिगत है ..."हवा का झोंका
हौले से छूकर गुजर गया
...
सौगातें छोड़ गया"

क्रमशः


रविवार, 19 जुलाई 2020

"ताना- बाना”— मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 5


 घर घर खेलते हुए
धप्पा मारते हुए,
किसी धप्पा पर चौंक कर मुड़ते हुए,
कब आंखों में सपने उतरे,
कब उनका अर्थ व्यापक हुआ -
यह तब जाना,
जब एक दिन आंसुओं की बाढ़ में,
शब्दों की पतवार पर मैंने पकड़ बनाई
और कागज़ की नाव लेकर बढ़ने लगी
---...... यह ताना-बाना और कुछ नहीं, कवयित्री उषा किरण के मन की वही अग्नि है, जिसके ताप और पानी के छींटे से मैं गुजरी हूँ ।"एक कमरा थकान का
एक आराम का
.... एक चैन का !"जाना-,
कोई भी रिश्ता सहज नहीं होता, सहज बनाना होता है या दिखाना होता है ।"रिश्ते मिट्टी में पड़े बीज नहीं
जो यूँ ही अंकुरित हो उठे...""स्वयं अपने, हम हैं कहाँ ?
....सम्पूर्ण होकर भी
घट रीता !"फिर, बावरा मन या वह - कहती जाती है,"पकड़ती हूँ
परछाइयाँ,
बांधती हूँ गंध
पारिजात की !"उसे पढ़ते हुए मेरे ख्याल पूछते हैं, क्या सच में गंध पारिजात की या उस लड़की की जिसने परछाइयों को अथक बुना ...।

क्रमशः

शनिवार, 18 जुलाई 2020

"ताना- बाना” — मेरी नजर से—रश्मि प्रभा 4


                   
ज़िन्दगी को आकार में ढालते, तराशते हुए, हम जाने किस प्रयोजन के चक्रव्यूह में उलझ जाते हैं, निकलते हुए वह विराट कई सत्य प्रस्तुत करता है और सिरहाने रखी एक डायरी,एक कलम अनकही स्थिति की साक्षी बन जाती है और वर्षों बाद खुद पर जिल्द चढ़ा ... लिख देती है ताना-बाना ।
"वो जो तू है
तेरा नूर है
तेरी पनाहों में
मेरा वजूद है"

एहसासों के फंदों के मध्य एकलव्य भी रहा, एक अंगूठा देता हुआ,एक अपनी और द्रोण की जिजीविषा को अर्थ देता हुआ ...
और कोई,
अंगूठे को काटता हुआ ।

प्रश्नों के महासागर में डूबता-उतराता हृदय चीखता है,

"कहो पांचाली !
अश्वत्थामा को
क्यों क्षमा किया तुमने?"

"(नदी)
क्यूँ बहती हो ?
कहाँ से आती हो,
कहाँ जाती हो?"

मन की गति मन ही जाने ...
"बार-बार
हर बार
समेटा
सहेजा
संभाला
और ...
छन्न से गिर के
टूट गया !"

क्रमशः


खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...