ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 26 फ़रवरी 2025

आस्था की डुबकी

 


आस्था की डुबकी 🙏

बेशक हम सब धर्मों का दिल से सम्मान करते हैं, लेकिन  हैं पक्के सनातनी; तो कुम्भ ना नहाएं ये हो नहीं सकता था। हालाँकि हमें इस पर जरा भी विश्वास नहीं कि सब कुम्भ नहनियाँ लोगों की स्वर्ग में सीट पक्की हो गई और कुछ उत्साही तो मोक्ष तक का दावा कर रहे हैं । तो भोले सन्तों, भगवान इतने मूर्ख नहीं कि तुम्हारे कर्मों की गठरी को भी तुम्हारी डुबकी के संग संगम में डुबो दें। वो तो पाप- पुण्य भोगने ही पड़ेंगे, भगवान तक प्रारब्ध के नियमों से नहीं बच सके, राम भगवान के पिता नहीं बच सके तो भई तुम तो हो किस खेत की मूली ? रही मुक्ति की बात तो कई जन्मों की साधना से भी जिस मुक्ति के लिए कठिनतम साधना के बाद भी जो साधु सन्तों को भी मिलनी मुश्किल है , उसका दावा शॉर्टकट की दो डुबकी से तो न हि ठोंको तो बढ़िया है। 


सोच रहे होंगे कि उषा किरण तो तुम क्या वहाँ पर लहरें गिनने गई थीं? हाँ वही …. आस्था के पावन सैलाब की लहरों संग बहने गए थे,  समष्टि के सैलाब में व्यष्टि को कुछ पल के लिए डुबोने गए थे, असंख्य भक्तों के बीच एक भक्त की हैसियत से शामिल होने गए थे। 


सुना है सामूहिक भक्ति में बहुत शक्ति होती है तो उस समूह में शामिल होने गए थे। तुमको कहना है भेड़चाल तो कहते रहो, हमें क्या फर्क पड़ता है…हमने देखा वहाँ जाकर अपार सकारात्मक ऊर्जा का सैलाब, जाग्रत चेतना का प्रकाश, भक्ति, तप, समानता का माहौल , जहाँ न कोई अमीर था न गरीब, न जात न पाँत , उत्साह, सनातन की ताकत, तप की प्रबलता। दूर शहरों, गांव देहात से पधारे अनगिनत लोग। न थकन , न कमजोरी, न भूख न प्यास बस एक ही धुन चरैवेति…चरैवेति…हर हर गंगे…हर हर महादेव का जयघोष …🙏


स्टेशन से काफी दूर तक हम भी जन सैलाब का हिस्सा बनकर कुछ देर तक पैदल चले तो  मन में जो थोड़ा सा भय था वह भी भय दूर हो गया। बल्कि मन इतना प्रफुल्लित, इतना भावविभोर था कि बार-बार आँखें भर आ रही थीं। आमजन के साथ कदम मिलाकर चलते हुए भारत बहुत दिल के करीब नजर आया।चेहरों पर एक सा निर्लिप्त सा भाव लिए लक्ष्य की तरफ आराम- आराम से सिर पर पोटलियाँ रखे, कंधों पर छोटे बच्चे बैठाए , मेहमतकश लचीले शरीर से एक लय में चलते भक्त लोग। चलते-चलते थक गए तो सड़कों के  किनारे लगे टैंट में ही पोलीथीन या चादर बिछा कर घर से लाई रोटी खा ली और पोटली का तकिया लगा कर झपक लिए या स्टेशन पर ही किसी कोने में या घाट पर ही किसी कोने में कुछ देर को पीठ सीधी कर ली और फिर चल दिए। जहाँ मौका मिला वहीं से डुबकी लगा ली और खरामा- खरामा वापिस । न होटल बुकिंग की चिन्ता न लन्च- डिनर का टेंशन, न हि किसी वी आई पी घाट के जुगाड़ की चिन्ता। हमारे टैक्सी ड्राइवर ने पुल पर जा रहे सैकड़ों लोगों की तरफ इशारा कर बताया कि यह नैनी पुल है, इस पर भी वाहन न मिलने पर  कई किलोमीटर पैदल ही चलके कुम्भ में पहुंच रहे हैं लोग।

खैर हम भी अपनी आधी-अधूरी व्यवस्था की डोर थाम बढिया स्नान कर आए तो अब सोच रहे हैं कि जिस प्रकार की बाकी सुंदर व्यवस्था सहसा हुई, वो कैसे संभव हो सका ? फिर उसने एक बार अहसास कराया कि ' तू चल तो, मैं हूँ तेरे पीछे…..’ तब अनायास हाथ असीम श्रद्धा से जुड़ जाते हैं।और हाँ, एक जरूरी बात बता दें , पानी एकदम साफ था, कहीं गंदगी नहीं मिली हमें।


पहले भी  हरिद्वार कुम्भ में 'कृति आर्टिस्ट एसोसिएशन’ के साथ मिलकर वर्कशॉप में पेंटिंग बनाकर हम लोगों ने घाट पर ही चित्र प्रदर्शनी लगाई थी, उसका अपना आनन्द था और परिवार के साथ का अपना अलग आनन्द रहा…!!! 

—उषा किरण 

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