ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 3 अगस्त 2018

मुक्ति


आओ सब
वहॉं लगो लाइन में
बही लेकर बैठी हूँ
बड़े जतन से दर्ज किए थे
जो हिसाब-किताब....
किसने कब दंश दिया
किसने की दगा
किसने मारे ताने
सताया किसने
रुलाया किसने
इल्ज़ाम लगाए किसने
किसने दिए उलाहने
संकट की घड़ी...
किसने दिया नहीं साथ
मंगल बेला में बोलो तो
क्यूँ नहीं गाए गीत
जब मन छीजा तो
किसका कंधा नहीं था पास
फाड़ रही हूँ पन्ना-पन्ना...
ये इसका
ये उसका
और
ये तेरा...
आओ...कि ले जाओ सब..
मुक्त हुए तुम
मुक्त हुई मैं
रिक्त करो मेरा मानसरोवर
और सुनो जाते जाते बंद कर जाना
वे दसों दरवाज़े
उड़ने दो मेरे राजहंसों को
अब ...उन्मुक्त...!!

      —उषा किरण 
रेखाँकन; उषा किरण 





9 टिप्‍पणियां:

  1. अब बहुत हुआ, अब तुम मुक्त हो जाओ, मुझे जीने दो

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  2. वाह ! बहुत ही सुन्दर उषा जी ! ऐसा एक बही खाता सबके पास होता है बस कमी होती है तो उस साहस की जिसके साथ आपने सारे नकारात्मक तत्वों को खदेड़ कर खुद को मुक्त कर लिया है ! बहुत ही सशक्त रचना !

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    2. साधना जी अब अपना मानसरोवर हम खुद ही साफ करेंगे दूसरा कोई क्यों करेगा....आपने समझा ,सराहा आभारी हूँ ...बस कोशिश करती रहती हूँ 🙏

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  3. वाह इस तरह मुक्त हो जाना ही सच्ची मुक्ति है . काश ऐसा सब कर पाएं ..बहुत अच्छी सार्थक रचना .

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    1. गिरिजा जी कुछ कहानी या कविताएं लिखी हैं खुद को समझाने के लिए या खुद से वादा किया है लिख कर ...यहां भी खुद को समझा ही रही हूँ ...🙏

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  4. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  5. न विसर्जित होने वाले बही खाते ,बेइंतहा खूबसूरती से उभरा है मन

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