ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 18 मार्च 2025

दुआ की ताकत



एक धन्ना सेठ था। बड़ी मन्नतों से उसका एक बेटा हुआ। भारी जश्न हुआ। हवन के बाद विद्वान पंडितों ने जन्मपत्री बनाई तो स्तब्ध । सेठ जी ने जब पूछा  तो पंडितों ने काफी संकोच से बताया कि इसकी कुल आयु सत्रह वर्ष ही है। सेठ- सिठानी के मन में चिन्ता की लहर व्याप गई।पूछा कोई उपाय कोई पूजापाठ, अनुष्ठान है ? तो उन्होंने कहा नहीं कोई इस अनहोनी को कोई नहीं टाल सकता, यह उसका प्रारब्ध है, अवश्यम्भावी है। 

खैर बहुत लाड़- चाव से बेटे का लालन- पालन हुआ और सेठ ने सोचा इसकी शादी जल्दी कर देनी चाहिए अत: सत्रहवें वर्ष में एक सुयोग्य कन्या से उसकी शादी कर दी। तब तक जो घड़ी मृत्यु की बताई थी वह घड़ी आ पहुँची थी। पंडितों को बैठाकर पूजा- पाठ निरन्तर चल रहा था। सारे घर के सदस्य भी हाथ जोड़कर प्रार्थना कर रहे थे। नववधु का किसी को ध्यान ही नहीं था।


विदा होकर आई नव-वधू इस सब चिन्ताओं से अनभिज्ञ ऊपर की मंजिल पर अपने कमरे में अकेली बैठी खिड़की से बाहर झांक रही थी। सहसा उसकी दृष्टि बाहर खेत में गई तो देखा खेत में घास काट रही एक गरीब स्त्री प्रसव पीड़ा से जमीन पर पड़ी छटपटा रही है, उसका मन विचलित हो गया पर आसपास कोई नहीं, नया घर, किसी को जानती नहीं तो संकोचवश विवश होकर चुपचाप देखती रही। 


किसी तरह प्रसव के बाद उस स्त्री ने बच्चे को गोद में लिया तो वधू ने अपनी ओढ़नी खिड़की से नीचे गिरा दी, जिसमें स्त्री ने बच्चे को लपेट लिया। श्रांत- क्लांत स्त्री को जोर की भूख- प्यास लग रही थी तो उसने इशारे से कुछ खाने पीने के लिए माँगा। नव-वधू ने माँ ने साथ में जो टिफिन में कुछ मिठाइयाँ रखी थीं वह और पानी किसी तरह अपनी साड़ी में बाँध कर नीचे पहुँचा दीं। खा-पीकर स्त्री के तन में ताकत आई तो उसने तृप्त होकर दोनों हाथ उठाकर डबडबाई आँखों से आशीर्वाद दिया  और धीरे-धीरे बच्चे को लेकर गाँव की तरफ चली गई। 


उधर सेठ के बेटे की मौत की घड़ी आ गई, पंडितों की पूजापाठ चालू थी, सहसा पूजा में जहाँ बेटा बैठा था वहीं पर खम्बा टूटकर उसे छूता हुआ गिरा। सब व्याकुल हो हाय- हाय करते खड़े हो गए, परन्तु उसका बाल भी बाँका नहीं हुआ। मृत्यु छूकर निकल गई। पंडितों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही, बेशक वे पूजापाठ कर रहे थे पर जानते थे कि मृत्यु निश्चित है।फिर ये कैसे संभव हुआ?बहुत सोच- विचार कर सबसे वृद्ध पंडित जी ने पूछा, बहू कहाँ है ? उसे बुलाओ। वधू से जब पूछा गया कि वह क्या कर रही थी उस समय, तो उसने सारी बात बताई। पंडित जी ने कहा इसके पुण्य प्रताप ने इसके सुहाग की रक्षा की है। जो काम पूजा अनुष्ठान से नहीं हो सकता था वह सत्कर्म से मिली गरीब, दुखी की आत्मा से निकली दुआ ने कर दिखाया 


हरेक की मृत्यु का पल तय है, परन्तु कई बार अच्छे कर्म, दान- पुण्य, प्रार्थनाएं, आशीर्वाद के फलस्वरूप वह संकट की घड़ी टल सकती है। निःस्वार्थभाव से सेवा करते रहिए , पता नहीं कब किसकी दुआ आपके कौन से अंधेरे कोने को प्रकाशित कर दे…हरि ॐ 🙏

फोटो; गूगल से साभार 


शनिवार, 8 मार्च 2025

यूँ भी….



किसी के पूछे जाने की

किसी के चाहे जाने की 

किसी के कद्र किए जाने की

चाह में औरतें प्राय: 

मरी जा रही हैं


किचिन में, आँगन में, दालानों में

बिसूरते हुए

कलप कर कहती हैं-

मर ही जाऊँ तो अच्छा है 

देखना एक दिन मर जाऊँगी 

तब कद्र करोगे

देखना मर जाऊँगी एक दिन

तब पता चलेगा

देखना एक दिन...


दिल करता है बिसूरती हुई

उन औरतों को उठा कर गले से लगा 

खूब प्यार करूँ और कहूँ 

कि क्या फर्क पड़ने वाला है तब ?

तुम ही न होगी तो किसने, क्या कहा

किसने छाती कूटी या स्यापे किए

क्या फ़र्क़ पड़ने वाला है तुम्हें ?


कोई पूछे न पूछे तुम पूछो न खुद को 

उठो न एक बार मरने से पहले

कम से कम उठ कर जी भर कर 

जी तो लो पहले 

सीने पर कान रख अपने 

धड़कनों की सुरीली सरगम तो सुनो

शीशें में देखो अपनी आँखों के रंग

बुनो न अपने लिए एक सतरंगी वितान

और पहन कर झूमो


स्वर्ग बनाने की कूवत रखने वाले 

अपने हाथों को चूम लो

रचो न अपना फलक, अपना धनक आप

सहला दो अपने पैरों की थकान को 

एक बार झूम कर बारिशों में 

जम कर थिरक तो लो

वर्ना मरने का क्या है

यूँ भी-

`रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई !’

                                             —उषा किरण🍂🌿

#अन्तर्राष्ट्रीयमहिलादिवस

पेंटिंग- लक्ष्मण रेखा( उषा किरण , मिक्स मीडियम, 30”x30”

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

सरेराह चलते-चलते

 



राहों से गुजरते कुछ दृश्य आँखों व मन को बाँध लेते हैं । जैसे सजी- धजी , रंग- बिरंगी सब्ज़ियों या फलों की दुकान या ठेला, झुंड में जातीं गाय या बकरियाँ, सरसों के खेत हों या फिर सिर पर घास का गट्ठर ले जाती , एक हाथ में हँसिया पकड़े रंग- बिरंगे परिधान पहने ग्रामीण महिलाएं। कोयल की कूक, सरेराह झगड़ते लोग…। 

कभी - कभी कुछ झगड़े देख कर मन करता है गाड़ी रोक उतर जाऊँ और उनको झगड़ने से रोक दूँ या क्यों न मजा ही लूँ कि झगड़े की क्या वजह थी और आखिर हल क्या निकला ? देर तक फिर मेरे कल्पना के घोड़े दौड़ते रहते हैं ।कई बार तो घर आकर भी वही सब दिमाग में घूमता रहता है।

कुछ दिन पहले गुड़गाँव से लौटते समय टोल पर अपनी बारी का इंतजार करती खड़ी एक नई- नवेली चमचमाती गाड़ी को दूसरी गाड़ी ने लापरवाही से पीछे से ठोंक दिया। गाड़ी अच्छी खासी डैमेज हो गई। गाड़ी इतनी नई थी कि उसकी सजावट भी नहीं उतरी थी। मेरा ही जी धक् से रह गया। लगा अब जम कर झगड़ा, गाली-गलौज व मारपीट तो होनी निश्चित ही है। मैं चूँकि दूसरी लाइन में थी तो दम साधे देख रही थी। 

गाड़ी से दो सज्जन पुरुष ( जो वाकई सज्जन ही थे) उतरे और पीछे वाली से हड़बड़ाता एक ड्राइवर नुमा कोई व्यक्ति उतरा। वे आराम से बात करने लगे। गाड़ी कितनी डैमेज हुई ये भी देखते जा रहे थे। उनके मुंह उतरे हुए थे पर बहुत शान्त भाव से बातें करते रहे। उनकी मुखमुद्रा या भाव भंगिमा में जरा भी ग़ुस्सा नज़र नहीं आ रहा था इसी बीच हमारी गाड़ी चल पड़ी और मेरा मन हुआ यहीं उतर जाऊं बल्कि पास जाकर बात सुनूँ बल्कि पूछ ही लूँ कि भाईसाहब आप कौन सी साधना , योग करते हैं? कैसे उतरा ये बुद्धत्व , ये समभाव ? अमूमन तो ऐसे हादसों का अगला दृश्य सात पुश्तों को कोसते व माँ बहन के लिए बकौती करती गाली- गलौज व मार पीट का ही होता है । ये ऐसे हादसे के बाद इतनी शान्ति से कौन बात करता है भाई…कुछ तो लड़ लो …थोड़ा सा तो शोर मचाओ भई। बच्चे का खिलौना तक टूटने पर लड़ने वाले तो एक दूसरे का खून तक कर देते हैं और एक तुम हो कि…..पर कहाँ…हमारी गाड़ी चल पड़ी, जीवन तो चलने का नाम है तो चल कर आ गए घर।कौन किसी के लिए रुकता है जो हम ही रुक जाते। 

इस बात को एक महिना हो चुका है और मेरे मन ने प्रश्नों की बौछार से परेशान कर रखा है-

- वे लड़े क्यों नहीं?

- क्या वे आधुनिक लिबास में साधु थे ?

- क्या वे पूर्व परिचित थे ?

- क्या मालिक कोअपनी गाड़ी खुद पसन्द नहीं थी कि ठुक गई तो ठुकने दो …!

- तगड़ा इन्श्योरेंस होगा ?

-क्या वो दब्बू व डरपोक आदमी थे जो लड़ने में डर रहे थे ? 

- क्या वे सज्जन किसी दुश्मन की गाड़ी उधार पर लाए थे ?……वगैरह…वगैरह…!


    अच्छा, चलें कुछ काम देखें…बकौल मेरे पति के  …खाली दिमाग शैतान का घर”😊

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

आस्था की डुबकी

 


आस्था की डुबकी 🙏

बेशक हम सब धर्मों का दिल से सम्मान करते हैं, लेकिन  हैं पक्के सनातनी; तो कुम्भ ना नहाएं ये हो नहीं सकता था। हालाँकि हमें इस पर जरा भी विश्वास नहीं कि सब कुम्भ नहनियाँ लोगों की स्वर्ग में सीट पक्की हो गई और कुछ उत्साही तो मोक्ष तक का दावा कर रहे हैं । तो भोले सन्तों, भगवान इतने मूर्ख नहीं कि तुम्हारे कर्मों की गठरी को भी तुम्हारी डुबकी के संग संगम में डुबो दें। वो तो पाप- पुण्य भोगने ही पड़ेंगे, भगवान तक प्रारब्ध के नियमों से नहीं बच सके, राम भगवान के पिता नहीं बच सके तो भई तुम तो हो किस खेत की मूली ? रही मुक्ति की बात तो कई जन्मों की साधना से भी जिस मुक्ति के लिए कठिनतम साधना के बाद भी जो साधु सन्तों को भी मिलनी मुश्किल है , उसका दावा शॉर्टकट की दो डुबकी से तो न हि ठोंको तो बढ़िया है। 


सोच रहे होंगे कि उषा किरण तो तुम क्या वहाँ पर लहरें गिनने गई थीं? हाँ वही …. आस्था के पावन सैलाब की लहरों संग बहने गए थे,  समष्टि के सैलाब में व्यष्टि को कुछ पल के लिए डुबोने गए थे, असंख्य भक्तों के बीच एक भक्त की हैसियत से शामिल होने गए थे। 


सुना है सामूहिक भक्ति में बहुत शक्ति होती है तो उस समूह में शामिल होने गए थे। तुमको कहना है भेड़चाल तो कहते रहो, हमें क्या फर्क पड़ता है…हमने देखा वहाँ जाकर अपार सकारात्मक ऊर्जा का सैलाब, जाग्रत चेतना का प्रकाश, भक्ति, तप, समानता का माहौल , जहाँ न कोई अमीर था न गरीब, न जात न पाँत , उत्साह, सनातन की ताकत, तप की प्रबलता। दूर शहरों, गांव देहात से पधारे अनगिनत लोग। न थकन , न कमजोरी, न भूख न प्यास बस एक ही धुन चरैवेति…चरैवेति…हर हर गंगे…हर हर महादेव का जयघोष …🙏


स्टेशन से काफी दूर तक हम भी जन सैलाब का हिस्सा बनकर कुछ देर तक पैदल चले तो  मन में जो थोड़ा सा भय था वह भी भय दूर हो गया। बल्कि मन इतना प्रफुल्लित, इतना भावविभोर था कि बार-बार आँखें भर आ रही थीं। आमजन के साथ कदम मिलाकर चलते हुए भारत बहुत दिल के करीब नजर आया।चेहरों पर एक सा निर्लिप्त सा भाव लिए लक्ष्य की तरफ आराम- आराम से सिर पर पोटलियाँ रखे, कंधों पर छोटे बच्चे बैठाए , मेहमतकश लचीले शरीर से एक लय में चलते भक्त लोग। चलते-चलते थक गए तो सड़कों के  किनारे लगे टैंट में ही पोलीथीन या चादर बिछा कर घर से लाई रोटी खा ली और पोटली का तकिया लगा कर झपक लिए या स्टेशन पर ही किसी कोने में या घाट पर ही किसी कोने में कुछ देर को पीठ सीधी कर ली और फिर चल दिए। जहाँ मौका मिला वहीं से डुबकी लगा ली और खरामा- खरामा वापिस । न होटल बुकिंग की चिन्ता न लन्च- डिनर का टेंशन, न हि किसी वी आई पी घाट के जुगाड़ की चिन्ता। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने पुल पर जा रहे सैकड़ों लोगों की तरफ इशारा कर बताया कि यह नैनी पुल है, इस पर भी वाहन न मिलने पर  कई किलोमीटर पैदल ही चलके कुम्भ में पहुंच रहे हैं लोग।

खैर हम भी अपनी आधी-अधूरी व्यवस्था की डोर थाम बढिया स्नान कर आए तो अब सोच रहे हैं कि जिस प्रकार की बाकी सुंदर व्यवस्था सहसा हुई, वो कैसे संभव हो सका ? फिर उसने एक बार अहसास कराया कि ' तू चल तो, मैं हूँ तेरे पीछे…..’ तब अनायास हाथ असीम श्रद्धा से जुड़ जाते हैं।और हाँ, एक जरूरी बात बता दें , पानी एकदम साफ था, कहीं गंदगी नहीं मिली हमें।


पहले भी  हरिद्वार कुम्भ में 'कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन’ के साथ मिलकर वर्कशॉप में पेंटिंग बनाकर हम लोगों ने घाट पर ही चित्र प्रदर्शनी लगाई थी, उसका अपना आनन्द था और परिवार के साथ का अपना अलग आनन्द रहा…!!! 

—उषा किरण 

बुधवार, 19 फ़रवरी 2025

दादी



मैंने अपने बाबा दादी को नहीं देखा । बाबा को तो ताता जी( पापा) ने भी नहीं देखा जब वे कुछ महिने के थे तभी उनका स्वर्गवास हो गया था। ताताजी की परवरिश दादी ने ही की। सारी उम्र उनकी अलमारी में सामने ही दादी की फोटो रहती थी। उनका जिक्र होते ही ताता की आँखें नम हो जाती थीं ।

सुना है कि वे बहुत दबंग व बुद्धिमान थीं। घर में और गाँव में भी सब उनसे डरते थे या कहें लिहाज करते थे। गाँव में यदि कोई मसला होता था तो लोग उनको बुला ले जाते थे और वे जो फैसला करती थीं वो सर्वमान्य होता था। हमारे ताता जी भाइयों में सबसे छोटे थे। गाँव में अम्माँ पहली बहू थीं जो पढ़ी लिखी थीं और अफसर की बेटी थीं । हारमोनियम पर गाने गाती थीं और बहुत सुन्दर थीं। सुना है तब बहुत लम्बे बाल और सुर्ख गाल थे उनके और हमारी दादी की सबसे प्यारी बहुरिया थीं वे।

दादी जब बीमार हुईं तो उन्होंने बता दिया था कि वे पूर्णमासी को चली जाएंगी क्योंकि सपने में बाबा बता गए थे बेटों की सेवा का थोड़ा सुख और ले लो फिर पूर्णमासी को हम साथ ले जाएंगे।

पूर्णमासी वाले दिन सुबह से दादी की तबियत में बहुत सुधार था। सब चैन की साँस ले रहे थे। लेकिन दादी ने शोर मचा दिया कि जल्दी खाना बनाओ और सब लोग जल्दी खा लो। खाना बनते ही सबसे पहले जो युवा सेवक घर के काम के लिए नियुक्त था कहा पहले इसे खिलाओ। बोलीं मैं चली गई तो तुम सब तो रोने-धोने में लगे रहोगे ये बेचारा भूखा रह जाएगा। वो मना करता रहा पर अपने  सामने बैठा कर उसे खूब प्रेम से खिलाया -पिलाया फिर सबको कहा तुम सब भी जल्दी खाओ।

सबके खाना खाने के कुछ देर बाद ही साँस उखड़ने लगी और उन्होंने सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लीं । ऐसी पुण्यात्मा थीं हमारी दादी। बेशक मैंने उनको नहीं देखा परन्तु ताउम्र मेरे मन में उनके लिए विशेष सम्मान रहा। उनको मेरा शत- शत नमन🙏

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अभी मीरा ( मेरी पोती) ने दादी कहना सीखा है …ये सम्बोधन मुझे अन्दर तक तृप्त करता है। मुझे दादी नहीं मिलीं पर मैं बनी मीरा की दादी…भगवान का लाख शुक्रिया 🙏😊

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2025

प्रेम



कह देना

इतना आसान होता है क्या ?

किसी से कह देने से पहले 

जरूरी होता है खुद से कहना

और जब दिल सुनना ही न चाहे

बार- बार एक ही जिद-

प्रेम कहा नहीं,जिया जाता है

प्रेम कहा नहीं,ओढ़ा जाता है

प्रेम कह देने से मर जाता है 

प्रेम पा लेने से सड़ जाता है

प्रेम है तो उसे बहने दो

गुप्तगोदावरी सा अन्तस्थल में…

और यदि तुमको प्रेम है मुझसे 

तो तुम भी न कहना 

प्रेम यदि है तो मौन रहो

कुछ न कहो 

प्रेम में हो जाना चाहता  है मन 

खुद गुलमोहर 

या कि अमलतास !

बस उसे चुपचाप 

खुद पर बीत जाने दो

बिल्कुल किसी मौसम की तरह...!!

    —उषा किरण 🌼🌿

गुरुवार, 13 फ़रवरी 2025

चेहरा




अचानक से जब मिलकर कोई

परिचित सा  मुस्कुराता है 

बतियाता है…

तो चौंक जाती हूँ 

उलझन में सोचती हूँ 

कैसे …कैसे पहचाना मुझे 

तब धीरे से याद दिलाती हूँ 

एक चेहरा भी है तुम्हारे पास

मैं हैरानी से शीशे के सामने जाकर

खड़ी हो जाती हूँ 

बादलों की धुंध में डूबे उस चेहरे को

देर तक घूरती हूँ 

और पूछती हूँ खुद से 

क्या वाकई….??

      **

— उषा किरण 🍃

फोटो; गूगल से साभार

दुआ की ताकत

एक धन्ना सेठ था। बड़ी मन्नतों से उसका एक बेटा हुआ। भारी जश्न हुआ। हवन के बाद विद्वान पंडितों ने जन्मपत्री बनाई तो स्तब्ध । सेठ जी ने जब पूछा...