ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

गुरुवार, 18 मई 2023

कौसर मुनीर-बेहतरीन महिला गीतकार


किसी नए गाने को सुन कर जब भी मन ठिठक गया, कदम थम गए, कान एकाग्रचित्त हो सुनने लगे तो  सर्च करने पर पाया कि वो गाना कौसर मुनीर का लिखा हुआ है। समकालीन महिला गीतकारों में मैं कौसर मुनीर को सबसे ज़्यादा नम्बर दूँगी। गुलजार साहब के बाद गानों में कविता डालने का काम जितनी ख़ूबसूरती से वे करती हैं लाजवाब हैं।

अगर बॉलीवुड में महिला गीतकारों की बात करें, तो उन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है।50 के दशक में सरोज मोहिनी नैय्यर, माया गोविंद, जद्दनबाई, वहीं 90 के दशक में रानी मलिक और आजकल बॉलीवुड में लगभग 10 महिला गीतकार सक्रिय हैं जिनमें कौसर मुनीर, अन्विता दत्त, प्रिया पांचाल, सोना मोहापात्रा, शिवानी कश्यप, रश्मि विराग प्रमुख हैं. अभी अन्विता, कौसर और रश्मि विराग की जोड़ी को छोड़ दो तो कोई भी महिला लगातार नहीं लिख रही है।

पुरुष प्रधान क्षेत्र में अपनी मौजूदगी मज़बूती से दर्ज करा रही कौसर ने बतौर गीतकार अपने करियर की शुरुआत टेलीविजन शो जस्सी जैसा कोई नहीं के टाइटल ट्रैक से की थी।  उसके बाद उन्होंने फिल्म टशन का सुपरहिट गाना फलक तक के बोल लिखे।  इस गाने के हिट होने के बाद वह हिंदी सिनेमामें जाना-माना चेहरा बन गयी।  तब से अब तक उन्होंने कभी मुड़ कर नहीं देखा। उसके बाद उन्होंने हिंदी सिनेमा की कई सुपरहिट फिल्मों इश्क्जादे, धूम 3, एक था टाइगर जैसी फिल्मों के गानें लिखे। इसके अलावा वह फिल्म इंग्लिश-विन्ग्लिश में बतौर लैंग्वेज कन्सल्टेंट के काम कर चुकी हैं। कौसर मुनीर कविता भी बहुत सुन्दर लिखती हैं उनकी कविताओं के कुछ वीडियो यूट्यूब पर भी सुने एक देखे जा सकते हैं ।

कौसर मुनीर द्वारा लिखे गए सबसे लोकप्रिय गीतों में से एक  फिल्म पैडमैन (2018) के लिए आज से तेरी है -

आज से तेरी सारी

गलियां मेरी हो गयी

आज से मेरा

घर तेरा हो गया

आज से मेरी सारी खुशियाँ

तेरी हो गयीं

आज से तेरा गम मेरा हो गया…!

स्वानंद किरकिरे के मुताबिक़ "कई बार किसी महिला के लिखे गीत को सुनते वक़्त समझ आता है कि शायद यह एंगल गाने में एक पुरूष डाल ही नहीं सकता था. वो हमारे गीतों को एक नया आयाम देती हैं."

इसी तरह फलक गीत आया। हालांकि फिल्म बॉक्स ऑफिस पर पिट गई, लेकिन फलक गाना खास रहा। इसी तरह कला फिल्म का गाना फेरो न नजरिया- तो मन मोह लेता है और सभी के मन में घर कर गया। सिरीशा भगवतुला ने इसे विरह में डूबकर गाया है. उन्हें सुनकर लगता है, जैसे उनकी आवाज़ मन के किसी दर्दीले कोने से आ रही हो।

तारों को तोरे ना छेड़ूँगी अबसे

तारों को तोरे ना छेड़ूँगी अबसे

बादल ना तोरे उधेड़ूँगी अबसे

खोलुंगी ना तोरी किवड़िया

फेरो ना नजर से नजरिया…!

 अभी फ़िलहाल तो  जिक्र "मिसेज चटर्जी वर्सेज नार्वे” फिल्म के गाने का- आमी जानी रे बहुत ही मधुर गाना है।इसी फिल्म के दो और गाने शुभो- शुभो और माँ के दिल से भी सुनने लायक है। रानी मुखर्जी कहती हैं कि -"मां के दिल से…उन बेहतरीन गानों में से एक है जिसे मैंने हाल के दिनों में सुना है जो मां-बच्चे के रिश्ते को इतनी खूबसूरती से परिभाषित करता है। पहली बार जब मैंने गाना सुना तो मैं कौसर द्वारा लिखे गए शब्दों से बेहद प्रभावित हुई, मैं केवल अपनी मां और अपने बच्चे तथा एक बेटी से मां बनने तक की अपनी यात्रा के बारे में सोच सकती थी। गाने की पूरी सोच यह है कि मां बच्चे को जन्म देती है या बच्चे मां को जन्म देता है।गाने को अपनी मां को समर्पित करते हुए रानी ने कहा, यह वास्तव में खास है कि यह गाना महिला दिवस पर रिलीज हो रहा है क्योंकि एक महिला के रूप में मेरा जीवन मां बनने के बाद पूरी तरह से बदल गया। मैं इस गाने को अपनी मां को समर्पित करना चाहती हूं, जिन्होंने इतने सालों में मेरे लिए कई कुर्बानियां दी हैं। मातृत्व एक शानदार जीवन शक्ति है और अनंत सकारात्मकता का कार्य है।”

आमी जानी रे

आमी जानी रे

तुमार बोली

तुमार चुप्पि भी रे

आमी जानी रे

आमी जानी रे

तुमार बट्टी भी

तुमार कट्टी भी रे

आमी जानी रे

आमी जानी रे….! 

सुनिए कितना मीठा गाना है❤️

                                       —उषा किरण

मंगलवार, 25 अप्रैल 2023

साँझ

 


उतर रही है साँझ 

क्षितिज से

गालों पे 

फिर तिरे  दामन पे

पाँव रख 

हौले से 

बिखर गई गुलशन में

रक्स-ए-बहाराँ बन के….

                 - उषा किरण 🌸🍃🌱

रविवार, 12 मार्च 2023

छपाक






शाँत, सुन्दर, सौम्य , सजी-संवरी

नदी को देखते ही ये जो अकुला कर 

शीतल निर्मल जल में गहरे पैठ

तुम बहा देते हो अपनी मलिनता

डुबोते हो अपना ताप

बुझाते हो तृष्णा

फिर जब चाहते हो 

अपनी ठोकर से 

मस्ती में उछाल देते हो कंकड़ और

लहरों की हलचल से पुलकित 

मस्त चाल चल देते हो बेफिक्र

हंसते, गुनगुनाते… 


क्या तुमने कभी सोचा है

ये है जो शाँतमना-मन्थर-गति प्रवाहित 

उसके सीने में ज़ब्त हैं 

कितने तूफानों की स्मृतियाँ 

कितनी ताप की ऊष्मा

कितनी सर्द रातों की ठिठुरन

कितने कुहासे

कितने गहरे भँवर

कितनी दलदल

कितनी उलझी गाँठें 

और कितने गहरे काले अँधेरे….


तुम तो बस उठाते हो एक कंकड़ और 

पूरे जोर से उछाल देते हो उसके सीने में

छपाक….!!

                  — उषा किरण

रविवार, 26 फ़रवरी 2023

पुस्तक- समीक्षा:- दर्द का चंदन





 समीक्षा : "दर्द का चंदन "

लेखिका : डॉ० उषा किरण

जब आशियाने का शहतीर साथ छोड़ देने वाली स्थिति में हो और उसी समय टेक  बने नए लट्ठों में भी घुन लग जाए तब विश्वास की नींव की ईटों को दरकने से कौन रोक सकता है ? आशियाना संभलेगा या बिखरेगा ,बिखरेगा तो कितना कुछ काल के हाथों में होगा और कितना वहां रहने वालों के हाथों में ? इन्हीं सवालों को लिये इस उपन्यास की कहानी चलती है।

  उपन्यास ," दर्द का चंदन " जिसे  लिखा  है चित्रकार व साहित्यकार डॉ ० उषा किरण जी ने । यह उनकी दूसरी प्रकाशित पुस्तक है इससे पूर्व इनका "ताना - बाना" नामक काव्य संग्रह भी प्रकाशित हो चुका है जिसमें कविताओं के साथ लेखिका के स्वयं के द्वारा बनाए गए रेखाचित्र भी हैं।

 इस  उपन्यास का आकर्षक आवरण- चित्र भी लेखिका द्वारा ही चित्रित है। चित्रकार व साहित्यकार दोनों के भावों को लिए यह उपन्यास लेखिका के जीवन -संघर्ष , अपने भाई के प्रति असीम प्रेम,  ईश्वर के प्रति आस्था ,जीवन के प्रति दार्शनिक दृष्टिकोण लिए आत्मविश्वास के साथ संघर्ष करते हुए, झेले गए कष्टों व पीड़ाओं  की  कहानी है। जहाँ एक ओर  हर रोज मृत्यु की ओर बढ़ते अपने से दूर होते जाते अपने पिता को  देखना वहीं फिर दूसरी ओर  बहन-भाई का एक-एक करके  कैंसर जैसी मौत का पर्याय मानी जाने वाली घातक बीमारी की चपेट में आ जाना पाठक को उस स्थिति से अवगत कराता है जब हम परिस्थितियों के जाल में फंसे कठपुतली से नाचते हैं। पीड़ाओं की स्मृतियों को आकार देने में मन बिलख पड़ता होगा तभी दर्द कविता बनकर दिल से बह उठी है, इसलिए लेखिका ने हर अध्याय के आरंभ में कविता की पंक्तियाँ भी संजोई हैं जिनमें से एक अंश-

          जीवन की इस चादर में

          सुख-दुःख के ताने-बाने हैं

          कुछ कांटे कुछ फूल गूंथे

          कुछ धूप-छांव और बारिश है

          थिरकती हम सब कठपुतलियाँ

          और धागे बाजीगर ने थामे है !!

 यह उपन्यास लेखिका व उनके प्रिय छोटे भाई दोनों को हुई कैंसर जैसी प्राणघाती बीमारी से जूझने और दर्द को सहते चंदन मानकर जीवन तपस्या में रत रहकर एक दूसरे को  हौंसला देते, माथे पर दर्द को चंदन सा धारण  कर हार या जीत तक लड़ते रहने की एक प्रेरणा ज्योति है। 

कैंसर के साथ इस युद्ध में  हार या जीत होनी तय थी । दोनों में से कौन किस-किस तरह  कैंसर के जाल से  खुद को निकाल कर जीत गया और यदि जो हारा भी तो औरों को जीने का नया दार्शनिक दृष्टिकोण देकर गया। जीतने वाले ने जीतकर भी क्या - क्या खोया जिसकी भरपाई कभी न हो सकी । ऐसे अनेक सवालों के साथ उनका जवाब पाते पाठक उपन्यास को नम आंखो से पढ़ता जाता है। 

यह उपन्यास अनेक लोगों को जो कैंसर या अन्य किसी भी प्राणघातक बीमारी या दुश्वार परिस्थितियों से पीड़ित हैं या घिरे हैं या उनका कोई अपना इससे दो-दो हाथ कर रहा हो  उनमें जीवन के प्रति एक नई उम्मीद जगाता है और नाउम्मीदी में भी जीवन के मर्म को समझने के लिए एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है ।

लेखिका ने बेहद सरल, सहज, दैनिक जीवन की आम बोलचाल की भाषा में कैंसर के लक्षण , कारण और उपचार के विभिन्न चरणों और उस दौरान आने वाली कठिनाइयों और उनसे उबरने के लिए वैज्ञानिक ( चिकित्सीय उपचार ) व भावनात्मक दोनों तरह के उपचार का वर्णन उपन्यास में किया है ।

उपन्यास न केवल कैंसर जैसी घातक बीमारी व उससे लड़ने वालों की मनोदशा व हालातों को बयाँ ही नहीं करता बल्कि इस बीमारी में कैसे सकारात्मक रह कर व स्वयं में होने वाले  परिवर्तनों के प्रति जागरूक रहकर इससे बचा जा सकता है यह भी बताता है ।

पुस्तक के बारे में लिखने को काफी कुछ लिखा जा सकता है और कहने को बहुत कुछ कहा भी जा सकता है, यह निर्भर है पाठक किस गहराई तक पहुंच पाया…जहाँ तक मैं पहुंच सका वही इस संक्षिप्त समीक्षा में पिरोने की कोशिश की है।

  पुस्तक मंगाने हेतु लिंक नीचे कमेंट बॉक्स में दिया गया है...…..                              धन्यवाद...!!

   प्रकाशक : हिंदी बुक सेंटर 4/5 - बी आसफ अली रोड़  नई दिल्ली ।मूल्य : 255/-

                                                            पुनीत राठी

रविवार, 19 फ़रवरी 2023

स्वीकार




 स्वीकार

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धराआकाशजल,पवन को

हाजिरनाजिर मान

ऐलान करती हूँ आज

जाओ माफ कियामुक्त किया तुम्हें…!


ताउम्र उलझतीझगड़ती रही

तोहमतें लगाईंकलपती रही कि-

बोलो जरा

तुम्हारी मर्जी बिना जब

हिल सकता नहीं पत्ता भी तो

भला मेरी क्या बिसात 

फिर मेरे किए मेरे कैसे 

सब तेरेसब तेरे…!


फिर क्यूँ प्रारब्ध के चक्रवात में फंसी

जन्म जन्मान्तर से अनवरत भटक रही 

मेरा क्या है मुझमें जो भुगत रही हूँ 


थक गई हूँ अब और नहीं लड़ सकती

प्राण-शक्ति शिथिल और

दृष्टि धुँधला रही है

दूर क्षितिज पर टिमटिमाती मद्धिम लौ 

धीरे-धीरे निकट  रही है


पद भ्रमित हैंमन विकल

ढलती जाती है साँझ 

श्वास अवरुद्ध है और कण्ठ शुष्क 

हे प्रियबहुत हुआ.. बस

स्वीकार करो मेरा सर्वस्व 

अब तो खोलो काराअंगीकार करो


उड़ने दो उन्मुक्त मेरे राजहंस को

हाथ बढ़ाओसमा लो अब

अपनी निस्सीम बाहों में कि

भटकती यात्रा को मंजिल मिले

और बेचैन रूह सुकून पाए…!!!


                 — उषा किरण


सोमवार, 6 फ़रवरी 2023

`दर्द का चंदन ‘


डॉ उषा किरण जी द्वारा लिखित आत्मकथ्यात्मक उपन्यास 'दर्द का चंदन' पूरा पढ़ने का सौभाग्य मिला। सौभाग्य शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया कि महीनों बाद कोई उपन्यास पूरा पढ़कर समाप्त कर पाया। विगत महीनों में कई बार ऐसा हुआ कि एक उपन्यास शुरू किया तो खतम होने से पहले दूसरा शुरू कर दिया, परिणाम यह होता कि न यह पूरा हो पाता न वह। उपन्यास बहुत रोचक है यह नहीं कह रहा लेकिन इसमें कुछ है जो पाठक को बांधे रखता है।


'दर्द का चंदन' दर्द का वह पिटारा है जिसे लिखना सबके वश की बात नहीं। यह वही लिख सकता है जिसने न सिर्फ दर्द को सहा हो, बल्कि दूसरों के दर्द को उतनी ही गहराई से महसूस भी किया हो। सहने के साथ दूसरों के दर्द को महसूस करना तो बड़ी बात है ही, इतने विस्तार से कागज पर पंक्तिबद्ध कर देना और भी बड़ी बात है। जब इतने कशमकश के बाद इस दर्द ने उपन्यास का रूप पाया तो फिर इसका दूसरा नाम कैसे होता? वह 'दर्द का चंदन' ही होता। हमने भी न सिर्फ इस चंदन को पढ़ा बल्कि दर्द के साथ इसकी खुशबू को महसूस भी किया। 


यह आत्मकथा कई मामलों में उपयोगी है। यह आपदा में संघर्ष करना तो सिखाता ही है, कैंसर जैसी महामारी से लड़ने के प्रारम्भिक उपचार भी सिखाता है। आर्थिक रूप से विकलांग लोगों के लिए तो कैंसर का नाम ही महाकाल है लेकिन जो लेखिका की तरह आर्थिक रूप से समर्थ हैं, उनके लिए भी कैंसर शब्द डरावना है। पिताजी, भइया और खुद भी बीमारी से गम्भीर रूप से पीड़ित होने, पिताजी और भइया को एक-एक कर खोने के बाद खुद भी इस बीमारी से पीड़ित होकर, हाहाकारी अवस्था से संघर्ष करते हुए पूरी तरह ठीक हो जाना एक चमत्कार से कम नहीं है। लेखिका आर्थिक मामलों के साथ इस मामले में भी भाग्यशाली रहीं कि न केवल पिताजी, भाई-बहन का भरपूर प्यार मिला बल्कि हर दुःख की घड़ी में पूरा साथ देने वाला जीवन साथी भी मिला। इससे एक बात समझ में आती है कि आर्थिक मजबूती तो जरूरी है ही, अपनों का भरपूर साथ भी उतना ही जरूरी है।


रोचकता बढ़ाने के लिए खुद की बीमारी के ठीक होने की सूचना अंत पृष्ठों तक समेटी जा सकती थी और संस्मरण बीच में रखे जा सकते थे लेकिन डॉ उषा जी के मन ने जैसा लिखवाया लिखती चली गईं,  पुस्तक में बुनावट के अलावा कोई बनावट नहीं दिखी। दूसरी बात यह कि अंग्रेजी के शब्दों की हिंदी में स्वीकार्यता के नाम पर उन शब्दों को भी ज्यों का त्यों रख दिया गया है जो आज एक पढ़े लिखे समृद्ध परिवारों की आम बोल चाल की भाषा बन चुकी है, अंग्रेजी न समझने वाले पाठकों के लिए इन्हें समझना थोड़ा कठिन होगा। कुछ अंश तक इससे बचा जा सकता था।


कुल मिलाकर यह उपन्यास कैंसर जैसी भयंकर बीमारी से लड़ने के लिए हमें जरूरी सूत्र देता है। इसे पढ़ने के लिए लोगों को प्रेरित किया जाना चाहिए ताकि वे भी सीख सकें कि मुश्किल वक्त में कैसे पूरे परिवार को साथ लेकर चलते हुए इस महामारी पर विजय पाई जा सकती है। मैं इस पुस्तक के लिए डॉ उषा किरण जी को बधाई एवं दीर्घ स्वस्थ्य जीवन की शुभकामनाएँ तो देता ही हूँ साथ ही जाने/अनजाने अपने अनुभव बांट कर उन्होंने बहुतों की जो मदद करी उसके  लिए अपना आभार भी प्रकट करता हूँ।

....@देवेन्द्र पाण्डेय।

रविवार, 25 दिसंबर 2022

कुछ इस तरह


 जिन संबंधों को हम भावनाओं के रेशमी तन्तुओं से बुनते हैं, प्यार की सुगन्ध डालते हैं, दिल के क़रीब रखते हैं, वे ही संबंध कभी-कभी जरा सी ठेस से बिखर कैसे जाते हैं? जरा किसी ने कुछ कह दिया या आपकी किसी भावना का सम्मान नहीं किया या भावना को ठेस पहुँचा दी, किसी और से भी नज़दीकियाँ कर लीं या किसी ने लगाई - बुझाई कर दी या हमें इम्पॉर्टेंस देनी कम कर दी और हम भड़क जाते हैं…जरा सी देर में हमारा अहम् चोटिल होकर नाग सा फुँफकारने लगता है, अपमानित और ठगे हुए से खुद को महसूस करके हम प्रत्युत्तर में गालियों व आरोपों  के पत्थर मारने लग पड़ते हैं, चुगली  शुरु कर देते हैं। जो जरा शराफत और बुद्धिजीवी कहलाने का नशा रखते हैं वे साहित्य की ओट में बड़े- बड़े शब्दों का चयन कर लाँछन लगाने व घात लगाने से नहीं चूकते। वे आपके चरित्र का भी हनन चुटकियों में वाक्-चातुर्य से करते नजर आते हैं। कल तक जो प्रिय थे,  वे अचानक अब से आपके दुश्मनों की कतार में हाथ में पत्थर लिए खड़े नजर आएंगे। 

मतलब साफ है कि वो रिश्ता सिर्फ़ उनके अहंकार को पुष्ट करने का मात्र जरिया भर था बाकी अन्दर भूसा ही भरा था। सारे कोमल  रेशमी धागे बुरी तरह उलझ जाते हैं ।वे जरा नहीं सोचते कि अपने पुराने संबंधों की कुछ तो मर्यादा रखें। मैं- मैं का गान खुद करेंगे औरों से भी करवाएंगे। ये नहीं कि दूसरों की नजर में आपके लिए जो उच्च भाव व आदर था कभी, उसकी ही लाज रख लेते …जरा सा दिमाग व अहम् को परे कर दिल से काम ले लेते…पर नहीं आप तो आप हैं ऐसे कैसे छोड़ेंगे ? फौरन से उन रेशमी अहसासों के पेड़ की जड़ में जो कभी बहुत जतन से रोपा व पोसा था अहंकार , ईर्ष्या व द्वेष का तेज़ाब उड़ेल देंगे…भाव- मन्दिर में खड़े होकर  बदहजमी की डकारें मारने लगेंगे। 

मुझे याद है एक बार हमने अपने घर एक सीनियर प्रोफ़ेसर को विद फैमिली डिनर पर आमन्त्रित किया था। तभी अचानक एक और प्रोफ़ेसर साहब आफत के मारे अचानक आ धमके। तब मोबाइल तो होते नहीं थे कि कॉल करके आते। उन दोनों में कभी रही गहरी दोस्ती अब कट्टर दुश्मनी में तब्दील हो चुकी थी। तो उनके आते ही सीनियर प्रोफेसर साहब झपट पड़े । हमारे घर को अखाड़ा बना दिया। जरा लिहाज़ नहीं किया कि आप किसी दूसरे के घर पर अतिथि की हैसियत से पधारे हैं और दूसरे प्रोफ़ेसर भी हमारे अतिथि ही हैं और लगे दबादब लड़ने । कहनी- अनकहनी सब कह डालीं । गाली- गलौज से भी गुरेज़ नहीं किया। हम सन्न थे । काफ़ी कोशिश की उनको रोकने की पर वो कहाँ रुकने वाले थे। वे अब स्वर्ग सिधार चुके हैं परन्तु आजतक भी वो घटना याद आती है तो मन क्षोभ से भर जाता है। 

तो जब भी लगे कि अब ये नौबत आने वाली है तो थम कर जरा सोचें, गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश करें और यदि नामुमकिन लगे तो शान्ति से उस उलझी रेशमी गुच्छियों को वहीं उलझा छोड़कर रास्ता बदल लें लेकिन खूबसूरती से। इस तरह कम से कम कुछ सुनहरी स्मृतियाँ तो आपकी मुट्ठी में होंगी…आपकी और दूसरे की भी गरिमा बनी रहेगी और कुछ तो आँखों की शर्म बाकी रह जाएगी जिससे कभी भूले- भटके सामना हो भी जाए तो आँखें न चुराते फिरें-

"दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे

जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिंदा न हों”

आप खूबसूरती से भी इस पीड़ा को बाय कह सकते हैं ।राहें बदलें …पटाक्षेप करें परन्तु कुछ इस तरह- 

" वो अफसाना जिसे अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन, उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ देकर  छोड़ना अच्छा…!”

- उषा किरण 

जरा सोचिए

     अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है हर समय उधार मांगती रहती है कामवालों के नखरे बहुत हैं  पूरी हीरोइन...