बुरी औरतों…
तुम वाकई बुरी हो
तुम जो यह सोचती हो
तुमने बुरा हश्र उनका किया
तो उससे कहीं ज्यादा
नादानी से पहले अपना किया
ना जाने कब बराबरी की होड़ में
तराजू के दूसरे पलड़े पर
खुद ही जा बैठीं…
क्या तुम जानती हो
अनगिनत अन्याय, पीड़ा,
अत्याचार सहे
तब कहीं मिले तनिक साये तले
कुछ ही राहत,आशा भरे पल गुजारे थे
और तुम्हें अपने लोभ, कपट की कुल्हाड़ी
खुद अपनी ही जड़ों पर चलानी थी…?
याद रखना…
गुनहगार हो तुम उन मासूमों की
जिनकी माँओं ने तड़प कर
चुन लिया फाँसी का फंदा
या जो कर दी गईं जीतेजी
लपटों के हवाले
या जिन्होंने एड़ियाँ रगड़
लानत भरी ज़िंदगी
रहमतों के साए तले गुजारी…
गुनहगार हो तुम उन अनगिनत
असहाय, छटपटाती
बेघर हुई पीड़ाओं की
जिनके साथ छटपटाते रहे बाप माई
हर सावन करेजा मसोसता
सूनी आँख राह तकता रहा भाई
भीगा आँचल थाम काँपते
कलपते रहे नन्हे नौनिहाल…
जाने कितने मासूम दिल सहम कर
दरक गए होंगे
अरमानों के जनाजे पर कुछ फूल
और सज गए होंगे
दफन कर दिए होंगे संजोए सपने सारे
कर दिए होंगे धरती या नदी के हवाले…
जानती हूँ…
जुल्म तो नहीं रुकेगा अब भी
लेकिन जब भी कोई
चीख छटपटाएगी
अदालत का दरवाजा खड़काएगी
खड़ी हो जाएंगी दस उँगलियाँ
तुरन्त…तंज कसे जाएंगे
तिरियाचरित्र का ताना सुना
संदेह की नजर से देखी जाएंगी
सारी दी गई गालियाँ फिर से
दोहराई जाएंगी…
देवी बनना मंज़ूर नहीं था न सही
दया, ममता, संस्कार, नैतिकता
सबकी ठेकेदार तुम नहीं
मंजूर है…सही…
लेकिन कुछ तो इंसानियत रखतीं
कम से कम आदमखोर तो न बनतीं…
देखो जरा…
तुम्हारे ही कारण औरत आज
कटार लिए कटघरे के उस पार
स्वयम् अपनी प्रतिवादी बनकर खड़ी है
देखो कैसी मुश्किल घड़ी है…
तुम्हारा गुनाह अक्षम्य है,
आधी आबादी की आवाज को तुमने
कमजोर करने का गुनाह किया है
सदियों से चले प्रयासों पर
कुठाराघात किया है…
याद रखना…
आने वाली नस्लें तुम पे उंगली उठाएँगी
आँखों में आँखें डाल सौ सवाल करेंगी
अपने हाथों जो लिख दिया उनका नसीब
क्या उसका दे सकोगी हिसाब कभी…?
तो…बुरी औरतों सुन लो
सजा चाहें जो भी हो
माफी की हक़दार तो तुम भी
क़तई नहीं हो…!!
- उषाकिरण 🍁
- 18 दिस. 24