ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

मंगलवार, 10 जुलाई 2018

"ज्वाला देवी मंदिर “


बृजेश्वरी देवी मंदिर से चल कर लगभग एक घंटे में हम ज्वालामुखी मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने कहा आप यहां से ऑटो कर लें तो सीधे ऊपर पहुंचा देगा हमने एक ऑटो वाले से बात की और उसने हमें ऊपर पहुंचा दिया प्रसाद लेकर हम मंदिर में पहुंचे बहुत भीड़ थी किसी तरह अंदर जाकर दर्शन किए ।
ज्वाला देवी को ज्वालामुखी ,नगरकोट और जोतावाली मॉं का मंदिर भी कहा जाता है यहां पर मां की पावन ज्योति एक पहाड़ी चट्टान से प्रज्वलित हुई है। इनकी पूजा मॉं की ज्योतियों में की जाती है मान्यता है कि यहां दर्शन करने से सभी कामना पूरी होती है पाप नष्ट होते हैं और मुक्ति मिलती है ।
कांगड़ा घाटी से तीस कि०मी० दक्षिण मेंस्थित है यह मंदिर इक्यावन शक्तिपीठों में शामिल है ...इस स्थान पर सती मॉं की जीभ गिरी थी इस स्थान पर मॉं के दर्शन ज्योति के रूप में होते हैं इसमें नौ ज्योतियां प्रज्वलित  हैं इनको महाकाली,अन्नपूर्णा ,चंडी,हिंगलाज,विंध्यवासिनी,महालक्ष्मी,महासरस्वती,अंबिका,अंजी-देवी के नाम से जाना जाता है ! 
मंदिर के पास ही एक जगह 'गोरख डिब्बी ‘है देखने पर लगता है कि गर्म पानी है ,छूने में ठंडा 
लगता है इस मंदिर का प्राथमिक निर्माण राजा भूमिचन्द ने करवाया था बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचन्द ने 1835 में इसका पुनर्निर्माण करवाया ।
इस मंदिर से जुड़ी किंवदन्ति है कि एक ग्वाले की गाय दूध नहीं देती थी एक दिन जंगल में उसका पीछा किया तो ग्वाले ने देखा कि गाय सारा दूध एक दिव्य कन्या को पिला देती है ग्वाले ने यह बात राजा को बताई राजा ने सत्य की जांच करने के बाद उस स्थान पर मंदिर बनवा दिया।एक और कथा प्रचलित है कि भक्त ध्यानु मॉं का परम भक्त था एक बार वह मॉं के दर्शन के लिए भक्तों के साथ जा रहा था रास्ते में उन्हें मुगल सेना ने पकड़ लिया अकबर ने पूंछा कि 'तेरी मॉं में क्या शक्ति है ‘तो ध्यानु ने कहा कि `मेरी मॉं संसार की रक्षा करने वाली है ‘अकबर ने उसके घोड़े का सिर कलम करके कहा `किअगर तेरी मॉं में शक्ति है तो घोड़े को फिर से जिंदा करके दिखाए ‘कहते हैं कि ध्यानु की विनती से मॉं ने घोड़े का सिर फिर से जोड़ दिया ,यहां बिना तेल बाती बरसों से ज्योति जल रही हैं ...अकबर ने इस ज्योति को बुझाने की भी बहुत कोशिश की पर नाकाम रहा तब अकबर ने श्रद्धावनत हो सोने का छत्र चढाने की कोशिश की पर वह छत्र किसी दूसरी धातु में परिवर्तित हो गया वह छत्र आज भी मंदिर में मौजूद है ।अंग्रेजों नेभी काफी कोशिश की कि इस ज्योति का इस्तेमाल बिजली बनाने के काम में लिया जाए पर असफल रहे ।लोगों का कहना है यह ज्वाला चमत्कारी रूप से निकलती है प्राकृतिक रूप से नहीं वर्ना तो यहां मंदिर की जगह बड़ी -बड़ी मशीनें लगी होतीं ।
दर्शन करके हमने ऑटो वाले को फोन किया वो हमें लेकर नीचे आ गया घड़ी देखी मात्र दस बजे थे हमने  गाड़ी में बैठ कर ड्राइवर से पूंछा कि `पास में और कोई देवी हैं ‘उसने कहा `हां बगुलामुखी देवी हैं आधे घंटे में पहुंच जाएंगे ‘हमने कहा `ले चलो पर प्यास और भूख लगी है तो पहले हमें किसी होटल या रस्टोरेन्ट में ले चलो ‘उसने कहा कि `ठीक है मंदिर की तरफ ही चलते हैं रास्ते में किसी ढाबे पर रोक कर खा पी लेंगे ‘हमने कहा `चलो ठीक है ‘रास्ते में एक छोटा सा साफ सुथरा ढाबा मिला हम उतर गए मैंने पूंछा कि `खाने को क्या मिलेगा ‘उसने कहा `खाना ‘इतनी सुबह हमारा मन खाने का नहीं हुआ उसको कहा'आलू का परांठा और चाय बना दो ‘उसने मना कर दिया बोला 'नहीं नहीं हम परांठा नहीं बनाते बस रोटी बना देंगे वर्ना तो हम बस चावल ही देते हैं हमने कहा'ठीक है फिर वही खिलाओ भई ‘हम बैठ गए ड्राइवर को भी बुला लिया वो तीन थाली लाया दाल ,कढी,चावल, रोटी थोड़ा बहुत खा पीकर पूंछा कितने रुपये ? उसने कहा `सौ रुपये ‘तो मैं उसका मुंह देखने लगी इतना सस्ता ? खैर सौ पर कुछ एक्स्ट्रा पैसे रख कर हम आगे चले । 
कान्ता जी ने आम पापड़ निकाला और हम उसे चटकारे लेकर खाने लगे ड्राइवर ने पहाड़ी गाने लगा दिए कान्ता जी स्वयम् चम्बा से हैं तो वो मुझे उन गानों का मतलब समझाती रहीं ..कांगड़ी बोली पंजाबी बोली से बहुत मिलती जुलती है...कान्ता जी से पूंछ कर एक हिमाचली गाना लिखा...
"पारलिया बनिया मोर जे बोले
अम्मा पूछदी सुण धिए मेरिए 
दुबली इतनी तू किया करी होई हो
पारली बणिया मोर जे बोले हो
अम्माजी ने मोरे निंदर गवाई हो
सद ले संदूकी जो सद ले शकारी जो
धीए भला एह तों मोर मार गिराणा हो
मोर नी मारणां मोर नी गवाणा हो
ओह अम्मा जी एहतां मोर पिंजरे पवाणा हो...”
ठंडी पहाड़ी हवा,आम पापड़ और पहाड़ी लोक संगीत  और भक्ति भाव ने मिल कर मन प्रसन्नता से भर दिया... और हम मां की जय बोल आगे के लिए प्रस्थान कर गए...

#कांगड़ाहिमाचलप्रदेशयात्रा- 3









शनिवार, 7 जुलाई 2018

''बृजेश्वरी देवी मंदिर '' (कांगड़ा,हिमाचल- प्रदेश)—यात्रा-2


साधना-शिविर के बाद हम एक दिन एक्स्ट्रा तपोवन में रुके तो मेरा मन हुआ क्यों न कांगड़ा की देवियों के दर्शन कर आऊं कांगड़ा में जगह- जगह पर देवस्थान होने से इसे देवभूमि कहा जाता है ...पर मेरे साथ की सभी फ्रैंड्स पहले ही दर्शन कर चुकी थीं पर शिविर में एक फ्रैंड बनी थीं कान्ता जी वो भी जाना चाह रही थीं तो हम दोनों टैक्सी करके सुबह सात बजे निकल पड़े ।कांगड़ा का प्राचीन नाम नगरकोट था अत: ब्रजेश्वरी देवी मंदिर को नगरकोट वाली देवी और कांगड़ा देवी भी कहा जाता है।यह मंदिर हिमाचल- प्रदेश के कांगड़ा शहर के समीप मालकड़ा पहाड़ी की ढलान पर स्थित है ।
करीब आधे  घन्टे में  हम मंदिर पहुंच गए ड्राइवर ने हमें ऊपर पहाड़ी पर जाती सीढियां दिखाईं हम और कान्ता जी चल दिए हाथ पकड़ कर आस्था की लाठी टेकते...कान्ता जी ने किसी बात पर मुझे बेटी कहा तो हंस कर टोका `मैं सहेली हूं आपकी आपसे ज्यादा छोटी नहीं ...मेरे रंगे बालों पर न जाएं ...’खैर सीढी के दोनों तरफ दुकानें सजी थीं जिनका वैभव ललचा रहा था ।रंग-बिरंगी चूड़ियां ,सिंदूर,कंगन ,तांबे -पीतल के कंगन,झुमके, भगवान जी की पोशाकें व दमकते जेवर, बच्चों के खिलौने .प्रसाद और भी जाने क्या-क्या ...खैर हमने भी प्रसाद लिया हांफते-सुस्ताते हम पहुंच गए मंदिर और लग गए लाइन में ।
मान्यता है कि जब मां सती ने शिव के द्वारा किए अपमान से आहत होकर दक्ष के यज्ञ-कुंड में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए थे तब कुपित होकर भगवान शिव उनका शव लेकर  पूरी सृष्टि में घूमे तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के बावन टुकड़े कर दिए तो जहां -जहां माता सती के अंग गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाते हैं, यहां मां का बायां वक्ष गिरा था तो यहां शक्तिपीठ की स्थापना हुई । शक्तिपीठ मंदिर किसे कहते हैं यह मुझे यहीं आकर पता चला ...यह मंदिर मध्यकालीन वास्तुशिल्प का सुंदर उदाहरण है,यहां स्थित गुंबद,शिखर ,कलश और स्तम्भ समूह पर राजपूत कालीन शिल्प का प्रभाव दिखाई पड़ता है प्राचीन काल में देवी की पूजा तांत्रिक विधि से होती थी आज भी यहां पांच टाइम पूजा बहुत विधि-विधान से होती है ।
दसवीं शताब्दी तक यह मंदिर बहुत समृद्ध था पर 1909 में मोहम्मद गजनबी ने इस मंदिर को पांच बार लूटा 1337 में मो. बीन तुगलक ने और पांचवी शताब्दी में सिकंदर लोदी ने इसको लूटा बार- बार इसका पुनर्निर्माण किया जाता रहा पर 1905 में आए भूकम्प में यह पूरी तरह नष्ट हो गया 1920 में पुन: इसका पुनर्निर्माण किया गया ।सिर्फ हिंदू ही नहीं मुस्लिम व सिक्ख सम्प्रदाय के श्रद्धालु भी यहां पर आस्था के फूल चढाते हैं ,उसके तीन गुंबद तीन धर्मों के प्रतीक हैं ।मंदिर के गर्भगृह में प्रतिष्ठित पहली मुख्य पिंडी मॉं बृजेश्वरी की है,दूसरी भद्रकाली की और तीसरी सबसे छोटी मां एकादशी की है ...बहुत से श्रद्धालु पीले वस्त्र पहन कर आए थे पूंछने पर पता चला कि परम भक्त ध्यानु ने यहां मॉं को अपना शीश अर्पित किया था तो उनके अनुयायी आज भी पीले वस्त्र पहन कर दर्शन को आते हैं ।कहते हैं सच्चे मन से मांगी मुराद यहां जरूर पूरी होती है।
मंदिर में प्रवेश करने पर बहुत भीड़ के कारण ज्यादा देर रुकना मुश्किल था तो दर्शन करके तुरंत बाहर आ गए ।लौटते समय हमने भी बाहर की दुकानों से सिंदूर और पीतल के कड़े प्रसाद में देने के लिए खरीदे और हां आम पापड़ भी खरीदे । नीचे आने पर हम गाड़ी में बैठ कर आगे ज्वाला जी के दर्शन के लिए निकल लिए ।रास्ते में कान्ता जी की बेटी का फोन आया तो उन्होंने नहीं उठाया बार बार आने पर उठाया पर बताया नहीं कि वो कहां हैं बोलीं ''आश्रम से बाहर आई हूं ''मैंने पूंछा क्यों नहीं बताया तो बोलीं कि ''बच्चे गुस्सा करते उन्होंने मना किया था कि कौन तुमको हाथ पकड़ कर चढाई पर ले जाएगा  तुम गिर जाओगी ''पर बेटी को शक हो गया वो बार -बार फोन करने लगी मैंने कहा ''आप बता दो कि मेरी सहेली है साथ गिरने नहीं देगी'' तब उन्होंने बताया ...मैंने भी हम दोनों के फोटो उनके बच्चों को वहाट्अप पर भेजे साथ ही मैसेज किया कि ''मेरे साथ हैं फिक्र न करे आप लोग''...तब उनको तसल्ली हुई । कान्ता जी ने बताया कि पांचों बच्चे छोटे थे जब उनके पति की हार्ट- अटैक से डैथ हो गई थी बहुत मेहनत से बच्चे पाले वे मॉं ज्वाला जी को बहुत मानती हैं उन्होंने मन्नत मानी थी और मुराद पूरी हुई चारों बेटियों की बहुत अच्छे घरों में शादी हो गई मुंह से मांग लिया एक दो बेटियों को ...बेटे की भी शादी हो चुकी है और उसका बहुत अच्छा जॉब है सारे दामाद, बहू बेटियां बहुत सम्मान करते हैं ...मेरा बार- बार हाथ पकड़ कर कह रही थीं कि ''उषा तुम्हारी वजह से मैं दर्शन कर पाई ''मैंने कहा ''आपकी वजह से मैं कर पाई''...कान्ता जी का जोश और भोलापन बच्चों जैसा था सच ही मुझे उनसे प्यार हो गया ...रास्ते में वो अपनी आप बीती सुनाती रहीं और मॉं का धन्यवाद करती रहीं ..हम दोनों ही प्रभु कृपा को स्मरण करते श्रद्धावनत हो इतने अभिभूत हो चुके थे कि गाड़ी और ड्राइवर की सुविधा भी हमें  भावविभोर करे दे रही थी गाडी़ हमेंअर्जुन के रथ `नन्दीघोष ‘से कम नजर नहीं आ रही थी और सारथी( ड्राइवर) में हमें साक्षात वासुदेव ही दृष्टिगोचर हो रहे थे ...सारथी महोदय की आंखें सड़क पर थीं पर कान हम दोनों माताजीओं पर ही टिके थे वे भी हमें देवी महिमा के बारे में ज्ञान देते रहे  ...हम श्रद्धा और आस्था की मंदाकिनी में डुबकी लगाते ज्वाला जी के दर्शन हेतु प्रस्थान कर चुके थे. 🙏
                                                                                                                क्रमश:
                       



शुक्रवार, 6 जुलाई 2018

" तपोवन ”,सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल-प्रदेश) यात्रा-1

साधना -शिविर


  दस जून से अट्ठारह जून तक होने वाले चिन्मय- मिशन के साधना शिविर  में सम्मिलित होने हेतु मैं और मेरी फ्रैंड्स नलिनी,उषा अग्रवाल, भारती और सरोज गुलाटी शालीमार एक्सप्रेस से नौ जून शाम को बड़े उत्साह-पूर्वक  सवार हुए । हम चारों ने तय किया था कि नलिनी पूड़ी लाएंगी भारती सब्जी और हम अचार व मिठाई ।हमको ये ख्याल था कि ट्रेन अंडरकनेक्टेड होगी तो दूर होने पर भी सब्जी पूड़ी पहुंचा दी जाएगी पर हमारे कम्पार्टमेन्ट दूर थे बिना उतरे हम एक दूसरे तक नहीं पहुंच सकते थे और इतनी देर कहीं भी ट्रेन बीच में नहीं रुकती अब ? अब क्या करें ? भारती और नलिनी साथ थीं पर समस्या हमारे और सरोज के साथ थी सरोज सब्जी ले आई थीं और उषा जी दिल्ली से आई थीं तो दो परांठे आलू के अपने लाई थीं नलिनी फोन कर रही थीं कि कैसे पूड़ी पहुंचाई जाएं हमने कहा परेशान न हों हम ट्रेन की पेन्ट्री से ही मंगा कर खा लेंगे नहीं तो मठरी और अचार मैं ले गई  थी वो खा लेंगे चाय से ।मैं ट्रेन का खाना नहीं खाना चाह रही थी  तभी एक लड़का जो चिप्स बेच रहा था हमने उससे रिक्वेस्ट की तो वो मान गया उसे सीट नम्बर वगैरह दे दिए और एक दो घंटे में उसने नलिनी से लेकर हमें पूडिएं लाकर दीं जब हमने उसे इनाम दिया तो वो मना करने लगा पर मैंने उसे जबर्दस्ती कुछ रुपये दिए । खा पीकर हम लेटे सारी रात खटर -पटर के चलते नींद तो क्या ही आ पाई ...टॉयलेट्स का जो हाल था उसका बयान करना तो मुश्किल ही है ..हां टॉयलेट देख कर हमें वन्दना अवस्थी दुबे  की  याद जरूर आ गईं  अब जैसा वो इसकी हालत का वर्णन करती हैं  वो काफी है मेरे ख्याल से ...सुबह पठानकोट पहुँचे और वहाँ से टैक्सी करके सिद्धबाड़ी (काँगड़ा -हिमाचल प्रदेश) स्थित आश्रम “तपोवन “पहुचे ।
हमें नवनिर्मित साकेत विंग में फर्स्ट-फ्लोर पर रूम एलॉट हुआ था जिसमें चार बैड थे । हमने अपना सामान जमाया  और नहा-धोकर चाय-नाश्ते के लिए डाइनिंग -हॉल में पहुँच गए । पूरे दिन आराम कर सोकर थकान उतारी और शाम को पाइन फ़ॉरेस्ट में वॉक के लिए मैं ,भारती ओर सरोज निकल पड़े । अगले दिन सुबह से ही क्लासेज शुरू हो गईं मान्डूक्योपनिषद , हनुमान चरित, भक्ति , ज्ञान,साधना इत्यादि पर क्लासेज अटैंड कीं...आश्रम का शांत ,आध्यात्मिक एवम् आडम्बर- रहित वातावरण ,मनमोहक सुरम्य प्राकृतिक सुषमा ने तन-मन को एक नई ऊर्जा से भर दिया ,साथ ही प्रिय दोस्तों का साथ , हँसी मज़ाक़ , चुहल और चर्चा से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे हॉस्टल लाइफ़ दुबारा लौट आई...साथ खाना- पीना ,सोना , वॉक करना, क्लासेज अटेंड  करना, सूर्योदय के साथ टैरेस पर बैठ कर साथ चाय पीना ...मैं सबसे देर में उठती बार -बार उठती और वापिस चादर मुंह तक ढंक कर लेट जाती ...सब आवाजें देकर कई बार उठाते तब उठती ...रात में टैरेस पर चाँदनी में बैठ देर रात बातें करते ...चाँद भी हमारी खिलखिल सुन कर ताक-झाँक करता रहता ...वो हमें  और हम उसे देख कर मुस्कुराते ...देर रात गप्पों में मशगूल रहते । सामने धर्मशाला और मैक्लॉइडगंज की झिलमिल करती रोशनियाँ और उसके पीछे गर्व से मस्तक उन्नत करे पर्वत श्रंखलाएँ हमारे अंदर  एक नई शक्ति एवं उर्जा का संचार करतीं । घर-गृहस्थी , जॉब, क्या पकेगा , साफ़-सफ़ाई ,शॉपिंग,न्यूज पेपर, टी.वी.  इत्यादि सभी झंझटों से मुक्त...घंटी बजी मतलब चाय, नाश्ता या खाना लग चुका है और हम अपनी थाली गिलास लेकर उछलते कूदते चल देते । शुद्ध सात्विक सीधा सादा पौष्टिक खाना होता । रात में और सुबह अपने पैसों से चाहें तो गाय का दूध भी ले सकते थे...हम लोगों में  ही कुछ लोग खाना सर्व करते थे...मुझे ये काम बहुत अच्छा लगता था तो प्राय: सेवा के लिए प्रस्तुत हो जाती थी ...किसी - किसी दिन शिविर में से ही कोई लंच या डिनर अपनी तरफ़ से देता तो उस दिन थोड़ा मज़ेदार खाना होता पूड़ी, जलेबी , छोले , , कोफ्ते , कढ़ी , हलुआ आदि भी शामिल रहते उस दिन खाने में ।
 भारती हम सबसे यंग थी तो वो हम तीनों का बहुत ध्यान रखती थी...नलिनी इलैक्ट्रिक केटल लाई थीं तो रूम में ही चाय बना लेते प्राय: ये काम नलिनी या उषा जी ही करतीं मठरी अचार , बिस्किट, चाय और गप्पें .....आहा आनन्द !
कई लोगों से परिचय हुआ विभिन्न प्रांतों के भिन्न शहरों से आए लोग सब आपस में बहुत प्रेम भाव से मिलते खाते पीते । एक दिन वॉक करते मैं और भारती पाइन फ़ॉरेस्ट की मेन रोड छोड़ अंदर चले गए वहाँ पतले से पीले साँप  पर पैर रखने से बचे तो भारती मुझे खींच कर बाहर ले आई तीसरे दिन फिर घुसे अंदर तो फिर दिखा एक साँप  हम भागे और फिर अंदर नहीं गए ।इसी तरह हँसते, गाते,खिलखिलाते , खाते पीते ,एक दूसरे का ध्यान रखते ,ध्यान, साधना करते कब ये आठ दिन निकल गए पता ही नहीं चला ।
                                                                 











                             
                             क्रमश:
                                                           

सोमवार, 2 जुलाई 2018

कस्तूरी



हरसिंगार
जूही,चंपा,चमेली
रात की रानी
महकती है सारी रात
मेरे आंगन में
या शायद...
तकिए या चादर में ?
नींद से लड़ती
चांद-तारों को डपटती
चांदनी से लिपटती
सारी रात
पलटती रही करवट
अकुला कर उठ बैठी
खुद को सूंघा...
अरे !
यह सुगंध तो झर रही थी...
इसी तन के उपवन से
या शायद
मन के प्रांगण से
या शायद
मेरी ही नाभि से...
कहीं दूर कबीर गा रहे हैं
काहे री नलिनी तू कुम्हलानी...!!

बुधवार, 30 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग 1 )





      सब्‍जी लगाकर रोटी का कौर मुंह में रख उसने चबाकर निगलने की कोशिश की, पर तालू से ही सटकर रह गया। पानी के घूँट से उसे भीतर धकेल दूसरा कौर बनाते - बनाते उसका मन अरूचि से भर उठा । आलू-मटर की सब्जी खत्म हो गयी थी और मूली की ही बची थी।

उसे सहसा याद अाया--- जिस दिन मम्‍मी घर में मूली की सब्‍जी बनाती थीं वो चिढ कर खाना ही नहीं खाती थी  चाहे मम्‍मी लाख कहतीं कि उन्‍होंने और भी सब्जियां बनायी हैं। विनय को मूली ही पसंद थी। उसके फायदे वह चट उंगलियों पर गिनवा सकते थे। अवश-सी संयोगिता को सिर्फ सुनना ही नहीं पडता था, हर दूसरे दिन मूली या शलजम की सब्जी बनानी पडती थी।
संयोगिता को सहसा खिसियानी-सी हंसी आ गयी अपनी बेबसी पर। तोंद पर बनियान चढाये आराम से हाथ फिराते, दियासलाई की  तीली से अन्तिम दाढ को मुंह फाडकर कुरेदते विनय ने अधमुंदी  आंखों से उसकी ओर एकटक ताकते तीली सामने कर गौर से देखते हुए पूछा, `क्यों क्या याद आ गया, क्यों हंस रही हो ‘?
वह हडबडा गयी। उसे पता था, जब तक विनय जवाब नहीं पा लेंगे, पूछते जायेंगे।
'क्या बात है आखिर ?'   
'बात क्या है?'
'आखिर पता तो चले ?'
'फिर भी' 
इससे पहले कि यह सिलसिला शुरू होता, वह प्लेट उठाकर चल दी, 'कुछ नहीं काफी देर तक रसोई में  खटर-पटर करती रही। जैसे सभी आम औरतें रात में थके लस्त-पस्त शरीर घसीटती, पसीने, प्याज और मसाले से गंधाती करती है।
कमरे के दरवाजे पर खडे होकर एक पल को दहशत फिर उभरी । पर्दे से झांककर देखा, विनय सो चुके थे। आश्वस्त हाेकर वह धीरे-धीरे कमरे में जाकर आराम-कुर्सी पर पसर गयी। क्या पता यदि विनय जाग रहे होते तो फिर हांक लगाते शायद।
'तुमने बताया नहीं, तुम क्यों हंसी थीं ?'
एक पल को संयोगिता को लगा शायद आज वह यह बर्दाश्त नहीं कर पाती, पर तुरन्त ही वह एक व्यंग्य भरे अाश्चर्य से दग्ध हो उठी कि दस-बारह वर्षों बाद भी आज तक खुद से ऐसे किसी साहस या उत्तेजना की आशा रखती हैं ?
सच ! यह अनुभव उसके लिए एकदम आकस्मिक था और किसी हद तक रोमांचक भी..
                                                                                                                                क्रमश:

मंगलवार, 29 मई 2018

लाल पीली लड़की --(भाग २ )


सोच लेने भर से ही सहमकर उसने खाट की तरफ देखा, पर विनय मजे में छाती पर हाथ बांधे टांगें फैलाये सो रहे थे । गले से मोटे पेट तक और पेट से पैर तक फैली चादर का आरोह-अवरोह देखती रही। तनी हुर्इ चादर पंखे की हवा से लगातार कांप रही थी। 
जाने क्यों उसे बडी जोर की इच्छा हुई कि वह शीशा देखे। डरती-डरती सी वह शीशे के सामने जाकर आंखें बंद कर खडी हो गयी । आंखें खोली तो उसे लगा, वह किसी अजनबी जिस्म को देख रही है। किसी दूसरी औरत के शरीर को।
शीशे की तरफ हाथ बढाकर उसने अपने अक्स को छूना चाहा तो उसकी तर्जनी शीशे के पथरीलेपन से टकराकर अटक गयी। उसे एक क्षण के लिए यह अपनी देह का ही सत्य लगा कि हृदय  में कोई स्पन्दन  न था। न जाने क्यों जब उसने वापस हाथ अपने सीने पर रख धुकधुकी महसूस की तो वह एक अचरज से भर उठी। 
उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे ? बार-बार उठ रहे इस अचरज को कहां छुपा दे ? चकले-बेलन के बीच पीस डालेअचार का इमर्तबान खोल उसमें झोंक दे या फिर दूध में जामन की जगह डाल आराम से सो जाये।
         उसने कितना चाहा, वह सो जाये, परन्तु पैरों में न जाने कैसी हठीली पायजेब पड गयी थी। न चाहने पर भी अवश होकर दृष्टि उठाकर उसने शीशे में खड़ी औरत को देखा।छोटे से हेयरपिन की सहायता से ठोंका गया गुठली सा जूडा। गले की अवश दो उभरी हड्डियां और असहाय सा गले की दोनाें हड्डियों के बीच का अबोध गड्ढा । अचानक उसे ख्याल आया, क्या आज भी मधु उसे देखकर कह सकती है- 'तेरा यह नन्हा सा गड्ढा ही बस इतना प्यारा है कि..... ' शरारत से आंख झपकाती मीनू जैसे कल्पना से भी आंख चुरा कर उड गयी। सहसा उसका ध्यान आंखों पर गया तो वह चौंक पडी। अरे, कब ‍वे लम्बी-घनी बरौनियां झड गयीं ? उसके चेहरे पर इतनी झांइयां कब पडी ? वह कब इतनी निचुड गयी ?
  कॉलेज में भी वह कभी मेकअप करके नहीं जाती थी। उसे पता था, उसके रूप में वह कुछ है जो उसे औरों से अलग खड़ा कर हर क्षण नवीनता से भर देता है । मनु उसके कान पर झुक कर किस कदर गुनगुनी आवाज में मदालस भ्रमर-सा गुनगुनाता था तो वह नखशिखान्त लाल पड जाती थी। उसे लगा अब तक की आधी उम्र उसने लाल पड़ कर लाज की गुडिया बनने में काटी और अब बाकी उम्र वह हल्दी घोलती पीली ही पडती रहेगी।
  उस दिन वह पढने के लिए अपनी मेज पर गयी भी, तो लिफाफा उत्सुकता से खोल एक फोटो देख अचकचा गयी थी। फिर सहसा कुछ कौंध गया। पलटकर देखा, फोटो पर 'इलाहबाद' के फोटो स्टूडियो की छाप थी। उसे समझते देर न लगी, कई दिनों  से घर में 'इलाहाबाद वाले लडके' के बारे में उसके कानों में पडता रहा था। 
  मम्मी ने उसकी राय जाननी चाही होगी। क्रोध व झुंझलाहट में उसकी मुट्ठियां भिंच गयीं। क्या दोनों बहनें या मम्मी कोई भी उसके उसके हाथ में  यह फोटो देकर साफ बात नहीं कर सकती थीं  ? 
  धुंधली दृष्टि में भी परख ली गयी कपडों की कीमती सिलाई से  उधार मांगी स्मार्टनेस उसे तिलमिला गयी थी। छोटी आंखें, भरे पुष्ट गाल, मंझोला-कद और मांसल होठों का वह सांवला सा नजर आने वाला व्यक्तित्व निश्चय ही व्यापारी होगा। 
  उसने मुक्के मार-मारकर तकिये को धुन डाला। उसका जी चाहा वह तानपूरे से सिर फोड़ ले। तबलों को टन्न से सडकपर दे मारे। ऑयल-कलर्स के सारे ट्यूब निचोडकर उन्हें खा जाये। आर्ट पेपर्स के टुकडे-टुकडे कर दे। कैनवास जला दे, पर वह ऐसा नहीं कर पायी। 
  दूसरे दिन मम्मी उसे सुना-सुनाकर चड्ढा आंटी से कह रही थीं। 'लाखों रूपया है, पढे-लिखे सभ्य लोग हैं। लडका भी ठीक और फिर लडके की खूबसूरती देखता ही कौन है, गुण देखते हैं।'
  'मतलब संयोगिता को पसन्द है लडका ?' उन्होंने थूक सुडक कर बडी बुजुर्गी से मजा लेकर पूंछा। 
  'अरे हमने पसन्द किया था क्या ? हमारे मां-बाप ने पसन्द किया था। मां-बाप भला ही करते हैं।' दीदी जल्दी-जल्दी धूप में चटाई  पर पसरी चैन से सलाइयां चलाये जा रही थीं। 
  'सो तो है ही ? पर आजकल की लडकियाें को तो आप जानती ही हैं, दिखा लेना ठीक रहता है बहन जी ।' 
हमारी संयोगिता ऐसी नहीं है, बहुत ही सीधी है। बेचारी को यह तक तो पता नहीं ठीक से कि उसकी उम्र कितनी है, वह क्या जांचेगी?' 
  एक तो उसे मम्मी, दीदी पर गुस्सा आ रहा था जिन्हें चड्ढा आंटी ही मिली ‍थीं बताने काे, जो मोहल्ले भर में अभी पूर आएंगी  दूसरे जबरदस्ती लादी गयी 'समझदारी' के बोझ के नीचे लद्दू घोडे-सी वह पिस कर रह गयी।
  चड्ढा आंटी को तो वह जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाती थी कभी। थूक सुडक-सुडक कर हर बात के बीच में फूहड तरीके से मतलब-मतलब कहती बातें करतीं तो लगता 'दो-एकम -दो' का पहाडा रट रही हैं । 
  बहुत बार दीदी ने घुमा-फिरा कर उससे फोटो के बारे में राय जाननी चाही, परन्तु वह मौन ही रही । न समझने का ढोंग कर तटस्थ बनी रही। 
  उसे लगा काश वह अभी, इसी क्षण से कई सालों  को सो जाये और चाराें तरफ घनी कंटीली झाडियां उग आयें , रास्ते पथरीले हो जायें और वह कई सालों  तक न जागे। तब उसकी कल्पना का राजकुमार झाडियां काटता आये और उसे जगा ले। अगले रोज कॉलेज में मीनू के सामने बहुत देर चुप रहने के बाद वह फिर खोयी-खोयी सी बोली थी, 'कभी-कभी' मैं भी सोचती हूं मेरी इतनी उम्र, इतनी शिक्षा सब व्यर्थ है, यदि मैं खुद की अनाथ मांगों को पूरा नहीं कर सकती। मुझे तो हर तरफ घोर अंधेरा ही दिखाई देता  है.....' कैसी विवशता थी वह, भोगते जाना अनाम पीडाओं को और फिर तडपना। 
  उसने किसी से कोई शिकायत  नहीं की, परन्तु बहनों को, पडोसियों और नातेदारनियों, यहां तक कि धोबिन, महरी  तक को यह देखकर कि वह विदा में जरा भी नहीं रोयी, उसने घूंघट नहीं किया, बडा ही सदमा लगा। पर दरवाजे पर आरता करने से पहले ही सास ने जब हाथ बढाकर कठोर चेहरा बना आंचल खींच कर मुख ढांप दिया था, तो वह कुछ भी नहीं कर पायी थी। फिर, कुछ दिन बाद तो उसे यह बडा ही मजेदार लगा था कि लम्बा घूंघट काढ कर सारी दुनिया से अलग एक पर्दे में अपनी आंखों के सारे रंग  छुपा लो। 

   जब वह पहली बार विनय के पत्र का उत्तर लिखने बैठी थी, तो घंटों कोशिश करने पर भी एक शब्द तक नहीं लिख सकी थी। सस्ती, रोमांटिक, उपाधियों से भरी उन पढ-पढकर चुरायी गयी पंक्तियों का क्या उत्तर दे, वह समझ नहीं पायी।

लाल पीली लड़की --(भाग 3 समापन किश्त)




 खिड़की  से उडते मेघों को देख मेघदूत के कई श्लोकों को याद कर वह 'यक्षप्रिया' की भांति विह्वल हो जाने के लिए सिर्फ एक बार ही मचली, फिर कागज की चिन्दी-चिन्दी कर उड़ा दी थीं। कुछ सोचकर फिर मीनू को लिखने बैठी-आज मन छटपटाता है मीनू काश मैं पुरूष होती ! बचपन में कभी-कभी कल्पना करती कि यदि भगवान ने कहीं हमें लडका बनाया होता तो ? फिर हम सोचते नहीं-नहीं  लडकियों के मजे हैं। मजे में घर रहती हैं, खाती हैं, पीती हैं। न कमाना, न धमाना । सजी-धजी बढिया इन्द्रधनुषी साडियां पहनों, सपने देखो, सितारों -से जेवर पहनों और कोमलता-कोमलता में मजे से रही। लडकों को तो न जेवर मिलते हैं, न बढिया शोख रंग । वे ही उबाऊ  सिलेटी ,बादामी रंग। सारे दिन जी-तोड कर कमाओ और धूल फांकते फिरो। न बाबा, लडका होना बडा बुरा है। 
  परन्तु आज लगता है, लडकी होना बहुत बडा अभिशाप है। पीडाएं झेलना, झेल-झेल कर कर्कश-कठोर हो जाना, यही भाग्य में है उसके। लडकी के बड़े सुन्दर पंख होते हैं, पर उड़ने के लिए नहीं, छटपटाने के लिए।
  कभी सोचती हूं , क्या एक दिन मैं भी और औरतों की तरह महिला-मण्डली में बैठकर दूसरों के छिद्रान्वेषण में दिन बिताया करूंगी ? दाेनों समय जानवरों की तरह पेट ठूंसकर क्रोशिया या सिलाइयां चलाती, झुंझलाती जीवन बिता सकूंगी ?जाने कितना अनमोल समय मुझे बेमोल-सा करता छूकर गुजर जाता है।
रंग -ब्रश सब उसने मीनू को दे दिये थे और 'ऊपर वाली आंटी' के पास गयी थी।
'क्यों संयोगिता कैसी हो  भई ? तुम्हारे कैनवास तो मैं मंगवा नहीं पायी, कोई  गया ही नहीं आगरा । अबकी बार मंगवा दूंगी। अभी तो तुम ससुराल नहीं जा रही हो न ?
  'जाने का तो कुछ पता नहीं अभी आंटी, पर आप कैनवास मत मंगवाइएगा अभी।' 
 'कोई नई  पेटिंग बना रही हो आजकल? 
 'नहीं, कोई भी  नहीं बना सकी ।' उसने आंख चुरा लीं ।
 'अच्छा आंटी चलूं, देर हो रही है।' 
 'अच्छा, जाओ तो मिलकर जाना। इतनी कमजोर क्यों होती जा रही हो तुम? 
  उसे बड़ी उलझन हुई  नजरों ही में खोद-खोद कर सब जानें क्या जानना चाहते हैं? 
   टी ०वी ० से देख कर, तो कभी और ढेरों कुकरी-बुक्स तथा मेगजीन से पढकर चौके में ठेठ गृहस्थिन के अन्दाज में कमर में आंचल खोंस रोज ही कुछ न कुछ बनाती हुई उसे  देख मां बहुत ही खुश हुई थीं क्यों कि उनके  अनुसार 'मरद-जात' बढिया भाेजन से ही खुश की जा सकती है। इस दृष्टि से विनय की जाति मां के अनुसार खरी उतरती थी। सोचकवह मुस्कुरा पड़ी थी। 
  परन्तु ससुराल में जाकर वे पनीर के कोफ्ते, बिरयानी, रोगन -जोश, शामी कबाब, स्पेनिश-राइस,चाइनीज़ ,इटैलियन रेसिपीज  सब डायरी तक ही सीमित रह गयी  थीं, पन्द्रह-बीस लोगों का खाना-नाश्ता तैयार करते-करते  ही वह इतनी अधमरी हो जाती कि सूखी सब्जी, दाल, रसेदार सब्जी, कढी, रायता, बडियों से आगे कुछ और की सीमा वह असम्भव मान बैठी थी। चाइनीज  बनाने की एक बार इच्छा हाेने पर जब तामझाम जुड़ाने लगी  तो सबके सवालोँ और उत्सुकता भरे सवालों से ही पस्त  हो गई ऊपर से किसी को खास पसंद भी नहीं आया। छोटी-छाेटी कलात्मक, कागजी, हल्की, मुलायम अपनी बनायी रोटियों पर उसे कितना नाज था। पर इतनी 'भारी-रसोई में  यदि तीन-तीन बार परथन लगाकर वह फूल-सा बेलन नजाकत से घुमाती तो क्या इतने सारे लोगों को एक समय की भी रोटी शाम तक दे पाती।
  एक बार सब्‍जी के लिए भिंडी काटते समय मम्‍मी बोली थीं, 'ऐसे काटी जाती है सब्जी? कोई छोटा टुकडा तो कोई बडा?ऐसी कला से क्‍या फायदा कि दो चार पेन्टिंग बनाकर दीवार पर लीं, और चीजों में भी कलात्‍मक-रूचि होनी चाहिए '! 
  लेकिन कहां रह पायी है अब कलात्‍मक अभिरूचि ? कमरे की सजावट में चाहे वह कितनी ही कलात्‍मकता उडेलती, कभी जेठानी का बिन्‍नी पर्दे को नन्‍ही घण्टियां नोच बिल्‍ली की पूंछ में बांध देता, तो कभी देवरानी की टुन्‍नी फूलदान से फूल निकाल अपनी मैडम को पेश कर आती । 
  खुद विनय ही कौन कम थे ? सारे कमरे में सामान छितरा देते, कभी शेविंग का, तो कभी कपडों का । ताम -झाम  समेटती वह थकान से पस्त, गुजली -मुजली  चादर पर ही निढाल होकर सो जाती ।
  कई बार  उसने जीवन को जीना चाहा पूरी आस्था और पकड़ से । कई बार चाहा, वह अपने हाथों अपने आप, अपने चारों ओर का बिखरापन, अस्त-व्यस्तता कुछ सुव्यस्थित करे, तब बडे जोर-शोर से कपडों की अलमारी या किताबों से शुरुआत करती और अन्त होता जूते-चप्पलों की कतार पर और बस इसके आगे सब ठंडा ।
  अपने से थक कर, पस्त होकर जब वह बाहर देखती है तो कई बार आश्चर्य- चकित हो उठती है। सब ओर, सब कुछ कितना क्षणिक है । कोई  एक दिन मरा, दूसरे दिन, तीसरे दिन तक मातम रहा और फिर सब सामान्य, वे ही संवरे- संभले, व्यस्त लोग ! 
  फिर कैसे उसके जीवन में ही सब बदसूरती, ऊब शाश्वत सत्य  होकर कुण्डली मार बैठ गयी है? शुरू - शुरू में उसे अपना आप और भी बेढंगा, अनचाहा, अनचीह्ना लगता था। अब तो फिर भी काफी अभ्यस्त हो गयी थी। 
  वो  भी प्लेटें अब साफ तौलिये से साफ करने की अपेक्षा कूल्हे पर साड़ी से रगड कर या पल्ले से चम्मच पोंछ लेने में सहूलियत महसूस करने लगी थी ।
  अब उसे पड़ोस की औरतें इतनी फूहड नहीं लगती थीं ।दो-दो दिन तक चोटी न होने पर भी समय से सबको खाना खिला देने पर सन्तोष हो जाता है। उसे पता  होता था जेठानियों की शातिर चालों का, अक्सर सास के कानों में मंत्र फूंके जाते थे यह और बात है कि उसका असर नहीं होता था।
  फिर भी वह ऊपर से शांत, सहज थी। उसे लगता था जरूरत के हिसाब से उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमताएं रबड़ की भांति खिंच जाती हैं ।  वह आश्वस्त थी महान कलाकारों, दार्शनिकों कवियों का आदर्श, उनके पद-चिह्नों पर चलने का स्वप्न सब कुछ उसके लिए अतीत की झक हो गये थे। 
  उसकी कोमल, सूक्ष्म अनुभूतियां मर गयी थीं। व्यक्तित्व की पर्तों से कविताओं का जादू उतर गया था, स्वप्नों के पंख नुच गये थे पर मां सन्तुष्ट थीं। सुबह-शाम पूजा घर में महाशान्ति से  माला जपतीं  चन्दन घिसतीं मुक्ति की साधना में लीन थीं। पापा जिम्मेदारियों से मुक्त थे। सास को आदर्श बहु मिली थी और विनय को दो स्वस्थ बच्चों वाली सुघड, सहनशील पत्नी । सब ही तो सुखी थे। 
  लम्बी सांस लेकर वह बच्चों के कमरे में गयी। मनीषा पढते-पढते छाती पर किताब रखे-रखे ही सो गयी थी। लैम्प जल रहा था। उसने किताब उठाकर देखी । सिंड्रेला का पाठ खुला हुआ था। सोती हुई नन्हीं -सुकुमार बिटिया को देख वह करूणा विगलित हो उठी, जिसकी नन्हीं-नन्हीं पलकों पर सिंड्रेला  बनने का सपना महक रहा था। होंठ नाजुक-स्पन्दन से मुस्कुराते थोडे से खुल गये थे। रूआंसे होकर उसने सोचा, वह उसे जगा दे ताकि वह यह सपना भूल कर कोई दूसरा  सपना देखने लगे। कोई वास्तविक  या ठोस सपना । पर फिर उसे लगा वह सपनों के साथ दौड़ नहीं सकती। वे सपने जो पहले आगे दौडते हैं और फिर सहसा बहुत पीछे छूट जाते हैं ।
  हाथ में थामी किताब का पन्ना न जाने कब उसके हाथों-मसल कर अधफटा हो गया था। किताब रखकर उसने बहुत करूणा से बेटी का  माथा चूम लैंप  बुझा दिया और सपनों को उसकी पलकों पर छोड़ कमरे से बाहर निकल आयी।
 उसे लगा आज शायद वह बहुत दिनों बाद सोती राजकुमारी, संयोगिता या सिंड्रेला  का प्यारा सा सपना देखेगी। कुछ भयभीत सी कुछ उत्तेजित सी वह जाकर अपने बैड पर लेट गयी।  बगल से विनय के खर्राटों को सुनती संयोगिता न जाने कब सो गयी।
                                                       समाप्त




                                         यह मेरी  कहानी 1979 में सर्वप्रथम सारिका  में छपी थी |         

                                  फिर '' कथा -वर्ष1980 '' के लिए डॉ .देवेश ठाकुर द्वारा  चुनी गई 

                                         पंजाबी तथा उर्दू भाषा में भी छप चुकी है 

                                        आज फिर से ब्लॉग पर प्रस्तुत कर रही हूँ 

मुँहबोले रिश्ते

            मुझे मुँहबोले रिश्तों से बहुत डर लगता है।  जब भी कोई मुझे बेटी या बहन बोलता है तो उस मुंहबोले भाई या माँ, पिता से कतरा कर पीछे स...