ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023


 ताताजी को लगता था कि मुझे लुकाट बहुत पसन्द हैं, हैं तो आज भी। वो इसीलिए खूब भर- भरके मंगवाते थे। लेकिन क्यों पसन्द थे ये उनको नहीं पता था।नाइन्थ क्लास में जब बुलन्दशहर में पढ़ती थी तब एक दिन जिस थैले में लुकाट आये उस पर जब ध्यान गया तो बेहद खूबसूरत मोती जैसी लिखाई में नीली स्याही से कविता लिखी थीं। आजतक मैंने वैसी सुघड़ लिखाई किसी की नहीं देखी। कविता क्या थीं, ये अब नहीं याद परन्तु उन कविताओं ने तब मन मोह लिया था।मैंने वो लिफ़ाफ़ा अपने पास सहेज कर रख लिया। खूब शोर मचा कर कहा लुकाट मुझे बहुत अच्छे लगते हैं, फिर कई दिनों तक वैसे ही कविताओं में लिपटे लुकाट रोज आते रहे। मैंने मोहन से कहा रोज उसी से लाना जिससे कल लाए थे, उसके लुकाट बहुत मीठे थे। मैं लुकाट खाती और लिफ़ाफ़े को सहेज लेती। कई दिन तक आती रहीं ।पता नहीं किसकी कॉपी या रजिस्टर थे जो रद्दी में बिक गये…।पता नहीं कभी वे कविताएं लोगों तक पहुँची भी या नहीं? तब गूगल भी नहीं था जो सर्च कर पाती। कई साल तक सहेज कर रखीं, फिर जीवन की आपाधापी में कहीं गुम हो गईं । 

शादी के बाद पति को पता चला मुझे लुकाट पसन्द हैं तो मौसम आने पर वे भी लाने लगे, लेकिन बिना कविताओं के लुकाट में अब वो मिठास कहाँ…?

Anjum Sharma की पोस्ट पढ़ कर पुरानी स्मृतियाँ ताजी हो गईं।सच है जाने कितनी प्रतिभाएं यूँ ही बिना साधन व प्रयास के गुमनामी के कोहरे में लिपटी गुम हो जाती हैं …!!!

—उषा किरण 

शुक्रवार, 22 दिसंबर 2023

नहीं है स्वाभिमान मुझमें…


 हाँ, नहीं है स्वाभिमान मुझमें


बेवकूफ बनती हूँ ,ताने-बातें सुनती हूँ 

ध्यान नहीं देती आड़ी- तिरछी बातों पर

अनदेखा करती हूँ चालबाज़ियाँ 


ऐसा नहीं कि समझ नहीं आती  

देर- सबेर सब समझ आती हैं 

पर अनजान बन, चुप रहती हूँ 

चुपचाप अपने अन्दर  बैठ 

देखती हूँ डुगडुगी वाले तमाशे


क्या सोचते हो

ये तिकड़में, होशियारी,ये शातिर चालें 

मक्कारी से भरे झूठ, छलावे

समझ नहीं आते, बौड़म हूँ….

सब समझ आते हैं, फिर भी

तुमको ताली बजाकर हंसने देती हूँ 

खुश होने देती हूँ 


कहते हो-

भलमानस-पना  दिखाती हूँ 

हाँ, तो भला मानुष और क्या दिखाएगा

नहीं है दुष्टता तो कहाँ से लाएगा ?


थे मेरी पिटारी में भी कभी तुम्हारी तरह 

पैने , जहरबुझे तीर

तरह- तरह के अस्त्र

भाँति- भाँति के मुखौटे

जब, जो चाहती , लगा 

दुनियादारी खूब निभाती 

फिर नहीं संभाले गए तो एक दिन

सौंप दिए लहरों के हवाले

बह जाने दिए दरिया में…


बदलते मौसम के साथ

फिर- फिर लौटेगा मेरा विश्वास 

सौ बार करूँगी प्यार 

क्योंकि सोचूँगी शायद 

अबके बदल गई होगी फिज़ाँ

हालाँकि जानती हूँ कि फितरत नहीं बदलती 

कभी भी, किसी की

जैसे नहीं बदलती मेरी भी…


खैर…..

अब खड़ी हूँ खुले मुँह, खाली हाथ

नीले आसमान के तले 

दे सकते हो तो दो खुलकर गाली, 

हँस सकते हो तुम ताली बजा कर तो हंसो

कर सकते हो उपेक्षा, अपमानित …


हाँ…नहीं है स्वाभिमान मुझमें…!!!


—उषा किरण

सोमवार, 11 दिसंबर 2023

रूढ़ियों के अंधेरे


 कल एक विवाह समारोह में जाना हुआ। लड़के की माँ ने हल्का सा  यलो व पिंक कलर का बहुत सुन्दर राजस्थानी लहंगा पहना हुआ था और आभूषण व हल्के मेकअप में बेहद खूबसूरत लग रही थीं । आँखों की उदासी छिपा चेहरे पर हल्की मुस्कान व खुशी लेकर वे सबका वेलकम कर रही थीं। दूल्हे के पिता की कुछ वर्ष पहले ही कोविड से डैथ हो गई थी। मैंने गद्गद होकर उनको गले से लगा कर शुभकामनाएँ दीं और मन में दुआ दी कि सदा सुखी रहो बहादुर दोस्त !


ये बहुत अच्छी बात हुई कि पुरानी क्रूर रूढ़ियों को तोड़ कर बहुत सी स्त्रियाँ आगे बढ़ रही हैं । पढ़ी- लिखी , आत्मविश्वास से भरी स्त्री ही ये कर सकती हैं । पिता की मृत्यु के बाद माँ को सफेद या फीके वस्त्रों में बिना आभूषण व बिंदी में देख कर सबसे ज्यादा कष्ट बच्चों को ही होता है। तो अपने बच्चों की खुशी व आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए ये जरूरी है कि माँ वैधव्य की उदासी से जितना शीघ्र हो सके निजात पाए और वैसे भी आज की नारी सिर्फ़ पति को रिझाने के लिए ही नहीं सजती है। वो सजती है तो खुद के लिए क्योंकि खुदको सुन्दर व संवरा देखकर उसका आत्मविश्वास बढ़ता है। समाज में सम्मान व प्रशंसा मिलती है( ध्यान रखें समाज सिर्फ़ परपुरुषों से ही नहीं बना वहाँ स्त्री, बच्चे, बुजुर्ग सभी हैं ) मेरा मानना है कि आपकी वेशभूषा व बाह्य आवरण का आपकी मन:स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है।


हर समय की उदासी डिप्रेशन में ले जाती है और जीवन ऊर्जा का ह्रास करती है व आस- पास नकारात्मकता फैलाती है।जीवन- मृत्यु हमारे हाथ में नहीं है और किसी एक के जाने से दुनियाँ नहीं रुकती , एक के मरे सब नहीं मर जाते ….ये समझ जितनी जल्दी आ जाए उतना अच्छा है। इंसान के जाने के बाद बहुत सारी अधूरी ज़िम्मेदारियों का बोझ स्त्री पर व परिवार पर आ जाता है जिसके लिए सूझबूझ व दिल दिमाग़ की जागरूकता जरूरी है वर्ना खाल में छिपे भेड़ियों को बाहर निकलते देर नहीं लगती।


देखा गया है कि पति की मृत्यु के बाद उस स्त्री के साथ जो भी क्रूरतापूर्ण आडम्बर भरे रिवाज होते हैं जैसे चूड़ी फोड़ना, सिंदूर पोंछना, बिछुए उतारना, सफ़ेद साड़ी पहनाना वगैरह , इस सबमें परिवार की स्त्रियाँ ही बढ़चढ़कर भाग लेती हैं । मेरे एक परिचित की अचानक डैथ हो जाने पर उसकी बहनों ने इतनी क्रूरता दिखाई कि दिल काँप उठा। पहले उसकी माँग में खूब सिंदूर भरा फिर सिंदूरदानी उसके पति के शव पर रख दी। फिर रोती- बिलखती , बेसुध सी उसकी पत्नि पर बाल्टी भर भर कर उसके सिर से डाल कर सिंदूर को धोया व सुहाग की निशानियों को उतारा गया।

कैसी क्रूरता है यह? यदि ये उनकी परम्परा है तो आग लगा देनी चाहिए ऐसी परम्पराओं को। 


क्या ही अच्छा होता यदि बहनें भाभी को दिल से लगाकर इन सड़े- गले  व क्रूर रिवाजों का बहिष्कार करतीं । यही नहीं आते ही उन्होंने बार- बार बेसुध होती भाभी के दूध की चाय व अन्न खाने पर भी प्रतिबंध लगा दिया कि ये सब उठावनी के बाद खा सकती है, बस काली चाय  व फल ही दिए जाएंगे। उसकी सहेलियों को बहुत कष्ट तो हुआ पर मन मसोस कर रह गईं। अगले ही दिन वे उसको व उसकी छोटी बेटी को अपने साथ गाँव ले गईं कि वहाँ पर ही बाकी रीति- रिवाजों का पालन होगा। कई दिन तक सोचकर दिल दहलता  रहा कि न जाने बेचारी के साथ वहाँ क्या-क्या क्रूरतापूर्ण आचरण हुआ होगा?


चाहकर भी हम हर जगह इसका विरोध नहीं कर सकते परन्तु जहाँ- जहाँ भी हमारी सामर्थ्य व अधिकार में सम्भव हो प्रतिकार करना चाहिए। रोने वाले के साथ बैठ कर रोना नहीं, यही है असली शोक- सम्वेदना।

—उषा किरण 

शनिवार, 2 दिसंबर 2023

यादों के गलियारों से

 


अम्माँ- ताता नैनीताल की लास्ट पोस्टिंग के बाद  मैनपुरी में अपने चाव से बनवाए सपनों के घर में जाकर बस गए।मैनपुरी के पास ही हमारा गाँव था तो वहाँ रह कर नाते- रिश्तेदारों से मिलना- जुलना होता रहता और खेती- बाड़ी पर भी निगाह रहती। कुछ सालों बाद अम्माँ को लगने लगा था कि बच्चों से बहुत दूर हो गए और वो ज्यादा समय बच्चों के साथ रहने को तड़पती थीं । हम सब छुट्टियों में बारी-बारी या एक साथ भी जाते रहते।वो चाहने लगीं कि मैनपुरी का मकान बेच कर मेरठ या दिल्ली जाकर रहें। क्यों कि उनका व ताताजी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था और मेडिकल सुविधाओं का मैनपुरी में बहुत अभाव था, लेकिन ताताजी इसके लिए तैयार नहीं थे। 


कभी-कभी वे कुछ दिनों के लिए हम लोगों के पास रहने आ जाती थीं, तब वे बहुत सुकून महसूस करतीं। उनको खूब बातें करने का शौक था। मेरठ में आइस्क्रीम विद सोडा , पाइनएप्पल आइस्क्रीम, गोकुल की बेड़मी पूड़ी व आलू की सब्ज़ी बहुत पसन्द आते पर हम डर- डर कर कम ही खिलाते- पिलाते क्योंकि वे हार्ट की व शुगर की पेशेन्ट थीं। 


उनके अचानक हार्ट फेल से जाने के बाद न जाने कितने अफ़सोस हम लोगों को घेरे रहे कि ये करते वो खिलाते, यहाँ घुमा लाते, कुछ और सुन लेते उनकी बातें ।


वे बहुत ही उदासी  भरे दिन थे।अम्माँ जा चुकी थीं और उनके जाते ही घर श्रीहीन हो बिखर गया। ताताजी भैया के पास आकर रहने तो लगे थे , दीदी दूसरे मकान में दिल्ली शिफ़्ट हो गईं । लेकिन धीरे-धीरे ताताजी घोर डिप्रेशन में चले गए। उन्होंने इवनिंग वॉक पर जाना बन्द कर दिया और डॉक्टर की सलाह पर जो ब्रांडी लो ब्लड प्रैशर के लिए दवा की तरह थोड़ी सी लेते थे उसकी मात्रा बढ़ गई। बात वैसे ही कम करते थे अब और चुप्पी में घिर गए। खाने-पहनने का शौक समाप्त सा हो गया। 


भैया सारे दिन कोर्ट और उसके बाद क्लाइन्ट की मीटिंग से थका- हारा रात तक आता भी तो बहुत कम देर उनके  साथ बैठ पाता क्योंकि तब तक उनके सोने का टाइम हो जाता था।


भैया का छोटा बेटा पृथ्वी जरूर सारे दिन बाबा- बाबा करता उनके कमरे में चक्कर लगाकर उनका मन बहलाता रहता था। भैया ने बहुत कोशिश की कि सोसायटी में रहने वाले बुजुर्गों से मेलजोल करवा दे पर उन्होंने साफ मना कर दिया।


हम सब भाई - बहन बहुत परेशान थे कि किस तरह उनको खुशी दें और अंधेरों से बाहर निकालें। मनोचिकित्सक को दिखाएं पर सब प्रयासों में असफल होने पर हताश- निराश हो दुखी होते।आज वो नहीं हैं तो बहुत दुखी होता है मन कि काश उनके जीवन की सन्ध्या इतनी उदासी से भरी न होती।


अम्माँ को प्रस्थान किए लगभग सत्ताइस और ताताजी को बीस साल हो गए आज लगभग मैं भी उसी उम्र के आसपास हूँ । ताताजी की स्थिति याद करके पूरी कोशिश करती हूँ कि  खुशी का हर पल अपने नाम करूँ और उसके अहसास बच्चों के साथ शेयर करूँ । 


बच्चे बढ़िया खिलाते-पिलाते हैं तो मैं खूब चाव से ललक से खाती हूँ, ये नहीं सोचती कि कोई लालची कहेगा।घुमाने के प्रोग्राम बनाते हैं तो मना नहीं करती। खूब देश- विदेशों की यात्राएं करवा दी हैं बच्चों ने, वर्ना टीचिंग में हमारे लिए इतना एफोर्ड करना मुश्किल था। पहली विदेश यात्रा मेरे पति को हमारे दामाद ने करवाई, वे अपने साथ लंदन ले जाना चाह रहे थे तो वे ख़ुशी- खुशी उनके साथ गए बिना बेटे , दामाद के फर्क का विचार किए। 


जितना हो सकता है अपनी काया , देश और उम्र के हिसाब से फैशन करती हूँ । बेटी और बहू मुझे बढ़िया ब्रान्डेड परफ़्यूम, कपड़े, बैग, मेकअप और ब्यूटी टिप्स देती हैं तो सब यूज व फॉलो करती हूँ । हम दोनों नए जमाने की नई जानकारियों, म्यूजिक , फिल्म, साहित्य, गार्डनिंग व न्यू लाइफ़ स्टाइल में पूरी दिलचस्पी लेते हैं। मनपसन्द चाट, आइस्क्रीम , थाई, मैक्सीकन, चाइनीज की नई रेसिपी ट्राई करते हैं और टेस्ट डेवलप करते हैं ।


हैल्थ चैकअप, कोलेस्ट्रॉल,विटामिन, कैल्शियम जैसा वो कहते हैं मैं और मेरे पति सबका ध्यान रखते हैं…मैं चाहती  हूँ कि बच्चों को हमारे जाने के बाद ये अफसोस न रहे कि वे हमारे लिए कुछ कर न सके।बेटे- बहू विदेश में हैं पर दूरी का अहसास ही नहीं होता। मीरा रोज वीडियो कॉल पर मीठी- मीठी बातों से दादा- दादी का मन बहलातीं हैं।


अब तक जीवन में जो भी सुख- दुख झेले पर अब मैं चाहती हूँ कि उन परछाइयों से परे जब तक हम हैं स्वस्थ व प्रसन्न रहें जिससे हमारे बाद में बच्चे हमें इसी रूप में  याद करें।

                                               —उषा किरण 

फोटो: Gold Coast Road, Melbourne( Australia)

बुधवार, 29 नवंबर 2023

गुम हैं


 बचपन में एक बुढ़िया 

चाँद पे चरखा काता करती थी

जाने कहाँ गुम  है ?


एक बाबा बूढ़े 

बुढिया के बाल गुलाबी बेचा करते थे 

गुम हैं वो भी कई सालों से 


बादलों के रथ पे बैठ 

सफेद पंखों वाली नन्हीं परियाँ  

इधर-उधर मंडराती थीं  

अब आते हैं खाली बादल 

परियाँ जाने किस देस गईं ?


मखमली घास पे ठुमकती वीरबहूटी

जब लातीं राम जी का संदेस

मन में आस जगाती थीं

जाने कहाँ रास्ता भूलीं ?


कुछ मोरपंख किताबों में रख 

हम विद्या माँगा करते थे

दो होने के लालच में भाग-भागके

कई बार देखा करते थे 

अब कहाँ मोर और वो पंख कहाँ?


इक बूढे हरिया काका थे

लाल मटकी से निकाल पत्तों पर 

कुल्फी चाकू से काट

बड़े प्यार से खिलाते थे

कई सालों से नदारद हैं 


सामने वाले बरगद पर काला भूत

उल्टा लटक दाढ़ी हिला

हंस-हंस के पत्ते वाले हाथों से 

पास हमें बुलाता था

अब भूत कहाँ बस पत्ते हैं 


यूँ तो कद के साथ जीवन में

ऐश्वर्य सभी बढ़ जाते हैं

लेकिन बचपन की बेमोल सम्पदा 

जितना अमीर कहाँ हमें कर पाते हैं…!!!


—उषा किरण

फोटो: गूगल से साभार 

रविवार, 26 नवंबर 2023

फितरतें कैसी-कैसी




 पढाई के उन कातिल दिनो में जब एग्ज़ाम से पहले खाना खाने में भी लगता कि टाइम वेस्ट हो रहा है मेरा दिमाग कुछ ज्यादा जाग्रत हो उठता  और क्रिएटिविटी के उफान में कहानियों, कविताओं व पेंटिंग्स के आइडिया के अंधड़ उड़ते। 

जिंदगी में जब- जब तनावग्रस्त समय की कतरब्योंत में उलझी होती तब-तब अनेक परछाइयाँ मेरा पीछा करतीं, कमर पर हाथ रखे अड़ जातीं कि अभी उतारो हमें कागज पर, पहनाओ रंग रेखाओं का या शब्दों का जामा।तो उस समय लिखी गईं कुछ कहानी, कुछ कविता और बन गईं कुछ पेंटिंग्स भी। तब कई बार यदि न लिख पाती तो रफ सा ड्राफ्ट  किसी डायरी या कागज में लिख लेती या रफ स्कैच बना लेती तो बाद में बात बन जाती और कभी नहीं बना पाती और जब तक फुर्सत होती तब तक सब कुछ धुँआ- धुआँ सा हवाओं में बिखर जाता।ऐसी कई रचनाओं की भ्रूणहत्या हो गई मजबूरी में। मुझे लगता है तनाव में जरूर कुछ ऐसे हारमोन्स स्रवित होते हैं जिनका संबंध हमारी क्रिएटिविटी से सीधा होता है।

आज भी जब कहीं घूमने जाती हूँ तो घूमते, बातें करते, ट्रेन में, बस में या प्लेन में सफर करते फिर से कुछ रंग, आकृतियाँ कुछ शब्द मेरा पीछा करने लगते हैं , इसीलिए हमेशा साथ में स्कैच बुक, क्रेयॉन व कलर्ड पेंसिल , डायरी पैक करती हूँ पर कभी ही कुछ सहेज पाती हूँ, क्योंकि वापिस रूम में लौट कर थकान से पस्त हो लिखने या स्कैच लायक न हिम्मत बचती है न हि ताकत। लेकिन आजतक समझ नहीं पाती कि जब चैन व फुर्सत में पसरे- पसरे से चैन भरे दिन होते हैं तब दिमाग की ये उर्वरता, सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता, शब्दों का झरना व रंगों की फुहार कहाँ जाकर गुम हो जाते है सब ? मन्द समीर में चैन से दिमाग ऊंघता रहता है परिणामस्वरूप कितनी ही कहानियाँ मेरा मुँह देखती उकड़ूँ बैठी हैं, मुकाम तक पहुँचने की बाट जोहती और मैं जड़बुद्धि सी आलस की चदरिया में गुड़ीमुड़ी सी गुम हूँ…।

1978 में उन दिनों जब मैं ड्रांइंग एन्ड पेंटिंग में एम. ए. कर रही थी तब एग्ज़ाम होने से पहले दिमाग भन्ना रहा था। कॉलेज से आते सोचा था खाना खाते ही पढ़ने बैठ जाऊंगी। डाइनिंग टेबिल पर जाते ही मूली की भुजिया पर सबसे पहने नज़र पड़ी और अम्मा पर झुंझला पड़ी कि तुमने ये सब्जी क्यों बनाई ? वे बोलीं कि तुम्हारी पसन्द की चने की दाल और बूँदी का रायता भी है रात की बची भिंडी भी है , उसे ले लो। लेकिन हम उठ गए कि "नहीं खाना हमें…राजपाल हमें टोस्ट और चाय दे जाना…” कहते अपने रूम में ठसक कर चल दिए। पीछे से अम्मा की आवाज कानों में पड़ी- " ओफ्ओ उषा कहाँ निभोगी तुम ? इतना तेहा अच्छा नहीं, कल दूसरे के घर जाओगी तो कैसे चलेंगे ये नखरे…!”

हम अपनी टेबिल पर बैठकर लाइब्रेरी से लाई किताबें पलटने लगे, लेकिन दिमाग में अम्मा की कही बातें धमाचौकड़ी मचा रही थीं। उन दिनों में जोरशोर से हमारे ब्याहने को लड़के ढूँढे जा रहे थे। सब खिसका कर पैड और पैन उठा लिखने बैठ गए…कहानी बह निकली-

 " सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।उसे सहसा याद आया  जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी…।”(कहानी- लाल-पीली लड़की )

मजे की बात तो ये है कि ससुराल में जॉइन्ट फैमिली थी तो खूब बनती थी मूली की भूजी मूंग की दाल डालकर और हमें धीरे-धीरे बहुत अच्छी लगने लगी बशर्ते साथ में परांठे हों ।

उस खब्त ने कहानी तो लिखवा दी हमसे लेकिन कुछ अनमोल घन्टे खाकर, इसीलिए उस समय वो कहानी अफसोस से भर गई थी, परन्तु बाद में  1979 में सारिका के नव -युवा विशेषांक में यह कहानी प्रकाशित हुई थी पुन: डॉ० देवेश ठाकुर ने “1979 वर्ष की श्रेष्ठ कहानियां - कथा वर्ष 1980”में प्रकाशनार्थ चुना...फिर उर्दू और  पंजाबी में भी अनुवाद होकर छपी तो जिंदगी ने एक नए क्षेत्र में उठाए दूसरे कदम ने अफसोस समाप्त कर आत्मविश्वास बढ़ाया ।

खैर…सवाल तो यही है कि व्यस्ततम दिनों में ही हमारा दिमाग इतना उपजाऊ हो जाता है या औरों के भी साथ ये होता है …बताइए तो? 😊🍁🍃

— उषा किरण 



बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

यूँ ही

 


ताताजी कैप्सटन की तम्बाकू और कागज पार्सल से मंगवाते थे और बहुत सलीके से अपनी गोरी सुघड़ उंगलियों से बनाकर सिगरेट केस में जमा कर सहेज लेते थे और सारे दिन बीच- बीच में बहुत सुकून से कश लगाते रहते थे. 


हमें सिगरेट की खुशबू बचपन से ही बहुत पसन्द थी. शायद उस खुशबू के साथ उनका अहसास लिपटा रहता था इसीलिए, इसीलिए शायद आज भी हमें वो खुशबू प्रिय है.कई बार जब वो टॉयलेट में या बगीचे में होते तो हम और भैया चुपके से एक निकाल लेते और छिप  कर सुट्टे लगाते.हमें लगता था कि उनको  पता नहीं चलता होगा. 


शादी होने के कई साल बाद हम सब बैठे गप्पें  मार रहे थे तो पति ने ताताजी को बताया कि " एक बार उषा हमसे कह रही थीं कि आप सिगरेट पिया करो!” सुनकर वो हँस पड़े और हम झेंप गए.  हमने कहा कि हमें सिगरेट की खुशबू बहुत अच्छी लगती है तो ताताजी बोले " हाँ  तभी बचपन में हमारे सिगरेट केस से निकाल कर तुम और डब्बू पी लेते थे कभी-कभी!” हम और भैया हैरान हो गए कि उनको पता था पर कभी भी टोका नहीं । हमने पूछा "आपको कैसे पता चलता था?”  तो हंसकर बोले "मैं गिन कर रखता था।” आज भी सोचती हूँ कि कुछ कहा क्यों नहीं? मेरे बच्चे ऐसा करते तो डाँट तो जरूर ही खाते.


अम्माँ कहती थीं कि बचपन में हम बहुत जिद्दी थे और शाम होते ही जाने कौन सा, किस जन्म का दु:ख याद आ जाता था कि रोज रोने लगते और किसी तरह नहीं चुपते थे. आज भी शाम होने पर कभी-कभी वो अंदर छिपी बच्ची उदास हो जाती है बेवजह. अम्माँ नौकर को कहतीं " जा मुल्लू इन्हें साहब के पास क्लब लेकर जा!” एक दो घन्टे बाद ताताजी के कान्धे पर बैठे हम खूब हंसते- खिलखिलाते लौटते. 


ताताजी, आपके कान्धे पर बैठकर हमें जरूर लगता होगा जैसे हम दुनियाँ में सबसे ऊँचे हो गए, हाथ बढ़ा कर चाँद छू सकते हैं . ताताजी आप क्यूँ अचानक याद आ रहे हैं आज इतना. आज तो फादर्स डे भी नहीं…आपकी बर्थडे भी नहीं. लेकिन याद आने की कोई वजह हो ये जरूरी तो नहीं…पर कई यादें उदास कर जाती हैं ….बस यूँ ही….😔

-उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 

(अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज 11 अक्टूबर को  भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।)

जरा सोचिए

     अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है हर समय उधार मांगती रहती है कामवालों के नखरे बहुत हैं  पूरी हीरोइन...