ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2025

सरेराह चलते-चलते

 



राहों से गुजरते कुछ दृश्य आँखों व मन को बाँध लेते हैं । जैसे सजी- धजी , रंग- बिरंगी सब्ज़ियों या फलों की दुकान या ठेला, झुंड में जातीं गाय या बकरियाँ, सरसों के खेत हों या फिर सिर पर घास का गट्ठर ले जाती , एक हाथ में हँसिया पकड़े रंग- बिरंगे परिधान पहने ग्रामीण महिलाएं। कोयल की कूक, सरेराह झगड़ते लोग…। 

कभी - कभी कुछ झगड़े देख कर मन करता है गाड़ी रोक उतर जाऊँ और उनको झगड़ने से रोक दूँ या क्यों न मजा ही लूँ कि झगड़े की क्या वजह थी और आखिर हल क्या निकला ? देर तक फिर मेरे कल्पना के घोड़े दौड़ते रहते हैं ।कई बार तो घर आकर भी वही सब दिमाग में घूमता रहता है।

कुछ दिन पहले गुड़गाँव से लौटते समय टोल पर अपनी बारी का इंतजार करती खड़ी एक नई- नवेली चमचमाती गाड़ी को दूसरी गाड़ी ने लापरवाही से पीछे से ठोंक दिया। गाड़ी अच्छी खासी डैमेज हो गई। गाड़ी इतनी नई थी कि उसकी सजावट भी नहीं उतरी थी। मेरा ही जी धक् से रह गया। लगा अब जम कर झगड़ा, गाली-गलौज व मारपीट तो होनी निश्चित ही है। मैं चूँकि दूसरी लाइन में थी तो दम साधे देख रही थी। 

गाड़ी से दो सज्जन पुरुष ( जो वाकई सज्जन ही थे) उतरे और पीछे वाली से हड़बड़ाता एक ड्राइवर नुमा कोई व्यक्ति उतरा। वे आराम से बात करने लगे। गाड़ी कितनी डैमेज हुई ये भी देखते जा रहे थे। उनके मुंह उतरे हुए थे पर बहुत शान्त भाव से बातें करते रहे। उनकी मुखमुद्रा या भाव भंगिमा में जरा भी ग़ुस्सा नज़र नहीं आ रहा था इसी बीच हमारी गाड़ी चल पड़ी और मेरा मन हुआ यहीं उतर जाऊं बल्कि पास जाकर बात सुनूँ बल्कि पूछ ही लूँ कि भाईसाहब आप कौन सी साधना , योग करते हैं? कैसे उतरा ये बुद्धत्व , ये समभाव ? अमूमन तो ऐसे हादसों का अगला दृश्य सात पुश्तों को कोसते व माँ बहन के लिए बकौती करती गाली- गलौज व मार पीट का ही होता है । ये ऐसे हादसे के बाद इतनी शान्ति से कौन बात करता है भाई…कुछ तो लड़ लो …थोड़ा सा तो शोर मचाओ भई। बच्चे का खिलौना तक टूटने पर लड़ने वाले तो एक दूसरे का खून तक कर देते हैं और एक तुम हो कि…..पर कहाँ…हमारी गाड़ी चल पड़ी, जीवन तो चलने का नाम है तो चल कर आ गए घर।कौन किसी के लिए रुकता है जो हम ही रुक जाते। 

इस बात को एक महिना हो चुका है और मेरे मन ने प्रश्नों की बौछार से परेशान कर रखा है-

- वे लड़े क्यों नहीं?

- क्या वे आधुनिक लिबास में साधु थे ?

- क्या वे पूर्व परिचित थे ?

- क्या मालिक कोअपनी गाड़ी खुद पसन्द नहीं थी कि ठुक गई तो ठुकने दो …!

- तगड़ा इन्श्योरेंस होगा ?

-क्या वो दब्बू व डरपोक आदमी थे जो लड़ने में डर रहे थे ? 

- क्या वे सज्जन किसी दुश्मन की गाड़ी उधार पर लाए थे ?……वगैरह…वगैरह…!


    अच्छा, चलें कुछ काम देखें…बकौल मेरे पति के  …खाली दिमाग शैतान का घर”😊

3 टिप्‍पणियां:

  1. खाली दिमाग शैतान का घर .....😊😊😊
    लेकिन दिमाग खाली कहाँ था आपका । बताओ एक महीने से सहेज रखा था कि आखिर वो लड़े क्यों नहीं।
    आज कल आप भी लडती नहीं हैं , बुद्धतत्व को प्राप्त हो गयी हैं ।
    पोस्ट डाली और बताई भी नहीं । हुह

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार 03 मार्च 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं

सरेराह चलते-चलते

  राहों से गुजरते कुछ दृश्य आँखों व मन को बाँध लेते हैं । जैसे सजी- धजी , रंग- बिरंगी सब्ज़ियों या फलों की दुकान या ठेला, झुंड में जातीं गाय...