ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

रविवार, 26 नवंबर 2023

फितरतें कैसी-कैसी




 पढाई के उन कातिल दिनो में जब एग्ज़ाम से पहले खाना खाने में भी लगता कि टाइम वेस्ट हो रहा है मेरा दिमाग कुछ ज्यादा जाग्रत हो उठता  और क्रिएटिविटी के उफान में कहानियों, कविताओं व पेंटिंग्स के आइडिया के अंधड़ उड़ते। 

जिंदगी में जब- जब तनावग्रस्त समय की कतरब्योंत में उलझी होती तब-तब अनेक परछाइयाँ मेरा पीछा करतीं, कमर पर हाथ रखे अड़ जातीं कि अभी उतारो हमें कागज पर, पहनाओ रंग रेखाओं का या शब्दों का जामा।तो उस समय लिखी गईं कुछ कहानी, कुछ कविता और बन गईं कुछ पेंटिंग्स भी। तब कई बार यदि न लिख पाती तो रफ सा ड्राफ्ट  किसी डायरी या कागज में लिख लेती या रफ स्कैच बना लेती तो बाद में बात बन जाती और कभी नहीं बना पाती और जब तक फुर्सत होती तब तक सब कुछ धुँआ- धुआँ सा हवाओं में बिखर जाता।ऐसी कई रचनाओं की भ्रूणहत्या हो गई मजबूरी में। मुझे लगता है तनाव में जरूर कुछ ऐसे हारमोन्स स्रवित होते हैं जिनका संबंध हमारी क्रिएटिविटी से सीधा होता है।

आज भी जब कहीं घूमने जाती हूँ तो घूमते, बातें करते, ट्रेन में, बस में या प्लेन में सफर करते फिर से कुछ रंग, आकृतियाँ कुछ शब्द मेरा पीछा करने लगते हैं , इसीलिए हमेशा साथ में स्कैच बुक, क्रेयॉन व कलर्ड पेंसिल , डायरी पैक करती हूँ पर कभी ही कुछ सहेज पाती हूँ, क्योंकि वापिस रूम में लौट कर थकान से पस्त हो लिखने या स्कैच लायक न हिम्मत बचती है न हि ताकत। लेकिन आजतक समझ नहीं पाती कि जब चैन व फुर्सत में पसरे- पसरे से चैन भरे दिन होते हैं तब दिमाग की ये उर्वरता, सृजनात्मकता, कल्पनाशीलता, शब्दों का झरना व रंगों की फुहार कहाँ जाकर गुम हो जाते है सब ? मन्द समीर में चैन से दिमाग ऊंघता रहता है परिणामस्वरूप कितनी ही कहानियाँ मेरा मुँह देखती उकड़ूँ बैठी हैं, मुकाम तक पहुँचने की बाट जोहती और मैं जड़बुद्धि सी आलस की चदरिया में गुड़ीमुड़ी सी गुम हूँ…।

1978 में उन दिनों जब मैं ड्रांइंग एन्ड पेंटिंग में एम. ए. कर रही थी तब एग्ज़ाम होने से पहले दिमाग भन्ना रहा था। कॉलेज से आते सोचा था खाना खाते ही पढ़ने बैठ जाऊंगी। डाइनिंग टेबिल पर जाते ही मूली की भुजिया पर सबसे पहने नज़र पड़ी और अम्मा पर झुंझला पड़ी कि तुमने ये सब्जी क्यों बनाई ? वे बोलीं कि तुम्हारी पसन्द की चने की दाल और बूँदी का रायता भी है रात की बची भिंडी भी है , उसे ले लो। लेकिन हम उठ गए कि "नहीं खाना हमें…राजपाल हमें टोस्ट और चाय दे जाना…” कहते अपने रूम में ठसक कर चल दिए। पीछे से अम्मा की आवाज कानों में पड़ी- " ओफ्ओ उषा कहाँ निभोगी तुम ? इतना तेहा अच्छा नहीं, कल दूसरे के घर जाओगी तो कैसे चलेंगे ये नखरे…!”

हम अपनी टेबिल पर बैठकर लाइब्रेरी से लाई किताबें पलटने लगे, लेकिन दिमाग में अम्मा की कही बातें धमाचौकड़ी मचा रही थीं। उन दिनों में जोरशोर से हमारे ब्याहने को लड़के ढूँढे जा रहे थे। सब खिसका कर पैड और पैन उठा लिखने बैठ गए…कहानी बह निकली-

 " सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।उसे सहसा याद आया  जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी…।”(कहानी- लाल-पीली लड़की )

मजे की बात तो ये है कि ससुराल में जॉइन्ट फैमिली थी तो खूब बनती थी मूली की भूजी मूंग की दाल डालकर और हमें धीरे-धीरे बहुत अच्छी लगने लगी बशर्ते साथ में परांठे हों ।

उस खब्त ने कहानी तो लिखवा दी हमसे लेकिन कुछ अनमोल घन्टे खाकर, इसीलिए उस समय वो कहानी अफसोस से भर गई थी, परन्तु बाद में  1979 में सारिका के नव -युवा विशेषांक में यह कहानी प्रकाशित हुई थी पुन: डॉ० देवेश ठाकुर ने “1979 वर्ष की श्रेष्ठ कहानियां - कथा वर्ष 1980”में प्रकाशनार्थ चुना...फिर उर्दू और  पंजाबी में भी अनुवाद होकर छपी तो जिंदगी ने एक नए क्षेत्र में उठाए दूसरे कदम ने अफसोस समाप्त कर आत्मविश्वास बढ़ाया ।

खैर…सवाल तो यही है कि व्यस्ततम दिनों में ही हमारा दिमाग इतना उपजाऊ हो जाता है या औरों के भी साथ ये होता है …बताइए तो? 😊🍁🍃

— उषा किरण 



बुधवार, 18 अक्तूबर 2023

यूँ ही

 


ताताजी कैप्सटन की तम्बाकू और कागज पार्सल से मंगवाते थे और बहुत सलीके से अपनी गोरी सुघड़ उंगलियों से बनाकर सिगरेट केस में जमा कर सहेज लेते थे और सारे दिन बीच- बीच में बहुत सुकून से कश लगाते रहते थे. 


हमें सिगरेट की खुशबू बचपन से ही बहुत पसन्द थी. शायद उस खुशबू के साथ उनका अहसास लिपटा रहता था इसीलिए, इसीलिए शायद आज भी हमें वो खुशबू प्रिय है.कई बार जब वो टॉयलेट में या बगीचे में होते तो हम और भैया चुपके से एक निकाल लेते और छिप  कर सुट्टे लगाते.हमें लगता था कि उनको  पता नहीं चलता होगा. 


शादी होने के कई साल बाद हम सब बैठे गप्पें  मार रहे थे तो पति ने ताताजी को बताया कि " एक बार उषा हमसे कह रही थीं कि आप सिगरेट पिया करो!” सुनकर वो हँस पड़े और हम झेंप गए.  हमने कहा कि हमें सिगरेट की खुशबू बहुत अच्छी लगती है तो ताताजी बोले " हाँ  तभी बचपन में हमारे सिगरेट केस से निकाल कर तुम और डब्बू पी लेते थे कभी-कभी!” हम और भैया हैरान हो गए कि उनको पता था पर कभी भी टोका नहीं । हमने पूछा "आपको कैसे पता चलता था?”  तो हंसकर बोले "मैं गिन कर रखता था।” आज भी सोचती हूँ कि कुछ कहा क्यों नहीं? मेरे बच्चे ऐसा करते तो डाँट तो जरूर ही खाते.


अम्माँ कहती थीं कि बचपन में हम बहुत जिद्दी थे और शाम होते ही जाने कौन सा, किस जन्म का दु:ख याद आ जाता था कि रोज रोने लगते और किसी तरह नहीं चुपते थे. आज भी शाम होने पर कभी-कभी वो अंदर छिपी बच्ची उदास हो जाती है बेवजह. अम्माँ नौकर को कहतीं " जा मुल्लू इन्हें साहब के पास क्लब लेकर जा!” एक दो घन्टे बाद ताताजी के कान्धे पर बैठे हम खूब हंसते- खिलखिलाते लौटते. 


ताताजी, आपके कान्धे पर बैठकर हमें जरूर लगता होगा जैसे हम दुनियाँ में सबसे ऊँचे हो गए, हाथ बढ़ा कर चाँद छू सकते हैं . ताताजी आप क्यूँ अचानक याद आ रहे हैं आज इतना. आज तो फादर्स डे भी नहीं…आपकी बर्थडे भी नहीं. लेकिन याद आने की कोई वजह हो ये जरूरी तो नहीं…पर कई यादें उदास कर जाती हैं ….बस यूँ ही….😔

-उषा किरण 

फोटो: गूगल से साभार 

(अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज 11 अक्टूबर को  भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।)

बुधवार, 11 अक्तूबर 2023

छोटी देवी


 अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी लघुकथा आज दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है। आप भी पढ़ेंगे तो मुझे खुशी होगी 😊_________________


छोटी  देवी 

********

सुबह से घर में चहल- पहल है । आज अम्माँ जी के एकादशी का उद्यापन है । पंडित जी आँगन में पूजा की तैयारियों में व्यस्त हैं ।अम्माँ जी भी पास कुर्सी पर बैठी निगरानी कर रही हैं ।

अम्माँ जी ने ठाकुर जी की सेवा ले रखी है। वे ठाकुर जी की दिन- रात सेवा में लगी बुरी तरह थक जाती हैं पर उनका श्रंगार, भोजन, स्नान इत्यादि सब अपने ही हाथ से करती हैं । सारे दिन उनका हाथ में माला पर जाप चलता ही रहता है। 

एक दिन चित्रांगदा से बोलीं- “बहू सोच रही हूँ एकादशी का उद्यापन कर ही  दूँ, न जाने कब गोपाल जी अपने पास बुला लें ।” 

आज उसी अनुष्ठान की तैयारी चल रही है।

" अरी बहू गंगाजल नहीं है, जरा पूजा से उठा लाइयो !” गंगाजल लाने गई चित्रांगदा ने पूजा के कमरे से ही शोर सा सुना। अम्माँ जी गुस्से से चिल्ला रही थीं और पंडित जी का भी ऊँचा स्वर सुनाई दे रहा था।

" हे राम इतनी सी देर में क्या गड़बड़ हो गई…” बड़बड़ाती - हड़बड़ाती हुई चित्रांगदा नीचे भागी। 

जाकर क्या देखती है कि रीना किचिन में खाना बनाने  में व्यस्त थी, इसी बीच न जाने कब  किचिन से निकल कर घुटने चलती हुई उसकी साल भर की बेटी भोग वाले डिब्बे से लड्डू निकाल कर, सारे उपद्रव से बेख़बर गाल भर- भर कर खूब मजे से, हिल- हिल कर लड्डू खाती हुई किलक रही है और अम्माँ जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच चुका है । 

पंडित जी भी भ्रष्ट- भ्रष्ट कह कर आग में घी डालने का काम कर रहे हैं।रीना रसोई से भाग कर आई और आटा लगे हाथों से  शर्मिंदा सी नतशिर खड़ी हो गई।अम्माँ जी उसे बुरी तरह से डाँटने लगीं।

चित्रांगदा ने लपक कर बच्ची को गोद में उठा लिया और हंस कर बोली " अरे पंडित जी देखिए तो  ये वही साक्षात देवी मैया तो  हैं, जिनके आप कंजकों में पाँव पूजते हैं। ठाकुर जी से पहले भोली मैया ने भोग लगा लिया तो  क्या हो गया! कुछ नहीं होता, बच्चा है !”

" शैतान कहीं की” बच्चे के गाल पर हंसते हुए एक हल्की सी चपत लगा कर , खिसियाई, नत- शिर खड़ी रीना का  हाथ पकड़कर चित्रांगदा वहाँ से ले गई।

                                  —उषा किरण 

अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर मेरी यह लघुकथा दैनिक भास्कर के परिशिष्ट मधुरिमा में प्रकाशित हुई है।

सोमवार, 9 अक्तूबर 2023

तीन तेरह



तीन मेरे तेरे तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तीन तेरह

तेरा तेरा

तेरा तेरा 

तेरा तेरा

तेरा

तेरा

तेरा 

तेरा 

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा

तेरा….🌸🌼

                    —उषा किरण

शुक्रवार, 29 सितंबर 2023

दौड़



सुनो,

तुम मुझसे जैसे चाहो वैसे 

जब चाहो तब और जहाँ चाहो वहाँ 

आगे जा सकते हो 

तुमको जरा भी ज़रूरत नहीं कि

तुम मुझे कोहनी से  पीछे धकेलो या कि

धक्का मार कर या टंगड़ी अड़ा कर 

गिराओ या ताबड़तोड़ आगे भागो 

या अपने नुकीले नाखूनों से

मेरा मुँह नोचने की कोशिश करो या 

जहरीले पंजों से मेरी परछाइयों की ही

जड़ों को खोदने की कोशिश करो


तुमको ये सब करने की 

बिल्कुल ज़रूरत ही नहीं 

क्योंकि मैं तुमको बता दूँ कि 

मैं तो तुम्हारी अंधी दौड़ में 

कभी शामिल थी ही नहीं 

मैं हूँ ही नहीं तुममें से कोई एक नम्बर 

मुझे चाहिए नहीं तुम्हारा वो

चमकीला सतरंगी निस्सीम वितान

तुम्हारी जयकारों से गूँजता जहान

वेगवती आँधियाँ, तूफानी आवेग

आँखों, मनों में दहकती द्रोह-ज्वालाएं,दंभ


तुम हटो यहाँ से , 

मुझे कोसने काटने में 

अपना वक्त बर्बाद न करो वर्ना देखो

वे जो पीछे हैं आज, कल आगे बढ़ जाएंगे

तुमसे भी बहुत और आगे

पैरों में तूफान और साँसों में आँधियाँ भरे

वे दौड़े आ  रहे हैं…तुम भी भागो…


सुनो, मुझसे तो तुम्हारी प्रतिस्पर्धा या 

विवाद होना ही नहीं चाहिए 

बिल्कुल भी नहीं 

मैं तो एक कोने में खड़ी हूँ कबसे

दौड़ने वाले बहुत आगे निकल गए 

दूर बुलंदी पर फहरा रही हैं पताकाएँ 

गा रही हैं उनका  यशगान ….जय हो 


मैं भी खुश हूँ बहुत सन्तुष्ट 

अपनी बनाई  इक छोटी सी धरती और 

छतरी भर आकाश से

साँसें चलने भर हवाएं और 

दो घूँट पानी  भी हैं पल्लू में 

आँखें बन्द कर सुन रही हूँ 

अपने अन्तर्मन में बजता सुकून भरा नाद

इससे ज्यादा सुन नहीं सकती

सह नहीं सकती वर्ना मेरे माथे की शिराओं में  

बहने लगता है लावा और

तलवों से निकलने लगती हैं ज्वालाएं


बहती नदी से एक दिन चुराया था जो

हथेलियों में थामा वो  फूल

कभी का मुरझा कर झर चुका…

बस चन्द बीज बाकी हैं 

देखूँ,रोप दूँ इनको भी  कहीं, 

किसी शीतल सी ठौर…

तो फिर चलूँ  मैं भी …!!

                               —उषा किरण🌼🍃

फोटो: गूगल से साभार 

शनिवार, 2 सितंबर 2023

लघुकथा

अहा ! ज़िंदगी, मासिक पत्रिका में सितम्बर, 23 अंक में मेरी लघुकथा `टेढ़ी उंगली’ प्रकाशित हुई है। अहा ! ज़िंदगी पत्रि​का दैनिक भास्कर ऐप और वेबसाइट पर ईपेपर के रूप में पढ़ी जा सकती है।आप भी पढ़िए-


                       ~  टेढ़ी उंगली ~

"बात सुनो,  किचिन में कूलर लगवा दो, बहुत गर्मी लगती है!” दूसरी मंजिल पर खुली छत पर बनी और तीन तरफ़ से खुली होने पर सीधी धूप आने के कारण मई- जून में भट्टी सी तपती थी रसोई।ऊपर से बच्चों के स्कूल की छुट्टियाँ चल रही हैं तो उनकी नित नई फरमाइश अलग से । आज ये बनाओ मम्मी , कल वो बनाओ। परेशान होकर शुभा ने आज फिर राघव से कहा।

"अरे कहीं देखा है किचिन में कूलर ? फिर कूलर की हवा गैस पर लगेगी कि नहीं?”राघव ने लापरवाही से कहा।

"हाँ देखा है , खूब देखा है, कूलर क्या ए. सी. भी देखा है। और खिड़की में थोड़ा सा तिरछा करके लगा देंगे…अरे वो सब मेरा सिरदर्द है, मैं मैनेज कर लूँगी न…तुम बस आज छोटा कूलर लेकर आओ। कबसे कह रही हूँ तुम सुनते क्यों नहीं हो ? तुमको खाना बनाना पड़े तो पता चले। बना- बनाया मिल जाता है, तो तुमको क्या पड़ी है….!” 

बहुत देर तक शुभा झुँझला कर छनछनाती रही लेकिन राघव न्यूज पेपर में सिर घुसाए तटस्थ भाव से अनसुना कर बैठे रहे। 

आज शुभा का गुस्सा चरम पर था। चेहरा गर्मी और क्रोध से लाल भभूका हो रहा था। ऐसे काम नहीं चलेगा कुछ करना पड़ेगा । मन ही मन कुछ सोच कर मुस्कुराई।

कुकर गैस पर चढ़ा कर राघव से बोली " देखो दो सीटी आ जाएं तो गैस बन्द कर देना मैं नहाने जा रही हूँ ।” बाथरूम में जाकर चुपचाप सीटी आने का इंतज़ार करने लगी। जैसे ही दो सीटी आईं राघव के रसोई में जाते ही दबे पाँव शुभा ने दौड़ कर रसोई का दरवाजा बन्द करके बाहर से कुँडी लगा दी।

"अरे रे…ये क्या कर रही हो ? खोलो दरवाजा”

" शर्मा जी जरा दस मिनिट तो देखो खड़े होकर, मैं नहा कर आती हूँ , तब तक कश्मीर के मजे लो ।” राघव का गर्मी के मारे बुरा हाल हो गया। बेतरह गर्मी से बेहाल होकर चीख- पुकार मचाने लगे। 

ऊपर के कमरे में पढ़ रही पूजा पापा की आवाज़ सुनकर दौड़ी आई और किचिन का दरवाजा खोला। बौखलाए से राघव बड़बड़ाते हुए कमरे में कूलर के सामने भागे। माँ की हरकत सुनकर हंस कर पूजा बोली "हा-हा …पापा बिना बात क्यों पंगा लेते हो मम्मी से, सीधी तरह से मान क्यों नहीं लेते उनकी बात !”

शाम को किचिन में गुनगुनाते हुए शुभा कूलर की ठंडी बयार में मुस्कुराते हुए बड़े मन से डोसा बना रही थी।

                                    — उषा किरण🌸🍃




सोमवार, 14 अगस्त 2023

रॉकी और रानी…. मेरे चश्मे से


हाँ जी, देख ली आखिर…! 

न-न करते भी बेटी ने टिकिट थमा कर गाड़ी से हॉल तक छोड़ दिया तो जाना ही पड़ा।सोचा चलो कोई नहीं करन जौहर की मूवी स्पाइसी तो होती ही हैं तो मनोरंजन तो होगा ही।मैं तो कहती हूँ कि आप भी देख आइए…पूछिए क्यों ?

तो भई एक तो मुझे ये मूवी लुभावनी लगी, जैसा कि डर था कि बोर हो जाऊंगी वो बिलकुल नहीं हुई, कहानी ने बाँधे रखा और भरपूर मनोरंजन किया।आलिया बहुत प्यारी लगी है उसकी साड़ियाँ देखने लायक हैं शबाना की भी। रणवीर भी क्यूट लगा है।सबकी एक्टिंग भी बढ़िया है। पुराने गानों को एक ताजगी से पिरोया गया है, खास कर "अभी न जाओ छोड़कर….” गाने का पूरी मूवी में बहुत ख़ूबसूरती से इस्तेमाल किया है…वगैरह- वगैरह ।

खैर, ये सब तो जो है सो तो है ही। परन्तु सबसे बड़ी वजह है कि  ये कहानी जो एक संदेश छोड़ती है वो बहुत जरूरी बात है।घर- परिवार किसी एक की जागीर नहीं होती उस पर सभी सदस्यों का बराबर हक है। सबके कर्तव्य हैं तो अधिकार व सम्मान भी सबके हैं ।

ठीक है भई माना कि, घर में बुजुर्गों का सम्मान जरूरी है परन्तु इतना भी नहीं कि बाकी सबकी साँसें घुट जाएं, उनकी अस्मिता को कुचल दिया जाय। परम्परा जरूरी हैं बेशक, पर उनका आधुनिकीकरण होना भी उतना ही  जरूरी है। नए जमाने में नई पीढ़ी को सुनना ज़रूरी है। उनके विचार व सुझावों का भी सम्मान होना चाहिए, वे नए युग को पुरानी आँखों से बेहतर तरीके से देख व समझ पाएंगे।

घर की बेटी के मोटापे के आगे उसकी प्रतिभा को कोई स्थान नहीं। जैसे- तैसे किसी से भी ब्याहने को आकुल हैं सब। घर का बेटा कड़क, रौबदार माँ का  फरमाबदार बेटा तो है पर वो ये भूल गया कि  वो किसी का पति, बाप का बेटा, बच्चों का बाप भी है। उनके प्रति भी उसके कुछ फ़र्ज़ हैं । बरगद की सशक्त छाँव में जैसे बाकी पौधे ग्रो नहीं करते वैसे ही कड़क दादी की छाँव में बाकी सब सदस्य बोदे हो गए। बहू और पोती रात में चुपके से रसोई में छिप कर गाती हैं, अपने अरमान पूरे करती हैं और डिप्रेशन में  अनाप शनाप केक वगैरह खा-खाकर वजन बढ़ाती हैं, जो बेहद मनोवैज्ञानिक है। ऐसे में होने वाली बहू की बेबाक राय पहले तो किसी को हज़म नहीं होतीं । उसके क्रांतिकारी प्रोग्रेसिव विचार घर में तूफ़ान ला देते हैं । घर की नींव हिला देते हैं और भूचाल ला देते हैं , परन्तु बाद में सबको शीशा दिखाती हैं।सही है, बेटे के ही नहीं बहू या होने वाली बहू के भी अच्छे सुझावों का स्वागत होना चाहिए ।

क्या हुआ यदि जीवन साथी के संस्कार अलग हैं, तो क्या हुआ यदि होने वाला पति लड़की से शिक्षा, योग्यता वगैरह हर बात में कमतर है लेकिन वो लड़की से प्यार बेपनाह करता है और लड़की के पेरेन्ट्स के सम्मान को अपने पेरेन्ट्स के सम्मान से कम नहीं होने देता। खुद को बदलने के लिए बिना किसी ईगो को बीच में लाए प्रस्तुत है। लड़की की कही हर बात का सम्मान करता है। ये छोटी- छोटी बातें दिल चुरा लेती हैं । रानी के पिता को सम्मान दिलाने के लिए उनके साथ देवी पंडाल में रॉकी का डाँस करने का सीन भी दिल जीत  लेता है। सिर्फ़ लड़की का ही फ़र्ज़ नहीं होता कि वो खुद को बदले, एडजस्ट करे ये फर्ज लड़के का भी उतना ही होता है। दोनों के पेरेन्ट्स का सम्मान बराबरी का होना चाहिए, ये बहुत जरूरी बात सुनाई देती है।

धर्मेंद्र और शबाना की लव स्टोरी भी बहुत ख़ूबसूरती से दिखाई है। कभी-कभी बिना प्यार और सद्भावना के पूरी ज़िंदगी का साथ इंसान को कम पड़ जाता है और कभी मात्र चार दिन का प्यार भरा साथ पूरा पड़ जाता है…जीवन में एक ऐसी सुगन्ध भर जाता है कि उसकी आहट होश- हवास गुम होने पर भी सुनाई देती है।

 हमने रॉकी और रानी की प्रेम कहानी बिल्कुल नहीं बताई है। अब भई यदि हमारे चश्मे पे भरोसा हो तो देख लें जाकर उनकी प्रेम कहानी और न हो तो भी कोई बात नहीं….हमें क्या😎

                                                     — उषा किरण 

खुशकिस्मत औरतें

  ख़ुशक़िस्मत हैं वे औरतें जो जन्म देकर पाली गईं अफीम चटा कर या गर्भ में ही मार नहीं दी गईं, ख़ुशक़िस्मत हैं वे जो पढ़ाई गईं माँ- बाप की मेह...