ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

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शुक्रवार, 11 मई 2018

बिट्टा बुआ (भाग 2)






मिष्ठान्न को ललचाती आंखों से तौलती , संभल कर गिरगिट सा रंग बदलतीं बिट्टा बुआ क्रमश: मिष्ठान्न का चूर्ण फांकतीं..खींसें निपोर बड़े ही दुलार में होंठ आगे निकाल धीमे-धीमे मम्मी को ही समझाने लगीं ...' अबहिं नाय बहू..लरकिनी है ..बड़ी सुलक्छिनी बिटिया है...हम तो बिज बिहारी की लरकिनी को कै रहे हते..तुम्हारी तो साक्षात् लक्षमिनी है...कहां है बिटिया तनिक आसीस दे दें’ ...पर दीदी ‘रिस्क’ लेने वाली कहां थीं ? जब बिट्टा बुआ गद्गद् कंठस्वर के आरोह -अवरोह में आशीषों के फूल बर्सातीं अपनी चौपाल पर जाकर जूते और चुन्नी साबुन से धोने लगीं तब दीदीहाथ झाड़ कर निकलीं...बहुत हंस कर मटक कर बोलीं..’ चलो टली चुड़ैल बुआ....’ मम्मी त्यौरियां माथे तक चढ़ा कर कुछ कहतीं तब तक तो वे बाहर भाग गईं और चटापट ताऊ जी से एकदम भोली-भाली बन मुंह लटका कर ,आंखें झपका कर सफाई देने लगीं...`सच्ची मुच्ची में ताऊ जी बाई गॉड हम तो नाक का पसीना पोंछ रहे थे..चिढ़ा थोड़े ही रहे थे...बिल्कुल भी नहीं...’और दो दिन बाद वो ही लपड़-झपड़ भागती दीदी और पीछे- पीछे रणचण्डी सी बिट्टा बुआ ।मैं बहुत डरती थी उनसे अत: सामने पड़ने से भी कतराती थी कभी हमारे घर आतीं तो मैं बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे से छिप कर झांकती रहती ।
एक दिन तरला बुआ के साथ उनके घर के सामने से सहमी सी गुजर रही थी कि तभी धम्म से चौपाल से हमारे सामने कूद कर जबर्दस्ती हाथ पकड़ कर बड़ी मनुहार और इज्जत से हमें अंदर ले गईं बुआ अरेरेरे कहती रह गईं मेरा तो डर के मारे बुरा हाल था ..टांगें कांप रही थीं और हलक सूख रहा था ।आंगन में पड़ी झंगोले सी चारपाई में बैठा कर अंदर से लाकर दो फटे मैले तकिए हमारे पीछे लगा जल्दी से आंगन की क्यारी की तरफ चली गईं ।मैं तो पहली बार उनके विचित्र राजमहल में आई थी या कहूं लाई गई थी...दीवारों पर कोलाज का सा दृश्य उपस्थित था दीवारों को लीप-पोत कर सीता -राम,राधे-श्याम के आलंकारिक आलेखन के साथ-साथ ऐसी-ऐसी उपमाओं से सुसज्जित गालियां बेशर्मी से हंस रही थीं ..पढ़ते-पढ़ते बुआ को तीखी नजरों से अपनी तरफ घूरता देख कट कर रह गई । ब्लेड के खाली रैपर,बीड़ी-सिगरेट की खाली डिब्बियों की ,कपड़ों व पन्नियों की कटिंग सब दीवार पर झिलमिला रही थीं ...कमरों के कोनों में गांव भर के फटे पुराने जूते चप्पलों का ढ़ेर अलग अपनी शान से मुस्कुरा कहा था ।
उनके घर का निरीक्षण करते एक तो उस हिंडोले में बैठते घुटने पेट में घुसे जा रहे थे दूसरी तरफ डर के मारे होश उड़ रहे थे ...बुआ मेरी हालत समझ कर भी शांत भाव से बैठी थीं...जानती थीं कि पूरी आवभगत करवाए बिना त्राण मिलने वाला नहीं ।
तभी वे दोनों हाथों में दो ताजे लाल गुलाब लिए आईं और हम दोनों को देकर फुसफुसा कर बताने लगीं कि कैसे आधी रात एक फरिश्ता आकर उन फूलों को छड़ी घुमा - घुमा कर खिलाता है...वे चुपचाप देखती हैं पर बोलती नहीं वर्ना फरिश्ता उड़ जाएगा और कभी नहीं आएगा...फिर फूल कभी भी नहीं खिल पाएंगे ।
क्रमश:

बिट्टा बुआ ( कहानी -भाग 1)

बचपन की न जाने कितनी स्मृतियां और न जाने कितने उन स्मृतियों के पात्र होते हैं, जो हमारे अस्तित्व को साधारण समझते हैं उन्हीं का अस्तित्व कभी-कभी हमारे मानस-पटल पर बहुत स्थान पा लेते हैं ...अनजाने ही।बचपन में छुट्टियों में गांव जाने की एकमात्र आकर्षण डोर होती थीं बिट्टा बुआ..जो अभी भी कभी -कभी,स्वप्नों के क्षितिज पर पत्थर फेंकती,गाली देती वैसी की वैसी ही चित्रित हो जाती हैं ।
हमारे गांव में परम्परानुसार बेटियों को बिट्टा कह कर सम्बोधित करते हैं उसी सम्बोधन में दूसरी पीढ़ी ने आगे दूसरा सम्बोधन बुआ जोड़ दिया और वे पूरे गांव की बिट्टा बुआ हो गईं ।किसी के भी घर जाते समय हमें बिट्टा बुआ के चबूतरे के सामने से ही गुजरना पड़ता था ...पेटीकोट जैसा उनका सफेद लट्ठे का लहंगा जो प्राय: सिलेटी हो चला होता उनकी क्षीण कटि में झूलता रहाता छोटे गले का ब्लाउज और आधे माथे को ढ़ंकता दोनों कानों के पीछे से होता हुआ,सिर के पीछे झूलता मटमैला दुपट्टा...और कानों के बड़े- बड़े छेदों में बेले के फूल खुंसे होते...बचपन से लेकर आखिरी समय तक मैंने उनको इसी रूप में देखा...हां पैरों में अवश्य जूते चप्पल तरह -तरह के होते...किसी का पंजा गवाक्ष बना होता तो कोई एड़ी से साथ छोड़ चुका होता...पूरे गांव में भला कौन था ऐसा जिसके जूते चप्पल ने अपने जीवन के आखिरी पल उनके चरणों में न बिताए हों
कोई भी दावत हो शादी ,दष्टौन या बरसी बिट्टा बुआ पहली ही पंगत मेंअनिमन्त्रित ही पत्तल उठा कर बैठ जातीं और परोसने वालों के कुर्ते, धोती खींच-खींच कर परोसना भारी कर देतीं और यदि कोई अभागा झुंझला पड़ता तो वीभत्स गालियों से उसकी सात पुश्तों को कोसतीं..हाथ नचा कर तब तक अपनी चौपाल पर फटी - फटी आवाज में प्रलाप करती रहतीं जब तक स्वयं ही वापिस जाकर उस अपराधी को बड़ी उदारता से क्षमा कर छक कर न सिर्फ खा आतीं अपितु साथ बांध भी लातीं ।
गांव के बच्चों के लिए तो वे एक दिलचस्प मनोरंजन थीं...नाक पर उंगली फिरा कर चिढ़ाने वाले उद्दंड बच्चों के पीछे पत्थर और गालियों के ऐसे अमोघ अस्त्र फेंकतीं कि उनकी माताएं कान पर हाथ रख बच्चों को कूटती-पीटती बिट्टा बुआ को कोसतीं बच्चों को घर ले जातीं ।
बहुत साल पहले जब मैं दस साल की थी और दीदी बारह की रही होंगी...हम होली की छुट्टियों में गांव गए थे अचानक दीदी बदहवास भागती आईं और कमरे में छिप गईं..जब तक मम्मी कुछ पूंछतीं इतने में कर्कश आवाज में गालियों के पिटारे से ऐसी -ऐसी गालियां निकाल..उनके भूत भविष्य को अंधकारमय होने का श्राप देतीं बिट्टा बुआ आंगन में नमूदार हुईं...मैं बहुत डरपोक थी भाग कर बरामदे में खड़ी चारपाई के पीछे छिप गई...वे मां के पास जाकर दीदी की शिकायत कर कोसने लगीं..." साली नाक काटत है दुई दिना की छोकरी...अरी तेरी छटी खाए रहे राम करे.....”और राम जाने क्या - क्या..तब मम्मी और ताई जी जल्दी- जल्दी उनको मनाने में लग गईं ...साबुन,घी,गुड़,पुरानी धोतियां,बची मिठाई का चूरा सब उनके पल्लू से बांध मम्मी ने उनका हाथ पकड़कर जबरन बैठा लिया और पंखा झलने लगीं ..."तुम फिकर न करो जाड़ों में बियाह कर देंगे हम इसका,पाप कटे...बहुत सिर चढ़ती जा रही है..सास डंडे मार- मार कर दिमाग ठीक कर देगी “
क्रमश:

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...