ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

साँसों की कालाबाज़ारी

 

न्यूज़ पढ़ कर अंदर तक हिल गई हूँ। पहले पेशेन्ट के घरवालों से रेमडेसिविर का इंजेक्शन मंगाया जिसे घर वाले किसी तरह भारी दाम चुका कर लाए और कोविद वार्ड के कुछ कर्मचारियों ने उस पेशेन्ट को डिस्टिल वॉटर का इंजेक्शन लगा कर इंजेक्शन बेच कर जेब भर ली। परिणाम स्वरूप जवान बच्चे की डैथ हो गई। घरवालों ने जब हंगामा किया। रिपोर्ट लिखवाई,पड़ताल हुई तो सच्चाई सामने आई।और न जाने कितने सच अभी कटघरे में खड़े हैं ।

पता नहीं कितनी साँसें ऐसी कालाबाज़ारी की भेंट चढ़ गई होंगी। अब उस हॉस्पिटल में हंगामा है । जिनके पेशेन्ट वहाँ पर भर्ती हैं सोचिए उनका विश्वास डोल गया होगा, क्या हाल होगा उनकाऔर उनके परिवारजनों का ।

ऐसा नहीं है कि उस हॉस्पिटल के सारे डॉक्टर्स और वार्ड ब्वाय या मैनेजमेंट चोर ही हैं। बहुत प्रतिष्ठित हॉस्पिटल है । कोरोना पेशेन्ट का अच्छा इलाज हो रहा है।उसी हॉस्पिटल में न जाने कितने डॉक्टर्स, नर्स, सेवा कर्मचारी, मैनेजमेंट के लोग रात- दिन एक कर सेवा में लगे होंगे। वे अपने परिवार और खुद के स्वास्थ्य को भूल कर कोरोना से जंग में जुटे हैं । अनेकों पेशेन्ट्स को नित जीवन- दान दे रहे हैं और चन्द लोगों ने कुछ रुपयों के लालच में उस पर पानी फेर दिया। आज वे सब भी सन्देह के कठघरे में खड़े हैं। इसी का परिणाम है कि अपना सब कुछ झोंक देने वाले डॉक्टरों व सेवा- कर्मियों को भी लोगों की नफरत व हिंसा का शिकार होना पड़ता है।

सिर्फ़ एक हॉस्पिटल की बात नहीं न जाने कितने  हॉस्पिटल में ऐसे न जाने कितने लोग हैं जो साँसों की इस कालाबाज़ारी में आज लिप्त हैं ।

बताओ जरा ...किसी की साँसें चुरा कर की गई कमाई से क्या करोगे? जब तुम घरवालों को रोटी खिलाओगे, कपड़े लोगे या दारू पिओगे तब क्या जरा भी शर्म नहीं आएगी तुमको? देखना गौर से वो सब रक्तरंजित नजर आएगा तुमको। उनके घरवालों की चीखें सुनाई देंगी।परन्तु ये सब देखने के लिए जिस जमीर की जरूरत है वो भी तो बेच चुके हो तुम, तो क्या ही कहें...?

और कुछ लोग ऐसे पाए गए जिनकी तबियत इतनी ख़राब नहीं थी पर न जाने किस प्रभाव के जुगाड़ से आई सी यू  में ही जमे हैं। उनसे जबर्दस्ती बैड ख़ाली करवाये गये। जिनको ये परवाह नहीं कि तुमने जिस बैड को हथिया रखा है वो किसी होटल का रूम नहीं है उस पर किसी उस एक सीरियस पेशेन्ट का हक था जिसने अस्पतालों के चक्कर काटते- काटते सड़क पर ही एड़ियाँ रगड़ते दम तोड़ दिया। तुम ज़िम्मेदार हो उसकी मौत के ।

अभी न्यूज में देख रही हूँ कि एम्बुलेंस वाले मनमानी कीमत वसूल कर रहे हैं पेशेन्ट से।ऑक्सीजन सिलिंडर ब्लैक में बेचे जा रहे हैं ...इंसानियत मर गई है जैसे । 

ये किस टीले के गिद्ध हैं जो जिन्दा ही शरीरों से माँस नोच कर खा रहे हैं ।

घरवाले भी क्यों नहीं पूछते कुछ ? कैसी मोटी चमड़ी है भई ? जो भगवान से नहीं डरते...पर बेख़ौफ़ रहने से गुनाह तो समाप्त नहीं होते न ..याद रखना, देना होगा एक दिन सब कर्मों का हिसाब ।

दूसरी तरफ वो भी हैं जो रात देख रहे न दिन और कूद पड़े हैं जनसेवा में ...जिन्होंने  तन, मन , धन सब झोंक दिया है कोरोना के विरुद्ध इस साँसों की लड़ाई में। मेरा नमन हर उस योद्धा को ।🙏


फ़ोटो: गूगल के सौजन्य से

रविवार, 25 अप्रैल 2021

पाती राम जी को-


 जै राम जी  

पूजा कह रही हैं राम जी को चिट्ठी लिखो

हमने कहा नहीं मन हमारा

पूछ रही है क्यों भाई?

अब क्या बताएं क्यों?

सभी ने तो पुकार लिया

मनुहारें कीं, प्रार्थना कीं, 

क्षमा माँग ली

बताओ अब हम क्या कहें ?

कैसे बताएं कि हम जन्म के घुन्ने हैं तो हैं.

अब ऐसा ही बनाया आपने.

मन में लगी है भुनुर- भुनुर, तो क्या लिखें?

गुस्से और आँसुओं से कन्ठ अवरुद्ध है.

मतलब हद्द ही कर रखी है.

न उम्र देख रहे न कुछ, बस उठाए ही जा रहे हो

जैसे ढेला मार कर टपके आम हैं हम सब

`जेहि विधि राखे राम तेहि विधि रहिए’

बचपन से गा रहे- अब ऐसे रखोगे ?

हा- हाकार है चहुँ ओर...

शोर है- `त्राहि माम ...त्राहि माम’

अरे यदि आबादी ज्यादा लग रही

धरती पर बोझ हल्का ही करना है तो 

और तरीके हैं...कायदे से करो काम.

पहले वाला कोरोना बड़े- बूढ़ों को उठा रहा था

हमने कहा चलो ठीक है 

पर अब ये नया वाला मुँहझौंसा...

बच्चों,युवाओं को भी नहीं बख्श रहा राक्षस

अब हम क्या बताएं?

और इतने बलशाली असुर मारे तुमने

ये तनिक सा नहीं संभलता तुमसे कोरोना हुँह.

अब बहुत डाँट लिया हमने तुम्हें

ऐसा तो हमने कभी नहीं किया पर मजबूर हैं

ध्यान से सुनो हमारी सलाह-

ये सपना हम रोज देखते सोने से पहले 

बस वो ही पूरा कर दो-

सुना है एक वैक्सीन पर काम हो रहा

जो नाक में स्प्रे करते ही कोरोना उड़न छू

तो बस अब जल्दी ही उसी में टपका दो वो ही

जो हनुमान बाबा लाए थे न - संजीवनी 

बस एक दिन सोकर उठें और अख़बार में बड़ा- बड़ा छपा दिखे-

आ गई, आगई नेजल स्प्रे वाली दवाई

मिनटों में कोरोना उड़न -छू

लौट आए धरती की मुस्कान फिर

लौट आएं रुकती साँसें सबकी

थक गए न्यूज में भी कराह, लाशें, पीड़ा देख

कलेजा हर समय थरथराता है ..

डर लगता है अपनों के लिए

अब ये बात समझो और मानो

बाकी हम क्या समझाएं आपहि

तो इत्ते बड़े समझदार हो ...!

थोड़े लिखे को ज्यादा समझना

और जरा खबर लो अब सबकी.

सो कहाँ रहे हो ?

जाते हम अब.

सीता मैया, लखन भैया और 

हनुमन्त लला को प्रणाम कह देना

आपकी- अब जो है सो है ही

                          —उषा किरण 🙏


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मंगलवार, 20 अप्रैल 2021

हे शिव शम्भु...!

 



ये कैसी लीला त्रिपुरारी

ये कैसा ताँडव भोले

भयभीत हैं मन

आज असहाय हर जन

त्रस्त तन- मन !


पड़ी विपदा भारी

है कैसी ये मजबूरी

कोई भी साथ नहीं 

अपनों का काँधा भी

आज नसीब नहीं 


अस्पतालों में बैड नहीं 

मसानों में भी अब

 जगह बची नहीं 

सब हिम्मत हारे

बाँधे हाथ सब अपने

भीगी आँखों से 

मजबूर दूर खड़े निहारें


प्रसन्न हो आशुतोष 

रोको अपना डमरू

रोको अपना नर्तन

बन्द करो त्रिनेत्र

एक-एक साँस को

तड़पते मानव की

लौटा दो साँसें अब


हाँ...मानते हैं

हम हैं अपराधी

अब दया करो, क्षमा करो 

हे महेश्वर भूल हमारी

तुम्हारे ही इष्ट राम का वास्ता 

देती हूँ मैं तुम्हें


बाँधती हूँ आज 

होकर  विकल तुम्हें

रक्षासूत्र से-


"येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: 

तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल !!”


                                          —उषा किरण 🙏🙏

                               चित्र; गूगल से साभार

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

शरबती बुआ - (दहलीज से परे...! )






कह दो अंधियारों से 

कहीं और जाकर दें दस्तक 

अभी तो  दिए में तेल बाकी है

अभी तो लौ मेरी जगमगाती है...!!


मेरी उन आदरणीया पुरखियों की जिंदगी सदा ही फूलों की सेज पर बीती हो ऐसा नहीं है ....बड़े परिवारों के बीच रह कर उनके सामने भी अनेक बार  पराजय के, अपमान के , कलह या विपत्ति के पल आए।ऐसा भी नहीं कि जीवन मात्र  सुखों की छाँव में ही बीता, ऐसा भी नहीं कि परिवार के हर व्यक्ति का आचरण सदा सम्मानपूर्ण ही रहा। बहू-बेटियों व रिश्तेदारों से मुचैटा भी भरपूर रहा। रोग-शोक भी आए ...ये सब भी खूब झेला और झेल- झेल कर, तप के सोने सी खरी हुईं मजबूत हुईं।

गाँव-देहात में जो ब्याही गईं उनका जीवन तो और भी दुरूह था। पर बात ये है कि बावजूद इसके उन्होंने हार नहीं मानी ...जिजीविषा की लौ धीमी नहीं पड़ने दी। वे लड़ीं भी, पारिवारिक-राजनीतिक उठा-पटक की शिकार हो कभी हारीं तो कभी विजयी भी हुईं। कभी सही थीं तो कभी गलत भी सिद्ध हुईं बेशक ...लेकिन सलाम है उनको, जो उस सबको लेकर कभी मन से हारी नहीं, अवसाद में नहीं गईं। जो भी रास्ता मिला, वहीं से निकल लीं और अन्तत: उस जंजाल से मुक्त हो खिलखिला पड़ीं।

 ऐसी ही एक थीं हम सबकी प्यारी "शरबती बुआ !”

लगभग चार  फुट दस इंच की शरबती बुआ अस्सी साल की उम्र में भी किसी षोडशी सी फुर्तीली, किसी अजूबे से कम नहीं थीं।चेहरे पर झुर्रियों के मकड़जाल के मध्य उनकी  आँखें गजब की सजगता से भरी जुगनुओं सी चमकती थीं। अपनी शादी वाले दिन से लेकर आखिर तक वो मुझे एक सी ही दिखती थीं।

जब मैं शादी के बाद विदा होकर ससुराल आई तो अनजाना परिवेश , मेहमानों की भीड़ और खास कर भाँति-भाँति की आदरणीया बुढ़ियों की फौज से सहम गई। न जाने कितनी तरह की तो सासें- चचिया सास, मौसिया सास, फुफिया सास...और सबके अजीब- अजीब लाड़, बोलियाँ, उत्सुकता से भरे सवाल ! मैं घबराहट के मारे सबको अन्दर ही अन्दर तोलती रहती।

विदा होकर जब ससुराल पहुँचे तो सासु अम्माँ  ने अपने कमरे में लाड़ से बैठाया। हमारा अपना कमरा ऊपर था तो जब भी नीचे होती तो सासु अम्माँ के ही कमरे में हमें बैठाया जाता। सब वहीं नई दुल्हन को देखते, वहीं हमारा खाना- पीना, लाड़- प्यार, पूँछ- ताछ सब चलता।

वापिस घर जाकर छोटी बहन और भैया के साथ मिल कर फिर सासों के खूब नाम रख कर झौंस उतारी "हे राम कितनी तो बुढ़ियें हैं वहाँ और सारी सास ! झाडू वाली ...पान वाली...मोटी वाली...पेटू...बातूनी वाली सास।

अम्माँ ने सुना तो डाँट लगाई "उषा बहुत बुरी बात है ये...ऐसे नहीं कहते। बत्तमीजी नहीं इज़्ज़त से बात करो। बड़ी-बूढ़ी हैं घर की, ये क्या सीखा है तुमने ?” लेकिन छोटी बहन और भैया को बहुत मजा आ रहा था सुन कर।

सफेद सूती धोती का पल्लू लापरवाही से दाँएं कंधे से बाएं कन्धे पर डाल बुआ एक हाथ तेज-तेज हिलाते हुए जब सड़क पर तेजी से फर्राटे भरतीं झपाटे से चलतीं तो एक से एक जवान भी अगल- बगल छिटक कर परे हो जाते।उनका बिना दाँतों का पोपला सा मुंह सिकुड़ कर छोटा सा होकर चेहरे को एक कठोरता का भाव देता था।

बच्चे उनकी ठोड़ी पर हाथ लगा कर कहते- `बुआ आपकी शक्ल मदर टेरेसा से कितनी मिलती है !’तो वे बहुत खुश होकर पोपले  मुँह पर पल्लू रख कर हँसने लगतीं।

"अरे बालकों पढ़ी-लिखी होती तो मैं कोई यहाँ थोड़े होती मैं तो इंदिरा गांधी होती ...मेरी बुद्धि बहुत तेज है बावली न हूँ मैं !” आत्ममुग्ध हो वे फिर शुरु हो जातीं कि कब-कब, अच्छे-अच्छों का मुँह अपने वाक्- चातुर्य से बन्द कर दिया उन्होंने। कब किसकी सिट्टी- पिट्टी गुम कर दी।

उनको कभी भी कोई बीमारी नहीं हुई। दिल, गुर्दे, बीपी, शुगर सब दुरुस्त रहे ताउम्र।मुँह में उनके एक भी दाँत नहीं था मसूड़ों से ही रोटी को दाल या सब्जी में भिगो कर खा लेतीं पर नकली दाँत नहीं लगवाए।आँखें भी दुरुस्त थीं ।नब्बे - बयानवे साल तक जीं , पर कभी चश्मा भी नहीं लगाया।

अस्सी साल की उम्र में भी ऊर्जा का अखन्ड स्त्रोत बहता रहता मानो उनके भीतर।कभी भी थकती नहीं थीं।कभी किसी के साथ पराँठे बनवा रही हैं तो कभी किसी बच्चे के सिर में तेल ठोंक रही हैं।कभी बाजार से कुछ खरीद कर ला रही हैं तो कभी हमारी सास के साथ उनके कपड़ों की तह बनवा रही हैं।कभी बच्चों को पार्क ले जा रही हैं तो कभी बाबू जी के सिर में मालिश कर रही हैं ।

पार्क से लौटते समय पता नहीं क्या किस्से-कहानी सुनाती लातीं कि सारे बच्चे हंसते-खिलखिलाते, कूदते- फाँदते बुआ-बुआ करते लौटते।एक बार बेटी ने बताया कि वे रिश्तेदारों के या सड़क पर जा रहे कुछ जोकर टाइप लोगों पर बच्चों को हंसाने के लिए चुटकुले छेड़ती रहती थीं ।

हर इंसान का एक मूल स्वभाव होता है जो कभी भी बहुत नहीं बदलता। हो सकता है परिस्थितियों के कुहासे उनको ढंक लें पर उल्लास की धूप पड़ते ही वही असली रूप चमक उठता है। बुआ मूलत: चुलबुली, शैतान,हंसमुख स्वभाव की थीं। मायके आते ही वे किसी षोडषी सी खिल उठतीं। कभी फूफा के किस्से सुनातीं, तो कभी अपने पिता के जमाने में की गई शैतानियों की पोटली खोल कर बैठ जातीं।अपनी सास के किस्से जब वो एक्टिंग करके सुनातीं तो हम हंस-हंस कर लोटपोट हो जाते।

`ए बहू जब सादी हुई तो मैं छोटी सी तो थी। तो मेरी सास बोली कि बेटा सिर में बड़ो दर्द है रहो जरा मूड दबा दे। हमने कही आहाँ अभी लो दबाए देते हैं और हमने दबाते-दबाते बहू उनकी चुटिया में झुनझुना बाँध दओ । अब वे जब इधर सिर हिलाएं तो झुनझुना बोले छुन्न, उधर सिर हिलाएं तो बोले छुन्न। हमारी सास ने डंडा उठाया इधर को आ बताऊँ तुझे, मोसे मसखरी करे है। पर मैं कौन हाथ आने वाली बुढ़िया के ...एक छलाँग में बाहर और ये जा वो जा।” एक्टिंग करके उनके सुनाने के ढंग पर घर भर में हंसी की लहर दौड़ जाती।

मौके पर बुआ खिंचाई करने से किसी को नहीं छोड़ती थीं और भतीजे भी उनसे हंसी- मजाक करते मजा लेते ही रहते थे।

शादी- ब्याह में एक से एक गीत और नाच करती बुआ जरा नहीं थकती थीं। सबसे ज्यादा जोश उनमें ही दिखाई देता था। सारी रस्मों को बहुत मन से जोश के साथ करवातीं और बैठी सी आवाज में मौके दस्तूर के मुताबिक़ बन्ना, बन्नी, सोहर आदि लोक-गीत गाती जाती थीं।

मैंने कभी भी उनको सहजता से, शाँति से बैठे नहीं देखा। बैठे-बैठे भी सर्र-फर्र सा कुछ करती रहती थीं। हमेशा या तो किसी से बात कर रही होतीं या चकर-मकर गोल-गोल आँखों से तीक्ष्ण दृष्टि से निरीक्षण करती होतीं।कोई भी अपने को कितना भी तुर्रम खाँ समझे पर बुआ के सामने सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती, बुआ के सामने सब बहू- बेटियों की चाल भी सतर रहती कि न जाने कब, किसको,क्या कह दें।

शरबती बुआ यूँ तो जगत बुआ थीं, परन्तु वो दरअसल मेरे पति की बुआ थीं। जिनकी कम ही उम्र में खूब बड़े ज़मींदार घर में गाँव में ही शादी कर दी गई थी।अपनी शादी के किस्से सुनाना बुआ का मनचाहा शगल था।जब वे अपनी शादी के किस्से किलकते हुए सुनातीं तो उनके चेहरे पर हया, हास्य और वीरता के मिलेजुले आत्ममुग्धता के  भाव होते। चेहरे पर हल्की लालिमा आ जाती और हम सब भी मुग्ध होकर सुनते रहते।

शादी के बाद पहले मैं बुआ से बहुत ही काँपती थी, क्योंकि वे ठहरीं मुँहफट...साफ मुँह पर कह देती थीं जो मन में होता और हम थे थोड़े से नाजुकमिजाज। लेकिन जल्दी ही समझ में आ गया कि बुआ की जुबान ही सिर्फ़ कड़क है पर दिल तो मक्खन सा नर्म है।और बुआ को अपनी तारीफ़ करवाना बहुत पसन्द है। बुआ के साथ आधा -एक घंटा बैठ कर उनकी बातें सुन लो तो भी वो खुश हो जाती थीं। तो जल्दी ही बुआ को मैंने पटा लिया ।

वैसे तो बुआ को बातें करना ही बहुत पसन्द था लेकिन बुआ का मनपसंद टॉपिक होता था बुआ की शादी की चर्चा।मैं जानबूझ कर जिक्र छेड़ती " तो बुआ शादी में आपने तो फूफा को देखा था न पहले ? और बुआ शुरु हो जातीं-`अरी सादी में मैंने गुलाबी रंग का किमखाब का लहंगा पहना था। इतना सुंदर कि क्या बताऊं बहू । और ऐसे सिर  से ओढ़नी लेकर छोटा सा घूँघट निकाला तो मरी मेरी सब सहेलियाँ जल मरीं। ‘ बुआ अपनी सफेद धोती से घूँघट निकाल कर मुँह मटकाती बालिका वधू सी शरमाने लगतीं ।

'अरे बुआ तुम तो बहुत सुंदर लगती होगी  अब भी कौन कम हो ? अच्छा बुआ फिर क्या  हुआ ?’ मैं रस लेकर पूछती। चाहें कितनी भी बार सुन लो पर बुआ का भावपूर्ण एक्टिंग के साथ सुनाया विवाह- प्रकरण हमेशा बेहद मज़ेदार लगता और जिस दिन भी बुआ वो किस्सा सुनातीं उस सारे दिन वे बेहद खुश रहतीं। उनकी चालढाल और भाव बदले होते।

"अरी बहू मेरी बारात आई तो सोर मच गया शरबती का दूल्हा तो बड़ा ही सुंदर है। हमने पिताजी से कही भई हमें भी दिखाओ पहले, कैसा है दूल्हा? हम तो न करेंगे बिना देखे सादी। बस फिर क्या  ...पिताजी ने गोद में उठा कर दरवज्जे पे ले जाकर दिखाया-ले मौड़ी देख ले अपना दूल्हा ! अरी बहू के बताऊं कित्ते सुँदर , कित्ते मलूक तेरे फूफा...जे गोरा रंग, जे ऊंचा माथा, जे ऊँची खड़ी नाक ,जे काजल लगी बड़ी-बड़ी गोटी सी आँखें।ऐसे लगे जैसे कोई राजकुमार !”

बुआ मुग्ध भाव से अतीत में डुबकी मार सुना ही रही थीं कि पास से निकलते मेरे के पति ने सुन लिया और लगे छेड़ने -"अरे बुआ झूठ तो मत बोलो, फूफा तो काले थे नाक भी मोटी थी!’ 

"चल मरे तू तो पैदा भी न हुआ था तब...आया बड़ा चलके ...कितनो बन रहो है बहुरिया के सामने ...भाग यहाँ से !” वे हंस - हंस कर और छेड़ने लगे।

"अच्छा बुआ देखो मैं तुम्हारा कितना ध्यान रखता हूँ ,कोई नहीं रखता इतना।”

"हाँ सो तो है भैया तू प्यार तो करे है मोकौ!”

"हाँ, और क्या, तभी देखो मैंने कैसी खिन्नी खिलाईं तुमको !”उन्होंने हंस कर कहा।

"ओहो...पाँच साल पहले दस रुपये की खिन्नी खबाईं सो आज तक गा रहो है !” 

और बस ये सुर्री छेड़ वहाँ  से सरक लिए।  क्योंकि कोई  अगर छेड़ दे तो बुआ फिर इतनी उतारतीं कि सामने वाला भागता ही नजर आता।

एक दिन हमने पति से पूछा" ये खिन्नी का क्या किस्सा है जो कह कर तुम बुआ को छेड़ते रहते हो!” 

तो हंस कर बताया कि "बुआ ने एक बार  मंदिर ले चलने को कहा, तो मैं ले गया।रास्ते में कहा बुआ प्रसाद तो ले लो तो सामने खिन्नी बिकती देख बोलीं हाँ ये खिन्नी ले लो।मैंने कहा अरे बुआ खिन्नी कौन प्रसाद में चढ़ाता है ? पर बुआ तो अड़ गईं कि मैं तो खिन्नी ही चढाऊंगी । खैर मैंने ले लीं पर बुआ ने वो मन्दिर जाने से पहले ही रास्ते में सब खा लीं और ख़ाली मन्दिर में हाथ जोड़ कर आ गईं।” 

ऐसी ही थीं  हमारी बुआ मनमौजी।

सारे बच्चों को भी बुआ बहुत प्रिय थीं । जब भी वो आतीं तो हमारे संयुक्त परिवार के सारे बच्चे खुश हो जाते उनको बत्तख की तरह पंख फैलाते घेर कर जोर- जोर से चिल्लाते -"बुआ पार्क चलेंगे !”

"अरे हाँ-हाँ...ले चलूँगी साम को, तनिक साँस तो ले लूँ !” बुआ लाड़ से पोपले मुँह से  हंस कर कहतीं।

रोज शाम को सबको घेर कर पार्क ले जातीं। बुआ को भी बच्चों की तरह पार्क जाना बहुत प्रिय था, क्योंकि उनको बातों का बहुत शौक था। पार्क में वो प्राय: एक दो बुजुर्ग महिलाओं को पकड़ कर खूब रस ले लेकर बतियाती रहतीं और बच्चे खेलते रहते।दो चार घन्टे बाद बतकही से छक कर लौटतीं तो आगे-आगे कूदते उछलते बच्चे और पीछे-पीछे सतर्क तेज-तेज सतर चाल चलती बुआ।

आस-पास के घरों में उनकी एकाध सहेलियाँ भी थीं जिनके पास भी वे कभी- कभी मटरगश्ती को निकल जातीं और बहुत खुश होकर लौटतीं ।

बुआ बाबूजी को बहुत मानती थीं और बाबूजी भी इकलौती बहन का बड़ा लाड़ करते थे। दोनों  भाई- बहन घंटो बातें करते रहते।बाबूजी आवाज लगाते बैठक से " अरी शरबती आ जरा सिर में खुर-खुर कर दे !” बुआ दौड़ी- दौड़ी जातीं और उंगलियों से उनके सिर में मालिश करती जातीं और खूब बातें करतीं।बाबूजी को मानो वे अभी भी अस्सी की नहीं अट्ठारह की शरबती लगती थीं और बुआ भी उनको भैया- भैया कहतीं किसी किशोरी लाडली बहन सी बन जातीं।

बाबूजी के आखिरी वक्त जब वे मोहन नगर हॉस्पिटल में एडमिट थे। डायलिसिस चलती थी तब बुआ पूरे वक्त अस्पताल में उनके साथ रहीं। कितना भी मना करो पर वे नहीं मानती थीं। पति मना करते थे कि दो लोगों के सोने की व्यवस्था नहीं है पर  वे कैसे भी कष्ट से सो लेतीं पर साथ ही रहीं ।

फूफा की अच्छी-खासी कई गाँवों में ज़मींदारी थी। पर सब बताते हैं कि घर में बुआ की ही चलती थी। फूफा बहुत सम्मान करते थे उनका।ज़्यादा नहीं बोलते थे और निहायत शरीफ थे।एक ही बेटा था जो कुछ ख़ास नहीं पढ़ सका। लेकिन कई बीघों का मालिक होने के कारण जीवन में कोई कमी नहीं हुई। बेटा भी परम मातृ-भक्त था। फूफा को टी बी हो गई और लगभग पचपन साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। बुआ टूट गईं लेकिन हिम्मत नहीं टूटने दी।

सारी खेती-बाड़ी को मजबूती से अपने निर्देशन में बेटे के साथ मिलकर संभाला। साठ साल की उम्र में बेटे की भी  मृत्यु से गहरा आघात लगा। बहू, दो पोते उनकी बहुएं व उनके बच्चों के साथ बुआ घर -गृहस्थी में रमी रहीं। बाकी सभी बुआ का बहुत सम्मान करते थे पर छोटा पोता बहुत बत्तमीज और उद्दंड निकला। बुआ लगभग नब्बे साल की हो गई थीं हौसला भी कुछ थक गया था।

एक दिन कुछ झगड़े के बाद नाराज होकर बैग में कपड़े रख कर हम लोगों के पास निकल आईं।हम लोगों से कह-सुन कर मन हल्का किया तो हम लोगों ने कहा आप यहीं रहो हमारे पास।कुछ दिन वे दुखी रहीं फिर जल्दी ही बुआ अपने पुराने स्वरूप में वापिस आ गईं।दो महिने बाद उन्होंने जाने के लिए कहा भी तो हम लोगों ने रोक लिया।

सर्दी आ गई थीं ओर बुआ गर्म कपड़े साथ नहीं लाईं थीं तो घर जाने के लिए फिर कहने लगीं हमने कहा इतनी क्या जल्दी है बुआ और रुको कुछ दिन हमारे पास। हम लोगों का भी मन लगता है।मैं बुआ को बाजार ले गई और उनको कुछ गर्म कपड़े और दो  धोती भी दिलवाईं। बुआ बहुत खुश थीं सारे दुकानदारों से बता रही थीं ' अरे बहू है ये हमारी, बहुत प्यार करती है, तो कपड़े दिलवाने लाई है ,बड़े कॉलेज में प्रॉफेसर है ये भी बताना नहीं भूलती थीं।

फिर मैं मिठाई की दुकान पर ले गई। बुआ को मीठा बहुत पसन्द था तो कुछ मिठाई उनकी पसन्द की दिलवाईं और उन्होंने कुछ रेवड़ी भी लीं जिन्हें वो मुँह में डाल कर टॉफी की तरह चूसती रहती थीं । वहाँ भी वही बताया सबको कि "बहू है हमारी...!”

लगभग छह  महिने  रह कर बहुत रोकने पर भी बुआ चली गईं। कुछ बहुत जरूरी काम है कह कर। जाते-जाते मैंने  वादा लिया कि वो काम निबटाते ही वापिस आ जाएंगी। 

लेकिन ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। जाने के आठ ही दिन बाद बुआ को भयंकर डायरिया हुआ और उन्होंने अपने घर-आँगन में आखिरी साँस ली। खबर सुन कर हम सब सन्न रह गए। पता चला आखिरी समय में बुआ ने मुझे ही याद किया था।  किसी ने कहा भी कि उनको खबर भेज दो पर तब तक बुआ महाप्रस्थान कर गईं। बुआ के आकस्मिक निधन की खबर ने हम सबको सन्न कर दिया था।

जब मैं बुआ को कपड़े दिलवा रही थी तब मुझे क्या पता था कि ये मैं उनकी आखिरी विदाई की तैयारी  कर रही हूँ...बुआ को उन्हीं कपड़ों में आखिरी बार विदा किया गया।

आज जब भी कभी परिवार-जन एकत्रित होते हैं और बुआ को याद करते हैं तो सबके मुँह पर हंसी और प्यार ही होता है और होते हैं उनके बहुत मजेदार किस्से। दुख जीवन में बहुत आए पर बुआ ने अपना आनन्दी स्वभाव नहीं खोया। फूफा व बेटे की बीमारी, उनकी मौत और जीवन में आईं एक भी परेशानी का जिक्र करते मैंने तो उन्हें कभी भी नहीं सुना।उन्होंने हमेशा ख़ुशियाँ ही बाँटीं सबसे। प्यार करना और सबसे प्यार पाने को ही हमेशा तत्पर रहीं।बुआ का गुस्सा भी कम नहीं था, तो पूरी दबंगई से जीवन जिया।

पार्क ले जाने वाली, परियों और राजकुमार व राक्षस की कहानी सुनाने वाली बुआ को बच्चे भी बहुत दिनों तक याद करते रहे.. अज भी करते हैं ।उनसे हमने कहा बुआ तारा बन गईं तो छोटे बच्चे बहुत दिनों तक आसमान में तारों के बीच तारा बनी अपनी प्यारी बुआ को तलाशते रहते ।

जाने के बाद भी बुआ हमारे दिलों में आज भी बसती हैं....नमन हमारी ऐसी प्यारी शरबती को  बुआ को 🙏

                                       क्रमश:

                                                       .. उषा किरण 

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

दहलीज से परे...!




बेशक ...

उनके पाँवों के नीचे 

ज़मीनें संकरी थीं

और सिर पर

सहमा सा आसमाँ

छाया था चहुँओर 

तिमिर घनघोर 

पथ अनचाहा

राह अनजानी

पर उनके पास पंख थे

मज़बूत हौसलों के

और हाथ थी 

हिम्मत की मशाल

उनके पद-चापों की 

धमक से

हारते गए अँधियारे

खुलते गए रास्ते

क्षितिज रंगते गए 

सतरंगी रंगों से

देखो गौर से वहाँ अब

उड़ते हैं सुनहरे पंछी 

गाते जीत का मधुर गान...!!


जब भी स्त्री विमर्श की बात होती है । 

स्त्रियों के अधिकारों, उत्पीड़न, अस्मिता, शोषण व सम्मान की बात होती है।और जब भी पढ़ी -लिखी, नौकरीपेशा महिलाएं भी जब अपने उत्पीड़न की ,विवशता की बात करती हैं तो मुझे सर्वप्रथम अपने जीवन में आईं कुछ बेहद सशक्त परिवार की ही कुछ बुजुर्ग महिलाओं की याद आती है जो स्त्री सशक्तीकरण का जीवन्त उदाहरण रहीं। और उनका साहस मुझे सदैव ही अचम्भित करता रहा।


उन्होंने आजन्म कभी किसी की ज़्यादती और धौंस-धपट बर्दाश्त नहीं की।अपने हौसलों की मशाल की रोशनी में मस्तक ऊँचा कर वे हर बाधा पार कर दृढ़ कदमों से चलती रहीं और अन्तत: विजयी हुईं। मजाल है कोई भी उनका किसी  तरह का शोषण करने की सोच भी सके या उनके सामने किसी तरह की बेअदबी कर सके ।


उन्होंने अपनी जिंदगी शान से जी और पूरी गरिमा से जीवन यात्रा सम्पन्न कर आज भी हम सबकी स्मृतियों में न केवल आदर व श्रद्धा की पात्र हैं अपितु अनुकरणीय भी हैं ।


बेशक वे पढ़ी- लिखी नहीं थीं, नौकरी या व्यवसाय नहीं करती थीं।परन्तु बुद्धिमत्ता, आत्मविश्वास और साहस में किसी से भी रत्ती भर भी कम नहीं थीं। आज हम और हमारे बच्चे बहुत गर्व और प्यार से याद करते हैं उन्हें ।


उनमें से कुछ आदरणीय कम उम्र में ही विधवा हो गईं। परन्तु हिम्मत न हार कर पाँच ,सात बच्चों को , घर- गृहस्थी व खेती-बाड़ी को भी आजन्म पूरे सम्मान व गरिमा से खूब संभाला। बच्चों को काबिल बनाया। बहुओं व बेटों को पूरे अनुशासन में रख कर परिवार में सामन्जस्य बनाए रखा तो पोते- पोतियों को भी संस्कार व अनुशासन की घुट्टी पिलाई। वक्त के साथ भरे- पूरे परिवार में सामन्जस्य स्थापित करके तीन पीढ़ियों को पूरी जिजीविषा से साथ लेकर चलीं।


इसी संदर्भ में मुझे याद आती हैं इसके विपरीत कोई पैंतालिस साल पहले बुलन्दशहर के हमारे मकान मालिक गर्ग साहब की बहन `शैलजा रस्तोगी’की।जो कि किसी डिग्री कॉलेज में प्रिंसिपल थीं। शादी के साल दो साल बाद ही पति की मृत्यु के बाद उन्होंने किसी तरह खुद को और बेटी को संभाला, प्राचार्या बनीं , लेकिन हमेशा एक चुप्पी सी घेरे रहती थी उनको। कभी भी हमने उनको हंसते-बोलते,मुस्कुराते नहीं देखा।वे बेहद खूबसूरत अपनी बेटी को खूब सजा संवार कर रखतीं। सभी बच्चों में वो अलग व विशेष दिखाई देती थी।


धीरे-धीरे उषा रस्तोगी गहन अवसाद की शिकार हुईं, फिर टी.बी. ...और दस साल की बेटी को छोड़कर हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं...हार गईं जिंदगी की जंग।बाद में सुना जो बेटी राजकुमारियों सी पल रही थी बाद में धनलोलुप रिश्तेदारों के हाथों बहुत दुखमय जीवन बिता कर एक बेहद साधारण पति व घर में ब्याह दी गई। हारी हुई हिम्मत और हौसला खुद के ही लिए नहीं बच्चों व परिवार के लिए भी कई बार अभिशाप बन जाता है।


इसी तरह याद आता है मेरे एक परिचित का बेटा मयंक जो आई आई टी कानपुर से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके भी कभी कोई जॉब नहीं कर सका।पिता के पैसों से कई बिजनेस शुरु करके लाखों रुपये डुबो कर अब कुंठित हो सारे दिन घर- बाहर झगड़े करना और सबसे बत्तमीजी का आचरण करना मात्र उसकी जिंदगी का मकसद रह गया है। क्या इतने बढ़े संस्थान की डिग्री उसकी विद्वता साबित कर सकी ?


खैर ....जब मैं अपने परिवार की उन बुजुर्ग महिलाओं के बारे में सोचती हूँ कि उनकी इस हिम्मत’ हौसले और दृढ़ता के पीछे कारक क्या थे ? तो मुझे समझ आता है कि कोई जरूरी नहीं कि हर पढ़ा- लिखा, बड़ी डिग्री हासिल करने वाला व्यक्ति हर तरह से बुद्धिमान भी हो और उसी तरह से ये भी ज़रूरी नहीं कि हर अनपढ़ या कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति निपट मूर्ख ही हो। हो सकता है उसमें पढ़े- लिखे व्यक्ति से ज्यादा वाक्- चातुर्य हो, ज़्यादा व्यवहारिक बुद्धि हो, ज़्यादा सहनशीलता हो, वो प्रत्युत्पन्नमति ज्यादा हो, बेहतर निर्णायक-क्षमता, बेहतर व्यवहारिकता, धैर्य और सहनशीलता हो।


बुद्धिमत्ता का दायरा तो बहुत विस्तृत है आप उसको मात्र डिग्री या परीक्षा में प्राप्त नम्बरों से नहीं आँक सकते।कम पढ़े- लिखे व्यक्ति भी कई बार कई क्षेत्रों में सफलता के झंडे गाढ़ देते हैं और दूसरी तरफ कुछ खूब बड़े ओहदों पर स्थापित, करोड़ों सम्पत्ति के मालिक होकर भी सब संभालने में असमर्थ साबित होते हैं। जीवन में आई थोड़ी सी असफलता या पराजय न सह कर  निराशा व अवसाद के सागर में डूब जाते हैं ।


प्राय: हमारी एक बीमारी होती है कोई क्या कहेगा और सबसे भलाई लूटने की चाह। इस कामना में वैसे तो कोई बुराई भी नहीं है, परन्तु एक सीमा तक ही ये परवाह उचित है।कई बार हमें बोल्ड होकर इन बातों की परवाह न करते हुए आगे बढ़ कर, परम्पराओं से परे भी निर्णय लेने की हिम्मत होनी चाहिए बशर्ते हमारे अंदर न्यायबुद्धि व तर्कसंगत बुद्धि से निर्णय लेने की क्षमता हो। 


मेरी दादी को मैंने कभी नहीं देखा।वे हम भाई- बहनों के जन्म से पहले ही स्वर्गवासी हो चुकी थीं। मेरे दादाजी की डैथ के समय पापा छह महिने के थे दोनों ताऊ जी, बुआ भी छोटे थे दादी ने सबको संभाला, पढाया- लिखाया, शादी की, कामगारों के साथ खेती- बाड़ी भी संभाली। इतना ही नहीं वे इतनी दबंग व बुद्धमति  थीं और उनमें इतनी ठसक थी कि गाँव के झगड़ों- टंटों में भी सरपंच की भूमिका के लिए बहुत आदर से बुलाई जाती थीं और वे जो फैसले करती थीं वह सबको मान्य होते थे। मेरी मामी, नानी व ननद आदि भी ऐसी ही दबंग महिलाएं थीं।


वे साहसिक महिलाएं स्त्री- विमर्श या किसी भी तरह के विमर्श के  बारे में नहीं जानती थीं और न ही उनको जानने की जरूरत थी।बस मजबूत इरादे,  बुलन्द हौसले और खुद पर विश्वास ही उनके हथियार थे।


 तो मैं कुछ ऐसी ही अपने परिवार की उन बिंदास व ओजस्वी महिलाओं को याद करूँगी जो अतीत के सीने पर छोड़ गई हैं कुछ सशक्त हस्ताक्षर...कल जो मजबूत स्तम्भ रहीं अपने परिवार की और आज भी जिनके छोड़े रौशन पदचाप हमें राह दिखाते हैं।


  तो सर्वप्रथम श्रद्धा सुमन अर्पित शरबती बुआ को....!!🙏

                                                                                              

                                                क्रमश:

                                                                      - उषा किरण


चित्र; `दहलीज से परे ‘ 

( मिक्स मीडियम)

           -उषा किरण




                                                                                             

                                                                                           -

बुधवार, 7 अप्रैल 2021

पाती ताताजी के नाम



                          

 आज ताताजी का जन्मदिन💐💐💐


पूज्य ताताजी 🙏


याद करती हूँ जब भी आप को तो स्मृतियों में मोंगरा  महक उठता है। आप सुबह ही क्यारी से मोंगरे  के फूल तोड़ कर तकिए के पास या मेज पर रख लेते थे...महकता रहता सारा दिन आपका कमरा।


आज तक ये रहस्य हम नहीं समझ पाते हम कि वो आपकी चादर,कपड़ों,से दिव्य महक कैसे आती थी । आप कपड़े धोने को देते तो हम नाक लगा कर सूँघते कि ये पसीना इतना कैसे  महकता है  हम हैरान होते ..सच में दिव्य पुरुष ही थे आप !


बहुत सोच समझ कर कम ही बोलते थे। बेहद नफ़ासत पसन्द व्यक्तित्व था आपका। आपके  बोलने, चलने,खाने- पीने , हंसने सभी में आभिजात्य झलकता।


मुझे याद है आपके पास कम ही कपड़े होते थे पर उस समय भी ब्राँडेड शर्ट ही पहनते थे । कपड़ों को इतना संभाल कर पहनते कि वो दसियों साल चल जाते ।


आपके जाने के बाद इतने कम कपड़े थे कि उनको बाँटने में कोई परेशानी नहीं हुई मुझे ।मैं अक्सर बेटी से कहती हूँ कि मेरे बाद तुम्हारी हालत खराब हो जाएगी बाँटते- बाँटते ।


  बैडशीट में एक भी सिलवट हो तो वे सो नहीं सकते थे । नौकर-चाकर होने पर भी अपनी बैडशीट  खुद बिछाते और फिर सेफ्टिपिन्स से चारों तरफ से खींच कर पिनअप कर देते । कभी जब शीट गन्दी देख अम्माँ  बदलतीं तो पिन निकालते- निकालते भुनभुनाती रहतीं।ये जीन्स मेरे बेटे में अपने नाना जी से आए  हैं । बचपन से ही वो भी उठ-उठ कर चादर की सिलवटें निकालता रहता है।


आप भागलपुरी चादर सिर से पैर तक तान कर सोते थे । बेटी मिट्ठू जब  छोटी थी और जब मैं घर जाती  तब चुपके से वो आपकी चादर खींच कर उतार लेती और लेकर भाग जाती ।उसे आपकी चादर का सॉफ्ट टच और खुशबू बहुत भाती थी । नाक लगा कर सूँघती, गाल पर लगा कर कहती `ममा कितना सॉफ्ट- सॉफ्ट!’ जब मैं वापिस मेरठ लौट रही थी पैकिंग करते समय आपने वो चादर मुझे देकर कहा`रख लो बेटी मिट्ठू को बहुत पसंद है ‘कहते आपका चेहरा ममता और भावुकता से भीग गया था आपमें बहुत ममत्व था।


         बस एक रोटी ,दो चम्मच चावल ही खाते थे । अम्माँ जब आपकी थाली लगातीं तो लगता जैसे ठाकुर जी का भोग लगा रही हों कपड़े से पोंछने के बाद अपनी धुली सूती धोती के पल्लू से भी एक बार पोछतीं फिर रच- रच कर अपने हाथ का  अमृततुल्य स्वादिष्ट भोजन बिना हड़बड़ी के बहुत धैर्य से लगातीं ।छोटी सी कटोरी में एक चम्मच घी और एक छोटी कटोरी में ताजी सिल पर पिसी चटनी भी रखतीं । उनको थाली लगाते हम बड़े मनोयोग से देखते फिर हमें बहुत संभाल के थमातीं  कहीं जरा भी कोई छींट या बूँद न रहे ये ध्यान रखतीं हम लोग भी बहुत साध कर उनकी टेबिल तक ले जाते ।


आप कभी डाँटते नहीं थे हम लोगों को । बस अम्माँ से कहलवा देते जो बात पसंद नहीं आती  थी। मुझसे गल्ती बहुत होती थीं जाने ध्यान कहाँ-कहाँ उड़ा रहता ।कभी बर्तन तोड़ देती , कभी कुछ बिखेर देती कहीं कुछ छोड़ आती ।मेरी गलती पर `पूरी फिलॉस्फर हो तुम ‘इतना ही कहते । 


छोटी बहन निरुपमा खूब पटर- पटर बोलती थी ।वो बहुत लाडली थी । जैसे ही आप ऑफिस से आते चेंज कर कॉफी पीते सारे दिन के सब समाचार सुनाने बैठ जाती।कहते `आओ भाई सेक्रेटरी क्या खबरें हैं ‘और बस वो शुरु...।


मेरी और सब भाई- बहनों की उपलब्धियों पर जी भर कर सराहते ।जब भी मैं कोई पेंटिंग बनाती तो शाबाशी भी देते । कोई कहानी या कविता छपती तो बहुत खुश होते थे। पता नहीं क्यों मैं पहले जब कुछ बड़ी हुई तो डरती थी आपसे ।फिर सब डर निकल गया जब अम्माँ ने आपको  बताया तो आप मुझसे ज्यादा बातें करने लगे ।प्राय: हम भाई-बहनों को कभी-कभी खुद पढ़ाते भी थे ।


         इतने कड़क अफसर ...पर फिल्म देख कर कोई इमोशनल सीन आने पर चुपके से रोते थे खास कर माँ का कोई सीन होता तो। हमने दादी को नहीं देखा पर उनके लिए जो श्रद्धा थी ...भक्ति थी आपके मन में वो हमने देखी।


आपकी और देवानन्द की जन्मतिथि एक ही थी जब आप ये बताते तो मैं कहती यदि वो थोड़ा ग्रेसफुल होता तो वो आप जैसा दिखता...इस पर कितना हंसते थे।


जब कभी मुझे कॉलेज छोड़ने जाते तो मेरी फ्रैंड पूछतीं वो भाई थे तुम्हारे? मैं बताती तो यक़ीन नहीं करती थीं ।क्योंकि आप स्मार्ट और उम्र से बहुत यंग लगते थे।


आप हमेशा टिप- टॉप रहते। सन्डे में भी नहा धोकर  अच्छे से तैयार होते। सारे दिन न्यूज सुनते । प्राय: बी बी सी न्यूज सुनते और कैप्सटन के पेपर व तम्बाकू से सिगरेट बना कर सिगरेट - केस में रखते जाते ।बचपन में मैं और भैया एक दो  पार कर लेते और छिपा कर सुट्टे लगाते कभी- कभी और सोचते थे आपको पता नहीं चलता होगा पर आपको पता होता था ये मुझे शादी के बाद बताया तो मैंने पूछा आपको कैसे पता चलता था बोले मैं गिन कर रखता था । आज तक ताज्जुब है कि आपने कभी कुछ नहीं कहा बचपन में। शायद भरोसा था  और ये बच्चों की शैतानी है ये समझते थे।


हम लोगों को जब भी बुखार आता तो दवा देना, थर्मामीटर लगाना,सिर पर पट्टी रखने का काम आप ही करते थे कितना परेशान हो जाते हमारी तकलीफ देख कर।


             हम नैनीताल या मसूरी घूमने जाते तो थकने पर चढ़ाई पर बारी- बारी से हम चारों को गोद में उठा लेते कुछ- कुछ देर के लिए।छुट्टियों में कभी नैनीताल, मसूरी शिमला ले जाते क्योंकि पहाड़ बहुत पसंद थे और कभी गाँव में ताऊजी ताईजी के पास जहाँ हम जम कर मस्ती करते और आप लखनवी कुर्ता और धोती पहन दोस्तों से जब मिलने निकलते तो आपका वो रूप कितना बेफिक्र , भव्य होता ।गाँव में भी लोगों की बहुत मदद करते थे बहुत इज्जत और प्यार करते थे वहाँ सब आपकी ।हम जहाँ से निकलते सब कहते `अरे बे सन्त की लली हैं ऊसा ?’


हम तीनों बहनों को लेकर आप बहुत संवेदनशील थे । अम्माँ बताती हैं मैं सबसे ज्यादा जिद्दी थी बहुत रोती और रोती तो रोती ही चली जाती जोर -जोर से।अम्माँ सहायकों  को कहतीं 'साहब के पास ले जा उठा कर ‘और मैं आपके पास जाते ही चुप हो जाती ।अम्माँ को ही सुनना पड़ता कि वो मेरा ध्यान नहीं रखती हैं।आप अक्सर कहते `उषा बिल्कुल मुझ पर गई है मैं भी बहुत जिद्दी था।’


बेटी मिट्ठू जब हुई तो मैं एक महिने की होते ही ग़ाज़ियाबाद अपने घर आ गई थी। बहुत सुबह ही अम्माँ के उठने से भी पहले मिट्ठू को उठा कर अपने रूम में ले जाते और कह जाते `अब तुम सो लो आराम से ‘ सबसे कहते शोर मत करना वो सो नहीं पाई होगी रात में। और सारी रात की जागी मैं दो तीन घंटे खूब चैन से सो पाती पैर पसार कर ।


नाम भर के नहीं आप सच में `सन्त ‘थे ताताजी ।आप कृष्ण के परम् भक्त थे अंतिम समय में , कोमा में जाने से पहले तक भी  निर्विकार रूप से"ओम् नमो भगवते वासुदेवाय” का जाप कर रहे थे कितना दुर्लभ है पूरा जीवन ऐश्वर्यशाली जीवन जीने के बाद अंत समय यदि स्मरण रहे प्रभु नाम और बाकी कुछ भी ममता बाकी न रहे।


हमारा सौभाग्य कि हम आपके बच्चे थे । कितना कुछ लिखना चाहती हूँ पर ज़्यादा नहीं लिख पाती बहुत तकलीफ़ होती है लिखे बिना भी बेचैनी होती है बहुत...।आपके हिस्से का एक जगमगाता आकाश बसता है मेरे अंदर  आज भी।


आज आपके  जन्मदिवस पर हमारा शत- शत नमन ...🙏! यदि अगला जन्म हो तो आपके आस- पास ही रहें हम ।आप जहाँ कहीं हों हमपर आशीर्वाद बनाए रखिएगा.....ईश्वर से प्रार्थना है कि आपकी आत्मा को शाँति प्रदान करें और अपने चरणों में स्थान दें 🙏 !!


                    आपकी फिलॉस्फर बेटी🙏😔💐





शनिवार, 27 मार्च 2021

जब फागुन रंग झमकते थे



#जब_फागुन_रंग_झमकते_थे


बचपन की मधुर स्मृतियों में एक बहुमूल्य स्मृति है अपने गाँव औरन्ध (जिला मैनपुरी) की होली के हुड़दंग की। जहाँ पूरा गाँव सिर्फ चौहान राजपूतों का ही होने के कारण सभी परस्पर रिश्तों में ही बँधे थे इसी कारण एकता और सौहार्द्र की मिसाल था हमारा गाँव ।


प्राय: होली पर हमें पापा -मम्मी गाँव में ताऊ जी ,ताई जी के पास ले जाते थे। बड़े ताऊ जी आर्मी से रिटायर होने के बाद गाँव में ही सैटल हो गए थे। होली पर प्राय: ताऊ जी की तीनों बेटिएं भी बच्चों सहित आ जाती थीं और दोनों दद्दा भी सपरिवार आ जाते। छोटे रमेश दद्दा भी हॉस्टल से गाँव आ जाते। 


हवेलीनुमा हमारा घर पकवानों की खुशबुओं और अपनों के कहकहों से चहक-महक उठता ।आहा ...गाँव जाने पर कैसा लाड़ - चाव होता था !याद है बैलगाड़ी जैसे ही दरवाजे पर रुकती तो हम भाई-बहन कूद कर घर की ओर दौ़ड़ते जहाँ दरवाजे पर बड़े ताऊ जी बड़ी- बड़ी सफेद मूँछों में मुस्कुराते कितनी ममता से भावुक हो स्वागत करते दोनों बाँहें फैला आगे आकर चिपटा लेते  "आ गई बिट्टो !”ताई अम्माँ मुट्ठियों में चुम्मियों की गरम नरमी भर देतीं ।दालान पार कर आँगन में आते तो छोटी ताई जी भर परात और बाल्टी पानी में बेले के फूल डाल आँगन में अनार के पेड़ के नीचे बैठी होतीं। हम बच्चों को परात में खड़ा कर ठंडे पानी से पैर धोतीं बाल्टी के पानी से हाथ मुंह धोकर अपने आँचल से पोंछ कर हम लोगों को कलेजे से लगा लेतीं। 


छोटी ताई जी बहुत कम उम्र में ही विधवा हो गई थीं ...ताऊ जी आर्मी में थे जो युद्ध में शहीद हो गए थे ...वे गाँव में रहतीं या फिर हमारे साथ कभी -कभी रहने आ जातीं और हम सब पर बहुत लाड़-प्यार लुटातीं।परन्तु हम पर उनका विशेष प्यार बरसता था ।आँगन में लगे नीबू का शरबत पीकर हम सरपट भागते। मिट्ठू को पुचकारते, तो कभी गोमती गैया के गले लगते। कभी कालू को दालान पे खदेड़ते ...दौड़ कर अनार अमरूद की शाखों पर बंदर से लटकते..हंडिया का गर्म दूध पीकर, चने-चबेने और हंडिया की खुशबू वाले आम के अचार से पराँठे ,सत्तू खा-पी कर बाहर निकल पड़ते उन्मुक्त तितली से ।


रास्ते में बहरी कटी बिट्टा के आँगन में लगे अमरूदों का जायजा लेते...बिट्टा बुआ के घर के सामने से डरते -डरते भाग कर निकल ,अपनी सहेली बृजकिशोर चाचाजी की बेटी उषा के पास जा पहुँचते।चाचा-चाची से वहां लाड़ लड़वा कर  उषा के साथ और सहेलियों से मिलने निकल जाते। 


रास्ते में मोहर बबा,चाचा,ताऊ लोगों को नमस्ते करते जाते...'खुस रहो अरे जे सन्त की बिटिया हैं का ...? अरे ऊसा -ऊसा लड़ पड़ीं धम्म कूँए में गिर पडीं हो हो हो ‘गंठे बबा ’देख जोर से हँसते -हँसते हर बार कहते।”


गाँव की चाचिएं, ताइएं ,दादी लोग खूब प्यार करतीं ,आसीसों की झड़ी लगा देतीं और हम आठ-दस सहेलियों की टोली जमा कर सारे गाँव का चक्कर लगा आतीं, साथ ही पक्के रंग , कालिख, पेंट का इंतजाम कर लौटते वापिस घर ।


पापा नहा-धोकर अपने झक्क सफेद लखनवी कुर्ते व मलमल की धोती में सज सिंथौल पाउडर से महकते मोहर बबा की चौपाल पर पहुँचते, जहां उनकी मंडली पहले से ही उनके इंतजार में बेचैन प्रतिक्षारत रहती क्योंकि खबर मिल चुकी होती कि ' सन्त’ आ रहे हैं ।


पापा अपनी अफसरी भूल पूरी तरह गाँव के रंग में रंग जाते परन्तु उनकी  नफासत उस ग्रामीण परिवेश में कई गुना बढ़ कर महकती। हमें पापा का ये रूप बहुत मजेदार लगता था ।उधर अम्माँ  हल्का घूँघट चदरिया हटा जरा कमर सीधी करतीं कि गाँव की महिलाओं के झुंड बुलौआ करने आ धमकतीं। सबके पैर छूतीं ,ठिठोली करतीं,हाल-चाल पूँछतीं अम्माँ का  भी ये नया रूप होता ।


अम्माँ की  भी गाँव में बहुत धाक थी। वे पहली बहू थीं जो पढ़ी-लिखी , सुन्दर तो थी हीं लेकिन इतने बड़े अफसर की बिटिया और अफ़सर की ही बीबी होने पर भी ज़रा भी गुमान नहीं था उनके अन्दर। वो पहली बहू थीं जो ब्याह कर आईं तो हारमोनियम पर गाना गाती थीं।उनके गुणों का बखान बड़ी- बूढियाँ खूब करती थीं ।


 वे गाँव में बहुत आदर-प्यार देती थीं सबको ।

गाँव की कई खूसट मुँहफट बुढ़िएं कुछ भी कह देतीं मुँह पर -

" हैं सन्त की बहू खूब मुटिया गईं अबके तुम,लल्ला हमाओ सूख रहो है...हैं काए  कुछ खबाती पिबाती नहीं का !”

" कहाँ जिज्जी !का बताएँ ज़िज्जी हम ही पी जाते हैं सारा घी लल्ला तुम्हारे को तो सूखी रोटी खिलाते हैं !” 

अम्माँ खूब हंस कर जवाब देतीं कभी मुँह नहीं बनाती थीं । 


एक थीं मुँशियाइन आजी जो शक्ल से ही बहुत खूँसट लगती थीं हमें । हम उनको दूर से देख कर ही पलट लेते थे। जब हाथ लग जाते तो बिना सुनाए बाज न आतीं -

"ए बिटिया अम्माँ तुमाई तो कित्ती सुन्दर रहीं...जे सुर्ख लाल टमाटर से गाल और नागिन सी जे लम्बी चोटी...बापऊ इतने सुन्नर हैं तुम किन पे पड़ीं और जे लटें और कतरवा लीं ऊपर से तुमने, हैं का सोच रहीं ऐसे जियादा सुन्दर लग रहीं कछु ?”

उनकी जली-कटी बातों से हमारा कलेजा फुक जाता , हम बड़बड़ाते तो अम्माँ समझातीं अरे उनकी आदत है मजाक करती हैं।


             वस्तुत: हम सभी गांव के खुले प्राकृतिक  माहौल में अपनी -अपनी आभिजात्य की केंचुली उतार उन्मुक्त हो प्रकृति के साथ एकाकार हो आनन्द में सराबोर हो जाते। शहर में रहने पर भी हमारी जड़ें गाँव से जुड़ी थीं।गाँव में जैसे नेह , उल्लास और मस्ती की नदी बहती थी हम सब भी जाकर उसी धारा में बह जाते।


गाँव में हम भाई-बहन पूरी मस्ती से  सरसों, गेहूँ  और चने के खेतों में उन्मुक्त हो भागते-दौड़ते।कभी आम ,जामुन बाग से तोड़ माली काका की डाँट के साथ खाते तो कभी खेतों में घुस कर  कच्ची मीठी मटर खाते ,कभी होरे आँच पर भूने जाते तो कभी खेत से तोड़ कर चूल्हे पर भुट्टे भूनते  । चने के खेत से खट्टा कच्चा ही साग मुट्ठी भर खा जाते और बाद में खट्टी उंगलियाँ भी चाट लेते । रहट पर नहा लेते तो कभी तालाब में कूद जाते ।कलेवे में कभी मीठा या नमकीन सत्तू और कभी बची रोटी को मट्ठे मे डाल कर या अचार संग खाते।चूल्हे की धुँआरी गुड़ की चाय जो चूल्हे के आगे अंगारों पर पतीली में धधकती  रहती हड्डियों तक की शीत को खींच लेती । चूल्हे की दाल और रोटी जो गोमती के शुद्ध दूध से बने घी से महकती रहती में जो स्वाद आता था वो आज देशी-विदेशी किसी भी खाने में नहीं मिलता । 


बरोसी से उतरी दूध की हंडिया को खाली होने पर ताई जी हम लोगों को देतीं जिसे हम लोहे की खपचिया  से खुरच कर मजे लेकर जब खाते तो ताई जी हंसतीं 'अरे लड़की देखना तेरी शादी में बारिश होगी ‘ हम कहते 'होने दो हमें क्या ’ और सच में हमारी शादी में खूब बारिश हुई ,भगदड़ मची तो ताई जी ने यही कहा 'वो तो होनी ही थी हंडिया और कढ़ाई कम खुरची हैं इन्होंने मानती कहाँ थीं !”


गाँव में कई दिनों पहले से होलिका -दहन की तैयारी शुरु हो जाती...पेड़ों की सूखी टहनियों के साथ घरों से चुराए तख़्त , कुर्सी ,मेज,मूढ़ा,चौकी सब भेंट चढ़ जाते ...बस सावधानी हटी और दुर्घटना घटी समझो ।और होली पर भेंट चढ़ी चीज वापिस नहीं ली जाती ये नियम था इसलिए अगला कलेजा मसोस कर रह जाता। 


सारी रात होली पर पहरा दिया जाता सुबह पौ फटते ही सामूहिक होली  जलाने का रिवाज  होता जिसमें पूरे गाँव के मर्द और लड़के गेहूँ की बालियों को भूनते जल देकर परिक्रमा करते और आंच साथ लेकर लौटते जिसे बड़े जतन से घर की औरतें बरोसी में उपलों में सहेजतीं होली के दिन दोपहर में घर वाली होली जलाने के लिए पर कितने ही पहरे लगे हों कोई न कोई उपद्रवी छोकरा आधी रात ही होली में लपट दिखा देता बस सारे गाँव में तहलका मच जाता लोग हाँक लगाते एक दूसरे को ,लोग धोती , पजामे संभालते ,आँख मलते जल भरा लोटा और गेहूं की बालियाँ लेकर लप्पड़-सपड़ भागते  जाते और उस अनजान बदमाश को गाली बकते जाते  ..' अरे ओ ऽऽ चलियो रेऽऽऽ ददा काऊ नासपीटे ,दारीजार ,मुँहझौंसे ने पजार दी होरी...दौड़ियो रे ऽऽऽ...’गाली पूरे साल दी जातीं उस `बदमास ‘को।


दूसरे दिन सुबह से ही होली का हुड़दंग शुरु हो जाता ।घर की औरतें पूड़ी-पकवान बनाने में जुट जातीं ।हम बच्चे भाभियों को रँगने को उतावले रसोई के चक्कर काटते तो बेलन दिखा कर मम्मी और ताई जी धमकातीं...'अहाँ कढाई से दूर...’पर हम दाँव लगा कर घसीट ले जाते भाभियों को जिसमें रमेश दद्दा हमारी पूरी मदद करते साजिश रचने में और फिर तो क्या रंग ,क्या पानी ,क्या गोबर ,क्या कीचड़ ...बेचारी भाभियों की वो गत बनती कि बस ! लेकिन बच हम भी नहीं पाते ,भाभियाँ  मिल कर हम में से भी किसी न किसी को घसीट ले जातीं तो बालकों की वानर सेना कूद कर छुड़ा लाती और फिर जमीन पर मिट्टी गोबर के पोते में भाभियों की जम कर पुताई होती....हम सब भी कच्चे गीले फ़र्श पर छई- छपाक् करते फिसल कर धम्म- धम्म गिरते ।


गाँव में हुड़दंगों की टोली निकलती गली में ढोल लटका गाते बजाते...गाँव में भाँग -दारू -जुए का जोर रहता सो  बहू -बेटियाँ  घर में या अपनी चौपाल पर ही खेलतीं बाहर निकलना मना था ...हाँ क्यों कि सभी की छतें मिली होती थीं तो वहाँ से छुपते -छिपाते सहेलियों और उनकी भाभियों से भी जम कर खेल आते।


दोपहर नहा-धोकर बरोसी से रात को होली से लाई आग निकाल कर उससे आँगन में होली जलाई जाती जिसमें छोटे छोटे उपलों की माला जलाते और घर के सभी सदस्य नए-नकोर कपड़ों की सरसराहट के बीच होली की परिक्रमा करते जाते और गेहूँ की बालियों को हाथ में पकड़ कर भूनते जाते। खाना खाकर फिर शाम होते ही पुरुष लोग एक दूसरे के घर मिलने निकल जाते और हम बच्चे भी निकल पड़ते अपनी - अपनी टोलियों के साथ...सारे गाँव में घूमते जिसके घर जाओ वहाँ बूढ़ी दादी या काकी पान का पत्ता और कसी गोले की गिरी हाथ में रख देतीं ।सबको प्रणाम कर  रात तक थक कर चूर हो लौटते और खाना खाकर लाल -नीले -पीले बेसुध सो जात। गाँव में कहते थे कि रंग का नशा ठंडाई से ज़्यादा चढ़ता है।

रंग छूटने में तो हफ़्ता  भर लग ही जाता था ।


कभी - कभी होली पर हम लोग ननिहाल मुरादाबाद भी जाते थे  पचपेड़े पर नाना जी की लकदक विशाल मुगलई बनावट वाली कोठी जाने का विशेष आकर्षण होती थी जहाँ घर के बाहर बड़ी सी ख़ूबसूरत बगिया होती थी जिसमें अनेक फूलों व फलों के पेड़ और लताएं होती थीं।बाहर एक बड़ा सा केवड़े का भी पेड़ होता था।नानाजी के घर में बगिया ही हमें सबसे ज्यादा लुभाती ।


मामाजी के पाँच बच्चे, मौसी के चार और चार भाई बहन हम, सब मिल कर मुहल्ले के बच्चों के साथ खूब होली की मस्ती करते थे।हमें याद है कि कुछ वहीँ के स्थानीय लोग हफ्ते भर तक होली खेलते थे। वो हफ्ते भर तक न नहाते थे न ही कपड़े बदलते थे ।ढोल -बाजा गले में लटका कर सबके दरवाजों पर आकर बहुत ही गन्दी गालियाँ गाते थे पर कोई बुरा नहीं मानता था...हमें बहुत बुरा लगता था और हैरानी होती थी हम मिसमिसा कर सोचते कि कोई कुछ बोलता क्यों नहीं उनको ?


आज भी होली पर वे सभी स्मृतियाँ सजीव हो स्मृति-पटल पर फाग खेलती रहती हैं...अब दसियों साल से गाँव और मुरादाबाद नहीं गए...कोई बचा ही कहाँ अब ...जिनसे वो पर्व और उत्सव महकते-दमकते थे लगभग वे सभी तो अनन्त यात्राओं पर निकल चुके हैं ...वो लाड़-चाव, वो डाँट , वो प्यार भरी नसीहतें सब सिर्फ स्मृतियों में ही शेष हैं अब ।

आप सभी स्वस्थ रहें और आनन्द -पूर्वक सपरिवार होली मनाते रहें, पर ध्यान रखें किसी का नुकसान न हो भावनाएँ आहत न हों...सद्भावना व प्यार परस्पर बना रहे।

दो गज दूरी भी है जरूरी तो बेहतर है कि इस बार अपने ही परिवार के साथ होली खेलें । आप सभी को होली की बहुत -बहुत शुभकामनाएँ .🙏

                                  —उषा किरण     


फोटो :गूगल से साभार

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