ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 29 मई 2018

जब तक


सुन लो               
जब तक कोई 
आवाज देता है
क्यूँ कि...  
सदाएं  एक वक्त के बाद 
खामोश हो जाती हैं 
और ख़ामोशी .... 
आवाज नहीं देती!!
                  -----उषा किरण 













शनिवार, 26 मई 2018

इन दिनों...

इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं मैं
अलगनी से उतारे कपड़ों के बीच बैठ
खेलने लग जाती हूं घंटो
कैंडी-क्रश
रास्ते में गाड़ी रोक
टिक्की- गोलगप्पों के चटखारे ले
कुल्फी चूसती घर आती हूं
नाक सिकोड़ कहती हूं दाल चावल से
`नहीं भूख नहीं अभी’!
रात के दो बजे तक इयरफोन की आड़ में
सुनती हूं गीत...गजल...कहानियां
भटकती रहती हूं फेसबुक
ब्लॉग या इन्स्टाग्राम की गलियों में
लगभग सारी रात
जब तक एक भी रेशा बाकी है
नींद का पलकों पर
सोती रहती हूं
चादर तान कर लम्बी
आठ...नौ...या दस
कितने भी बजे तक
`हुंह बजते रहें...
रोज ही तो बजते हैं ...’
बाथरूम में बन्द हो घंटों
करती हूं गाने रेकॉर्ड...
अपने मोबाइल पर
कमरा बंद कर याद करती हूं
बचपन में सीखे
कत्थक के स्टैप
और...तलाश जारी है
एक सितार टीचर की
आदि की चॉकलेट कुतर लेती हूं
थोड़ी सी
लड़ता है वो..`नानी गंदी हैं ’
सुबह...दोपहर...रात कभी भी
जब मन हो नहाती हूं
ठाकुर जी झांकते रहते हैं पूजाघर से
स्नान-भोग के इंतजार में
जब मन होता है भाग जाती हूं
बैग उठा कर
दिल्ली...मुरादाबाद...गुड़गांव
या कहीं भी...
मन होता खिलखिलाती हूं
मन होता है रोती हूं
कोई नॉवेल लेकर घंटों
पड़ी रहती हूं औंधे
तकिए पर
या टी०वी० पर देखती हूं लगातार
दो मूवी एक साथ...
सालों साल घड़ी की सुइयों पर सवार
भागी हूं बेतहाशा
पर अब
चल रही हूं मैं
अपनी घड़ी के हिसाब से
सच...
इन दिनों बहुत बिगड़ गई हूं
मैं !!!







बहादुर लड़की


एक नन्हे से पौधे की ओट में
मीलों चली है वो
आसमान पर तपता सूरज
नीचे जलती जमीन
एक पग धरती है
दूसरा उठा लेती
दूसरा धरती है तो
तिलमिला कर
पहला उठा लेती है
पैर छालों से भरे हैं
मन भी...
कुछ छायादार पेड़
दिखते हैं दूर-दूर
मन करता है दौड़ जाए
टिक जाए कुछ देर
या हमेशा को....
फिर देखती है हाथ में पकड़े
उस नन्हे पौधे को
नहीं ! अभी नहीं....
बुदबुदाती है होठों में
अभी चलना ही होगा
दूर क्षितिज के पास
हरियाली की गोद में
रोपना है इसे
सूरज ढलने से पहले...
और...
वो बहादुर बेटी
निरन्तर
चल रही है मीलों
तपती बंजर जमीन पर...!!!
                        ___उषा किरण

मंगलवार, 22 मई 2018

सच कहना !




ए चाँद सच कहना
देखो ,झूठ न बोलना
कल
छिटकी देखी तुम्हारी 

चांदनी से बुनी चूनर 

तारों की पायल

 मैंने भी उठ 

एक दीप जलाया 

मेरा नन्हा सा मन 

हुलसा उठा  

बस तभी से 

गुम हो तुम 

सच कहना 

तुम जल गए न

हाँ चाँद 

जल गए हो तुम !
                          __ उषा किरण 










सोमवार, 14 मई 2018

मुनाफा

विदा के बाद 
समेट रही थी घर, 
दोने, पत्‍तल, कुल्‍हड 
ढोलक, घुंघरू, मंजीरे 
सब ठिकाने पहुंचाए 
सौगातें बांटी 
भाजी सबके साथ बांधी 
फुर्सत से
डायरी उठा 
हिसाब लेकर बैठी 
कितना खर्चा 
कितना आया 
हैरान थी 
घटा कुछ भी नहीं था 
बेटी तो आज भी 
उतनी ही 
अपनी थी 
ब्‍याज में 
एक अपना सा 
बेटा भी
पीछे
मुस्‍कुराता खडा था।

सलीका

घिरे आते तिमिर को उसने
डर कर धूरते कहा
“क्या होगा कल बच्चों का”
उसके कमजोर कांपते हाथों को
अपनी पसीजी हथेली में थाम
सजल नयन मैंने कहा-
“वही... जो होना है 
क्‍या सोचते हो तुम
क्‍या ये तुमसे पलते हैं “!
उंगली उठाकर मैंने अनंत को देखा
फिर, थोडा सा हंसकर कहा
“यह सब पहली बार तो नहीं 
न जाने कितनी नावों में
कितनी बार... “?
उसने आसमानी उंचाइयों को
अदब से देखा
अाश्‍वस्‍त हो मुस्‍कुराया
और इस तरह
सारी उम्र जीने का सलीका तुमसे सीख कर भाई
तुम्‍हें मरने का सलीका 
सिखा रही थी
मैं !!!




मन्नत

एक रोटी बनाऊं 
चांद जितनी बडी 
जिसमें सब भूखों की 
भूख समाए, 
चरखे पर कोई
ऐसा सूत कातूं 
कि सब नंगों का 
तन ढक जाए 
मेरी छत हो 
इतनी विशाल
जो सभी बेसहारों की
गुजर हो जाए 
कुछ ऐसा करो प्रभु 
कि आज
ये सारे सपने 
सच हो जाएं।


जरा सोचिए

     अरे यार,मेरी मेड छुट्टी बहुत करती है क्या बताएं , कामचोर है मक्कार है हर समय उधार मांगती रहती है कामवालों के नखरे बहुत हैं  पूरी हीरोइन...