ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 11 मार्च 2021

बताना था न पापा...!





मैं निकल पड़ती जब- तब मुँह उठा

चाँद की सैर पर...

अम्माँ नीचे से सोंटी दिखातीं

उतर नीचे...धरती पर चल

पापा अड़ जाते सामने

नापने दो आकाश

पंख मत बाँधो उसके !

अम्माँ झींकतीं 

खाना, सफाई, घर- गृहस्थी 

ये भी जरूरी हैं

आता ही क्या है इसे 

कुछ पता भी है 

कितनी तरह के तो तड़के 

मूँग और उड़द 

अरहर और चना दाल 

कुछ पता नहीं फर्क इसे

पापा हंस कर विश्वास से कहते

जिस दिन पकड़ेगी न चमचा देखना

तुम सबकी छुट्टी करेगी

जिस डगर चलेगी

खुद मील का पत्थर गढ़ेगी...!

सब तुम्हारी गलती है पापा

अब देखो न-

मेरे पंख समाते ही नहीं कहीं 

कितना विस्तार इनका...

ठीक कहती थीं अम्माँ 

इतने तेवर लेकर कहाँ जाएगी,

ज़मीनी हक़ीक़त को कैसे जानेगी ?

पापा ! आसमानों से पहले

चाँद, बादल, इन्द्रधनुष से भी पहले

छानना  होता है जमीन को

किताबों से पहले सीखना होता है

चेहरों को पढ़ना...और

लोगों की फितरत पढ़ना

नदियों संग बहने से पहले

बारीक सुई की नोक से

धागे सा पार होना पड़ता है

बताना था न पापा-

स्त्री है तू

बताना था न कि छोटा रख अपना मैं

 कि तू गैर अमानत है

बताना था न कि तेरी ज़मानत नहीं,

किसी अदालत में 

बताना था न कि-

आकाश की भी होती है एक सीमा

कि पीछे रह जाना होता है 

जीत कर भी कभी

चलने देना था न नंगे पैर 

पड़ने देने थे छाले पाँवों में 

कहना था न धूप में तप

बारिशों में भीग, कि बह जाने दे 

थोड़े रंग, कुछ मिट्टी, कुछ सुवास

अब क्या करूँ इस अना का 

बस उलझे धागों को सुलझाती

वक्त की सलाइयों पर

बैठी बुन रही हूँ अब

एक सीधा...एक उल्टा

एक सीधा और फिर एक उल्टा...

सब तुम्हारी गलती है पापा

बताना था न...!!

                   🌺— उषा किरण



14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर रचना।
    --
    महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  2. पापा बिगाड़ देते हैं बेटियों को । कितनी मासूमियत से कहा कि बताना था न पापा ।
    ज़िन्दगी के अनुभवों के बाद ही ये प्रश्न मन में उमड़ कर आये । बेहतरीन रचना ।

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    उत्तर
    1. सारी उम्र ये प्रश्न मन में रहे...कागज पर तो आज उतरे😊...बहुत शुक्रिया ।

      हटाएं
  3. पापा ! आसमानों से पहले

    चाँद, बादल, इन्द्रधनुष से भी पहले

    छानना होता है जमीन को

    किताबों से पहले सीखना होता है

    चेहरों को पढ़ना...और

    लोगों की फितरत पढ़ना

    नदियों संग बहने से पहले

    बारीक सुई की नोक से

    धागे सा पार होना पड़ता है

    बताना था न पापा----कितनी गहरी कविता है, बहुत गहरी। लेखनी का नमन क्योंकि ये मन से कहीं निकली हुई शब्दों की अविरल धारा है...इसे बहने दीजिए। मेरी बधाई और शुभकामनाएं।

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  4. बहुत धन्यवाद सन्दीप जी ...सच कहा आपने कबसे दबी पड़ी मन में ये भाव-धारा बह गई सहज प्रवाह से।स्त्री चाहें कितनी बड़ी हो जाए पर पापा को याद करती बेटी हमेशा अपने बचपन को ही जीती है । पापा का अभिमान जो बेटियाँ होती हैं वे पूरा जीवन उनकी यादों की छाँव में बिता देती हैं । आपने मेरे दिल की गहराई में झाँक लिया कविता के माध्यम से ...धन्यवाद!😊

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  5. उषा दी,आपने तो लगभग हर लड़की के मन की बात कह दी। बताना तो था न पापा। बहुत ही सुंदर और सरल अभिव्यक्ति।

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  6. आदरणीया दीदी, आपकी रचना पढ़कर यही लगा कि सारे पापा एक से होते हैं और बेटियों के मन में बहुत से प्रश्न दबे रह जाते हैं पापा से पूछने के लिए...
    मेरी एक रचना है 'पापा, आपने कहा था !' कभी पढ़िएगा दी। आपकी रचनाओं में अपनेपन और संस्कारों की सौंधी महक है।

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  7. मीना जी बहुत शुक्रिया...आपने सही कहा लड़कियों के मन में जाने कितने प्रश्न अनकहे पड़े रहते हैं पर....आपको कविता पसन्द आई , आभारी हूँ । आपकी कविता आपके ब्लॉग पर है ? या आप मुझे लिंक दीजिए जरूर पढूँगी!

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