ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 13 मार्च 2024

चिट्ठियों के अफसाने- यादों के गलियारों से



हाँ पिछली पोस्ट में मैंने अपनी प्रथम कहानी `बिट्टा बुआ ‘ के छपने की स्मृतियों को साझा किया। बिट्टा बुआ से पहले मनोरमा में छपने हेतु कहानी `गिरगिट और गुलाब’ भेजी थी। बाद में बिट्टा बुआ भेजी। परन्तु सम्पादक अमरकान्त जी ने पहले बिट्टा बुआ छापी क्योंकि वो उन्हें बहुत पसन्द आई थी। गिरगिट और गुलाब कहानी में बहुत कमियाँ होने पर भी सम्पादक अमरकान्त जी ने उस पर गहन चर्चा की, सुझाव दिए , यहाँ तक कि खुद करैक्शन करने के लिए भी कहा पर रिजेक्ट नहीं की। मैंने लिखा था कि कहानी पसन्द न आए तो लौटाइएगा नहीं, फाड़कर फेंक दीजिएगा । क्योंकि मैं नहीं चाहती थी कि घर में किसी को पता चले। और पता नहीं तब मैंने क्या- क्या बेवक़ूफ़ी लिखी थीं कि हर बात को बहुत प्यार से समझाया। और फिर बिना करैक्शन के ही कहानी को ज्यों का त्यों ही छाप दिया बस उसका शीर्षक बदल कर "गुलमोहर “ कर दिया था। शायद मैंने बेवक़ूफ़ी में लिखा था कि मैं नहीं चाहती कि कहानी में ज़्यादा परिवर्तन हो। 


ये कहानी मैंने अपने कजिन और भाभी पर लिखी थी, जिन भाभी को बहुत प्यार करती थी। भाभी गुलाब सी प्यारी और अहंकार में ऐंठे गिरगिट से थे दद्दा (भैया)।

दद्दा आर्मी में थे। महिनों बाद जब भी घर आते तो भाभी से लड़ते, बेइज्जती करते। भाभी ताईजी व ताऊजी के साथ रहती थीं । तब कोई बच्चा भी नहीं था। बहुत दुख से भरा जीवन था उनका।हमारे समाज की ये सच्चाई है कि जिस स्त्री का पति उसको नहीं पूछता तो समाज भी निरपराध होने पर भी उसी स्त्री को ही कटघरे में खड़ा कर देता है। हर साल हम लोग छुट्टियों में गाँव जाते थे , तब मैं छोटी थी पर भाभी की तरफ़ से लड़ने खड़ी हो जाती। अम्माँ हंसकर कहतीं  "अरे ! उषा की भाभी को कोई कुछ मत कहना वर्ना भाभी को लेकर कुंए  में कूद जाएंगी!”


फिर ये कहानी लिखी। जब छप गई तो एक प्रति पत्र सहित भाभी को भेज दी। इत्तेफाक से दद्दा तब घर ही आए हुए थे। भाभी ने बताया कि वे रसोई में थीं तो दद्दा ने ही कहानी पढ़ी और जब वे कमरे में आईं तो दद्दा रो रहे थे। वे इतने शर्मिंदा हुए कि भाभी से माफी मांगी। और उसके बाद एकदम ही बदल गए। फिर आगे का जीवन बच्चों सहित सुख-पूर्वक बीता। बाद में तो दद्दा भाभी की झिड़की भी हंसकर सुन लेते। देखकर मैं खूब हंसती।जब मुझे कहानी का पारिश्रमिक प्राप्त हुआ तो मैंने अमरकान्त जी को बताया कि मुझे तो असली पुरस्कार मिल चुका है, इससे बेहतर कोई पुरस्कार क्या होगा ? कहानी ने सार्थकता पा ली है। जानकर वे भी बहुत प्रसन्न हुए। बेशक वो मेरी सबसे कमजोर कहानी है, परन्तु मुझे तो सबसे प्रिय है इसी कारण।


नवोदित लेखक के प्रति इतनी उदारता और साहित्य के प्रति इतनी ज़िम्मेदारी की भावना अब कहाँ मिलती है ? रद्दी को टोकरी में उठाकर किसी रचना को फेंक देना आसान है परन्तु लेखन की संभावना देखकर नए हस्ताक्षर को समय देकर लम्बे पत्र लिखना, तराशना और हौसला बढ़ाना बहुत बड़प्पन होने की निशानी है जो  अमरकान्त जी में था। आज भी मैं बहुत सम्मान से उनको याद करती हूँ। 




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