ताना बाना

मन की उधेड़बुन से उभरे विचारों को जब शब्द मिले

तो कुछ सिलवटें खुल गईं और कविता में ढल गईं

और जब शब्दों से भी मन भटका

तो रेखाएं उभरीं और

रेखांकन में ढल गईं...

इन्हीं दोनों की जुगलबन्दी से बना है ये

ताना- बाना

यहां मैं और मेरा समय

साथ-साथ बहते हैं

बुधवार, 6 जनवरी 2021

असुर

 



बहुत मुश्किल था 

एकदम नामुमकिन 

वैतरणी को पार करना 

पद्म- पुष्पों के चप्पुओं से

उन चतुर , घात लगाए, तेजाबी

हिंसक जन्तुओं के आघातों से बच पाना...!


हताश- निराश हो 

मैंने आह्वान किया दैत्यों का

हे असुरों विराजो

थोड़ा सा गरल

थोड़ी दानवता उधार दो मुझे 

वर्ना नहीं बचेगा मेरा अस्तित्व !


वे खुश हुए

तुरन्त आत्मसात किया

अपने दीर्घ नखों और पैने दांतों को

मुझमें उतार दिया 

परास्त कर हर बाधा 

बहुत आसानी से

पार उतर आई हूँ मैं !


अब...

मुझे आगे की यात्रा पर जाना है

कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

हे असुरों आओ

जा न सकूँगी आगे 

तुम्हारी इन अमानतों सहित

ले लो वापिस ये नख,ये तीक्ष्ण दन्त

ये आर - पार चीरती कटार

मुक्त करो इस दानवता से

पर नदारद हैं असुर !


ओह ! नहीं जानती थी

जितना मुमकिन है 

असुरों का आना

डेरा डाल देना अन्तस में

उतना ही नामुमकिन है 

उनका फिर वापिस जाना

मुक्त कर देना ...!


बैठी हूँ तट पर सर्वांग भीगी हुई

हाथ जोड़ कर रही हूँ आह्वान पुन:-पुन:

आओ हे असुरों आओ

मुक्त करो

आओ......मुक्त करो मुझे

परन्तु....!

                  — उषा किरण

फोटो: Pinterest 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

चाह



मत देना मुझे

कभी  भी 

इतनी ऊँचाई 

कि गुरुर में  गर्दन

अकड़ जाए 

और सुरुर में भाल

झुके न कहीं,

नाक उठा दिखाऊँ 

हरेक को 

उंगली की सीध में

बस अपने ही फलक 


हरेक बात के मायने 

अपनी ही 

डिक्शनरी में तलाशूं,

हरेक का कद 

खुद से बौना लगे

हरेक ऊँचाइयों को

खुद से ही मापने लगूँ


दिखे न मुझे कोई बड़ा 

अपने सिवा,

सबका खुदा 

खुद को ही मान

मैं  खुद को  ही सजदे

करने लगूँ...

नहीं ! मत देना मुझे 

इतनी ऊँचाई


ऊँचे पर्बत से 

जहाँ गिरता हो झरना

उसी अतल गहराई में 

नदिया के किनारे

बना देना मुझे 

बस एक अदने से 

पौधे पर अधखिला

इक नन्हा सा  जंगली फूल....!!


                    — उषा किरण 🍁🍃🌷


चित्र; Pinterest से साभार

बुधवार, 16 दिसंबर 2020

" तुम कौन “




दूर हटो तुम सब

यदि नहीं भाता ,

मेरा तरीका तुमको

मत सिखाओ मुझे

ये करो

ये न करो

ऐसे बोलो

ऐसा न बोलो

वहाँ जाओ

यहाँ मत जाओ

ये देखो

वो मत देखो

इससे बोलो

उससे मत बोलो

ये खाओ

वो न खाओ

ये लिखो

ये न लिखो

शऊर नहीं 

ये क्या बेहूदगी

उम्र का लिहाज़ नहीं 

बड़ी उड़ रहीं 

बड़ी बन रहीं 

जाने क्या गम हैं

जाने किस ख़ुशी में 

उड़ी जा रहीं

बाल तो देखो

झुर्री आ गईं 

बुद्धि न आई....

हाँ तो नहीं आई 

क्या करें तो ?

ये मेरी जिंदगी 

तुम कौन ?

सबकी पुड़िया बना 

रखो न अपनी जेब में

और हटो एक तरफ

आने दो जरा

कुछ ताजी हवा 

कुछ खुशबू

सतरंगी किरणें

कुछ उजास

भरने दो लम्बी साँस

चन्द दिन

कुछ पंख,

ओस से भीगे  

ये जो हैं न 

मेरी मुट्ठी में

जी लेने दो मुझे

अब उन्मुक्त....!!

                —उषा किरण

मंगलवार, 8 दिसंबर 2020

जेब



दो गज कपड़ा लेकर

सिलवा लेना 

बहुत सी जेबें 

भर लेना उसमें फिर

अपनी पद- प्रतिष्ठा 

मैडल-मालाएं

मेज- कुर्सी 

कोठी-कार

किताबें-फाइलें

बैंक- बैलेंस

नाते- रिश्ते

बोल-बातें

कपड़े- लत्ते

खाने-पीने

गाने-बजाने

जेवर- कपड़े 

चाबी-लॉकर

तेरा- मेरा

गर्व-गुरूर

और.....

अपना  "मैं “भी

तो क्या हुआ

जो आज तक

कोई भी

नहीं ले जा पाया

साथ कफन

शायद 

तुम ले जा सको...!!

                         — उषा किरण 


#सोया_मनवा_जाग_जरा.......

फोटो; Pinterest से साभार

रविवार, 6 दिसंबर 2020

पुस्तक - समीक्षा (ताना-बाना)


                           

 सुप्रसिद्ध ब्लॉगर एवम् सम्वेदनशील लेखिका आदरणीय Sangeeta Swarup जी को कौन नहीं जानता ! उन्होंने ताना-बाना पढ़ कर "शाह टाइम्स “ पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की हैं ! बहुत आभार आपका और संपादक शाहिद मिर्जा जी का भी...देखिए वे क्या लिखती हैं-

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शाह टाइम्स के संपादक शाहिद मिर्ज़ा जी का हार्दिक धन्यवाद ।


पुस्तक - परिचय --

ताना - बाना  ( डॉ0 उषा किरण ) 


यूँ तो उषा जी की ताना बाना पर बहुत समृद्ध पाठकों और लेखकों की प्रतिक्रिया आ चुकी है फिर भी हर पाठक का अपना अलग दृष्टिकोण होता है इसलिए मैं भी एक सामान्य पाठक की हैसियत से इस पुस्तक और इस पुस्तक की लेखिका पर अपने विचार रखना चाहूँगी ।

  हिंदी साहित्य के आसमान में उषा किरण एक ऐसा नाम जो उषा की किरण की तरह ही दैदीप्यमान हो रहा है । यूँ तो हर क्षेत्र में ही अपने अपने मठ और मठाधीश हुआ करते हैं जो नए लोगों को बामुश्किल आगे बढ़ने में सहायक होते हैं लेकिन जो इन सबकी परवाह न कर अपनी पगडंडी पकड़ अपना रास्ता बनाता चले वो निश्चित ही अपनी मंज़िल पर पहुँचने में सक्षम होता है । और यह निश्चय डॉ ० उषा किरण के व्यक्तित्व में झलकता है । डॉक्टर उषा किरण  गद्य और काव्य लेखन, दोनो में ही सिद्धहस्त है ।कहानियाँ ऐसे बुनती हैं कि लगता है कि घटनाएँ सब आंखों के सामने घटित हो रही हैं ।लेकिन इस समय केवल इनके काव्य संग्रह  ताना -  बाना पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं । यह पुस्तक मुझे उषा जी के हाथों प्रेम सहित भेंट में मिली ।  यह संग्रह इतने खूबसूरत कलेवर में है कि कुछ देर तो मैं पुस्तक के सौंदर्य को ही देखती रह गयी । इस पुस्तक को इस रूप में प्रस्तुत करने में जिन लोगों का सहयोग मिला वह सब बधाई के पात्र हैं ।यह काव्य संग्रह शिवना प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है । शिवना प्रकाशन को बधाई ।

इस पुस्तक में केवल काव्य ही संग्रहित नहीं वरन चित्र  भी समाहित है । हर रचना के साथ उन भावों को समेटे उसके लिए एक चित्र देख यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि डॉक्टर उषा किरण  में  बेहतरीन  कवयित्री और उम्दा चित्रकार का संगम है । जैसे जैसे उनका ताना बाना पढ़ती गयी उनके भावों की अभिव्यक्ति से अभिभूत होती गयी । हर रचना में जैसे सहज सरल भाषा में अपने भावों को ज्यों का त्यों उड़ेल दिया गया हो । उनकी  कविताएँ उनके आस पास के लोगों , उनकी स्मृतियों ,समाज में घटित घटनाओं , व्यवस्थाओं पर आधारित हैं । 


      इस काव्य संग्रह में हर तरह की कविता का समावेश है । कुछ क्षणिकाएँ हैं जो जीवन दर्शन को कहती प्रतीत होती हैं -

हमारी बातों की उँगलियाँ 

देखो न

बुनती हैं कितने वितान 

*********

सोच की सलाइयों को 

आदत है बुनने की 

रुकती ही नहीं ।


इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह अहसास होता है कि कवयित्री  अपने परिवार और हर रिश्ते के प्रति सहज सरल निष्ठावान हैं ।अपनी काव्य यात्रा में उन्होंने हर रिश्ते को संजो लिया है । इनकी रचनाओं की ख़ासियत है कि जैसा जिसके लिए मन से महसूस किया वैसा ही कागज़ पर अंकित कर दिया । 

माँ के लिए लिखती हैं - 

सारे दिन खटपट करतीं

लस्त पस्त हो 

जब झुंझला जातीं

तब.....

तुम कहतीं - एक दिन 

ऐसे ही मर जाऊँगी ... 


आज स्वयं माँ बन वही सब याद कर रही हैं । उनकी कविताओं में हर रिश्ता अपनी झलक दिखला रहा है । उनकी स्मृतियों में सब सिमटा  हुआ है  । मुझे उनकी लिखी कविता "राखी" विशेष आकर्षित करती है  जिसमें उस भाई से निवेदन कर रही हैं जो इस संसार से विदा ले चुका है ।अपने दर्द को छिपा दुनियादारी निबाह कर अपने मन की बात कही है ,---


मना कर उत्सव पर्व 

लौट गए हैं सब 

अपने अपने घर .....

......

तारों की छांव में 

विशाल गगन तले

खड़ी हूँ बाहें फैलाये.....

......

अपनी कलाई बढ़ाओ तो 

भैया । 


इस पुस्तक के माध्यम से जान पाते हैं कि उनके लिए हर रिश्ता बहुत अज़ीज़ है ।फिर चाहे वो पिता को हो या पति का , बच्चों का हो या फिर दोस्ती का । लेकिन जब बात स्वयं की हो तो  अपना ही परिचय दूसरों से मांगती हैं । क्यों कि उनके अंदर तो एक धमाचौकड़ी करती बच्ची भी है तो ख्वाब बुनती युवती भी । 

उनकी सोच के ताने बाने हर समय और हर जगह चलते रहते हैं । पर्यटन के लिए एतिहासिक स्थलों पर वहाँ की इमारतों से भी संवाद स्थापित कर लेती हैं - 


सुनी हैं कान लगा कर 

उन सर्द, तप्त दीवारों पे

दफन हुईं वे

पथरीली धड़कने .... 


जहाँ उनका हृदय कोमल भावनाओं से भरा हुआ है वहाँ कहीं अत्याचार या किसी का शोषण उनको आक्रोशित भी कर देता है ।बाह्य जगत में होने वाले सामाजिक सरोकार से भी सहज ही जुड़ जातीं हैं । ऐसी ही कुछ कविताएँ  स्त्री के प्रति किये गए अत्याचार के विरुद्ध बिगुल फूँकने का काम कर रही हैं --


औरत ! सुनो, बात समझो 

इससे पहले कि बहती पीड़ाओं के कुंड में डूब जाओ 

इससे पहले कि सीने जी आग राख कर दे तुम्हें

पहला पत्थर तो उठाना होगा तुमको ही ...

**********

 जो अत्याचार सह चुप रहतीं हैं उन औरतों को व्यंग्यात्मक शैली में लताड़ा भी है -


चुप रहो 

खामोश रहो 

सभ्य औरतें , चुप रहती हैं । 

********** 

उन स्त्रियों पर करारा प्रहार है जो पुत्रों द्वारा किये गए कुकर्मों पर पर्दा डालती हैं --


क्यों नहीं दी पहली सज़ा तब 

जब दहलीज़ के भीतर 

दी थी औरत को पहली गाली ? 

.............उठो गांधारी 

अपनी आँखों से 

अब तो पट्टी खोलो ।

*********


इस काव्य -  संग्रह की एक बात विशेष रूप से प्रभावित करती है कि डॉ 0 उषा किरण कहीं भी निराशा से ग्रसित नहीं हैं । सकारात्मकता ही उनकी ऊर्जा है । "मुक्ति " कविता में सच ही मुक्ति का मार्ग खोज लिया है । हिसाब किताब का हर पन्ना फाड़ मुक्त हो जाना चाहती हैं ।  तो दूसरी ओर स्वयं के  हर बंधन को  हर तरह से काट दिया है और उन्मुक्त हो ज़िन्दगी जी रही हैं -

इन दिनों 

बहुत बिगड़ गयी हूँ मैं 

अलगनी से उतारे 

कपड़ों के बीच

खेलने लग जाती हूँ घंटों 

कैंडी क्रश ...

झांकते रहते हैं ठाकुर जी 

पूजा घर से 

स्नान - भोग के लिए ...


इतनी जीवंत कविता पढ़ पाठक भी ऊर्जावान हो उठता है और बरबस ही उसके  चेहरे पर एक स्मित की रेखा खिंच जाती है ।  कहीं खिली धूप से बात करती हैं  तो कहीं  एक टुकड़ा आसमाँ अपनी पिटारी में रख लेना चाहती हैं । यूँ तो बहुत सी कविताओं को यहाँ उध्दृत किया जा सकता है लेकिन पाठक स्वयं ही कविताओं को पढ़ अनुभव करें और पुस्तक का आनंद लें । 

ताना -  बाना अलग अलग अनुभव का पिटारा है । जिसमें कवयित्री ने शब्दों को ताना है और अपने भावों के बाने से कविताओं को बुना है । पुस्तक को पढ़ते हुए पाठक सहजता से लेखिका के भावों के साथ बहता चला जाता है ।साथ ही हर कविता के साथ जो रेखांकन है उसमें खो जाता है । 

कुल मिला कर यह काव्य संग्रह संग्रहणीय है । डॉक्टर उषा किरण को मेरी हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ । उनके द्वारा लिखी और पुस्तकों का  इंतज़ार रहेगा । 


   

ताना - बाना 

डॉ0 उषा किरण 

ISBN : 978-93-87310-71-1

मूल्य - ₹ - 450/

शिवना प्रकाशन ।


पुस्तक का लिंक-


https://www.amazon.in/dp/B083V21F3G


http://geet7553.blogspot.com/2020/10/0.html?m=1





मंगलवार, 17 नवंबर 2020

खिलाड़ी



रे खिलाड़ी 

ये कैसी बिसात 

ये कैसी बाजी..?


तन का तेल 

रूह की बाती 

सब कुछ जला

सब निछावर कर

औरतें हरती है तमस

लाती है उजास

और उस उजास में 

देखभाल कर

तुम बिछाते हो

बिसात !


बिछी बिसात पर 

बिठाती हैं वे 

पूरे दिल से

लूडो की गोटियाँ 

सब रंग की

लाल, पीली, नीली, हरी

भाग्य की डिब्बी में डाल

टिकटिकाती रहती है 

पासा  ताउम्र !


तीन- दो- पाँच

या छै: पाकर ही

रहती है खूब मगन 

और चतुर - सुजान

मंजे खिलाड़ी 

तुम बिठाते हो

उसी बिसात पर 

गोटियाँ शतरंजी

खेलते हो चालें शातिर...!


वो जान ही नहीं पाती 

इस भेद को

साज़िशों के तहत

एक- एक कर

उसकी सारी गोटियाँ

पीट दी जाती हैं !


प्यार के नाम पर 

उसके हिस्से आते हैं

जाने कितने भ्रम 

कितने झूठ 

कुछ धूप

और कुछ घुप्प अँधेरे !


काँच पर चमकते 

सतरंगी आभास को 

हर्षित हो

इन्द्रधनुष जान 

आँजती है आँखों में !


शह और मात के बीच 

फंसी औरतें

हाशियों पर बैठी

पाले रहती हैं 

जाने कितने भ्रम 

अनगिनत ...!!

                           - उषा किरण


फोटो . पिन्टरेस्ट से साभार

गुरुवार, 12 नवंबर 2020

बेटी का पिता





तेरे नन्हें पावों की रुनझुन से 

झंकारित

तेरी हथेलियों के बूटों से 

अलंकृत

तेरी बातों की गुनगुन से 

गुँजारित

तेरे पहने रंगों से 

झिलमिल

और तेरे हाथों की

चूड़ियों से खनकता है

मेरा घर - आँगन

आँगन के नीम पर झूलते-झूमते

जोर से खिलखिलाती है

और ऊंचा पापा

और ऊँचा

मैं लगा देता हूँ 

पूरा जोर अपनी बाजुओं का

अपनी हसरतों का

चाहता हूँ तू हाथ बढ़ा कर

तोड़ लाए अपना इन्द्रधनुष 

पर कहीं मन में सहम जाता हूँ मैं

जब देखता हूँ आकाश में झपटते

गिद्धों और चील कौओं को

हाथों का जोर 

और मन का उत्साह थक जाता है

मैं चाहता तो हूँ  तेरे हौसलों को 

परवाज देना

पर मेरे हाथ इतने भी लम्बे  नहीं 

सुन मेरी बच्ची 

तुझे खुद बनना होगा 

अपना शक्ति -पुँज

गढ़ना होगा स्वयम् 

अपना रक्षा- कवच

और बढ़ानी होगी खुद अपनी पींगें

मैं तो हूँ न साथ सदा 

बन कर तेरा

धरती और आकाश 

फिर बढ़ाना हाथ और तोड़ लाना 

फलक से चमकते सितारे

और सूरज, चाँद

सारे के सारे.....!!!


                       — उषा किरण

              फोटो : पिन्टरेस्ट के सौजन्य से

हीरामंडी मेरे चश्मे से😎

           तवायफों पर बनी पाकीजा, उमरावजान, गंगूबाई और  हीरामंडी तीनों फिल्म व वेबसीरीज़ की आपस में तुलना नहीं हो सकती। इनको देखकर जो भाव मन...